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सद्गुरु से बंगलुरु तक

मन माने न  ------------ घर में रहो तो बाहर जाने का मन होता है और बाहर जाओ तो घर लौटने का मन करता है। ये हमारा मन है जो कहीं टिकता ही नहीं है। गौर करें तो हम लालची नहीं हैं, हमारा मन लालची है। जो उपलब्ध है उससे हमारा मन उससे संतुष्ट नहीं रहता, 'कुछ नया, कुछ और' की रट निरंतर गूँजती रहती है। हम सबके घर में अत्यंत स्वादिष्ट भोजन बनता है, चाहे लौकी की सब्जी बनी हो, अच्छी लगती है लेकिन कभी-कभी बाहर किसी होटल में जाकर कुछ 'और' खाने का भी मन करता है। तो, प्रोग्राम बनाओ, सजो-सँवरो, पर्स चेक करो, वाहन को पोछो और पेट्रोल भराओ, सड़क में भीड़-भाड़ का सीना चीरते हुए रेस्तरां पहुँचो।  रेस्तरां पहुँचकर 'वेटिंग' में सावधान की मुद्रा में खड़े रहो, किसी के उठकर जाने के बाद खाली हुई टेबल से जूठा उठाते और उसे पोछते कर्मचारी पर नज़र रखो, कुर्सियाँ खिसका कर बैठो।  आर्डर लेने वाले बेयरा को आँखों के माध्यम से ढूंढो, मेनू पर दिमाग खपाओ, रेट देख कर अपने डूबते दिल को सम्हालो, अपने बजट के अनुसार सामान मँगवाओ, घरवाली या बच्चे किसी मंहगी चीज का आर्डर करें तो उन्हें उस सामान के निरर्थक हो...