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सद्गुरु से बंगलुरु तक

मन माने न 
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घर में रहो तो बाहर जाने का मन होता है और बाहर जाओ तो घर लौटने का मन करता है। ये हमारा मन है जो कहीं टिकता ही नहीं है। गौर करें तो हम लालची नहीं हैं, हमारा मन लालची है। जो उपलब्ध है उससे हमारा मन उससे संतुष्ट नहीं रहता, 'कुछ नया, कुछ और' की रट निरंतर गूँजती रहती है।

हम सबके घर में अत्यंत स्वादिष्ट भोजन बनता है, चाहे लौकी की सब्जी बनी हो, अच्छी लगती है लेकिन कभी-कभी बाहर किसी होटल में जाकर कुछ 'और' खाने का भी मन करता है।

तो, प्रोग्राम बनाओ, सजो-सँवरो, पर्स चेक करो, वाहन को पोछो और पेट्रोल भराओ, सड़क में भीड़-भाड़ का सीना चीरते हुए रेस्तरां पहुँचो।  रेस्तरां पहुँचकर 'वेटिंग' में सावधान की मुद्रा में खड़े रहो, किसी के उठकर जाने के बाद खाली हुई टेबल से जूठा उठाते और उसे पोछते कर्मचारी पर नज़र रखो, कुर्सियाँ खिसका कर बैठो। 

आर्डर लेने वाले बेयरा को आँखों के माध्यम से ढूंढो, मेनू पर दिमाग खपाओ, रेट देख कर अपने डूबते दिल को सम्हालो, अपने बजट के अनुसार सामान मँगवाओ, घरवाली या बच्चे किसी मंहगी चीज का आर्डर करें तो उन्हें उस सामान के निरर्थक होने का ज्ञान दो, न मानें तो अपनी अपनी थूक निगल कर मौन धारण करो और आधा गिलास पानी पीकर अपनी दिमागी अशांति को शांत करो। उसके बाद 'स्टार्टर' समझकर सलाद और पापड़ को चबाते हुए भोजन की प्रतीक्षा करो, परोसे गए भोजन को मैनर्स के साथ खाओ ताकि प्लेट से चम्मच टकराने की आवाज़ न हो। भोजन पूरा हो जाने के बाद जब बेयरा पूछे, 'सर, एनी स्वीट्स ऑर आइसक्रीम?' तो बच्चों की तरफ देखे बिना साफ मना करते हुए बिल मंगवाओ और धड़कते दिल से उसका इंतज़ार करो, बिल देखकर पेमेंट करो और 'टिप' छोड़ो। उसके बाद मन-ही-मन रोते-बिलखते घर वापस आओ और अपनी पत्नी से कहो, 'रानी, तुम्हारी लौकी की सब्जी में जो स्वाद है, वो बाहर कहाँ?' 
'अब समझ में आया तुमको?' घरवाली का ताना सुनो।

यही होता है यात्राओं में। घर से बाहर निकलो तो कागज के नोट और क्रेडिट कार्ड में पंख उग जाते हैं। न ठीक से खाने को मिलता है, न सोने को। चलते-चलते पैर पत्थर जैसे हो जाते हैं। इंसान घर लौटते तक कंगाल हो जाता है और कसम खाता है, 'अब कभी, कहीं बाहर नहीं जाऊंगा' लेकिन कुछ समय बाद फिर से घूमने का वही चिर-परिचित कीड़ा मन में कुलबुलाने लगता है।

मन को कहीं चैन नहीं लेकिन असली चैन तो अपने घर वापस आकर ही मिलता है।

आम तौर पर मुझे ट्रेन से यात्रा करना सुखद लगता है लेकिन इस बार हमारी बिटिया संगीता ने हमें वायुयान से भेजने का निश्चय कर लिया था ताकि आने-जाने के समय की बचत हो सके। वायुयान में पहले से टिकट बुक करने पर जुर्माना कम लगता है, उसका लाभ भी मिल गया लेकिन वायुयानी यात्रा में मुझे मज़ा नहीं आता। आपस में कोई संवाद नहीं। सहयात्रियों के सूजे हुए चेहरे देखकर मुझे कोफ्त होती है। सीट इतनी असुविधाजनक होती है कि मत पूछिए, राम-राम करते 'डेस्टिनेशन' आता है। वायुयान जब बादलों को चीर कर ऊपर उठता या नीचे आता है तो कान फड़फड़ाने लगते हैं और माथा भन्ना जाता है।

चाहे मुफ्तखोरी हो या कीमत अदा करो, व्योमबालाओं की मोहक मुस्कान की बावजूद खाद्यसामग्री में कोई स्वाद नहीं होता। इसी दौरे की बात है, बंगलुरु के हवाई अड्डे में स्थापित लोहे की कुर्सी में बैठकर हम पति-पत्नी पूरी-अचार खा रहे थे तो आते-जाते यात्री हमें इस तरह घूरकर देख रहे थे जैसे हम लोग देहाती हों। ट्रेन में इस तरह का वर्ग-विभेद नहीं होता इसलिए भले अधिक समय लगे, ट्रेन की यात्रा मन को भाती है लेकिन इस बार मैं फंस गया था, मजबूरी थी इसलिए हवा में उड़ना पड़ा।

मैं सोचता हूँ, कब वो दिन आएंगे, जब ट्रेन में भी पहले से आरक्षण करवाने पर छूट मिलेगी! कब वो दिन आएंगे, जब ट्रेन में केवल एक श्रेणी होगी, जैसा मेट्रो में है! एसी वन और एसी टू में मिलने वाले यात्री भी कम नकचढ़े नहीं होते, ये भी न बात करते, न मुसकुराते, न टिफिन शेयर करते, बस बुद्ध की प्रतिमा बने पूरा दिन काट देते हैं। जब से मोबाइल और लेपटाप आ गया है, रेल में सफर करना और अधिक 'बोरिंग' हो गया है लेकिन अभी भी वायुयानी यात्रा से बेहतर है क्योंकि कई बार हमें हमारे जैसे पुरातनपंथी भी मिल जाते हैं तो रास्ता मज़े में कट जाता है। जिसको जो कहना है, कहता रहे, भाई अपन को ऐसी गंभीरता रास नहीं आती। 

ये रहा कोयंबत्तुर का ईशा आश्रम :
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देश-विदेश से दर्शनार्थी यहाँ आते हैं, ध्यानलिंग, भैरवी देवी व आदियोगी के दर्शन करने, मैं आता हूँ अपने पुत्र कुंतल, अब स्वामी ऋजुडा, से मिलने जो विगत सोलह वर्षों से सद्गुरु जग्गी वासुदेव के शिष्यत्व में आश्रम की विभिन्न गतिविधियों में संलग्न हैं। त्रिची एन॰आई.टी॰ से इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इलेक्ट्रिकल्स विषय में इंजीनियर बनने के बाद उन्होंने अपने शेष जीवन को इस आश्रम से सम्बद्ध कर लिया।

इस आश्रम में पहली बार मैं 2003 में आया था, आश्रम देखने गया था, कुछ समझ नहीं आया। वो दुनिया हमारी दुनिया से अलग है। काम, व्यस्तता और समस्याएँ जैसी हमारी दुनिया में हैं, वैसी उस दुनिया में भी है लेकिन फर्क है। फर्क यह है कि हम अपने जीवन के बाहरी आयाम को विकसित करने के यत्न करते हैं जबकि वे जीवन के आंतरिक आयाम को छूने का प्रयास करते हैं। हमें उनकी बात समझ नहीं आती क्योंकि वहाँ की गतिविधियों में प्रविष्ट हुए बिना हम उन्हें नहीं समझ सकते, वे हमें पागल से लगते हैं लेकिन वे हमारी दुनिया से होकर गए हैं इसलिए वे दोनों दुनिया को भलीभाँति जानते-समझते हैं। हम 'स्व' को बढ़ाने में लगे हैं, वे 'स्व' को मिटाने में लगे हैं। चूंकि हम बचपन से अभ्यस्त हैं इसलिए अहंकार के बिना जीना हमारे लिए बहुत कठिन है, वे अहंकार दूर करने की कठिनता को सरल बनाने में लगे हैं, अपने लिए और दूसरों के लिए भी। हम काम के बदले आराम की खोज में रहते हैं लेकिन उनके जीवन में आराम शब्द है ही नहीं, वे निरंतर काम करते हैं, स्व को छोड़कर सर्वजनहिताय।

सद्गुरु जग्गी वासुदेव से मैं उस समय से नाराज़ चल रहा हूँ, जब से हमारा बेटा कुंतल उनके आश्रम से सम्बद्ध हो गया, आज भी मैं उनसे रुष्ट हूँ। आश्चर्य होगा आपको कि मैं कुंतल से नाराज नहीं हूँ क्योंकि हर मनुष्य को अपने जीवन की राह चुनने की स्वतन्त्रता है, उसे भी थी। देर-सबेर सही, हमने भी उनके निर्णय पर अपनी मुहर लगा दी और अपने मन को समझा-बुझा कर उनके निर्णय को अपने अनुकूल कर लिया लेकिन आध्यात्म की राह अपना कर कुंतल अपने अपनों से दूर हो गया। यह ऐसी पीड़ा है जिसे हम निरंतर  सह रहे हैं, संभवतः कुंतल हमारी पीड़ा को समझते होंगे। यह सही है कि उनकी नज़दीकी असंख्य लोगों से हो गयी लेकिन हमसे उनकी एक दृश्य दूरी बन गयी। हम भी उन असंख्य लोगों की भीड़ में से एक हैं जिनसे आज उनकी नज़दीकी है। आध्यात्म के मार्ग में पारिवारिक मोह-माया बाधा है, यह हमें मालूम है, लेकिन आध्यात्म हमारे पारिवारिक तानेबाने के मार्ग में क्यों बाधा बन गया, यह अफसोस हर समय मेरे मन में बना रहता है। इसका दोष मैं सद्गुरु जग्गी वासुदेव पर मढ़ता हूँ क्योंकि उनके चुम्बकीय आकर्षण के सामने हमारा दुनियावी आकर्षण कमजोर पड़ गया। जो जादुई संसार हमने कुंतल के जीवन के इक्कीस वर्षों में रचा, वह सहसा धाराशायी हो गया और हम गुजरते कारवां को देखते रह गए !

सद्गुरु से इतनी नाराजगी के बावजूद मैं जब भी उनके करीब जाता हूँ, उन्हें देखता हूँ तो मेरी आंखो से आँसू बहने लगते हैं। उनके मुखमंडल पर आच्छादित करुणा के समक्ष मैं पिघल जाता हूँ और सोचता हूँ कि कुंतल का निर्णय हमें अप्रिय भले लगा हो लेकिन अब लगता है कि कुंतल ने हमसे दूर होने का जो साहसी निर्णय लिया, वह एकदम सही था।

मैं आश्रम इसलिए जाता हूँ ताकि इन बूढ़ी आंखो से अपने पुत्र को जी भर कर देख सकूँ, उसकी मीठी आवाज़ को अपने कानों से सुन सकूँ और यह सुनिश्चित कर सकूँ कि वह आश्रम का कार्य ठीक से कर रहा है या नहीं?

आश्रम में समय के साथ बहुत से परिवर्तन हुए। शुरुआत में ध्यानलिंग मंदिर था, स्पंद सभागृह था, ट्रेंगुलर ब्लाक था, उसके बाद चंद्रकुंड, सूर्यकुंड, भैरवी मंदिर, सभागृह और आदियोगी की स्थापना हुई। जब मैंने वहाँ जाना शुरू किया तब वहाँ अंग्रेजी और तमिल भाषा का बोलबाला था, भूले-भटके कोई हिन्दी बोलने वाला मिलता था। आश्रम के सभी कार्यक्रम अंग्रेजी और तमिल में होते थे। इस बार वहाँ का मौसम बदला हुआ था, हिन्दी भाषियों की उपस्थिति गैर-हिंदीभाषियों से अधिक नज़र आई। सद्गुरु के चाहने वालों की संख्या में भी इजाफ़ा दिखा।

मुझे याद आता है सन जुलाई 2007 में आयोजित 6 दिवसीय 'होलनेस' कार्यक्रम में मैं भी प्रतिभागी था। पूरा कार्यक्रम अंग्रेजी में था, कुछ समझ में आये, कुछ न आये। चौथे दिन की बात है, सद्गुरु के प्रवचन के पश्चात प्रश्न आमंत्रित किए गये। मैंने कहा, 'सद्गुरु, इस सभागार में ऐसे बहुत से लोग हैं जो अंग्रेजी नहीं समझ पाते कितना अच्छा हो कि हिन्दी भाषा में इसका संक्षिप्त अनुवाद प्रस्तुत किया जाए?'
'कार्यक्रम के बारे में शुरू में ही लिखित बता दिया गया था कि यह अंग्रेजी में है, अब हम क्या कर सकते हैं? मुझे अंग्रेजी आती है, तमिल, कन्नड़, तेलुगू और मलयालम भी आती है, लेकिन हिन्दी नहीं आती। आप समझ सकें तो तमिल, कन्नड़, तेलुगू और मलयालम में बोल सकता हूँ, समझ आएगा आपको ?' सद्गुरु ने कहा।
मैं चुप रहा गया। मैं मन में सोच रहा था कि जब संस्कृत भाषा में सद्गुरु पारंगत हैं तो हिन्दी बोलने-समझने में क्या दिक्कत है? दक्षिण भारतीयों को हिन्दी भाषा अपनाने से इतनी हिचक क्यों है? लेकिन उनसे बहस करने की स्थिति में मैं नहीं था इसलिए चुप रहा।

इस वार्तालाप के बाद जब भोजन कक्ष में हम सब पहुंचे तो ऐसा संयोग हुआ कि मैं जहां बैठा, उसके ठीक बगल में सद्गुरु भी आकर विराजमान हो गये। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा, उनसे इतनी नजदीकी मेरी लिए सौभाग्य की बात थी। मैं सकुचाया लेकिन मुदित सा बैठा था। कुछ देर में भोजन परोसा गया। मंत्रपाठ हुआ और भोजन आरंभ करने के पूर्व सद्गुरु ने मुझसे अंग्रेजी में पूछा, 'भोजन भी हिन्दी भाषा में करेंगे क्या?'
कुछ क्षणों के लिए मैं अवाक् रहा गया, सोचा, इस प्रश्न का क्या जवाब दूँ लेकिन मैं फिर मुस्कुराकर चुप रह गया क्योंकि जब बारह सौ लोगों की सभा में एक प्रश्नकर्ता को उन्होंने दूर से चेहरा देखकर पहचान लिया और प्रश्नकर्ता से ही ऐसा प्रश्न कर दिया, इसका मतलब यह है कि मेरे प्रश्न ने बंजर जमीन में उर्वरा बीज बिखेर दिए हैं, एक समय आएगा जब इस आश्रम में हिन्दी भाषा का प्रवेश होगा, हिन्दी पल्लवित पुष्पित होगी।

अधिक समय नहीं लगा, चार-पाँच साल बाद उन्हें हिन्दी भाषा का महत्व समझ आया. महाशिवरात्रि के वृहद 'लाइव' कार्यक्रम का अनुवाद होने लगा, सद्गुरु की अंग्रेजी पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित होने लगे, मासिक पत्रिका 'ईशा लहर' प्रकाशित होने लगी, सद्गुरु के वीडियो हिन्दी भाषा में 'डब' होने लगे और आश्रम में हिंदीभाषियों की हिन्दी सुनाई पड़ने लगी। अब तो सद्गुरु हिन्दी में गाना भी गाने लगे, 'शिव कैलासों के वासी, धवली धारों के राजा, शंकर संकट हरना।'

मैसूर की पहचान मैसूरपाक :
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बचपन से मिठाई बेचने का काम किया है इस कारण मैसूरपाक और उसके मधुर स्वाद को खूब पहचानता हूँ। मिठाइयों में दो ऐसी हैं जिनको बनाने में कारीगर को बहुत मेहनत लगती है, सोनपपड़ी और मैसूरपाक। इन्हें बनाने में बहुत पसीना बहता है, वही टपका हुआ पसीना सोनपपड़ी और मैसूरपाक का स्वाद है। सोनपपड़ी की लोकप्रियता सम्पूर्ण भारत, यहाँ तक कि विदेशों में भी है लेकिन मैसूरपाक अब भी दक्षिण भारत में अपने पैर जमाए हुए है, उत्तर भारत में इसे चाहने वाले कम हो गए हैं।

मैं आपको यह बताना चाहता हूँ कि जब भी मैं मैसूरपाक खाता था, मुझे मैसूर शहर देखने की इच्छा होती थी लेकिन मैसूर क्या, कर्नाटक में कहीं भी जाने का कभी सुअवसर न बना। इस बार माधुरी जी ने कहा, 'मुझे आश्रम के बाद मैसूर जाना है, वहां चामुंडी पर्वत पर उस स्थान के दर्शन करना है, जहां सद्गुरु जग्गी वासुदेव को को दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ था।' लिहाज़ा, कोयंबत्तुर से मैसूर जाने की योजना बन गयी। वहाँ से कुर्ग और कुर्ग से बंगलुरु जाने का भी मन बन गया।

रेल से मैसूर के लिए कोई सीधी ट्रेन नहीं है इसलिए हमारे पास दो विकल्प थे, पहला, हम रेलपथ से कोयम्बत्तूर से बंगलुरु जाएँ और बंगलुरु से सड़क मार्ग से मैसूर, कुल ग्यारह घंटे की यात्रा, या, कोयम्बत्तूर से सड़क मार्ग से सीधे मैसूर, सात घंटे की यात्रा। मैंने ग्यारह घंटे की यात्रा का चयन किया, यह सोचकर कि हमारे घुटनों को आराम बस में नहीं, ट्रेन में मिलेगा, पैर पसार कर सोते हुए आराम से बंगलुरु तक जाएंगे।

जब भी हम कोयम्बत्तूर से वापस लौटते हैं तो रेल्वेस्टेशन से लगभग 200 मीटर की दूरी पर एक रेस्तरां है RHR, वहां अवश्य जाते हैं। अत्यंत स्वादिष्ट दक्षिण भारतीय व्यंजन खाने का मन हो तो यहाँ अवश्य जाइए, पेट भी भर जाएगा और आत्मा प्रसन्न हो जाएगी।

सुबह नौ बजे हमारी ट्रेन कोयम्बत्तूर से रवाना हुई, सवा नौ बजे माधुरी जी ने तीन तकिया लगाई, दो कम्बल ओढ़े और आराम से पसर कर सो गयी। मैं सिने-अभिनेता चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा 'मेरा जीवन' पढ़ने में मशगूल हो गया। इन्हीं चार्ली चैप्लिन ने कहा था, 'मैं बरसात में भीगते हुए रोता हूँ ताकि कोई मेरे आंसू न देख ले।'

दोपहर को 4 बजे के आसपास हम बंगलुरु के रेल्वे स्टेशन के बाहर खड़े थे जहां हमारे लिए एक टैक्सी लेकर महेश खड़े थे। यह टैक्सी चार दिन और तीन रात का साथ देने के लिए मेरे कानपुरिया फेसबुक मित्र श्री आशीष शुक्ल ने 'बुक' कराई थी। आशीष शुक्ल का कानपुर में टैक्सी का कारोबार है इसलिए हमें उनके माध्यम से बंगलुरु में टैक्सी की सुविधा किफ़ायती दर पर हासिल हो गयी। फेसबुक बड़े काम का माध्यम है बशर्ते आप इसके व्यापक प्रभाव को समझें।
कार आरामदेह थी और हमारा वाहनचालक महेश कम बात करनेवाला और 'यस सर' बजाने वाला इंसान साबित हुआ। शाम ढलने लगी, अंधेरा घिरने लगा लेकिन मैसूर दूर था। माधुरी जी की बेचैनी बढ़ने लगी। वे पीछे की सीट पर विराजमान थी। उन्होने ड्राइवर से पूछा, 'महेश, मैसूर कितनी देर में आएगा?'
'एक घंटा और लगेगा मेम।' उसने बताया।
'रात हो जाएगी तो कुछ नहीं देख पाएंगे। होटल जाएंगे और सो जाएंगे। क्या हम सोने के लिए मैसूर आए हैं?' उन्होंने पूछा, किससे पूछा, मैं नहीं समझ पाया। मैंने अनसुना कर दिया।
'सुबह तुम बोलोगे, चलो जल्दी, कुर्ग निकलना है तो यहाँ क्यों आए?' अब मैं समझ गया कि प्रश्न मुझसे किया गया था।
'शाही महल की रोशनी की सजावट तो रात को होती है, पहले उसे देखेंगे, उसके बाद होटल जाएंगे।' मैंने समझाया। मेरी समझाइश तुरंत भसक गयी, जैसे ही ड्राइवर ने बताया कि रोशनी केवल शनिवार और रविवार को होती है, बाकी दिनों में नहीं होती। उस दिन मंगलवार था। मेरे ऊपर संकट के बादल मंडराने लगे। वे भड़की, 'तुम्हारा सब काम ऐसा ही रहता है। कोयंबत्तुर से मैसूर के लिए बस में आते तो कब का यहाँ पहुँच जाते लेकिन तुमने ट्रेन पकड़ी, अब टैक्सी से मैसूर जा रहे हैं। पूरा दिन बर्बाद हो गया। यहाँ आए हो तो मंगलवार को, जब 'लाइटिंग' नहीं होती। तुम कोई काम अच्छे से सोच-समझकर क्यों नहीं करते?'
'मुझे क्या पता कि मंगल को 'लाइटिंग' नहीं होगी?' मैंने कहा।
'दिन भर हाथ में मोबाइल पकड़े रहते हो, पहले से पता नहीं करना था?'
'ध्यान नहीं रहा।' अब मैं बचाव की मुद्रा में आ गया। बात आगे न बढ़े इसलिए मैंने ड्राइवर से कहा, 'महेश, पहले राजमहल चलो, देखते हैं वहाँ, होटल बाद में जाएंगे।'
'यस सर।' महेश ने कहा।
'यस सर।' पीछे से नाराजगी का स्वर पुनरुच्चारित हुआ। हम अब हम सब चुप हो गए। मैसूर शहर आ गया। हम महल की ओर बढ़ चले। महल रोशनी से नहा रहा था क्योंकि उस रात मैसूर के महाराजा का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था और महल में बने खुले 'सेट' पर एक 'कंसर्ट' चल रहा था और पूरे परिसर में पाश्चात्य संगीत की मधुर स्वरलहरी गुंजायमान थी। हम मंत्रमुग्ध होकर राजमहल को निहार रहे थे।

मिर्जा रोड पर स्थित इस महल में मैसूर राज्य के महाराज वुडेयार रहते थे। सन 1912 में उनका काष्ठ निर्मित महल दुर्घटनावश जल गया था, तब ब्रिटिश आर्किटैक्ट हेनरी इर्विन के बनाए नक्शे के आधार पर वर्तमान महल तैयार किया था। कल्याण-मंडप की कांच से सज्जित छत, दीवारों पर लगी आकर्षक तस्वीरें और स्वर्णजटित सिंहासन यहाँ की विशेषता है। बहुमूल्य रत्‍नों से सुसज्जित इस सिंहासन को दशहरा उत्सव के समय आमजनता देख सकती है। जब हम गए, हमें अंदर प्रवेश नहीं मिला इसलिए हम वहाँ की बाहरी विद्युत छटा देखकर अपने पूर्वनियोजित होटल 'विला पार्क' में आ गए।
होटल बढ़िया था लेकिन कमरे में लगे टीवी में कार्यक्रम नहीं आ रहा था. माधुरी जी ने कहा, 'रिसेप्शन में खबर करो.'
मैंने रिसेप्शन से बात की. दस-पंद्रह मिनट लगे, टीवी चालू हो गया। माधुरी जी ने कहा, 'टीवी बंद कर दो, मुझे नींद आ रही है।'
'जब टीवी नहीं देखना था तो चालू क्यों करवायी?' मैंने पूछा। 
'हम देखें या न देखें, टीवी सही होना चाहिए।' उन्होंने उत्तर दिया। चूंकि मैं भी होटल चलाता हूँ इसलिए मैंने ग्राहक के मनोविज्ञान की यह बात अपने दिमाग में अंकित कर ली। 

सुबह नाश्ता करने के लिए हम लोग होटल के नीचे स्थित रेस्तरां में पहुंचे। पूरा रेस्तरां जैसे खेल का छोटा सा खूबसूरत मैदान हो। दीवारों पर विभिन्न खेलों और उन खेलों के विश्वप्रसिद्ध खिलाड़ियों के फोटोग्राफ करीने से सजे हुए था। छोटे से हाल में गोल-पोस्ट की 'नेट' दोनों तरफ लगी हुई थी। खाने की टेबल में काँच के नीचे अंतर्राष्ट्रीय खेलों के महत्वपूर्ण क्षणों के दर्शनीय फोटो लगे हुए थे। मैं आज तक देश-विदेश के अनेक स्थानों पर जा चुका हूँ लेकिन किसी व्यापारी के दिल में खेलों के प्रति ऐसा अनुराग कहीं नहीं देखा। नाश्ता भी शानदार और रेस्तरां भी शानदार, मैसूर का 'विला पार्क', वाह।

हमें चामुंडा पर्वत में जाना था, जहां चामुण्डेश्वरी देवी के मंदिर व नंदी की प्रतिमा के दर्शन करने थे। पहाड़ी जाने के रास्ते में यातायात पुलिस का अमला खड़ा था जिसने हमें वही पर रोक दिया और निर्देश दिया कि सड़क की बायीं ओर मुड़कर आगे जाना है जहां एक मैदान में कार पार्किंग बनाई गयी है। कार पार्किंग में खड़ा करके सार्वजनिक परिवहन की बस में बैठकर जाना है। वह गुरुवार था, चामुण्डेश्वरी देवी के दर्शन का विशेष पर्व। हजारों दर्शनार्थी वहाँ उमड़े हुए थे और पंक्तिबद्ध होकर कर्णाटक राज्य परिवहन की बस में बैठने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे। एक के बाद एक बस आ रही थी, लोग उसमें बैठ रहे थे, जितनी सीट उतने यात्री, एक भी 'एक्सट्रा सीट' नहीं और कोई किराया भी नहीं, निःशुल्क।

चामुंडेश्वरी राजराजेश्वरी  त्रिपुरसुंदरी का ही एक रूप है। चामुंडेश्वरी नाम  के पीछे एक कथा प्रचलित है जो  दुर्गा सप्तशती में उनके नाम की उत्पत्ति-कथा वर्णित है। आदि काल में धरती पर दो दैत्शुम्भ और निशुम्भ का राज था। उन्होंने धरती व स्वर्ग पर बहुत अत्याचार मचाया। अत्याचार से दुखी होकर देवताओं व मनुष्यों ने हिमालय में जाकर देवी  की आराधना की लेकिन स्तुति में किसी भी देवी का नाम नहीं लिया। उन्हीं दिनों शंकर जी और देवी पार्वती वहां मानसरोवर में स्नान करने आये। उन्होंने पूछा ‘आप लोग किसकी आराधना कर रहे हो ?
देवता मौन रहे लेकिन लेकिन माँ भगवती ने देवी पार्वती जी के शरीर में से प्रगट होकर पार्वती से कहा, देवी यह लोग मेरी ही स्तुति कर रहे है। मैं आत्मशक्ति स्वरूप परमात्मा हूँ जो सबकी आत्मा में हूं। पार्वती के शरीर से प्रगट होने के कारण माँ दुर्गा का एक नाम कोशिकी भी पड़ गया।
कोशिकी को शुम्भ और निशुम्भ के दूतों ने देख लिया और दैत्शुम्भ और निशुम्भ से कहा, महाराज, आपके पास अमूल्य रत्‍नों का भंडार है, इन्द्र का ऐरावत हाथी भी आपके पास है। आपके पास ऐसी दिव्य और आकर्षक नारी भी होनी चाहिए जो तीनों लोकों में सबसे सुन्दर हो, ऐसी नारी कोशिकी है।
इसे सुन कर शुम्भ और निशुम्भ ने अपना एक दूत देवी कोशिकी के पास भेजा और उस दूत से कहा, तुम उस सुन्दरी से जाकर कहना कि शुम्भ और निशुम्भ तीनो लोकों के राजा है और वें तुम्हें अपनी रानी बनाना चाहते हैं।
दूत माता कोशिकी के पास गया और दैत्यों का उन्हें अनुरोध सुनाया। माता कोशिकी ने कहा, मैं मानती हूं कि शुम्भ और निशुम्भ दोनों ही महान है, बलशाली हैं किन्तु मैं एक प्रण ले चुकी हूं कि जो मुझे युद्ध में हरा देगा, मैं उसी से विवाह करूंगी।' 
माता के प्रण के विषय में दूत ने शुम्भ और निशुम्भ को बताया तो वे कोशिकी के वचन सुन कर क्रोधित हो गये और कहा, उस नारी का यह दूस्‍साहस कि वह हमें युद्ध के लिए ललकारे?‘ उन्होंने चण्ड और मुण्ड नामक दो असुरों को भेजा और कहा, जाओ, उसके केश पकड़कर हमारे पास ले आओ।
चण्ड और मुण्ड देवी कोशिकी के पास गये और उसे अपने साथ चलने के लिए कहा। देवी के मना करने पर उन्होंने देवी पर प्रहार किया तब देवी कौशिकी ने अपने आज्ञाचक्र भृकुटि से काली का रूप धारण कर लिया और दोनों असुरों  का संहार कर दिया। उन दोनों असुरों चण्ड और मुण्ड को मारने के कारण माता कोशिकी का नाम चामुण्डा पड गया।
आध्यात्म में चण्ड प्रवृत्ति मुण्ड निवृत्ति का नाम है और माँ  प्रवृत्ति र निवृत्ति, दोनों से मुक्ति दिलाती है। चामुंडी देवी का प्रार्थना मंत्र है, ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै।'


मंदिर में जनसमूह उमड़ा हुआ था, दर्शन करने के लिए देर तक खड़ा रहना हम दोनों के लिए संभव न था इसलिए बाहर से माँ चामुंडेश्वरी को प्रणाम करके वहाँ तैनात पुलिसकर्मी से मैंने उसी पहाड़ी पर स्थित नंदी की प्रतिमा तक जाने का साधन पूछा। उन्होंने बताया कि वहाँ जाने का मार्ग शुक्रवार को बंद रहता है, चाहें तो 300 सीढ़ियाँ नीचे उतरकर जा सकते थे लेकिन हमारी उतना उतरने-चढ़ने की हमारी हिम्मत न थी इसलिए निराश होकर शहर वापस आ गए और अपनी टैक्सी में बैठकर कुर्ग की यात्रा के लिए चल पड़े।

मैसूर से कुर्ग की राह पर सुप्रसिद्ध 'बृंदावन गार्डन' मिल गया, हमारी कार उस ओर मुड़ गयी। प्रवेशद्वार के पहले खाने-पीने का फुटकर सामान बिक रहा था। माधुरी जी ने अपनी पसंद का सामान खरीदा, मैंने कटहल के पके हुए बीज खरीदे जिसे देखकर मैं ललचा गया था। बड़े शौक से उसे खाया, मीठा लगा लेकिन वाह दांतों से चबने वाली चीज थी, मैं बिना दाँत वाला इंसान, थक गया उसे अपने मसूढ़ों से चबाते-चबाते, उसे साबुत ही निगल लिया और बचे हुए फल को माधुरी जी को देकर उससे मुक्ति पाया। मैं अक्सर अपनी उम्र और उम्र-जनित कमजोरियों को भूल जाता हूँ और ऐसे दुस्साहस कर बैठता हूँ जो मुझे कष्ट देते हैं और शर्मिंदा भी कर देते हैं। इसी हवाई यात्रा की बात है, हवाई जहाज में व्योमबाला हर यात्री का मुस्कुरा कर स्वागत कर रही थी, मुझे भी देखकर मुस्कुराई, मैंने भी उसे 'फ्लाइंग स्माइल' दी, उसी मैं वहीं ठिठक कर खड़ा हो गया और उसकी ओर देखकर मैंने एक स्वाभाविक मुस्कान फेकी, उसके उत्तर में अब 'प्रोफेशनल स्माइल' नहीं थी, स्वाभाविक मुस्कान थी। उसकी दोनों मुस्कानों में बड़ा फर्क था। अपनी सीट पर बैठते-बैठते मेरे मन में चल रहा था, 'बुढ़ऊ, अपनी उम्र का ख्याल किया करो तनिक....' लेकिन मैं क्या करूँ? मैं अक्सर अपनी उम्र भूल जाता हूँ।

हम बृंदावन गार्डन के प्रवेश द्वार से प्रविष्ट हुए, भीतर विशालकाय परिसर दिखा। 60 एकड़ में फैले इस बाग का निर्माण सन 1927 से आरंभ हुआ और 1932 में पूर्ण हुआ। यह बाग मैसूर के तत्कालीन दीवान मिर्ज़ा इस्माइल के सपनों का मूर्त स्वरूप था। कावेरी नदी पर निर्मित कृष्णराजसागर बांध की दीवार के बाजू में स्थित यह बाग अपनी भव्यता के लिए पूरे देश में मशहूर है।

हम लोग भरी दोपहर में वहाँ पहुंचे इसलिए फव्वारों की विद्युत्छटा नहीं देख पाए, सैलानियों की भीड़ न देख सके। कुछ प्रेमी जोड़े इधर-उधर भटक रहे थे और हमारे आसपास होने के कारण असुविधा महसूस कर रहे थे। कोई भी बाग हो, उसमें फूल होते हैं, वहाँ केनी के मुश्किल से तीस-चालीस पौधों में फूल खिले हुए थे, आश्चर्य, शेष बाग-क्षेत्र  में एक भी पौधा न दिखा, फूल कहाँ से दिखते?
हम तो उस बृंदावन गार्डन को देखने गए थे जिसकी छटा हमने फिल्म 'झनक झनक पायल बाजे' के गीत 'नैन सो नैन नाहीं मिलाओ....' में गोपीकृष्ण और संध्या को मनोहारी नृत्य करते देखा था; फिल्म 'घराना' में राजेन्द्रकुमार और आशा पारेख के बीच प्रणय निवेदन में गाया रोमांटिक गीत देखा था, 'हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं...', लेकिन वहाँ सन्नाटा था, वीरानी थी, न संध्या दिखी, न आशा पारेख। मुझे लगता है कि मैंने गलत समय चुना, शाम को जाना था वहाँ। वैसे, साथी मेरा रोमांटिक था, संध्या और आशा पारेख जैसा, लेकिन शायद रोमांस की वह उम्र न रही। विवाहित जोड़ों को चाहिए कि वे समय रहते अपनी हसरतें पूरी कर लें अन्यथा उम्र के आखिरी पड़ाव में मेरे जैसा अफसोस भुगतेंगे।

झिरझिर बरसा पानी 

आगे का रास्ता और मौसम साफ़सुथरा था लेकिन कुर्ग क्षेत्र में प्रवेश करते ही बादल दिखने लगे और बरसने भी लगे। एक स्थान पर हमारी कार मुख्य सड़क से बायीं ओर मुड़ी और पाँच मिनट के अंदर हम स्वर्णमंदिर के समक्ष थे। उत्तर भारत में स्वर्णमंदिर पंजाब के अमृतसर में है, दक्षिण भारत में स्वर्णमंदिर कर्णाटक के नाम्ड्रोलिंग में है। यहाँ महात्मा बुद्ध की स्वर्णमंडित प्रतिमा है। यह एक मोनेस्ट्री है जहां लगभग पाँच हजार लामा आराधना करते हैं, शिक्षा ग्रहण करते हैं। महात्मा बुद्ध की विशालकाय सुनहरी प्रतिमा को देखकर मुझे थाइलैन्ड, श्रीलंका और भूटान में स्थापित मूर्तियों का स्मरण हो आया।

नाम्ड्रोलिंग से कुछ दूर आगे बढ़े और आ गया कुर्ग का मदिकेरी शहर। वहाँ से 5 किलोमीटर दूर 'ब्रुक स्टोन विला' में हमने अपने लिए कमरा आरक्षित करवाया था। 'मेक माई ट्रिप' ने बताया था कि हाई-वे से दाहिने मुड़कर 500 मीटर आगे जाना होगा , वहाँ पर यह रिसोर्ट मिलेगा लेकिन हमारी कार ऐसे दुर्गम रास्ते पर घुसी जहां हम बढ़ते गए लेकिन वह रिसोर्ट आने का नाम न ले। पक्की सड़क नहीं, बेतरतीब रास्ता, ऊबड़-खाबड़, घना जंगल, लगातार बारिश, गहराता अंधेरा, माधुरी जी भड़क गयी, 'कहाँ है होटल?'
'आता होगा।' मैंने शांति से उत्तर दिया लेकिन अंदर ही अंदर मैं भी घबरा रहा था।
'कब आएगा?'
'आता होगा।'
'आता होगा, आता होगा। तुमको शहर में कोई होटल नहीं मिला जो इस बियाबान में ले आए?'
'मैंने सोचा कि होटल में तो हमेशा रुकते हैं, इस बार रिसोर्ट में रुक कर देखा जाए।'
'ऐसा कैसा रिसोर्ट है कि वहाँ पहुंचे बिना जी घबरा रहा है?' माधुरी जी आवाज में चिंता घुली हुई थी। मैं भी चिंतित हो रहा था। आठ फुट चौड़ा पगडंडी जैसा फिसलन भरा रास्ता, जोरदार बारिश। अचानक सकरा सा नाला आया जिस पर पेड़ की एक डगाल गिरी पड़ी थी। ड्राइवर ने गाड़ी रोकी। माधुरी ने कहा, 'वापस चलो यहाँ से।'
'कार 'बेक' नहीं हो सकती मैडम, रास्ता संकरा है, आगे जाकर देखता हूँ, शायद कोई चौड़ी जगह मिले।' ड्राइवर ने कहा।'
'पर नाला कैसे पार करोगे?' मैंने पूछा। उसने मुझे कोई जवाब नहीं दिया और चतुराई के साथ कार को नाले के उस पार निकाल दिया। हम सांस थामे और आगे बढ़ चले क्योंकि पीछे लौटने का कोई उपाय न था, रिसोर्ट का कोई अता-पता न था, हम 'गूगल-रोड-फ़ाइंडर' के सहारे अंधेरे में किसी उजाले को टटोल रहे थे। अचानक रोशनी दिखी। बायीं ढलान में उतरने पर एक बंगला दिखा, अंग्रेजों के जमाने का बनाया हुआ, वही था,  'ब्रुक स्टोन विला'।
'हे भगवान, ये कैसा होटल है?' माधुरी जी के बोल सुनाई पड़े। 'मैं यहाँ नहीं रुकूँगी, जाओ, बुकिंग कैंसिल कर दो।'
मैं भी विस्मित था। घने जंगल के अंदर एक बंगले को आवासीय रूप दे दिया गया था। चारों तरफ सन्नाटा। मुझे शरलॉक होम्स की जासूसी कहानियों के दृश्य याद आने लगे। ऐसा महसूस हुआ कि अगर यहाँ रुके, अचानक हमारी तबीयत खराब हो गयी तो तुरंत इलाज़ का कोई साधन नहीं, यहाँ कोई हमें काटकर फेंक दे तो हमारी लाश का पता भी नहीं चलेगा। फिर भी मैं सधे कदमों से भीतर गया, रिसेप्शन सूना था, मैंने हिन्दी में आवाज़ लगायी, 'कोई है?'
एक सुशोभित युवक आया, उसने मुझे अदब से अभिवादन किया और कहा, 'यस सर।'
'हमने आपके यहाँ एक रूम बुक कराया था।' मैंने कहा।
'आपका नाम?'
'द्वारिका प्रसाद अग्रवाल।'
'यस सर, आइए, आपको आपका रूम दिखा देता हूँ।'
'ओके, लेकिन हम हम बुकिंग कैंसिल करना चाहते हैं।'
'क्यों सर?'
'यह शहर से बहुत दूर है, मेरी पत्नी हार्ट-पेशेंट है, अगर कोई इमर्जेंसी आ गयी तो कैसा करेंगे?'
'यस सर।'
'क्या करें? तुम बताओ।'
'कोई बात नहीं, मैं बुकिंग कैंसिल कर देता हूँ। बेहतर है कि आप शहर के किसी होटल में रुक जाएँ।' रिसेप्स्निस्ट ने संजीदगी से कहा और मुझे 'विश' किया। बंगले के बाहर तेज बारिश हो रही थी, मैं भीगते हुए कार में घुसा और मैंने अपने ड्राइवर से कहा, 'जल्दी वापस चलो, यहाँ से।'
उस जंगली रास्ते से होते हुए जब हमारी कार 'हाई-वे' पर आयी तो हमारी जान में जान आयी।

बरसते पानी में होटल तलाशना कठिन काम है। जैसे-तैसे एक कामचलाऊ होटल में डेरा डाल दिया और रात्रिभोजन के लिए निकल पड़े। किसी ने बताया कि चौक पर एक अच्छा रेस्तरां है, 'उडिपी गार्डन', वहाँ पहुँच गये। साफ़सुथरा और सुरुचिपूर्ण लगा। भोजन स्वादिष्ट। एक साठ वर्षीय महिला घूम-घूमकर ट्राली में जूठे बर्तन उठा रही थी। अगली सुबह जब हम वहीं नाश्ता करने गए, वह हमें फिर दिखाई पड़ी, बड़े मनोयोग से बर्तन उठा रही थी। मैंने उससे जिज्ञाशावश प्रश्न किया, 'कल रात को तुम घर कब गयी?'
'ग्यारह बज गया था।' उसने मुझे झिझकते हुए बताया।
'सुबह कब आई?'
'सात बजे।'
'रात को घर नहीं जाती?'
'गयी थी, सुबह जल्दी आना पड़ता है।'
'इस उम्र में इतना काम कर रही हो?'
'काम न करूँ तो काम कैसे चलेगा?'
'क्या बात है?'
'दो साल पहले मेरे शौहर को लकवा लग गया, वह घर में पड़ा रहता है। मैं कमाती हूँ तब घर चलता है।'
'तुम्हारे बच्चे नहीं हैं क्या?'
'बच्चे हैं, एक लड़का है, शादी के बाद अलग घर में रहता है। एक लड़की है, उसकी शादी कर दी।'
'लड़का मदद करता है?'
'करता तो मैं यहाँ दिन-रात खटती?'
'फिर?'
'लड़की मदद करती है लेकिन मुझे उससे लेने में खराब लगता है। जब तक मैं काम कर पा रही हूँ, तब तक करूंगी, बाद में जैसा होगा, वैसा होगा।' उसने बताया। मैंने पूछा, 'तुम्हारी फोटो खींच लूँ?
उसके दुखी चेहरे में हल्की सी मुस्कान आ गयी, मुझे उसकी सांकेतिक अनुमति मिल गयी, मैंने मोबाइल कैमरे से उसकी तस्वीर खींच ली।

कुर्ग जिले के मदिकेरी शहर से 48 किलोमीटर दूर स्थित दर्शनीय स्थल ताल कावेरी के लिए हम निकल पड़े। ज्ञात हुआ कि वह कावेरी नदी का उद्गम स्थल है। कुर्ग में बारिश के मौसम में बिना रुके मेह बरसते हैं, सांस भी नहीं लेते। मदिकेरी से ताल कावेरी के रास्ते में दोनों तरफ हरियाली का कब्जा था। उस हरियाली के बीच बड़े पत्तों का घूँघट ओढ़े 'काफी' के पौधे लहलहा रहे थे। यद्यपि रास्ते भर पानी धीमा बरस रहा था लेकिन ताल कावेरी में हमारा स्वागत सनसनाती हुई ठंडी हवा और घनघोर वर्षा ने किया। समुद्र तल से 1276 की ऊंचाई पर स्थित इस पहाड़ी पर निर्मित मंदिर में शिव और गणेश की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। मंदिर के मध्य में छोटा सा ताल है। चारो तरफ घना कोहरा छाया हुआ था, मंदिर के परकोटे के बाहर कुछ भी नहीं दिख रहा था। कहा जाता है कि कावेरी का उद्गम बरसात के दिनों में दिखता है लेकिन कुछ दिखाई पड़े तो कुछ दिखे। पानी की बौछार के साथ हवा इतनी तेज थी कि छाता उड़ाने-उड़ने को उद्यत हो रहा था, हम कमर तक भीग गए थे। मंदिर परिसर से बाहर आते तक मनोभाव रोमांटिक हो चले थे लेकिन हम दोनों के छाते अलग-अलग थे इसलिए वहाँ केवल बरसाती गाना ही गया जा सकता था, मैं गुनगुनाया, 'कितना हंसीं है मौसम, कितना हंसीं सफर है, साथी है खूबसूरत ये मौसम को भी खबर है....', भीगते-भागते हम कार में घुस गए और वहाँ से रवाना हो गए अब्बे जलप्रपात को देखने के लिए।

कुछ देर में हमारी कार रुकी, महेश ने बताया, 'जिधर लोग जा रहें हैं, उसी तरफ आप भी चल जाइए, थोड़ा नीचे उतरना पड़ेगा तब आपको जलप्रपात दिखेगा।'
हमने रास्ता पकड़ा और चौड़ी सीढ़ियों से उतरने लगे। सीढ़ियों के दोनों तरफ काफी के बागान थे, बागान में बड़े-बड़े वृक्षों में कालीमिर्च की लताएँ लिपटी हुई थी। लगभग सौ-सवा सौ सीढ़ियाँ उतरने के बाद वातावरण में पानी गिरने की आवाज सुनाई पड़ी। उसके बाद हमारे सामने था, विशाल जल राशि का ऊपर से नीचे आता प्रपात जिसे देखकर और जिसकी आवाज़ सुनकर मन प्रसन्न हो गया। जलप्रपात के हरहराते स्वर में उन हजारों चिड़ियों की चहचाहट भी उसी तरह शामिल थी जिस तरह राग मेघ-मल्हार की संगत में मृदंग का स्वर की थाप गुंजायमान हो। आश्चर्य यह है कि आसमान में एक भी चिड़िया उड़ती हुई दिखाई न दी लेकिन वे आसपास के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों पर छुपी हुई अनवरत गायन कर रही थी। कुछ मनोरम दृश्य को देर तक मंत्रमुग्ध होकर देखने के बाद हम वापस लौट पड़े क्योंकि बारिश अनवरत जारी थी और अब हमें ऊपर चढ़ना था। पानी और तेज हो गया। किसी तरह हम लोग कार तक पहुंचे, कार में बैठे और मैंने ड्राइवर को डांटा, 'तुमने यह तो बताया कि जलप्रपात देखने के लिए नीचे उतरना पड़ेगा लेकिन यह नहीं बताया कि वापस आने के लिए इतना चढ़ना पड़ेगा?'
ड्राइवर मेरी डांट सुनकर मुस्कुराने लगा और चुपचाप कार स्टार्ट कर दी और अपने होटल की तरफ चल पड़ा। 

शाम होने के पहले हम मदिकेरी वापस आ गए. चौबीस घंटे हो गये थे हमें वहां पहुंचे लेकिन बारिश थमने का नाम न ले रही थी. बाजार खुले थे लेकिन ग्राहक नज़र नहीं आ रहे थे. एक जगह पर फल बिकते दिखे, वहां रूककर आम खरीदा और थोड़ा आगे बढ़कर एक दूकान से मलाबारी बड़ा लिया जो गरम था और स्वादिष्ट भी. कुछ घंटों के विश्राम के पश्चात् हम लोग रात्रि भोज के लिए निकले. भोजन के बाद शयन. हमारा कुर्ग का प्रवास संपन्न हो चुका था, अगली सुबह नौ बजे हम बंगलुरु के लिए रवाना हो गए.

शाम होते होते हम बंगलुरु पहुँच गये। बंगलुरु देखने का पहला अवसर था। खूब बड़ा शहर है। आधुनिकता से परिपूर्ण शहर में वैभव की चमक और बाज़ार की दमक देखने लायक है। अब कोई भी महानगर हो, एक जैसा दिखता है। वही बहुमंजिला इमारतें, वही बड़ी-बड़ी चमचमाती दूकानें, वही टाई-शर्ट-पैंट पहने युवा, वही अत्याधुनिक वेषभूषा में सजी-संवरी युवतियाँ। हरेक कार भागती हुई सी, मोटर-साइकिल सड़क को चीरती हुई सी। घड़ी की सुइयों में फंसी ज़िंदगियों की भाग-दौड़ जैसी मुंबई में, वैसी कोलकाता में, वैसी दिल्ली में और वैसी ही बंगलुरु में।

शहर के मध्य में स्थित होटल एम्पायर में रुके थे हम लोग, जहां पर बंगलुरु का वैभव बिखरा हुआ था। आसपास क्लब थे, स्पा थे, खानेपीने के शानदार इंतजामात थे सब तरफ। चमचमाती कारें आ रही थी, सजावटें उतर रही थीं कारों से। मैं अनाड़ी सा खड़ा उनको टुकुर-टुकुर देख रहा था। थोड़ी देर में लगने लगा, 'क्या मैं इन्हें देखकर सम्मोहित हो रहा हूँ? क्या मैं इनकी तरह इस दुनियाँ में प्रविष्ट होना चाहता हूँ?' मैंने खुद से पूछा तो जवाब मिला, 'नहीं, मैं तो केवल दर्शक बनकर उनकी खुशियों को देख रहा हूँ। किसी की खुशियों को अपनी खुशियों से जोड़ने की खुशी कुछ कमतर नहीं होती है न,'

कुछ देर में मेरे फेसबुक मित्र राहुल दुबे मुझसे मिलने आ गए। राहुल बंगलुरु में साफ्टवेयर इंजीनियर हैं। बहुत देर तक लेखन पर हम दोनों के बीच चर्चा होती रही। उनके जाने के बाद भूख लगी तो हम होटल के बाहर निकले, नान-वेज का साम्राज्य था वहाँ। एक आटो पकड़कर कुछ दूर गए जहां पर डोसा बनता दिखाई पड़ा, वही खाकर पेट भर लिया। रात बीती। सुबह हुई। नाश्ता कमरे में आया। नाश्ते के बाद कुछ खरीददारी के लिए निकल पड़े। मन-बेमन से कुछ ख़रीदारी हुई, वापसी का समय हो रहा था इसलिए होटल से सामान उठाया और हवाई-अड्डे की ओर निकल चले और रायपुर की वापसी यात्रा के लिए वायुयान में बैठ गए। इस प्रकार सद्गुरु से बंगलुरु तक की यात्रा सम्पन्न हो गयी।

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