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ये लखनऊ की सरजमीं

लखनऊ का नाम सुनते ही दिमाग में उस तहज़ीब की याद आती है, 'पहले आप, पहले आप'. फिर फिल्म 'चौदहवीं का चाँद' (1960) केे उस गीत की याद आती है जिसे शकील बदायूँनी ने लिखा था : "ये लखनऊ की सरजमीं. ये रंग रूप का चमन, ये हुस्न और इश्क का वतन यही तो वो मुकाम है, जहाँ अवध की शाम है जवां जवां हसीं हसीं, ये लखनऊ की सरजमीं. शवाब-शेर का ये घर, ये अह्ल-ए-इल्म का नगर है मंज़िलों की गोद में, यहाँ हर एक रहगुजर ये शहर ला-लदार है, यहाँ दिलों में प्यार है जिधर नज़र उठाइए, बहार ही बहार है कली कली है नाज़नीं, ये लखनऊ की सरजमीं. यहाँ की सब रवायतें, अदब की शाहकार हैं अमीर अह्ल-ए-दिल यहाँ, गरीब जां निसार है हर एक शाख पर यहाँ, हैं बुलबुलों के चहचहे गली-गली में ज़िन्दगी, कदम-कदम पे कहकहे हर एक नज़ारा दिलनशीं, ये लखनऊ की सरजमीं. यहाँ के दोस्त बावफ़ा, मोहब्बतों के आशना किसी के हो गए अगर, रहे उसी के उम्र भर निभाई अपनी आन भी, बढ़ाई दिल की शान भी हैं ऐसे मेहरबान भी, कहो तो दे दें जान भी जो दोस्ती का हो यकीं, ये लखनऊ की सरजमीं." इस बार जब लखनऊ जाने का सबब बना तो मेरी पत्नी माध...

दिलवाली दिल्ली

लेखक से साहित्यकार बनने की यात्रा लंबी होती है, कई किताबें छपवानी पड़ती हैं जबकि अंजान साहित्यकार से प्रतिष्ठित साहित्यकार की यात्रा और भी जटिल और समय-विनाशक होती है। मैंने जब लिखना शुरू किया तो सीधे आत्मकथा लिखना शुरू किया, जैसे कोई मेट्रिक पास छात्र थीसिस लिखने बैठ जाए। शुरुआत में ब्लॉग का सहारा लिया, फिर फेसबुक का, उसके बाद पहला खंड 'कहाँ शुरू कहाँ खत्म' पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ। यह पुस्तक फिल्म 'जय संतोषी माता' की तरह अनपेक्षित रूप से हिट हो गयी। उसके बाद आत्मकथा का दूसरा खंड 'पल पल ये पल' और तीसरा खंड 'दुनिया रंग बिरंगी' पुस्तकाकार में आया। कुछ दिनों बाद शब्द चित्रों का एक संग्रह 'याद किया दिल ने', यात्रा संग्रह 'मुसाफिर जाएगा कहाँ' और उपन्यास 'मद्धम मद्धम' आ भी गया। एक गैर-साहित्यकार की छह साल में छह पुस्तकें? कुछ हड़बड़ी सी नहीं लग रही है क्या? निश्चयतः हड़बड़ी तो है। मेरा व्यापार और लेखन दोनों साथ-साथ चल रहा है, इसके लिए समय प्रबंधन करना होता है, साहित्यिक कार्यक्रमों में सम्मिलित होने के लिए समय निकालना पड़ता है। कह...