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ये लखनऊ की सरजमीं

लखनऊ का नाम सुनते ही दिमाग में उस तहज़ीब की याद आती है, 'पहले आप, पहले आप'. फिर फिल्म 'चौदहवीं का चाँद' (1960) केे उस गीत की याद आती है जिसे शकील बदायूँनी ने लिखा था :
"ये लखनऊ की सरजमीं.
ये रंग रूप का चमन, ये हुस्न और इश्क का वतन
यही तो वो मुकाम है, जहाँ अवध की शाम है
जवां जवां हसीं हसीं, ये लखनऊ की सरजमीं.

शवाब-शेर का ये घर, ये अह्ल-ए-इल्म का नगर
है मंज़िलों की गोद में, यहाँ हर एक रहगुजर
ये शहर ला-लदार है, यहाँ दिलों में प्यार है
जिधर नज़र उठाइए, बहार ही बहार है
कली कली है नाज़नीं, ये लखनऊ की सरजमीं.

यहाँ की सब रवायतें, अदब की शाहकार हैं
अमीर अह्ल-ए-दिल यहाँ, गरीब जां निसार है
हर एक शाख पर यहाँ, हैं बुलबुलों के चहचहे
गली-गली में ज़िन्दगी, कदम-कदम पे कहकहे
हर एक नज़ारा दिलनशीं, ये लखनऊ की सरजमीं.

यहाँ के दोस्त बावफ़ा, मोहब्बतों के आशना
किसी के हो गए अगर, रहे उसी के उम्र भर
निभाई अपनी आन भी, बढ़ाई दिल की शान भी
हैं ऐसे मेहरबान भी, कहो तो दे दें जान भी
जो दोस्ती का हो यकीं, ये लखनऊ की सरजमीं."

इस बार जब लखनऊ जाने का सबब बना तो मेरी पत्नी माधुरी जी भी साथ हो ली. वहां जाने के पीछे कारण यह बना कि मेरे कथा संग्रह 'याद किया दिल ने' को प्रोफ़ेसर महेंद्र प्रताप स्मृति पुरस्कार सम्मान समारोह-2019 में पुरस्कृत किया जाना था.

साहित्य सृजन की कोई भी विधा हो, पढ़ी जानी चाहिए या सुनी जानी चाहिए या देखी जानी चाहिए और सम्प्रेषित होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त जब रचना चर्चित और पुरस्कृत होती है तब सर्जक को संतोष मिलता है. चर्चित होना सबके भाग्य में नहीं होता, कृति की गुणवत्ता और जन-स्वीकार्यता जरूरी है, वहीँ पर पुरस्कृत होने के लिए 'कुछ' प्रयास जरूरी होते हैं. जैसे, पुरस्कृत होने की इच्छा, जान-पहचान-पहुँच-सिफारिश और कृति की मार्केटिंग। ईमानदारी की बात यह है कि मेरी इच्छा पुरस्कृत होने की थी लेकिन अन्य जुगाड़ नहीं थे इसलिए कभी कल्पना न थी कि मेरी किसी कृति को कभी पुरस्कार मिलेगा। कुछ ऐसा लिखा भी नहीं था जो पुरस्कृत होने योग्य हो लेकिन जब खबर आयी तो मन मुदित हो गया और मैं अपने सूटकेस में नीले रंग का सूट रखकर लखनऊ पहुँच गया.

प्राचीन काल में लखनऊ कोसल राज्य के अंतर्गत था जो राजा रामचंद्र की विरासत थी जिसे उन्होंने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को हस्तांतरित की थी. उस समय इसे लक्ष्मणावती या लक्ष्मणपुर के नाम से जाना जाता था. एक जानकारी के अनुसार लखनऊ का नाम 'लखन किला' के कारीगर लखन अहीर के नाम पर प्रचलित हो गया. ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार लखनऊ की स्थापना नवाब आसफुद्दौला ने 1775 ईस्वी में की थी. अवध के शासकों ने इसे अपनी राजधानी बनाया और लखनऊ को समृद्ध किया। बाद में यहां के अय्याश और कमजोर नवाबों से बिना युद्ध किए अंग्रेजों ने सन 1850 में ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। अवध के अंतिम नवाब वाज़िद अली शाह थे जिन्होंने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार की.

लखनऊ के आम पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं, खास तौर से मलीहाबादी दसेहरी आम की सुगंध और मिठास सबका मन मोह लेती है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, ये आम 6253 हेक्टेयर में उगाए जाते हैं और इनका औसत उत्पादन 95658 टन प्रति वर्ष होता है. गर्मी के दिनों में खरबूज की पैदावार भी भरपूर होती है. गन्ना का उत्पादन क्षेत्र होने कारण आसपास अनेक शक्कर मिल स्थापित हैं. इसी तरह लखनऊ में कपड़े पर चिकन का काम लाजवाब होता है. यह यहाँ का घरेलू उद्योग है जो चौक क्षेत्र में घर-घर में चल रहा है. चिकन की कलाकारी से सुसज्जित परिधान यहां की वह विशेषता है जो अन्यत्र दुर्लभ है.

हम जब कहीं जाते हैं तो पुरानी सूचनाओं का एक काल्पनिक चित्र हमारे साथ जाता है, लखनऊ के इतिहास का भी असर हमारे साथ गया लेकिन अब वह लखनऊ न रहा. भारत के किसी अन्य महानगर की तरह फैलता-पसरता महानगर। चौड़ी सड़कों पर धमाचौकड़ी करती कारें, कारों में बैठे हृदयहीन रोबो(ट), हवा से बातें करती बाइक, बेतरह धुआं छोड़ती डीजल-चलित-ऑटो और आपस में अपरिचित मनुष्यों की भीड़. अब वह लखनऊ कहाँ, जहाँ का अदब-तहजीब कभी मशहूर था ! देश भर के लोग यहाँ से वहां विस्थापित होते हैं, फिर वहीँ बस जाते हैं और ऐसा घालमेल हो जाता है कि उस शहर की मौलिक पहचान कहीं खो सी जाती है. शायर कैफ़ी आज़मी ने लिखा था :
'अजाब में बहते थे आंसू, यहाँ लहू तो नहीं
ये कोई और जगह होगी, लखनऊ तो नहीं।'

20 जनवरी की सुबह जब हम दोनों लखनऊ के रेलवे स्टेशन में अपना सामान लेकर उतरे तो लखनऊ से मेरे फेसबुक मित्र सुधीर पांडेय हमारे लिए गुलाबों से सजा गुलदस्ता लेकर खड़े थे. उनसे पहली मुलाक़ात थी लेकिन ऐसा लगा जैसे पुरानी जान-पहचान हो. उन्होंने हमारे सब सामानों को अपने कब्जे में ले लिया और बाहर चल पड़े. उनकी कार में बैठकर हम गंतव्य की और रवाना हो गए. मैंने कहा, ",सुधीर जी, कहीं चाय पिला दीजिए, बहुत ठण्ड लग रही है."
"वहीँ ले जा रहा हूँ आपको।" सुधीर जी ने कहा.
"और क्या हाल है?"
"सर, सब ठीक है. बीस दिन पहले घर में गुड़िया आयी है."
"बधाई हो. मां-बेटी कैसी हैं?"
"बेटी स्वस्थ है लेकिन मां परेशान है."
"क्यों? क्या हुआ?"
"डाक्टर की लापरवाही का शिकार हो गयी. जांच में सब कुछ सामान्य था, जब प्रसव का समय आया तो डाक्टर ने कहा कि नार्मल डिलवरी में बच्चे को खतरा है, सर्जरी करनी होगी। मुझसे बोली, 'जल्दी बताओ, क्या करना है?' मैं क्या बोलता? मैंने कहा, 'जो उचित समझिए करिए।"
"जो हुआ, अच्छा हुआ. सर्जरी में मां को प्रसव पीड़ा नहीं सहनी पड़ती।"
"वही तो दुःख है सर, दो घंटे तक दर्द सहा दिया, उसके बाद सर्जरी की."
"कोई बात नहीं, अब तो सब ठीक है?"
"नहीं, टांके पक गए हैं, ड्रेसिंग और दवा चल रही है." सुधीर जी के चेहरे पर परेशानी के भाव उभर गये. मैंने कहा, "ठीक हो जाएगा, पिता बनने का आनंद लो।" उनका चेहरा खिल उठा. इतने में कार रुकी और हम लखनऊ के लाल बाग़ में 'शर्मा जी की चाय' के सामने खड़े थे.
उस समय दिन का दस बजा था. सड़क में रविवार होने के कारण चहल-पहल कम थी लेकिन लेकिन शर्मा जी की चाय दूकान में ग्राहकों का रेला लगा हुआ था. हमारे लिए सबसे पहले गरम समोसे और बटरपाव आया और उसके बाद कुल्हड़ में चाय.

मैंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा एक हलवाई के रूप में गुजारा है इसलिए ऐसी किसी दूकान को 'देखने और समझने' का मेरा तरीका कुछ खास है जो सामान्य व्यक्ति को समझ में नहीं आएगा। समोसा कैसा सेंका गया है? आलू का मसाला कैसा है? समोसा का वजन कितना है? बटरपाव का स्वाद कैसा है? चाय कैसी है? दूकान कैसी है? दुकानदार कैसा है? स्टाफ कैसा है? सर्विस कैसी है? ग्राहक कितने हैं? कितना कच्चा माल खपत होता होगा? कितनी बिक्री होती होगी? ये सारे सवाल मेरे दिमाग में उठते रहे और मैं वहां खड़े-खड़े कचौड़ी के आकार के गोल-गोल समोसे खा रहा था. मैं यह भी भूल गया कि मेरे मुंह में एक भी दांत नहीं है क्योंकि समोसे इतने खस्ता और स्वादिष्ट थे कि मुंह में गए और घुल गए. और चाय? हाय, कभी लखनऊ जाओ तो बड़ा इमाम बाड़ा और शर्मा जी की चाय दूकान में जरूर जाना, दोनों लाजवाब हैं।

लखनऊ में इलाहाबाद बैंक के स्टाफ कालेज में प्रोफ़ेसर महेंद्र प्रताप स्मृति पुरस्कार सम्मान समारोह का आयोजन होना था. शाम को यथासमय आयोजन आरम्भ हुआ. सभाभवन में साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों की उपस्थिति में सम्मान हुआ, पुरस्कार मिला। सबसे मेल-मुलाकात हुई, मन प्रसन्न हो गया. अगले दिन मध्यान्ह १२ बजे मेरे मित्र श्री बल्देव त्रिपाठी हमें लखनऊ दिखाने के लिए आ गये और हम सब निकल पड़े.
कार दौड़ पड़ी, हमें लखनऊ कहीं नहीं दिखा। लगा, आधुनिकता ने लखनऊ को लील लिया। जब हम रेजीडेंसी पहुंचे तो लखनऊ दिखने लगा. कार पार्क करने की जगह नहीं मिली तो हम आगे बढ़ गये और बड़ा इमामबाड़ा पहुँच गये. यहाँ आसपास कई इमामबाड़े हैं लेकिन दो सबसे अधिक प्रसिद्ध है, बड़ा और छोटा इमामबाड़ा। हम लोग एक विशालकाय इमारत के सामने खड़े थे जिसे लखनऊ रियासत में पड़े अकाल के दौरान रियाया को राहत देने के लिए नवाब आसफउद्दौला ने इसे बनवाया जिसे बड़ा इमामबाड़ा कहा जाता है. यह सन १७८४ में इसका निर्माण पूरा हुआ. ईरानी निर्माण शैली की यह विशाल गुंबदनुमा इमारत देखने और महसूस करने लायक है. इसे मरहूम हुसैन अली की शहादत की याद में बनाया गया है. इमारत की छत तक जाने के लिए ८४ सीढ़ियां हैं जो ऐसे रास्ते से जाती हैं जो किसी अन्जान व्यक्ति को भ्रम में डाल दें ताकि आवांछित व्यक्ति इसमें भटक जाए और बाहर न निकल सके. इसीलिए इसे भूलभुलैया कहा जाता है. इस इमारत की कल्पना और कारीगरी कमाल की है. ऐसे झरोखे बनाए गये हैं जहाँ वे मुख्य द्वारों से प्रविष्ट होने वाले हर व्यक्ति पर नज़र रखी जा सकती है जबकि झरोखे में बैठे व्यक्ति को वह नहीं देख सकता। ऊपर जाने के तंग रास्तों में ऐसी व्यवस्था की गयी है ताकि हवा और दिन का प्रकाश आता रहे. दीवारों को इस तकनीक से बनाया गया है ताकि यदि कोई फुसफुसाकर भी बात करे तो दूर तक भी वह आवाज साफ़ सुनाई पड़ती है. छत पर खड़े होकर लखनऊ का नज़ारा बेहद खूबसूरत लगता है. इस इमारत के बगल में चार मंजिला गहरी बावड़ी है जो उस युग के भवन-निर्माण-योजनाकारों की दूरदृष्टि और सूझबूझ का नायाब नमूना है. आप कभी लखनऊ जाएं तो इन्हें अवश्य देखिए, शानदार हैं ये. हाँ, सीढ़ियों में चढ़ने-उतरने की परेशानी है लेकिन माधुरी जी, जो घुटनों के दर्द से परेशान चल रही  हैं, भयभीत थी लेकिन लगभग दो सौ सीढ़ियों का चढ़ना-उतरना सहजता से कर लिया। उनका अनुमान था कि उस समय इमाम हुसैन साहब उनकी मदद कर रहे थे.

दोपहर को चार बज गए थे, भूख लगने लगी. बल्देव जी ने बताया कि लखनऊ के हजरतगंज में बाजपेयी की पूरी-सब्जी बहुत लोकप्रिय है, लोग लाइन लगाकर खरीदते हैं तो हम लोग भी वहां पहुंचे और लाइन में लग गए. अधिक लिखना उचित न होगा, कभी लखनऊ जाएं तो उस दूकान की पूरी-सब्जी भूलकर भी न खाएं। बगल में बाजपेयी की चाय दूकान भी है जहाँ मैं अपने मुंह की जलन शांत करने के लिए गया, वहां काउण्टर में बालूशाही दिखी। बालूशाही शानदार थी और चाय स्वादिष्ट, कभी लखनऊ जाएं तो उस दूकान की बालूशाही अवश्य खाएं और चाय भी सुड़क-सुड़क कर पियें।

कुछ दूर पर 'शुक्ला चाट हाउस' दिखा। पेट भरा हुआ था, चाट खाने की कतई गुंजाइश न थी लेकिन माधुरी जी से न रहा गया. वे बोली, "चलो, खाकर देखते हैं." एक पत्ता टिक्की मंगवाई गयी. मैं उनको टिक्की खाता चुपचाप देख रहा था. उन्होंने एक चम्मच टिक्की मेरी और बढ़ाते हुए कहा, "थोड़ा सा खाकर देखो, अच्छा है." अब बुढ़ापे में पत्नी प्यार से कुछ अनुरोध करे तो मानना पड़ता है, मैंने खाया। जो खाया उसका स्वाद अत्यंत रुचिकर था, मैंने एक पत्ता टिक्की और मंगवाया और उसे चाट-चाट कर खाया, तब समझ में आया कि इसे 'चाट' क्यों कहते हैं. मेरा अनुभव है कि पत्नी का कहना मानने वाले पति सदैव फायदे में रहते हैं, ध्यान रहे. कभी लखनऊ जाएं तो उस दूकान की टिक्की अवश्य खाएं, आप मुझे भी याद करेंगे।

आम तौर पर जिन साहित्यकारों से मैं मिला हूँ, वे सभी मुझे सीधे-सज्जन-शिष्ट लगे लेकिन मेरी किसी 'अति सीधे-सज्जन-शिष्ट' व्यक्ति से मुलाकात हुई है तो वे हैं लखनऊ के श्री बल्देव त्रिपाठी। अधिकांश लेखक आत्ममुग्ध, प्रशंसा प्रिय और अहंकारी हैं, उनमें मैं भी हूँ, वहीँ पर बल्देव त्रिपाठी हम सबसे अलग हैं. भगवान श्री कृष्ण को ऐसे ही लोग पसंद हैं.
श्रीमद्भगवदगीता में लिखा है, "अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च, निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी।" अर्थात जो मनुष्य किसी से द्वेष नहीं करता है, सभी प्राणियों के प्रति मित्रभाव रखता है, सभी जीवों के लिए दयाभाव रखने वाला है, ममता से मुक्त, मिथ्या अहंकार से मुक्त, दुःख और सुख में समभाव रखता है और सभी के अपराधों को क्षमा करने वाला है (वह भक्त मुझे प्रिय है).

अपनी सुदीर्घ शासकीय सेवा पूर्ण करने के बाद बल्देव त्रिपाठी ने अपने अनुभवों को कहानी और उपन्यास का स्वरुप दिया। उनका कहानी संग्रह 'पियरका फुलवा' आंचलिक कथाओं का संग्रह है जिस पर मेरे मित्र रणविजय राव (दिल्ली) लिखते हैं, 'त्रिपाठी जी एक रचनाकार के तौर पर समाज को आइना दिखाने और इस क्रम में एक से बढ़ कर एक अनछुए रोचक हिस्सों को उजागर किया है. इन कहानियों में आपको गाँव की सोंधी मिटटी की खुशबू, भूगोल, संस्कृति और समाज की व्यापक झलक मिलेगी।'
वहीँ पर उनके उपन्यास 'अर्थागमन' और 'विक्रय मूल्य' भारत की सामाजिक व्यवस्था तथा शासकीय कार्य प्रणाली में व्याप्त विसंगतियों का लेख-जोखा हैं. बल्देव जी का आकलन है कि हमारे आस-पास की हर छोटी घटना एक कहानी का स्वरुप ग्रहण कर सकती है. हम आप इन्हीं कहानियों के बीच में रहते हैं.

बल्देव त्रिपाठी से मेरी पहली मुलाक़ात बिलासपुर में हुई, जब वे श्री प्रेम जनमेजय द्वारा आयोजित 'व्यंग्य यात्रा' के कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए यहाँ आए थे. बिलासपुर की जान पहचान लखनऊ में उस समय आत्मीयता में बदल गयी जब सम्मान समारोह में पूरे समय उपस्थित रहे और अगले दिन हमें लखनऊ घुमाने का प्रस्ताव किया। अगले दिन वे शाम तक हमें लखनऊ शहर को दिखाते और समझाते रहे और अंत में हमें मित्र श्री महेश द्विवेदी के घर छोड़ने के बाद जब हमसे दोनों हाथ जोड़कर विदा ली, तब तक मैं उनका आशिक हो चला था. दोस्त हो तो बल्देव त्रिपाठी जैसा।

महेश द्विवेदी जी से मेरी मुलाक़ात इजिप्त की यात्रा के समय हुई थी. स्वभाव से चुप्पे हैं इसलिए चुप-चुप ही रहते थे इसलिए उस दौरान बातें नहीं हुई लेकिन इजिप्त से भारत लौटते समय जब कुवैत के हवाई अड्डे में हम लोग अगली यात्रा के लिए विमान की प्रतीक्षा में पांच घंटे बैठने के लिए मज़बूर हो गए तब  उनसे बहुत सी बातें हुई और जान-पहचान हो गयी.
महेश द्विवेदी उत्तरप्रदेश में पुलिस के सर्वोच्च पद पुलिस महानिदेशक के निर्वहन के पश्चात रिटायर हुए, अब अपने घर के ऊपर एक कमरे में अपनी पत्नी नीरजा जी के सहयोग से बच्चों का स्कूल 'ज्ञान प्रसार संस्थान' चला रहे हैं जिसमें उनकी कालोनी के आसपास के लगभग 100 गरीब बच्चे पढ़ने आते हैं, वह भी निःशुल्क। महेश द्विवेदी और उनकी पत्नी नीरजा के अतिरिक्त विद्या सिंह, आरती कपूर, सीमा बाजपेयी तथा सपना कपूर भी बच्चों को शिक्षादान का अनुकरणीय कार्य स्वेच्छा से कर रहे हैं.
महेश द्विवेदी की पुस्तक 'Interesting exposures of administration' बहुचर्चित है और वे अपने अनुभव के आधार पर रहस्योद्घाटन करते हैं कि शासन द्वारा बिठाई गई जांचों में जितनी बड़ी जांच, जैसे ज्युडीशियल इंक्वायरी या कमीशन ऑफ इंक्वायरी, उतना अधिक अपराधियों के बचने का चांस होता है. महेश द्विवेदी गद्य और पद्य, दोनों विधा में पारंगत हैं और हिंदी व अंग्रेजी लेखन में सामान अधिकार रखते हैं.

हम उनके बैठक कक्ष में प्रविष्ट हुए, जिसे 'ड्राइंगरूम' नहीं कहा जा सकता। बड़े से हाल में लकड़ी के पुराने टाइप के सोफे में लगभग दस लोगों के बैठने का इंतज़ाम, एक तरफ अधलेटी मुद्रा में एक वृद्धा और दो दरवाजे, एक बैठक में घुसने का और दूसरा रसोई घर जाने का. इतनी सादगी कि मैं उस रहन-सहन को देखकर विस्मित हो गया. मैं सोचने लगा, "क्या यह घर उस व्यक्ति का है जो उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य में पुलिस का सर्वोच्च अधिकारी रहा है?"

हम दोनों ने वृद्धा के चरण स्पर्श किए और बैठ गए. हमारे सामने महेश द्विवेदी और नीरजा जी बैठे। कुशल क्षेम पूछने के पश्चात मैंने बात की शुरुआत की, "आप?"
"मैं नीरजा की मां हूँ, सुशीला शर्मा. यहीं नीरजा के पास रहती हूँ. यही मेरी देखरेख करती है. मुझे जाने नहीं देती, कई बार मुझे यमराज के चंगुल से छुड़ा कर ले आयी." वृद्धा ने बताया। महेश और नीरजा उनकी बात सुनकर हौले-हौले मुस्कुरा रहे थे." खनकती सी गंभीर आवाज गूंजी।
"आप अस्सी की लगती हैं?"
"नाइंटी प्लस।"
"आपके बच्चे?" मैंने पूछा।
"हैं. एक लड़का आई.ए.एस है, रिटायर हो गया है और एक लड़की सुषमा है, उसके पति भी आई ए एस हैं, वे भी रिटायर हो गए हैं."
"आप उनके पास नहीं रहती?"
"नहीं, मैं यहाँ रहती हूँ, मुझे यहाँ अच्छा लगता है. वैसे, वे मुझसे मिलने यहाँ आते रहते हैं." नीरजा की मां ने बताया।

महेश जी और नीरजा जी के साथ कुछ मिस्र की यादें उभरीं, कुछ लेखन-पठन की; कुछ पारिवारिक तो कुछ अंतरंग। दो घंटे का वह साथ यादगार बन गया। उन्होंने हमें हमारे डेरे तक छोड़ा। अगले दिन मौसम खराब था, कहीं दूर जाना नहीं हो पाया। नजदीक ही मुंशी पुलिया का बाजार था, कुछ जरूरी कपड़े खरीदे। लखनऊ प्रवास का समय ख़त्म हो चला था, शाम की ट्रेन  बिलासपुर के लिए वापस हो लिए लेकिन हमारा दिल लखनऊ में छूट गया क्योंकि अभी तक हमने लखनऊ देखा ही कहाँ था? अगली बार जाऊंगा तो जी भर कर लखनऊ घूमूंगा, रेसीडेंसी देखूंगा और अपने प्रिय कवि श्री नरेश सक्सेना से मिलने जाऊंगा और उनसे पूरा दिन बैठ कर बातें करूंगा।
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