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दिलवाली दिल्ली

लेखक से साहित्यकार बनने की यात्रा लंबी होती है, कई किताबें छपवानी पड़ती हैं जबकि अंजान साहित्यकार से प्रतिष्ठित साहित्यकार की यात्रा और भी जटिल और समय-विनाशक होती है। मैंने जब लिखना शुरू किया तो सीधे आत्मकथा लिखना शुरू किया, जैसे कोई मेट्रिक पास छात्र थीसिस लिखने बैठ जाए। शुरुआत में ब्लॉग का सहारा लिया, फिर फेसबुक का, उसके बाद पहला खंड 'कहाँ शुरू कहाँ खत्म' पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ। यह पुस्तक फिल्म 'जय संतोषी माता' की तरह अनपेक्षित रूप से हिट हो गयी। उसके बाद आत्मकथा का दूसरा खंड 'पल पल ये पल' और तीसरा खंड 'दुनिया रंग बिरंगी' पुस्तकाकार में आया। कुछ दिनों बाद शब्द चित्रों का एक संग्रह 'याद किया दिल ने', यात्रा संग्रह 'मुसाफिर जाएगा कहाँ' और उपन्यास 'मद्धम मद्धम' आ भी गया। एक गैर-साहित्यकार की छह साल में छह पुस्तकें? कुछ हड़बड़ी सी नहीं लग रही है क्या? निश्चयतः हड़बड़ी तो है।

मेरा व्यापार और लेखन दोनों साथ-साथ चल रहा है, इसके लिए समय प्रबंधन करना होता है, साहित्यिक कार्यक्रमों में सम्मिलित होने के लिए समय निकालना पड़ता है। कहावत है, जहां चाह है, वहाँ राह बन जाती है। जितना मुझे लिखने में मज़ा आता है, उतना ही साहित्य चर्चा और साहित्यकारों से मिलने में भी आता है इसलिए ऐसे मौकों की तलाश में रहता हूँ। एक अवसर मेरे शाहजहांपुरी फेसबुक मित्र कवि अरविंद पथिक ने दिया। उनकी खबर आई, वे दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में मेरे लेखन को सम्मान देना चाहते हैं। दिसंबर माह की कड़कड़ाती ठंड में मैं दिल्ली पहुँच गया।

दिल्ली पहुँचने की खबर 'फेसबुक' से मैंने दी तो मेरे एक मित्र ने मुझसे अपने घर में रुकने का आग्रह किया। मैंने हाँ कर दिया। जब 'गूगल' की मदद ली तो समझ आया कि मित्र के घर से आयोजन स्थल बहुत दूरी पर है, आने-जाने में बहुत समय लगेगा तो मैंने उनसे माफी मांगी और 'ओयो' के माध्यम से एक होटल बुक किया, 'बाबा रेसिडेंसी', पहाड़ गंज, दिल्ली। 'ओयो' को मैंने अग्रिम 1004/- भुगतान कर दिया।
ठंड के दिन थे, सुबह मैं होटल पहुंचा। सफदरजंग स्टेशन से होटल तक का रास्ता शीतलहर से सामना करते हुए कटा, सांस में सांस आयी लेकिन होटल से जब मैंने रूम के लिए कहा तो उन्होने कहा, "आपका कोई रूम बुक नहीं है।"
"ये देखिए, मैंने आपके होटल में बुकिंग की है, पूरा एडवांस भी दिया है।" मैंने उन्हें कागज दिखाया।
"आपने पेमेंट 'ओयो' को दिया है, वो ही आपके होटल का इंतज़ाम करेगा।"
"क्या 'ओयो' से आपका संबंध नहीं है?''
"था, एक महीने से टूट गया।"
"फिर मैं क्या करूँ?"
"उसी से पूछिए।"
"मेरे पास उनका फोन नंबर नहीं है, आप बताइये, मैं उनसे बात करता हूँ।"
"हमारे पास उसका फोन नंबर नहीं है।''
"अरे, एक महीने पहले तक आपका 'ओयो' से संबंध था, अब उनका नंबर नहीं है आपके पास?''
"नहीं है।" काउंटर बैठे व्यक्ति ने बदतमीजी के साथ कहा और मुंह घुमाकर अपने काम में लग गया।
मैं अपने गोलबाज़ारी रंग में उतरने के लिए मजबूर हो गया था। इसके पहले कि मैं होटल वाले को छठी का दूध याद दिलाता, काउंटर के पास बैठे एक नवयुवक ने मुझे अपने पास बुलाकर बैठाया और कहा, "मेरे पास 'ओयो' का नंबर है, मैं देता हूँ।''
मैंने 'ओयो' को फोन लगाया और वहाँ का हालचाल बताया तो अधिकारी ने होटल मैनेजर से बात करवाने के लिए कहा। उन दोनों के बीच वार्तालाप हुआ तब मेरे समझ में आया कि 'ओयो' ने पिछले एक माह का भाड़ा अपने पास दबा रखा है इसलिए होटल वाला 'ओयो' के 'प्रीपेड' ग्राहक को स्वीकार नहीं कर रहा है।
उनकी बहस के बाद फोन मेरे पास वापस आया तब 'ओयो' के अधिकारी ने मुझसे कहा, "सर, हम आपको पैसे वापस कर रहे हैं, आप आसपास कोई और होटल खोज लें।''
मेरा मन बहुत खिन्न था, बहुत ठंड लग रही थी लेकिन मैं राज़ी हो गया। मैं सोच रहा था कि 'OYO' जैसा प्रतिष्ठान जो देश भर के यात्रियों से "तुरंत भुगतान" पर छूट के ऑफर पर यदि लोगों से इस तरह पैसा इकट्ठा करके होटलों को भुगतान नहीं करता और इसके भरोसे यात्रा पर निकले यात्री को एडवांस पेमेंट के बाद भी कष्ट मिलता है तो किस पर भरोसा किया जाए ?
खैर, मैंने अपना सामान उठाया और जाते-जाते पूछा, "यदि मैं आपको सीधे भुगतान करूंगा तो मुझे आप कमरा देंगे?"
"हाँ, एक हज़ार रुपया लगेगा।" मैनेजर ने कहा।
"इसमें सुबह का नास्ता शामिल है?"
"नहीं, उसका अलग लगेगा।"
"पर 'ओयो' ने नास्ता शामिल बताया था।"
"आप ओयो से बात करिए। अभी कमरा चाहिए तो सिर्फ कमरे का एक हज़ार लगेगा।" मैनेजर ने मुझे धमकाया।
उसके धमकाने से मैं धमक गया और चुपचाप एक हज़ार दिए और लिफ्ट के अंदर घुस गया। लिफ्ट में बेयरा से मैंने पूछा, "दिल्ली वाले क्या इतने बेशऊर होते हैं?"
"यहाँ का हाल मत पूछिए सर, सब ऐसे ही हैं।" बेयरा ने मुझसे धीरे से कहा। "आप क्या लेंगे? चाय या काफी?"

प्राप्त ज्ञान : किसी को भी एडवांस में ऑनलाइन भुगतान न किया जाए, भले ही बाद में अधिक पैसे लगें।

* * * * *

दिल्ली में पढ़ने वाले एक युवा को बिलासपुर के इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश मिला। युवक का नाम राजेश, मेरी पत्नी माधुरी जी की बड़ी बहन विद्या जी का बड़ा बेटा। पढ़ाई पूरी करके वह वापस दिल्ली चला गया। वहाँ बच्चों की ट्यूशन की। फोटोकापी की कंपनी मोदी जेरोक्स में सर्विस मैकेनिक का काम किया क्योंकि उन दिनों इंजीनियरों को उनकी योग्यता के मुताबिक काम नहीं मिलता था इसलिए घर में बेकार बैठने से 'कुछ' करना बेहतर था। राजेश ने सुबह से लेकर रात तक रोज पचास-साठ किलोमीटर की दौड़-भाग की, बेकारी से बेगारी भली। इंजीनियरिंग की डिग्री ली लेकिन मैकेनिक का काम किया। कितने युवा हैं हमारे आसपास जो डिग्री लेकर अपनी योग्यता के प्रतिकूल काम कर रहे हैं, कुछ बेरोजगार घूम रहे हैं क्योंकि वे 'किसी भी' काम को काम नहीं समझते बल्कि अपने अनुकूल काम की तलाश में घर बैठे रहते हैं और परिवार से नज़रें छुपाते हैं, परिवार पर बोझ बन जाते हैं। राजेश को इल्म था कि वह अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ा है, पिता टेली-कम्यूनिकेशन से रिटायर होने वाले हैं, दो बहनों का ब्याह करना है इसलिए इंजीनियरिंग की डिग्री फाइल में रखने से काम नहीं चलेगा, काम करना होगा, चाहे जो मिले।

कहते हैं, सब दिन एक समान नहीं होते। राजेश किसी बेहतर नौकरी की कोशिश में लगा रहा। संयोग से दिल्ली के इन्दिरा गांधी हवाई अड्डे में नौकरी मिल गयी लेकिन इंजीनियर के पद पर नहीं, कुछ और काम मिला। राजेश का मधुर स्वभाव और परिश्रम  रंग लाया और उसे विभागीय इंटेलिजेंस अधिकारी जैसा महत्वपूर्ण पद मिल गया। अब वह पूरे भारत की हवाईअड्डों में जांच अधिकारी की हैसियत से कर्तव्य निर्वहन करने लगा। उसके बाद उसे प्रतिनियुक्ति पर 'दिल्ली मेट्रो' में जगह मिल गयी। फोटोकापी मशीन सुधारने वाला मैकेनिक राजेश अग्रवाल दिल्ली मेट्रो का संयुक्त महा-प्रबन्धक (इंजीनियरिंग और मेंटीनेंस) है।

कनाटप्लेस स्थित दिल्ली मेट्रो का मुख्यालय दर्शनीय है, अत्यंत आकर्षक और सुविधासम्पन्न। राजेश ने बताया, "मौसा जी, हमारे यहाँ जो भी सामान मंगाया जाता है, वह 'द बेस्ट' मंगवाया जाता है ताकि बाद में रखरखाव की परेशानी न हो। जैसे, फर्नीचर 'गोदरेज' का ही आएगा क्योंकि उसकी 'क्वालिटी अश्योर्ड' है। मेट्रो में सामान की खरीदी में कोई समझौता नहीं होता, यह यहाँ का 'कल्चर' है.'
"श्रीधरन जी अब यहाँ आते हैं?" मैंने पूछा।
"कभी-कभी आते हैं। वे जब कभी यहां आते हैं, उनका प्रवचन होता है।"
"प्रवचन?"
"जी हां, यदि वे एक घंटे बोलेंगे तो पचपन मिनट श्रीमदभगवद्गीता पर बोलेंगे और पांच मिनट मेट्रो पर। वे हमें गीता के माध्यम से प्रबंधन सिखाते हैं।" राजेश ने बताया। छोटी सी मुलाक़ात के बाद मुख्यालय से निकलने के पहले मैंने स्वागत-कक्ष में स्थापित मेट्रो की अनुकृति के सामने खड़े होकर अपनी तस्वीर खिंचवाई।

कनाटप्लेस से मैं सफदरजंग एन्क्लेव की और जा रहा था, वहां मेरी फेसबुक मित्र पुष्पा गुप्ता ने मुझे भोजन हेतु निमंत्रित किया था। कनाटप्लेस से सफदरजंग एन्क्लेव का रास्ता लगभग आधे घंटे का था, मैं कल रात के सम्मान समारोह की यादों में डूब गया।

पं. रामप्रसाद बिस्मिल सम्मान समारोह दिल्ली की गाँधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजित किया गया था. पूरा भवन गाँधी जी की स्मृतियों से आच्छादित था. उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं के छायाचित्र करीने से लगे हुए थे. सभाभवन में उनकी आदमकद छबियाँ स्थापित थी. आयोजक अरविन्द पथिक ने साहित्यकारों के सम्मान समारोह के साथ कवि गोष्ठी भी आयोजित की थी. अन्य कवियों के अलावा अरविन्द पथिक ने भी अपनी ओजपूर्ण कविताएं सुनाई. गांधी शांति प्रतिष्ठान के गांधीमय माहौल में एक वीररस कवि ने अपनी कविता में महात्मा गाँधी पर पुनः गोलियां बरसाई, उपस्थित कुछ श्रोताओं ने तालियां भी बजाई. मुझे समझ में आया कि गाँधी अभी भी जीवित है. उससे घृणा करने वाले आज भी उस पर गोलियाँ बरसा रहे हैं, लोग हत्या पर हर्षध्वनि कर रहे हैं लेकिन गाँधी है कि मरता ही नहीं ! गाँधी की अंतिम यात्रा में उभरा नारा 'महात्मा गाँधी अमर रहे' आज भी अपना असर बनाए हुए है।

उस शाम दिल्ली में बहुत ठण्डक थी। हमारे बिलासपुर में ठण्ड होती नहीं, प्रचण्ड गर्मी होती है इसलिए हम लोग  गर्म सह लेते हैं लेकिन ठण्डक नहीं सुहाती। अरविन्द पथिक जी ने मेरी प्रथम कृति 'कहाँ शुरू कहाँ खत्म' के प्रकाशन में बहुत सहयोग किया था इसलिए उनका आग्रह मेरे लिए आदेश जैसा था, लेखन को सम्मान मिलना था इस वजह से दिल्ली की ठण्ड में घुस गया मैं अन्यथा कदापि न जाता। मुझसे मिलने के लिए दिल्ली के मैत्रेयी कॉलेज में हिंदी की व्याख्याता पुष्पा गुप्ता अपने पतिदेव और बेटी के संग सभागार में डेढ़ घंटे से प्रतीक्षा कर रही थी। मेरे मित्र नवीन कुमार पांडेय और  अस्थाना बीस किलोमीटर दूर से आकर बाट जोह रहे थे। संबलपुर से प्रशिक्षण लेने दिल्ली आए आदित्य और व्यंग्यकार/ आलोचक रमेश तिवारी से भी आत्मीय भेंट और चर्चा हुई। इनसे मिलकर ऐसा लगा जैसे इनको ठण्ड नहीं लगती, तब तो इतनी दूर से मिलने चले आए। रात को विदा होते समय पुष्पा जी ने अगले दिन को भोजन का निमंत्रण दिया और कहा, "कल आपको घर में एक और उपन्यास का 'प्लॉट' दूंगी।" दृष्टिहीन को क्या चाहिए, दृष्टि। मैंने हाँ कर दी।

इस समय मैं राजेश की कार में पुष्पा जी के घर की ओर बढ़ रहा हूँ। सड़कों में अधिक व्यस्तता नहीं है, थोड़ी देर में उनके घर के सामने था, वे द्वार पर खड़ी मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। मध्यमवर्गीय परिवारों जैसा फ्लेट, मध्यम आकार का ड्राइंगरूम और पारिवारिक चर्चाओं का लम्बा दौर।

रिश्तों की बात चल पड़ी। भाई-बहन के रिश्ते की। पुष्पा जी ने मुझसे पूछा, "आप भाई-बहन का झगड़ा होता है क्या?"
"बचपन में होता था लेकिन अब नहीं होता।"मैंने उत्तर दिया।
''बचपन में सब लड़ते हैं लेकिन गृहस्थी बस जाने के बाद जो झगड़ा यहाँ होता है, उसे सुनकर आप दंग रह जाएंगे।"
"किस बात का झगड़ा?"
"जायदाद का।"
"भाई-बहन के बीच?"
"जी। इधर मां-बाप के प्राण निकले, उधर भाई बहन का रिश्ता बिगड़ा।"
"भाई-बहन का रिश्ता कैसे बिगड़ जाएगा?"
"चिता की आग ठंडी नहीं होती और लड़की जायदाद की चर्चा छेड़ कर यह कहते हुए अपनी ससुराल चली जाती है, 'शांति पाठ के समय आऊंगी, तब तक आपस में तय कर लो, मेरा हिस्सा अलग कर देना।'
"दुःख के समय कोई ऐसी बात करता है?"
"काहे का दुःख? हो गया रोना-धोना। अब महाभारत शुरू।"
"मान लो, माता-पिता की देखरेख भाई ने की, इलाज़ में खर्च किया, वह बंटवारे के हिसाब में आता होगा?"
"इन बातों का बहनों से कोई लेना-देना नहीं, उन्हें जायदाद में बराबर का हिस्सा चाहिए। 'मां-बाप की सेवा करना पुत्र का कर्तव्य है, हमारा नहीं', लड़कियां कहती हैं।"
"ऐसा क्यों हो गया?"
"भाई साहब, ये दिल्ली है। यहाँ प्रापर्टी की कीमतें बहुत बढ़ गयी हैं और भावनाओं का मूल्य बहुत कम हो गया है।" पुष्पा जी ने बताया।

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