तब जब अब जबलपुर
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(१)
अपनी ससुराल होने के कारण मुझे शहर जबलपुर अत्यंत प्रिय है क्योंकि वहाँ दामाद होने के कारण मेरे मान-सम्मान की स्थायी व्यवस्था बनी हुई है यद्यपि सास-श्वसुर अब न रहे लेकिन तीन में से दो भाई, मदन जी और कैलाश जी, मुझे अभी भी अपना जीजा मानते हुए अपने माता-पिता की कोमल भावनाओं का प्रसन्नतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं।
मैं पहली बार जबलपुर विवाह में बाराती बन
कर दस वर्ष की उम्र (सन 1957) में गया था। मोहल्ला हनुमानताल, सेठ गोविंद दास की 'बखरी' के कुछ आगे, जैन मंदिर के पास, सेठ परसराम अग्रवाल
के घर, जहां से उनकी भतीजी मंदो का ब्याह मेरे बड़े भाई रूपनारायण जी के
साथ हुआ था। उन्हीं दिनों सेठ गोविंद दास की 'बखरी' के बाजू में स्थित एक घर में एक वर्ष की एक नहीं सी लड़की जिसका
नाम माधुरी था, वह घुटनों के बल पूरे घर में घूमती और खड़े होने का अभ्यास करती
हुई बार-बार गिर जाती थी। इसी घर में 8 मई 1975 में मैं दूल्हा बनकर आया था तब माधुरी 19 वर्ष की हो चुकी थी, वे मेरी अर्धांगिनी
बनी।
जबलपुर का ज़िक्र निकलता है तो
मुझे सुभद्रा कुमारी चौहान की याद आती है जिनकी कविता 'चमक उठी सन सत्तावन में वह
तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी
वाली रानी थी'- को मैंने अपने बचपन में कंठस्थ किया था, आज भी याद है. सुभद्रा कुमारी
चौहान का जन्म नागपंचमी के दिन इलाहाबाद के निकट निहालपुर नामक गांव में
रामनाथसिंह के जमींदार परिवार में हुआ था। सन १९१९ में
खण्डवा के ठाकुर लक्छ्मनसिंह से विवाह के बाद वे जबलपुर आकर बस गई थी। सन १९२१ में उन्होंने गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में भाग लिया और स्वाधीनता संग्राम
में वे दो बार जेल गई। उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- बिखरे मोती (१९३२) उन्मादिनी (१९३४) सीधे साधे चित्र (१९४७) और दो कविता
संग्रह- मुकुल तथा त्रिधारा।
जबलपुर का ज़िक्र निकलता है तो
मुझे सेठ गोविंददास की याद आती है जिन्होंने मात्र सोलह वर्ष की आयु में 'चंपावती', 'कृष्णलता' और 'सोमलता' नामक उपन्यास लिखे। इसी तरह शेक्सपीयर के 'रोमियो-जूलियट', 'एज़ यू लाइक इट', 'पेटेव्कीज प्रिंस ऑफ टायर' और 'विंटर्स
टेल' नामक प्रसिद्ध नाटकों के आधार पर 'सुरेन्द्र-सुंदरी', 'कृष्णकामिनी', 'होनहार' और 'व्यर्थ
संदेह' नामक उपन्यासों की भी रचना की। 'वाणासुर-पराभव' नामक काव्य, 'विकास' और 'नवरस' नामक नाटक लिखे। हिन्दी भाषा की हित-चिंता में
तन-मन-धन से संलग्न सेठ गोविंददास ने संसद में दृढ़ता से हिन्दी का पक्ष
लिया। वे हिन्दी के प्रबल पक्षधर और संवाहक
थे।
जबलपुर का ज़िक्र निकलता है तो
मुझे 'उषा भार्गव कांड' की याद आती है जो
हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़कने की वज़ह बना और उसी कारण से तात्कालीन प्रधानमंत्री
जवाहरलाल नेहरू ने जबलपुर पर एक अभद्र टिप्पणी की थी।
जबलपुर का ज़िक्र निकलता है तो
मुझे फिल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' की याद आती है। 'ओ बसंती पवन पागल, न जा रे न जा, रोको कोई', इस गीत के शूटिंग भेड़ाघाट में हुई थी। सुना है कि शूटिंग के दौरान
वहाँ ऐसा हुड़दंग मचा कि राजकपूर इस गाने की अधूरी शूटिंग करके वापस चले गए और बंबई
के आर॰के॰स्टुडियो में भेड़ाघाट का 'सेट' लगवाकर बचा हुआ फिल्मांकन किया।
जबलपुर का ज़िक्र निकलता है तो
मुझे आचार्य रजनीश की याद आती है जिनका पठन-पाठन-अध्यापन जबलपुर में हुआ और संबोधि
प्राप्त हुई। उनका जन्म भले ही वहाँ नहीं हुआ था लेकिन वे जबलपुर से ही माने जाते
रहे। बीसवी शताब्दि में जन्मे उत्कृष्ट विद्वानों की सूची में वे भी हैं। वे मेरे
द्रोणाचार्य थे, मैं उनका एकलव्य।
जबलपुर का ज़िक्र निकलता है तो
मुझे हरिशंकर परसाई की याद आती है जो हिन्दी साहित्य में व्यंग्य लेखन के पुरोधा
थे, मस्त, फक्कड़ और निडर इंसान थे, जबलपुर की शान थे।
(२)
मेरा जन्म छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में हुआ, परिणाम
यह हुआ कि मैं पैदायशी कमअक्ल हूँ। मेरा मतलब यह नहीं है कि छत्तीसगढ़ी अल्पबुद्धि
होते हैं बल्कि यह है कि यहाँ पर जन्मा व्यक्ति स्वभाव से सीधा और भोला-भाला होता
है। खास तौर से जब मैं जबलपुर वालों से अपनी तुलना करता हूँ तो उनकी तीक्ष्ण बुद्धि, वाक-चातुर्य, आक्रामकता
और दूरदृष्टि को देखता हूँ तो मुझमें अपनी कमियों का अहसास होने लगता है। वैसे तो
ऐसे अनुभव मुझे घर में प्रतिदिन होते हैं लेकिन
जब जबलपुर जाता हूँ तो इसका मूल श्रोत मुझे तुरंत समझ में आ जाता है। काश, मैं
जबलपुर में जन्मा होता !
पहले
अक्सर जबलपुर जाना होता था, ससुराल है लेकिन अब सुख-दुख में ही जाना होता
है। इस बार का एक-दिवसीय दौरा दुखद-कार्य में सम्मिलित होने के कारण बना इसलिए
मुझे वहाँ पहली बार 'गरुड़ पुराण' सुनने का अवसर मिला। पंडितजी से मैंने गरुड़ पुराण
का आठवाँ और नौवाँ अध्याय सुना, मन
प्रसन्न हो गया। आप सोचेंगे कि दुख भरे माहौल में मेरा मन प्रसन्न क्यों हुआ ? सच तो
यह है कि पूरे समय मैं अपने चेहरे में दुख भाव चिपकाए रहने में सफल रहा लेकिन
पुराण में वर्णित बातें बड़े काम की थी। चूंकि मेरे जीवनकाल अब अंतिम चरण में चल
रहा है, मृत्यु के पश्चात
किस तरह स्वर्ग जाया जा सकता है उसका 'शार्ट-कट' मुझे
पता चल गया। गरुड़ पुराण की बातें विस्तार से बताऊंगा तो आप 'बोर' हो
जाएंगे क्योंकि उसके विवरण रोचक नहीं है बल्कि उबाऊ हैं। मेरा अनुमान है कि गरुड़
पुराण की रचना करने वाले विद्वान बनियों की संगत में थे क्योंकि अपने देश में
बनिया प्रजाति के लोग ही दूसरे के जेब का माल अपनी झोली में खींच लेने में प्रवीण
माने जाते हैं। रचनाकार ने दोनों अध्यायों में दान-पुण्य की महिमा को इस तरह
समझाया है ताकि मृतक का परिवार अर्जित धन को ब्राह्मण की झोली में निःसंकोच
विसर्जित कर दे। पुराण के सूत्रों के अनुसार अगर मुक्त-हस्त दान किया जाए तो
मृत्यु के पश्चात भवसागर को पार करना सहज और अवश्यसंभावी है।
मुझे
यह भी समझ में आया कि जीवन में पवित्रता और सज्जनता निरर्थक है, जो मन
आए करो, सारे पापों से मुक्त होने के समस्त 'शार्ट-कट' उपाय
इस ग्रंथ में लिख दिये गए हैं। आम तौर पर इसका पाठ किसी व्यक्ति की मृत्यु के
पश्चात करवाया जाता है इसलिए मृतक इसका लाभ नहीं उठा पाता। इस पुराण का पाठ मनुष्य
को युवावस्था में ही सुन लेना चाहिए ताकि जीवन भर गलत काम से डरने का स्थायी भय
उचित समय में ही दूर हो जाए। हो सके तो आप भी गरुड़ पुराण सुन लीजिए। मैं तो सच में
बहुत 'रिलेक्स' हो गया हूँ, मेरा
शेष जीवन अब तनावमुक्त बीतेगा।
(3)
हमारा छत्तीसगढ़ तालाबों से परिपूर्ण है। हर गाँव में कुछ हो न
हो, तालाब अवश्य रहता है। छत्तीसगढ़ के पृथक
राज्य बनने के पश्चात नए तालाबों की खोदाई का काम बहुत बड़े पैमाने पर हुआ। बस्ती
में तालाब का होना याने जल संरक्षण की जागरूकता होना है जो पुरातन काल से चली आ
रही है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर तालाबों का शहर हुआ करता था, शहर बढ़ता गया और तालाब भरते गए। तालाबों में पानी भरना बंद हो
गया, उसकी जगह उनमें लोहा और क्रांकीट भरने
लगा। कभी रायपुर में पचास फुट खोदने में पानी मिल जाता था, आज पाँच सौ फुट में भी मुश्किल है। यही हाल जबलपुर का हुआ।
जबलपुर में भी ताल ही ताल हुआ करते थे, संग्राम
सागर, हनुमान ताल, चेरी ताल, भंवर ताल, सूफा ताल, रानी ताल, फूटा ताल, मढ़ा ताल, माढ़ो ताल, देव ताल, गोकलपुर ताल, बेला ताल, ठाकुर ताल, महानद्दा
ताल, पाण्डु ताल, खंभा ताल, गुलौवा ताल, भान तलैया, शाही ताल, हाथी ताल, गंगासागर, कदम तलैया, बेनी की
तलैया, श्रीनाथ की तलैया, तिलकभूमि तलैया, ककरैय्या
तलैय्या, गोपालबाग की तलैय्या, जलपरी लेक आदि 52 तालाब हुआ
करते थे। इनमें से कुछ तो केवल नाम के तालाब रह गए, अब वहाँ भी मनुष्यों की आबादी बस गई जो जल को सोखती है, उसे भरती नहीं।
रिश्तेदारी होने के कारण
हनुमान ताल से मेरा रिश्ता अब साठ साल का हो चुका है, धन्यभाग्य हमारे कि हनुमान ताल
अब भी ताल है, जलप्लावित है। जबलपुर की एक सुबह साढ़े पाँच बजे हम पति-पत्नी 'मार्निंग वाक' के लिए निकले तो हमारे सामने
लगभग एक किलोमीटर में एक चक्कर लगाने लायक खूबसूरत नज़ारा था। शरद ऋतु का प्रभात
मनोहारी होता है। ठंडी हवा के मध्यम-गति-झोंके, पक्षियों की चहचाहट, मस्जिद से उठती अजान की आवाज़, मंदिरों से गूँजते भजन का
मनमोहक मिला-जुला आभास हमारे आसपास तैर रहा था। उस सुबह बहुत से लोग भ्रमण के लिए
निकले हुए थे, कुछ स्वास्थ्य के प्रति जागरूक तो कुछ शर्करा या हृदय रोग के कारण
डाक्टर द्वारा पैदल चलने के लिए मजबूर किए गए रोगी।
तालाब के किनारे बने एक छोटे से मंदिर के बाहर एक व्यक्ति
दीवार में साइकल से निकले पुराने टायर टांग रहा था, वह उसकी वह पंक्चर सुधारने की फुटपाथी दूकान थी। थोड़ा आगे बढ्ने पर
चाय की दो दूकानें खुल चुकी थी। इतनी सुबह यदि दूकानें खुल रही थी तो इसका मतलब है
कि अवश्य ही ग्राहकी होगी। मेरे बिलासपुर में तो अब ऐसे दृश्य दिखाई नहीं पड़ते। एक
ज़माना था कि पौ फटने के पहले हलवाइयों की दूकानों की भट्ठियाँ सुलगने लगती थी, हाँ, उसी समय
सड़कों पर झाड़ू करने वाले कार्मिक भी सक्रिय दिखाई पड़ते थे ताकि नागरिकों के सड़क पर
आने के पूर्व ही सब कुछ साफ-सुथरा हो जाए। अधिकांश लोग सूर्योदय के पूर्व बिस्तर
छोड़ देते थे और अपने काम से लग जाते थे। अब वर्तमान जीवनशैली ऋतु-परिवर्तन-चक्र की
तरह खिसक गई है। ऋतु-वैज्ञानिकों ने शोध किया है कि अब से पचास वर्ष बाद सभी ऋतुएं
तीन माह आगे खिसक जाएंगी, याने, ठंड का मौसम नवंबर-दिसंबर-जनवरी के बदले फरवरी-मार्च-अप्रैल
में होगा ! इसी तरह मेरे शहर का समय भी खिसक गया है, अब,
दूकानें सुबह दस बजे खुलनी शुरू
होती हैं और अधिकांश लोग सूर्योदय के बहुत देर बाद उठने लग गए हैं, सफाईकर्मी भी आठ बजे सड़क पर अवतरित होते है। हमें अच्छा लगा कि
जबलपुर सुबह जल्दी जाग जाता है और अपने काम से लग जाता है।
(४)
जलेबी
मूल रूप से अरबी शब्द है और इसका असली नाम है
जलाबिया। यूं जलेबी को विशुद्ध भारतीय मिठाई मानने वाले भी हैं। शरदचंद्र पेंढारकर
'बनजारे बहुरूपिये शब्द' में जलेबी का प्राचीन भारतीय नाम कुंडलिका बताते हैं। वे
रघुनाथकृत ‘भोज कुतूहल’ नामक ग्रंथ का हवाला भी देते हैं जिसमें इस व्यंजन के बनाने
की विधि का उल्लेख है। भारतीय मूल पर जोर देने वाले इसे ‘जल-वल्लिका’ कहते
हैं। रस से परिपूर्ण होने की वजह से इसे यह नाम मिला और फिर इसका रूप जलेबी हो
गया। फारसी और अरबी में इसकी शक्ल बदल कर हो गई जलाबिया। उत्तर पश्चिमी भारत और
पाकिस्तान में जहां इसे जलेबी कहा जाता है वहीं महाराष्ट्र में इसे जिलबी कहा जाता
है और बंगाल में इसका उच्चारण जिलपी करते हैं। जाहिर है बांग्लादेश में भी यही नाम
चलता है। इसका आकार पेंचदार होता है, स्वाद
मीठा। जलेबी का स्वाद न जाने कब से हिंदुस्तानियों पर अपना असर जमाए बैठा है।
जलेबी को गरम-गरम बनते-निकलते देख अच्छे-अच्छों का स्वाद-संयम टूट जाता है। इसके
आविष्कारक की जितनी तारीफ की जाए, कम है, वह खोपड़ी गज़ब की खोपड़ी रही होगी ! जलेबी शब्द का उपयोग कहावत
के रूप में भी प्रचलित है, 'हाय रे...जलेबी
जैसे सीधी।'
मैं दस
वर्ष की उम्र से हलवाई के धंधे से जुड़ा हुआ हूँ, अधिकांश मिठाइयाँ और नमकीन बनाना सीखा। मिठाई और नमकीन बनाना बहुत
मेहनत का काम है,
जितनी मेहनत चाहिए उतनी समझ और
कलाकारी भी जरूरी है। गरम घी की 'तइया' पर हाथ घुमा कर जलेबी बनाते हुए कारीगर को देखकर यह अनुमान
नहीं लगाया जा सकता कि जलेबी का फंदा बनाना और उसे सीखना कितना कठिन है। पुराने समय अपने देश में मैदे की
जलेबी बनती चली आ रही है। किसी अक्ल वाले इन्सान ने प्रचलित जलेबी को एक नई विधि
से बनाने की बात सोची। उसने मैदे की जगह भीगी हुई उड़द दाल का छिलका निकाल कर और
बारीक पीसकर उसे जलेबी जैसा रूप दिया और उसके घेरे को कंगूरे से सजा दिया। ये
कंगूरे राजस्थान और उत्तरप्रदेश के इमारतों के बाहर निकले छज्जों की सज्जा-शैली से
लिए गए प्रतीत होते हैं। इसे केसरिया रंग दिया गया और नाम रखा गया- इमरती। इन्हीं
इमारतों से आया हुआ शब्द लगता है, इमरती। उसके बाद फिर किसी नवोन्मेषी कारीगर
ने मैदे की जलेबी को गुलाबजामुन से जोड़ दिया, अर्थात मैदे के घोल को गुलाबजामुन की 'मल्ली' में मिलाकर, 'लतनी' का छेद
बड़ा करके उसकी मोटी-मोटी जलेबी बना दी। जब प्रयोग सफल रहा, लोगों को उसका स्वाद अच्छा लगा तो इसे उपवास में खाई जाने
वाली फलाहारी मिठाई के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। चूंकि उपवास में मैदा
वर्जित है इसलिए उसमें मैदे की जगह खोवा, सिंघाड़े
का आटा और तीखुर मिला कर इसे बनाया गया। आपकी जानकारी के लिए, सिंघाड़ा एक फल है जो तालाब में बोया-उगाया जाता है और तीखुर
जंगल की जमीन में होने वाला कन्द-मूल है। व्रत-उपवास में सिंघाड़ा और तीखुर खाना
स्वीकार्य है। इस प्रकार जलेबी की एक नई किस्म विगत शताब्दी में विकसित हुई जो 'खोवे की जलेबी' के नाम
से लोकप्रिय हुई।
संभवतः
खोवे की जलेबी का प्रचलन मध्यप्रदेश के जबलपुर से आरंभ हुआ जहां बड़ी संख्या में
व्रत करने और उपवास रखने वाले लोग हैं, खास तौर
से वहाँ के जैन परिवार। सन 1889 में
(स्व॰) हरप्रसाद बड़कुल ने जबलपुर में मिठाई की दूकान खोली, उनके काम को उनके पुत्र (स्व॰) मोतीलाल बड़कुल ने आगे बढ़ाया, अब बड़कुल की तीसरी और चौथी पीढ़ी इसे चला रही है। ऐसा माना
जाता है कि इसी दूकान में खोवे की जलेबी का आविष्कार हुआ। अपने अनुभव और स्वाद की
जानकारी के हिसाब से मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि समस्त भारत में इस
दूकान की खोवे की जलेबी जैसा बेहतरीन स्वाद किसी और का नहीं है। कभी जबलपुर जाएँ
तो कमनिया गेट पर स्थित इस दूकान से कृष्णकली जैसी काली-कलूटी-रसीली खोवे की जलेबी
का आनंद अवश्य लें और मुझे याद करें।
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Bahut sachhi. Jankari
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