राजस्थान अंग्रेजों के ज़माने में राजपूताना कहलाता था क्योंकि इस क्षेत्र में अजमेर-मेरवाड़ा और भरतपुर को छोड़कर अन्य भूभाग पर राजपूतों की रियासतें थी. बारहवीं सदी के पूर्व यहाँ गुर्जरों का राज्य था इसलिए इस क्षेत्र को गुर्जरत्रा कहा जाता था.
अजमेर-मेरवाड़ा अंग्रेजों के अधीन था जबकि भरतपुर में जाटों के. कुल मिलाकर छोटी-बड़ी 21 रियासतें थी जिन्हें स्वाधीन भारत में शामिल करना बेहद कठिन था क्योंकि अधिकतर राजा एकीकरण के पक्ष में नहीं थे, कुछ खुद-मुख्त्यारी चाहते थे तो कुछ पाकिस्तान में विलय चाहते थे. स्वाधीन भारत के तात्कालीन गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वी. के. मेनन ने इस असंभव को संभव कर दिखाया और उसकी परिणिति बनी, भारतवर्ष का नूतन राज्य, राजस्थान, जो 30 मार्च 1949 को संवैधानिक रूप से गठित हुआ.
राजस्थान की आकृति पतंगाकार है. इसके उत्तर में पाकिस्तान, पंजाब और हरियाणा, दक्षिण में मध्यप्रदेश और गुजरात, पूर्व में उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश एवं पश्चिम में पाकिस्तान हैं. सिरोही से अलवर जाती हुई अरावली-पर्वत-श्रृंखला राज्य को दो भागों में विभाजित करती है. राजस्थान का पूर्वी संभाग शुरु से ही उपजाऊ रहा है. इस भाग में वर्षा का औसत 50 से.मी. से 90 से.मी. तक है. राजस्थान के निर्माण के पश्चात् चम्बल और माही नदी पर बड़े-बड़े बांध और विद्युत गृह बने हैं, जिनसे राजस्थान को सिंचाई और बिजली की सुविधाएं उपलब्ध हुई है. अन्य नदियों पर भी मध्यम श्रेणी के बांध बने हैं, जिनसे यहाँ के खेतों में सिंचाई होती है।
राज्य का पश्चिमी भाग देश के सबसे बड़े रेगिस्तान 'थार' का भाग है. इस भाग में वर्षा का औसत 12 से.मी. से 30 से.मी. है. इस भाग में लूनी, बांड़ी आदि नदियां हैं जो वर्षा के दिनों को छोड़कर प्राय: सूखी रहती हैं. देश की स्वतंत्रता से पूर्व बीकानेर राज्य गंगा नहर द्वारा पंजाब की नदियों से पानी प्राप्त करता था, स्वतंत्रता के बाद राजस्थान इण्डस-बेसिन से रावी और व्यास नदियों से 52.6% पानी का भागीदार बन गया. उक्त नदियों का पानी राजस्थान में लाने के लिए सन 1958 में 'राजस्थान नहर' परियोजना शुरु की गई. जोधपुर, बीकानेर, चूरू एवं बाड़मेर जिलों के नगर और कई गांवों को इस नहर के माध्यम से पीने का पानी उपलब्ध हो रहा है. राजस्थान के रेगिस्तान का एक बड़ा भाग अब शस्य-श्यामला भूमि में बदल गया है.
अजमेर-मेरवाड़ा अंग्रेजों के अधीन था जबकि भरतपुर में जाटों के. कुल मिलाकर छोटी-बड़ी 21 रियासतें थी जिन्हें स्वाधीन भारत में शामिल करना बेहद कठिन था क्योंकि अधिकतर राजा एकीकरण के पक्ष में नहीं थे, कुछ खुद-मुख्त्यारी चाहते थे तो कुछ पाकिस्तान में विलय चाहते थे. स्वाधीन भारत के तात्कालीन गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वी. के. मेनन ने इस असंभव को संभव कर दिखाया और उसकी परिणिति बनी, भारतवर्ष का नूतन राज्य, राजस्थान, जो 30 मार्च 1949 को संवैधानिक रूप से गठित हुआ.
राजस्थान की आकृति पतंगाकार है. इसके उत्तर में पाकिस्तान, पंजाब और हरियाणा, दक्षिण में मध्यप्रदेश और गुजरात, पूर्व में उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश एवं पश्चिम में पाकिस्तान हैं. सिरोही से अलवर जाती हुई अरावली-पर्वत-श्रृंखला राज्य को दो भागों में विभाजित करती है. राजस्थान का पूर्वी संभाग शुरु से ही उपजाऊ रहा है. इस भाग में वर्षा का औसत 50 से.मी. से 90 से.मी. तक है. राजस्थान के निर्माण के पश्चात् चम्बल और माही नदी पर बड़े-बड़े बांध और विद्युत गृह बने हैं, जिनसे राजस्थान को सिंचाई और बिजली की सुविधाएं उपलब्ध हुई है. अन्य नदियों पर भी मध्यम श्रेणी के बांध बने हैं, जिनसे यहाँ के खेतों में सिंचाई होती है।
राज्य का पश्चिमी भाग देश के सबसे बड़े रेगिस्तान 'थार' का भाग है. इस भाग में वर्षा का औसत 12 से.मी. से 30 से.मी. है. इस भाग में लूनी, बांड़ी आदि नदियां हैं जो वर्षा के दिनों को छोड़कर प्राय: सूखी रहती हैं. देश की स्वतंत्रता से पूर्व बीकानेर राज्य गंगा नहर द्वारा पंजाब की नदियों से पानी प्राप्त करता था, स्वतंत्रता के बाद राजस्थान इण्डस-बेसिन से रावी और व्यास नदियों से 52.6% पानी का भागीदार बन गया. उक्त नदियों का पानी राजस्थान में लाने के लिए सन 1958 में 'राजस्थान नहर' परियोजना शुरु की गई. जोधपुर, बीकानेर, चूरू एवं बाड़मेर जिलों के नगर और कई गांवों को इस नहर के माध्यम से पीने का पानी उपलब्ध हो रहा है. राजस्थान के रेगिस्तान का एक बड़ा भाग अब शस्य-श्यामला भूमि में बदल गया है.
राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य है. इसका
क्षेत्रफल 342,239 वर्ग-किलोमीटर है. सन 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की जनसंख्या 68,548,437 थी और जनसंख्या का घनत्व 200 प्रति वर्ग-किलोमीटर.
वेब पत्रिका 'सृजनगाथा डाट काम' के द्वारा नियोजित बारह दिवसीय १४वें अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में देश के विभिन्न भागों से आए हिंदी साहित्य के रचनाकारों ने राजस्थान की यात्रा की और साहित्यिक विमर्श किया. हमारा पहला पड़ाव था, राजस्थान की राजधानी जिसे गुलाबी शहर के नाम से जाना जाता है, जयपुर.
इस शहर की स्थापना सन 1728 में आमेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने की थी. जयपुर शहर अपने ऐतिहासिक महत्व, स्थापत्य कला और सांस्कृतिक रुझान के लिए सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है. यहाँ के किले, महल और झील दर्शनीय हैं, खास तौर से आमेर का किला, कल्पना और कारीगरी का अनोखा शाहकार है.
इस शहर के निर्माण के सन्दर्भ में वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य को लोग शिद्दत से याद करते हैं जो आमेर दरबार की कचहरी में एक नायब दरोगा थे लेकिन वास्तुकला में उनकी गहरी समझ और योग्यता से प्रभावित होकर महाराजा ने उन्हें नयी राजधानी की नगर योजना की जिम्मेदारी सौंपी. इस शहर के वास्तु की ज्यामितीय उत्कृष्टता इतनी सटीक है कि कोई इसे सूत से नाप ले तो बाल बराबर फर्क भी नहीं मिलेगा. नगर की सुरक्षा के लिए निर्मित परकोटे में प्रवेश के लिए सात दरवाजे बने हैं, एक दरवाजा बाद में बना जिसे 'न्यू गेट' कहते हैं. शहर छः भागों में बनता हुआ है और 111 फुट चौड़ी सड़कों से विभाजित है. यहाँ जलमहल, जंतर मंतर, आमेर महल, नाहरगढ़ का किला और हवामहल इतिहास और स्थापत्यकला की दृष्टि से दर्शनीय है.
गुलाब एक फूल का नाम है जिसकी देशी प्रजाति का एक विशिष्ट रंग है जो गुलाबी कहलाता है. यह बताना मेरे लिए मुश्किल है कि गुलाबी रंग के कारण फूल का नाम गुलाब हुआ या गुलाब के फूल के रंग के कारण रंग का नाम गुलाबी हो गया. सन 1876 में इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ व प्रिंस ऑफ़ वेल्स एल्बर्ट के स्वागत में तात्कालीन महाराजा सवाई रामसिंह ने पूरे जयपुर नगर को गुलाबी रंग से पुतवाया था, तब से यह परंपरा अब तक चली आ रही है. देखने में वहां का रंग मुझे गुलाबी नहीं लगा, धूसर सा है पर जब लोग कहते हैं तो वह रंग गुलाबी ही होगा.
जयपुर रेलवे-स्टेशन पर जयपुरिया मित्र श्री फारुक अफरीदी मुझे लेने आये और कार को एक लस्सी की दूकान पर रोका, 'सबसे पहले जयपुर की लस्सी हो जाए क्योंकि आपका होटल यहाँ से बारह किलोमीटर दूर है, वहां पहुँचने में देर लगेगी.' वे बोले. यद्यपि अक्तूबर का महीना था लेकिन जयपुर उस दिन तप रहा था, मई-जून जैसी गर्मी, ऊपर से अकुलाहट. जब गिलासनुमा सकोरे में मलाई से सराबोर लस्सी आई तो उसे देखते ही मन प्रसन्न हो गया. लस्सी शानदार थी. उन्होंने मुझे होटल छोड़ा. दोपहर के भोजन के बाद मेरा सोने का अभ्यास है, उस दोपहर बिना खाए सो गया क्योंकि वहां भोजन का प्रावधान ही नहीं था लेकिन लस्सी का सहारा था, नींद आ गयी. शाम को पांच बजे नींद खुली, मैं फटाफट तैयार हुआ. काउंटर में पता किया तो मालूम हुआ कि सब लोग कार्यक्रम स्थल के लिए बस से रवाना हो गए, 'किसी' का क्या दोष? मुझे स्वयं सतर्क रहना था और समय पर समूह के साथ कार्यक्रम के लिए निकलना था.
वह मुहर्रम की शाम थी, सड़कें और ऑटो ठसाठस थे. एक घंटे की कठिन तपस्या के पश्चात एक ऑटो मिला. 'सूचना केंद्र' में कार्यक्रम चल रहा था. वहां मेरी आत्मीय मुलाक़ात जयपुर के श्री नन्द भरद्वाज से हुई, श्री किशन कुमार पुरोहित से हुई, श्री गोविन्द माथुर से हुई, श्री हरीश करमचंदानी से भी हुई, इन सबसे मिलकर बहुत अच्छा लगा. लगभग दस बजे रात्रि को कार्यक्रम समाप्त हुआ. हम सब अपनी बस से होटल के लिए रवाना हुए लेकिन मुहर्रम की भीड़ की वज़ह से हमारी बस भटक गयी और हमें होटल पहुँचने में रात को एक बज गए. सुबह से कुछ नहीं खाया था, भूख चरम पर थी. हमारे वहां पहुंचते तक भोजन की टेबल पर रोटी और छोले की तरी बची हुई मिली. 'कुछ और' के लिए पूछा तो 'कुक' से उत्तर मिला, 'आठ बजे से खाना बना कर रखा हूँ, तीन बार गरम कर चुका हूँ. रात को एक बजे आए हो, सब ख़त्म हो गया. जो है, उसे खा लो.' मजबूरन जो था, उसे मैंने खा लिया और अपने साथी डा.सुनील जाधव (नांदेड़) के साथ बिस्तर शेयर करके सो गया.
अगली सुबह मैंने अपने पुराने मित्र प्रवीण नाहटा को फोन करके अपने जयपुर आने की खबर की. वे मुझे लेने बिरला मंदिर आये, समूह के अन्य सदस्य जयपुर दर्शन के लिए निकल गए और मैं प्रवीण जी के घर चला गया. मैंने उनसे कहा कि मुझे जयपुर की उन हस्तियों से मिलना है जो संस्कृति, कला और संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हों. आधे घंटे के प्रयास के बाद हमें वीणा वादक सलिल भट्ट और गजल गायक हुसैनबंधु से मिलने का समय मिल गया और मूर्तिकार अर्जुन प्रजापति से भी फोन पर बात हुई लेकिन वे व्यस्त थे इसलिए उनसे समय न मिल सका. दोपहर को एक बजे हम दोनों श्री सलिल भट्ट के घर पहुँच गए.
जब एक घर के सामने प्रवीण जी की कार रुकी, मैं बाहर निकला तो माहौल की तपन ने झुलसा सा दिया. भागते हुए घर के बाहर लगी फुलवारी में घुसे, आगे बढ़कर घंटी बजाई, एक गृहिणी ने द्वार खोला और हमारा स्वागत किया. ये श्रीमती प्रमिला भट्ट थी. कहा, 'आइए, बैठिए.'
सोफे पर हम दोनों बैठ गए. कुछ ही क्षणों में उनके पति श्री राजीव भट्ट आ गए और एक ट्रे में ठंडा पानी लेकर प्रमिला जी.
कुशल-क्षेम के आदानप्रदान के बाद प्रवीण जी ने उनसे मेरा परिचय कराया और हमारे वहां पहुँचने का उद्देश्य बताया. मोहन-वीणा वादक श्री विश्वमोहन भट्ट उस दिन जयपुर में नहीं थे लेकिन उनके पुत्र सलिल भट्ट घर पर थे, प्रमिला जी ने उन्हें हमारे आने की खबर अपने मोबाईल से दी. सलिल जी के आने तक हम लोग आपसी चर्चा में मशगूल हो गए. राजीव भट्ट और प्रमिला भट्ट जयपुर में संगीत की शिक्षा के पर्याय हैं. गायन और वाद्य संगीत की सभी विधाओं में प्रवीण हैं दोनों. उनके संगठन का नाम है 'दर्शक', जिसके अंतर्गत वे नवोदित पीढ़ी को संगीत से जुड़ने और सीखने में मदद करते हैं. हर वर्ष स्वाधीनता दिवस पर जयपुर के बिड़ला आडिटोरियम एक कार्यक्रम विगत सोलह वर्षों से करते आ रहे हैं, 'हम गीत वतन के गाएंगे', जिसमें देशभक्ति के गीत गाए जाते हैं और उस कार्यक्रम में 100 गायक, 10 संगीतकार और 50 नर्तक भाग लेते हैं.
इस दंपत्ति को नाटकों से भी प्यार है. जयपुर में प्रत्येक वर्ष सात दिवसीय 'फुग्गे' उत्सव मनाया जाता है जिसमें राजीव भट्ट, दीपक गेरा और संजीव सचदेव की त्रिमूर्ति नाटकों का आयोजन करती है.
नाटक की चर्चा चली तो एक रोचक घटना की याद सामने आई. प्रवीण नाहटा ने मुझे बताया, 'इन्हें शिकायत थी कि हम इतनी मेहनत से नाटक तैयार करते हैं लेकिन उसे देखने के लिए दर्शक नहीं आते.'
'तो?' मैंने पूछा.
'मैंने इनसे कहा कि 300 प्रवेशपत्र 'राजस्थान पत्रिका' के कार्यालय में एक दिन पहले पहुंचा दीजिए.'
'फिर?'
'अगले दिन हमारे अखबार में छपा, 'फुग्गे' नाट्य उत्सव का प्रवेश पत्र 'राजस्थान पत्रिका' के कार्यालय में निःशुल्क उपलब्ध है. सीमित मात्रा में है. जो पहले आएगा, उसे मिलेगा.' शाम तक सारे प्रवेशपत्र ख़त्म हो गए, परिणामस्वरूप नाटकों के हर 'शो' में भीड़ बनी रही.' प्रवीण जी ने बताया, 'इन्हें नाटक के दर्शक मिल गए और हमारे अखबार का सामाजिक सरोकार सिद्ध हो गया.'
इतने में सलिल जी, सलिल भट्ट, हमारे सामने आ बैठे. सांवले से, बड़े-लटकते हुए बाल, चेहरे पर मोहक मुस्कान, अच्छा खासा डीलडौल. मैंने उनसे कहा, 'आपका कार्यक्रम बिलासपुर के 'विचारमंच-सरगम' में दो वर्ष पूर्व हुआ था, तब आपको पहली बार मैंने सुना था, आज भी आपकी वीणा की ध्वनि मेरे कान में गूंजती है.'
'सब मेरे गुरु और पिता विश्वमोहन जी का आशीर्वाद है और मेरे दादा-गुरु पंडित रविशंकर की कृपा है.' सलिल भट्ट ने अपने दोनों कान छूते हुए कहा.
सात्विक वीणावादक सलिल भट्ट ने पैंतालिस मिनट की बातचीत में संगीत, संगीत के प्रभाव, संगीत की हालत और संगीतकारों के मनोविज्ञान पर खुलकर विचार व्यक्त किए. उन्होंने सुझाव दिया, 'संगीत को 'नर्सरी' से ही पाठ्यक्रम का अनिवार्य विषय बनाया जाना चाहिए. इस सम्बन्ध में एक ज्ञापन मेरे गुरु पद्मविभूषण विश्व मोहन भट्ट ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सौंपा है. संगीत महज़ शिक्षा नहीं है, संस्कार है. संगीत से जुड़ा इंसान अपनी मर्यादा को जानता है. मैं अपने बेटे और बेटी को हर समय संगीत के माहौल में रखता हूँ. उनके सामने चाहे कोई बड़ा हो या छोटा; स्त्री हो पुरुष; बच्चा हो या वृद्ध, वे कभी भी किसी से अशोभनीय व्यवहार नहीं करेंगे.
हमारे देश में जब लड़की होती है तो उसे समझाते हैं कि झुककर रहो; छुप कर रहो, जबकि अपने लड़के को कुछ नहीं कहते. वह छुट्टा सांड की तरह घूमता है, उसे कुछ नहीं समझाते. इसी कारण राम रहीम जैसे लोग बनते हैं. संगीत इंसान को इंसान बनाकर रखता है और उसे मानवीयता से जोड़ता है. हमें समाज में जानवर नहीं, इंसान चाहिए. उसे इंसान बनाने की जिम्मेदारी हमारी है.'
'संगीत के माध्यम से आप पीढ़ी को समझदार और मानवीय बना रहे हैं, यह स्तुत्य है. मैंने कहा.
'हम किस के ऊपर अहसान नहीं कर रहे हैं. अपने जीवन में अच्छा काम करने से हमें ख़ुशी मिलती है. अब आपने सुना होगा, कलाकार को जब सम्मान मिल जाता है, उसका नाम फ़ैल जाता है तो उसके नाज़-नखरे बढ़ जाते हैं. वह ऐसा व्यवहार करने लगता है जैसे वह कोई अनोखा बन गया है. यह बात ठीक नहीं, मनुष्य को हर स्थिति में सहज होना चाहिए.' सलिल जी ने कहा.
'अपने संगीत जीवन की कोई ऐसी घटना बताइए जिसने आपको दुखी कर दिया हो और ऐसी भी बताइए जिसने आपको खुश किया हो.' मैंने पूछा.
'एक बार की बात है, मैं 'स्पिक मैके' की और से पानीपत गया था. वहां मुझसे आयोजक ने मुझसे पूछा, "इसको कब चलाओगे?"
"यह कार या गाड़ी नहीं हैं जिसे चलाया जाए. इसे चलाया नहीं जाता, इसके तारों को झंकृत किया जाता है.'
"हाँ, हाँ, गिटार है न यह? कब बजाओगे?"
"यह गिटार नहीं है, सात्विक वीणा है."
"जो भी हो, कब बजाओगे?'' उसने मुझसे पूछा. उसकी बात सुनकर थोड़ा बुरा लगा कि मैं 'कल्चर' नहीं 'एग्रीकल्चर' जानने वालों के बीच आ गया. कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है लेकिन यदि हम अपना आपा खो दें तो वह हमारी कमजोरी है. उसकी अज्ञानता को मैंने मुस्कुरा कर टाल दिया.'
'और कोई यादगार घटना?'
'वह भी पानीपत की ही है. एक कार्यक्रम में मंच पर बड़ा बैनर लगा हुआ था जिसमें पंडित विश्वमोहन भट्ट और पंडित रविशंकर के चित्र लगे हुए थे. उसे देखकर मैंने कहा, "आज मैं धन्य हो गया कि आज इस मंच में मेरे गुरु और उनके गुरु के चित्र लगे हुए हैं. मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं उनकी उपस्थिति में मैं वीणा बजा रहा हूँ. आज मैं अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ वादन प्रस्तुत करने की कोशिश करूंगा.'' सलिल जी ने हंसते हुए बताया.
दोपहर के समय खोले के हनुमान जी के मंदिर में आयोजित एक भोज में राजस्थानी व्यंजन का आनंद लिया. तीन किस्म की बाटी, तीन किस्म का चूरमा, तीन किस्म की सब्जी. सब कुछ शुद्ध घी से तर, मज़ा आ गया. हमारे घर में तो शुद्ध घी और खाद्य तेल के उपयोग पर 'राशनिंग' है. माधुरी जी जब खाना बनाती हैं तो सब्जी बनाते समय उसमें चार बूँद तेल गिनकर डालती हैं और दाल या खिचड़ी में दो-दो बूंद शुद्ध घी को टपका देती हैं, ऊपर से कहती हैं, 'तेल-घी से शरीर बिगड़ता है. वैसे ही नब्बे किलो के हो, और मोटाना है क्या?' काश, हमारे भाग्य में कोई राजस्थानी बीवी होती तो हम भी घी में तैरते-उतराते!
शाम के वक्त मैं सवाई मानसिंह मेडिकल कालेज के सभाभवन में पहुंचा. प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन से वहीँ पर हमारी मुलाकात तय थी. उन्हें आमने-सामने देखकर मन प्रफुल्लित हो गया. वहां पर स्नेह सुरमंडल की ओर से 'सूफी कल्चरल इवनिंग' का आयोजन था जिसमें देश के नवोदित गायक मयूख पारीक (मुंबई), मोहम्मद सलीम (भोपाल) और मोहम्मद अमान (सारेगामा फेम) अपनी गायकी का प्रस्तुतीकरण कर रहे थे. इन गायकों को वे जिस ढंग से उत्साहित कर रहे थे, उसे देखकर उनका बड़प्पन झलक रहा था. अपनी किशोरावस्था में संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा था, जिसके उत्तरार्द्ध का भावार्थ था, 'फलों से लदा हुआ वृक्ष सदा झुका हुआ होता है.'
तीन अक्तूबर की सुबह हम लोग अजमेर के लिए निकल पड़े. अजमेर में हमारा स्वागत साहित्य प्रेमी स्वामी ज्योतिषाचार्य ने किया जहाँ से एक सर्व-धर्म-सद्भाव यात्रा निकली. पदयात्रा में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन और प्रजापिता ब्रह्मकुमारी के प्रमुख हमारे साथ नगर की मुख्य सड़क से होते हुए श्री गणेश मंदिर, सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती (1141-1236) की दरगाह और चर्च गए तथा सामूहिक आराधना की. राह में जगह-जगह नागरिक हम पर गुलाब के फूल की सुगन्धित पंखुडियां बरसा रहे थे. कितना शुभ हो कि ऐसी पवित्र भावना का प्रसार देश के प्रत्येक नगर, कस्बे और गाँव में हो.
अगली सुबह पुष्कर में हुई. वहां के लघु-प्रवास के पश्चात हम लोग अजमेर के लिए निकल पड़े. हम लोग दो बस में सवार थे. एक बड़ी बस थी और एक मझोली. जयपुर में मैं मझोली बस में बैठ गया तो जोधपुर तक उसमें ही बैठा रह गया. धीरे-धीरे सब एक-दूसरे से परिचित होते गए और गाते-झगड़ते आठ दिन तक साथ-साथ रहे. हमारी बस में एक तेज-तर्रार सात वर्षीय बालक था, आयुष, जो समस्तीपुर में पदस्थ श्री अशोक कुमार (राज्य पुलिस सेवा) और श्रीमती शीला का पुत्र है, हम सबके आकर्षण का केंद्र था. चलती बस में उसने हम सबके नाम पूछकर अपनी डायरी में नोट किया और घोषणा की, 'कल की बस यात्रा में मैं सबको पुरस्कार दूंगा.' हमने पूछा, 'क्या देने वाले हो आयुष?'
'सीक्रेट है, कल मालूम पड़ेगा.' उसने कहा.
राजस्थान में 'ओरिजनल ब्यूटी' की तलाश है तो वह पुष्कर के आसपास की गाड़िया-लोहार, सासी, नटिया और कालबेलिया जाति की स्त्रियों में मिलेगी. ये घुमक्कड़ कौम है, इनका कोई घर नहीं होता लेकिन इनके चेहरे में कोई दुःख का भाव नहीं होता, ये सदा मुस्कुराते रहती हैं. चेहरे पर कोई मेकअप नहीं लेकिन चेहरे का रंग सुनहरा. कालबेलिया जाति की स्त्रियां सर्प-नृत्य में प्रवीण होती है, यायावरी जीवन जीती हैं और अभाव में भी खुश रहना जानती हैं.
नागौर और अजमेर के बीच के कई गाँव 'कूबड़ पट्टी' कहलाते हैं. आप सोच रहे होंगे की ऐसा नामकरण क्यों हुआ? कारण यह है कि अजमेर से जुड़े गाँवों में पानी की बहुत कमी है, वहीँ पर पुष्कर से जुड़े गाँवों में पानी उपलब्ध है लेकिन यह पानी दूषित है, पानी में 'फ्लोराइड' की मात्रा बहुत है. इस पानी के पीने से 'स्केलेटल फ्लोरोसिस' नामक बीमारी हो जाती है और उसके सेवन से मनुष्य में कूबड़ निकल जाता है. यहाँ जायल विधानसभा क्षेत्र में 120 से अधिक गाँव हैं जो इस दूषित पानी को पीने के लिए अभिशप्त हैं.
पुष्कर से हम बीकानेर के लिए निकल पड़े. बहुत लम्बा और उजाड़ रास्ता था. बस के अन्दर दो साहित्यकारों के बीच साहित्यिक विमर्श चल रहा था, विमर्श बहस में बदल गया, आवाज़ तेज हो गई. तीसरे भी उसमें प्रविष्ट हो गए, अब त्रिकोणीय मुकाबला हो रहा था. हमारी बस में कार्यक्रम सञ्चालन का काम सुनील जाधव ने संभल रखा था. विमर्श को बहस तक पहुँचाने में उनका भी योगदान था. जब तीनों रचनाकार बोलते-बोलते थक गए तो वे चुप हो गए. ए.सी. चालू होने के बावज़ूद बस का माहौल गर्म हो गया. सुनील जाधव ने उनकी चुप्पी का लाभ उठाते हुए कविता पाठ करने का अनुरोध किया, कविता और ग़ज़ल का लंबा दौर चला. बीच-बीच में कोई सबके लिए पेड़े बढ़ा देता, कोई नमकीन का पैकेट तो कोई पका हुआ केला. हमारे साथ कत्थक नृत्यांगना अनुराधा दुबे थी जिन्होंने चलती बस में विभिन्न भाव-मुद्राओं का फर्माइशी प्रस्तुतीकरण किया. इस बीच आयुष ने घोषणा की कि वह कल के घोषित पुरस्कार देने जा रहा है. आयुष ने बहुत परिश्रम से सभी के लिए ग्रीटिंग-कार्ड जैसे फोल्डर बनाए थे. मुखपृष्ठ पर खूबसूरत फूल की पेंटिंग और अन्दर के पृष्ठ में हर व्यक्ति को अलग-अलग उपाधियाँ. इतनी कम आयु में बच्चे की समझ और कल्पनाशीलता ने सबका मन मोह लिया.
हमारे सहयात्री श्री सेवाशंकर अग्रवाल (सरायपाली) ने बस-ड्राइवर से जाकर कुछ बात की और हमारी बस हाई-वे से बायीं ओर एक कच्ची सड़क में मुड़ गयी. हम वहां पहुँच गए जहाँ मीरां का जन्मस्थल था, श्री कृष्ण-मीरां का मंदिर था. मीरां बाई (1504-1558) का जन्म राठौड़ की मेड़तिया शाखा के प्रवर्तक राव दूदाजी के पुत्र रतनसिंह के यहां मेड़ता में हुआ था. मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज से मीरां का ब्याह हुआ था. कुछ समय बाद वे विधवा हो गयी थी. मीरां बचपन से ही कृष्ण भक्त थी. उनकी कृष्ण-भक्ति ससुराल में किसी को पसंद नहीं थी. कहते हैं कि उनकी कृष्णभक्ति से रुष्ट होकर उन्हें विष दिया गया था, सर्प भेजा गया परंतु मीरां बच गयी. अपने अंतिम दिनों में उन्होंने मेवाड़ छोड़ दिया और वृंदावन होती हुई द्वारिका पहुँच गयी जहाँ उनके जीवन का अंत हुआ. मीरां के पद राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में हैं. हृदय की गहरी पीड़ा, विरह की अनुभूति और प्रेम की तन्मयता से परिपूर्ण मीरां के पद गीतिकाव्य के उत्तम उदाहरण हैं.
'बादल देख डरी हो, स्याम, मैं बादल देख डरी
स्याम मैं बादल देख डरी.
वेब पत्रिका 'सृजनगाथा डाट काम' के द्वारा नियोजित बारह दिवसीय १४वें अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में देश के विभिन्न भागों से आए हिंदी साहित्य के रचनाकारों ने राजस्थान की यात्रा की और साहित्यिक विमर्श किया. हमारा पहला पड़ाव था, राजस्थान की राजधानी जिसे गुलाबी शहर के नाम से जाना जाता है, जयपुर.
इस शहर की स्थापना सन 1728 में आमेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने की थी. जयपुर शहर अपने ऐतिहासिक महत्व, स्थापत्य कला और सांस्कृतिक रुझान के लिए सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है. यहाँ के किले, महल और झील दर्शनीय हैं, खास तौर से आमेर का किला, कल्पना और कारीगरी का अनोखा शाहकार है.
इस शहर के निर्माण के सन्दर्भ में वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य को लोग शिद्दत से याद करते हैं जो आमेर दरबार की कचहरी में एक नायब दरोगा थे लेकिन वास्तुकला में उनकी गहरी समझ और योग्यता से प्रभावित होकर महाराजा ने उन्हें नयी राजधानी की नगर योजना की जिम्मेदारी सौंपी. इस शहर के वास्तु की ज्यामितीय उत्कृष्टता इतनी सटीक है कि कोई इसे सूत से नाप ले तो बाल बराबर फर्क भी नहीं मिलेगा. नगर की सुरक्षा के लिए निर्मित परकोटे में प्रवेश के लिए सात दरवाजे बने हैं, एक दरवाजा बाद में बना जिसे 'न्यू गेट' कहते हैं. शहर छः भागों में बनता हुआ है और 111 फुट चौड़ी सड़कों से विभाजित है. यहाँ जलमहल, जंतर मंतर, आमेर महल, नाहरगढ़ का किला और हवामहल इतिहास और स्थापत्यकला की दृष्टि से दर्शनीय है.
गुलाब एक फूल का नाम है जिसकी देशी प्रजाति का एक विशिष्ट रंग है जो गुलाबी कहलाता है. यह बताना मेरे लिए मुश्किल है कि गुलाबी रंग के कारण फूल का नाम गुलाब हुआ या गुलाब के फूल के रंग के कारण रंग का नाम गुलाबी हो गया. सन 1876 में इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ व प्रिंस ऑफ़ वेल्स एल्बर्ट के स्वागत में तात्कालीन महाराजा सवाई रामसिंह ने पूरे जयपुर नगर को गुलाबी रंग से पुतवाया था, तब से यह परंपरा अब तक चली आ रही है. देखने में वहां का रंग मुझे गुलाबी नहीं लगा, धूसर सा है पर जब लोग कहते हैं तो वह रंग गुलाबी ही होगा.
जयपुर रेलवे-स्टेशन पर जयपुरिया मित्र श्री फारुक अफरीदी मुझे लेने आये और कार को एक लस्सी की दूकान पर रोका, 'सबसे पहले जयपुर की लस्सी हो जाए क्योंकि आपका होटल यहाँ से बारह किलोमीटर दूर है, वहां पहुँचने में देर लगेगी.' वे बोले. यद्यपि अक्तूबर का महीना था लेकिन जयपुर उस दिन तप रहा था, मई-जून जैसी गर्मी, ऊपर से अकुलाहट. जब गिलासनुमा सकोरे में मलाई से सराबोर लस्सी आई तो उसे देखते ही मन प्रसन्न हो गया. लस्सी शानदार थी. उन्होंने मुझे होटल छोड़ा. दोपहर के भोजन के बाद मेरा सोने का अभ्यास है, उस दोपहर बिना खाए सो गया क्योंकि वहां भोजन का प्रावधान ही नहीं था लेकिन लस्सी का सहारा था, नींद आ गयी. शाम को पांच बजे नींद खुली, मैं फटाफट तैयार हुआ. काउंटर में पता किया तो मालूम हुआ कि सब लोग कार्यक्रम स्थल के लिए बस से रवाना हो गए, 'किसी' का क्या दोष? मुझे स्वयं सतर्क रहना था और समय पर समूह के साथ कार्यक्रम के लिए निकलना था.
वह मुहर्रम की शाम थी, सड़कें और ऑटो ठसाठस थे. एक घंटे की कठिन तपस्या के पश्चात एक ऑटो मिला. 'सूचना केंद्र' में कार्यक्रम चल रहा था. वहां मेरी आत्मीय मुलाक़ात जयपुर के श्री नन्द भरद्वाज से हुई, श्री किशन कुमार पुरोहित से हुई, श्री गोविन्द माथुर से हुई, श्री हरीश करमचंदानी से भी हुई, इन सबसे मिलकर बहुत अच्छा लगा. लगभग दस बजे रात्रि को कार्यक्रम समाप्त हुआ. हम सब अपनी बस से होटल के लिए रवाना हुए लेकिन मुहर्रम की भीड़ की वज़ह से हमारी बस भटक गयी और हमें होटल पहुँचने में रात को एक बज गए. सुबह से कुछ नहीं खाया था, भूख चरम पर थी. हमारे वहां पहुंचते तक भोजन की टेबल पर रोटी और छोले की तरी बची हुई मिली. 'कुछ और' के लिए पूछा तो 'कुक' से उत्तर मिला, 'आठ बजे से खाना बना कर रखा हूँ, तीन बार गरम कर चुका हूँ. रात को एक बजे आए हो, सब ख़त्म हो गया. जो है, उसे खा लो.' मजबूरन जो था, उसे मैंने खा लिया और अपने साथी डा.सुनील जाधव (नांदेड़) के साथ बिस्तर शेयर करके सो गया.
अगली सुबह मैंने अपने पुराने मित्र प्रवीण नाहटा को फोन करके अपने जयपुर आने की खबर की. वे मुझे लेने बिरला मंदिर आये, समूह के अन्य सदस्य जयपुर दर्शन के लिए निकल गए और मैं प्रवीण जी के घर चला गया. मैंने उनसे कहा कि मुझे जयपुर की उन हस्तियों से मिलना है जो संस्कृति, कला और संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हों. आधे घंटे के प्रयास के बाद हमें वीणा वादक सलिल भट्ट और गजल गायक हुसैनबंधु से मिलने का समय मिल गया और मूर्तिकार अर्जुन प्रजापति से भी फोन पर बात हुई लेकिन वे व्यस्त थे इसलिए उनसे समय न मिल सका. दोपहर को एक बजे हम दोनों श्री सलिल भट्ट के घर पहुँच गए.
जब एक घर के सामने प्रवीण जी की कार रुकी, मैं बाहर निकला तो माहौल की तपन ने झुलसा सा दिया. भागते हुए घर के बाहर लगी फुलवारी में घुसे, आगे बढ़कर घंटी बजाई, एक गृहिणी ने द्वार खोला और हमारा स्वागत किया. ये श्रीमती प्रमिला भट्ट थी. कहा, 'आइए, बैठिए.'
सोफे पर हम दोनों बैठ गए. कुछ ही क्षणों में उनके पति श्री राजीव भट्ट आ गए और एक ट्रे में ठंडा पानी लेकर प्रमिला जी.
कुशल-क्षेम के आदानप्रदान के बाद प्रवीण जी ने उनसे मेरा परिचय कराया और हमारे वहां पहुँचने का उद्देश्य बताया. मोहन-वीणा वादक श्री विश्वमोहन भट्ट उस दिन जयपुर में नहीं थे लेकिन उनके पुत्र सलिल भट्ट घर पर थे, प्रमिला जी ने उन्हें हमारे आने की खबर अपने मोबाईल से दी. सलिल जी के आने तक हम लोग आपसी चर्चा में मशगूल हो गए. राजीव भट्ट और प्रमिला भट्ट जयपुर में संगीत की शिक्षा के पर्याय हैं. गायन और वाद्य संगीत की सभी विधाओं में प्रवीण हैं दोनों. उनके संगठन का नाम है 'दर्शक', जिसके अंतर्गत वे नवोदित पीढ़ी को संगीत से जुड़ने और सीखने में मदद करते हैं. हर वर्ष स्वाधीनता दिवस पर जयपुर के बिड़ला आडिटोरियम एक कार्यक्रम विगत सोलह वर्षों से करते आ रहे हैं, 'हम गीत वतन के गाएंगे', जिसमें देशभक्ति के गीत गाए जाते हैं और उस कार्यक्रम में 100 गायक, 10 संगीतकार और 50 नर्तक भाग लेते हैं.
इस दंपत्ति को नाटकों से भी प्यार है. जयपुर में प्रत्येक वर्ष सात दिवसीय 'फुग्गे' उत्सव मनाया जाता है जिसमें राजीव भट्ट, दीपक गेरा और संजीव सचदेव की त्रिमूर्ति नाटकों का आयोजन करती है.
नाटक की चर्चा चली तो एक रोचक घटना की याद सामने आई. प्रवीण नाहटा ने मुझे बताया, 'इन्हें शिकायत थी कि हम इतनी मेहनत से नाटक तैयार करते हैं लेकिन उसे देखने के लिए दर्शक नहीं आते.'
'तो?' मैंने पूछा.
'मैंने इनसे कहा कि 300 प्रवेशपत्र 'राजस्थान पत्रिका' के कार्यालय में एक दिन पहले पहुंचा दीजिए.'
'फिर?'
'अगले दिन हमारे अखबार में छपा, 'फुग्गे' नाट्य उत्सव का प्रवेश पत्र 'राजस्थान पत्रिका' के कार्यालय में निःशुल्क उपलब्ध है. सीमित मात्रा में है. जो पहले आएगा, उसे मिलेगा.' शाम तक सारे प्रवेशपत्र ख़त्म हो गए, परिणामस्वरूप नाटकों के हर 'शो' में भीड़ बनी रही.' प्रवीण जी ने बताया, 'इन्हें नाटक के दर्शक मिल गए और हमारे अखबार का सामाजिक सरोकार सिद्ध हो गया.'
इतने में सलिल जी, सलिल भट्ट, हमारे सामने आ बैठे. सांवले से, बड़े-लटकते हुए बाल, चेहरे पर मोहक मुस्कान, अच्छा खासा डीलडौल. मैंने उनसे कहा, 'आपका कार्यक्रम बिलासपुर के 'विचारमंच-सरगम' में दो वर्ष पूर्व हुआ था, तब आपको पहली बार मैंने सुना था, आज भी आपकी वीणा की ध्वनि मेरे कान में गूंजती है.'
'सब मेरे गुरु और पिता विश्वमोहन जी का आशीर्वाद है और मेरे दादा-गुरु पंडित रविशंकर की कृपा है.' सलिल भट्ट ने अपने दोनों कान छूते हुए कहा.
सात्विक वीणावादक सलिल भट्ट ने पैंतालिस मिनट की बातचीत में संगीत, संगीत के प्रभाव, संगीत की हालत और संगीतकारों के मनोविज्ञान पर खुलकर विचार व्यक्त किए. उन्होंने सुझाव दिया, 'संगीत को 'नर्सरी' से ही पाठ्यक्रम का अनिवार्य विषय बनाया जाना चाहिए. इस सम्बन्ध में एक ज्ञापन मेरे गुरु पद्मविभूषण विश्व मोहन भट्ट ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सौंपा है. संगीत महज़ शिक्षा नहीं है, संस्कार है. संगीत से जुड़ा इंसान अपनी मर्यादा को जानता है. मैं अपने बेटे और बेटी को हर समय संगीत के माहौल में रखता हूँ. उनके सामने चाहे कोई बड़ा हो या छोटा; स्त्री हो पुरुष; बच्चा हो या वृद्ध, वे कभी भी किसी से अशोभनीय व्यवहार नहीं करेंगे.
हमारे देश में जब लड़की होती है तो उसे समझाते हैं कि झुककर रहो; छुप कर रहो, जबकि अपने लड़के को कुछ नहीं कहते. वह छुट्टा सांड की तरह घूमता है, उसे कुछ नहीं समझाते. इसी कारण राम रहीम जैसे लोग बनते हैं. संगीत इंसान को इंसान बनाकर रखता है और उसे मानवीयता से जोड़ता है. हमें समाज में जानवर नहीं, इंसान चाहिए. उसे इंसान बनाने की जिम्मेदारी हमारी है.'
'संगीत के माध्यम से आप पीढ़ी को समझदार और मानवीय बना रहे हैं, यह स्तुत्य है. मैंने कहा.
'हम किस के ऊपर अहसान नहीं कर रहे हैं. अपने जीवन में अच्छा काम करने से हमें ख़ुशी मिलती है. अब आपने सुना होगा, कलाकार को जब सम्मान मिल जाता है, उसका नाम फ़ैल जाता है तो उसके नाज़-नखरे बढ़ जाते हैं. वह ऐसा व्यवहार करने लगता है जैसे वह कोई अनोखा बन गया है. यह बात ठीक नहीं, मनुष्य को हर स्थिति में सहज होना चाहिए.' सलिल जी ने कहा.
'अपने संगीत जीवन की कोई ऐसी घटना बताइए जिसने आपको दुखी कर दिया हो और ऐसी भी बताइए जिसने आपको खुश किया हो.' मैंने पूछा.
'एक बार की बात है, मैं 'स्पिक मैके' की और से पानीपत गया था. वहां मुझसे आयोजक ने मुझसे पूछा, "इसको कब चलाओगे?"
"यह कार या गाड़ी नहीं हैं जिसे चलाया जाए. इसे चलाया नहीं जाता, इसके तारों को झंकृत किया जाता है.'
"हाँ, हाँ, गिटार है न यह? कब बजाओगे?"
"यह गिटार नहीं है, सात्विक वीणा है."
"जो भी हो, कब बजाओगे?'' उसने मुझसे पूछा. उसकी बात सुनकर थोड़ा बुरा लगा कि मैं 'कल्चर' नहीं 'एग्रीकल्चर' जानने वालों के बीच आ गया. कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है लेकिन यदि हम अपना आपा खो दें तो वह हमारी कमजोरी है. उसकी अज्ञानता को मैंने मुस्कुरा कर टाल दिया.'
'और कोई यादगार घटना?'
'वह भी पानीपत की ही है. एक कार्यक्रम में मंच पर बड़ा बैनर लगा हुआ था जिसमें पंडित विश्वमोहन भट्ट और पंडित रविशंकर के चित्र लगे हुए थे. उसे देखकर मैंने कहा, "आज मैं धन्य हो गया कि आज इस मंच में मेरे गुरु और उनके गुरु के चित्र लगे हुए हैं. मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं उनकी उपस्थिति में मैं वीणा बजा रहा हूँ. आज मैं अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ वादन प्रस्तुत करने की कोशिश करूंगा.'' सलिल जी ने हंसते हुए बताया.
दोपहर के समय खोले के हनुमान जी के मंदिर में आयोजित एक भोज में राजस्थानी व्यंजन का आनंद लिया. तीन किस्म की बाटी, तीन किस्म का चूरमा, तीन किस्म की सब्जी. सब कुछ शुद्ध घी से तर, मज़ा आ गया. हमारे घर में तो शुद्ध घी और खाद्य तेल के उपयोग पर 'राशनिंग' है. माधुरी जी जब खाना बनाती हैं तो सब्जी बनाते समय उसमें चार बूँद तेल गिनकर डालती हैं और दाल या खिचड़ी में दो-दो बूंद शुद्ध घी को टपका देती हैं, ऊपर से कहती हैं, 'तेल-घी से शरीर बिगड़ता है. वैसे ही नब्बे किलो के हो, और मोटाना है क्या?' काश, हमारे भाग्य में कोई राजस्थानी बीवी होती तो हम भी घी में तैरते-उतराते!
शाम के वक्त मैं सवाई मानसिंह मेडिकल कालेज के सभाभवन में पहुंचा. प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन से वहीँ पर हमारी मुलाकात तय थी. उन्हें आमने-सामने देखकर मन प्रफुल्लित हो गया. वहां पर स्नेह सुरमंडल की ओर से 'सूफी कल्चरल इवनिंग' का आयोजन था जिसमें देश के नवोदित गायक मयूख पारीक (मुंबई), मोहम्मद सलीम (भोपाल) और मोहम्मद अमान (सारेगामा फेम) अपनी गायकी का प्रस्तुतीकरण कर रहे थे. इन गायकों को वे जिस ढंग से उत्साहित कर रहे थे, उसे देखकर उनका बड़प्पन झलक रहा था. अपनी किशोरावस्था में संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा था, जिसके उत्तरार्द्ध का भावार्थ था, 'फलों से लदा हुआ वृक्ष सदा झुका हुआ होता है.'
तीन अक्तूबर की सुबह हम लोग अजमेर के लिए निकल पड़े. अजमेर में हमारा स्वागत साहित्य प्रेमी स्वामी ज्योतिषाचार्य ने किया जहाँ से एक सर्व-धर्म-सद्भाव यात्रा निकली. पदयात्रा में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन और प्रजापिता ब्रह्मकुमारी के प्रमुख हमारे साथ नगर की मुख्य सड़क से होते हुए श्री गणेश मंदिर, सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती (1141-1236) की दरगाह और चर्च गए तथा सामूहिक आराधना की. राह में जगह-जगह नागरिक हम पर गुलाब के फूल की सुगन्धित पंखुडियां बरसा रहे थे. कितना शुभ हो कि ऐसी पवित्र भावना का प्रसार देश के प्रत्येक नगर, कस्बे और गाँव में हो.
अगली सुबह पुष्कर में हुई. वहां के लघु-प्रवास के पश्चात हम लोग अजमेर के लिए निकल पड़े. हम लोग दो बस में सवार थे. एक बड़ी बस थी और एक मझोली. जयपुर में मैं मझोली बस में बैठ गया तो जोधपुर तक उसमें ही बैठा रह गया. धीरे-धीरे सब एक-दूसरे से परिचित होते गए और गाते-झगड़ते आठ दिन तक साथ-साथ रहे. हमारी बस में एक तेज-तर्रार सात वर्षीय बालक था, आयुष, जो समस्तीपुर में पदस्थ श्री अशोक कुमार (राज्य पुलिस सेवा) और श्रीमती शीला का पुत्र है, हम सबके आकर्षण का केंद्र था. चलती बस में उसने हम सबके नाम पूछकर अपनी डायरी में नोट किया और घोषणा की, 'कल की बस यात्रा में मैं सबको पुरस्कार दूंगा.' हमने पूछा, 'क्या देने वाले हो आयुष?'
'सीक्रेट है, कल मालूम पड़ेगा.' उसने कहा.
राजस्थान में 'ओरिजनल ब्यूटी' की तलाश है तो वह पुष्कर के आसपास की गाड़िया-लोहार, सासी, नटिया और कालबेलिया जाति की स्त्रियों में मिलेगी. ये घुमक्कड़ कौम है, इनका कोई घर नहीं होता लेकिन इनके चेहरे में कोई दुःख का भाव नहीं होता, ये सदा मुस्कुराते रहती हैं. चेहरे पर कोई मेकअप नहीं लेकिन चेहरे का रंग सुनहरा. कालबेलिया जाति की स्त्रियां सर्प-नृत्य में प्रवीण होती है, यायावरी जीवन जीती हैं और अभाव में भी खुश रहना जानती हैं.
नागौर और अजमेर के बीच के कई गाँव 'कूबड़ पट्टी' कहलाते हैं. आप सोच रहे होंगे की ऐसा नामकरण क्यों हुआ? कारण यह है कि अजमेर से जुड़े गाँवों में पानी की बहुत कमी है, वहीँ पर पुष्कर से जुड़े गाँवों में पानी उपलब्ध है लेकिन यह पानी दूषित है, पानी में 'फ्लोराइड' की मात्रा बहुत है. इस पानी के पीने से 'स्केलेटल फ्लोरोसिस' नामक बीमारी हो जाती है और उसके सेवन से मनुष्य में कूबड़ निकल जाता है. यहाँ जायल विधानसभा क्षेत्र में 120 से अधिक गाँव हैं जो इस दूषित पानी को पीने के लिए अभिशप्त हैं.
पुष्कर से हम बीकानेर के लिए निकल पड़े. बहुत लम्बा और उजाड़ रास्ता था. बस के अन्दर दो साहित्यकारों के बीच साहित्यिक विमर्श चल रहा था, विमर्श बहस में बदल गया, आवाज़ तेज हो गई. तीसरे भी उसमें प्रविष्ट हो गए, अब त्रिकोणीय मुकाबला हो रहा था. हमारी बस में कार्यक्रम सञ्चालन का काम सुनील जाधव ने संभल रखा था. विमर्श को बहस तक पहुँचाने में उनका भी योगदान था. जब तीनों रचनाकार बोलते-बोलते थक गए तो वे चुप हो गए. ए.सी. चालू होने के बावज़ूद बस का माहौल गर्म हो गया. सुनील जाधव ने उनकी चुप्पी का लाभ उठाते हुए कविता पाठ करने का अनुरोध किया, कविता और ग़ज़ल का लंबा दौर चला. बीच-बीच में कोई सबके लिए पेड़े बढ़ा देता, कोई नमकीन का पैकेट तो कोई पका हुआ केला. हमारे साथ कत्थक नृत्यांगना अनुराधा दुबे थी जिन्होंने चलती बस में विभिन्न भाव-मुद्राओं का फर्माइशी प्रस्तुतीकरण किया. इस बीच आयुष ने घोषणा की कि वह कल के घोषित पुरस्कार देने जा रहा है. आयुष ने बहुत परिश्रम से सभी के लिए ग्रीटिंग-कार्ड जैसे फोल्डर बनाए थे. मुखपृष्ठ पर खूबसूरत फूल की पेंटिंग और अन्दर के पृष्ठ में हर व्यक्ति को अलग-अलग उपाधियाँ. इतनी कम आयु में बच्चे की समझ और कल्पनाशीलता ने सबका मन मोह लिया.
हमारे सहयात्री श्री सेवाशंकर अग्रवाल (सरायपाली) ने बस-ड्राइवर से जाकर कुछ बात की और हमारी बस हाई-वे से बायीं ओर एक कच्ची सड़क में मुड़ गयी. हम वहां पहुँच गए जहाँ मीरां का जन्मस्थल था, श्री कृष्ण-मीरां का मंदिर था. मीरां बाई (1504-1558) का जन्म राठौड़ की मेड़तिया शाखा के प्रवर्तक राव दूदाजी के पुत्र रतनसिंह के यहां मेड़ता में हुआ था. मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज से मीरां का ब्याह हुआ था. कुछ समय बाद वे विधवा हो गयी थी. मीरां बचपन से ही कृष्ण भक्त थी. उनकी कृष्ण-भक्ति ससुराल में किसी को पसंद नहीं थी. कहते हैं कि उनकी कृष्णभक्ति से रुष्ट होकर उन्हें विष दिया गया था, सर्प भेजा गया परंतु मीरां बच गयी. अपने अंतिम दिनों में उन्होंने मेवाड़ छोड़ दिया और वृंदावन होती हुई द्वारिका पहुँच गयी जहाँ उनके जीवन का अंत हुआ. मीरां के पद राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में हैं. हृदय की गहरी पीड़ा, विरह की अनुभूति और प्रेम की तन्मयता से परिपूर्ण मीरां के पद गीतिकाव्य के उत्तम उदाहरण हैं.
'बादल देख डरी हो, स्याम, मैं बादल देख डरी
स्याम मैं बादल देख डरी.
काली-पीली घटा ऊमड़ी बरस्यो एक घरी
जित जाऊं तित पाणी पाणी हुई सब भोम हरी,
जाके पिया परदेस बसत है भीजे बाहर खरी
मीरां के प्रभु गिरधर नागर कीजो प्रीत खरी.
जित जाऊं तित पाणी पाणी हुई सब भोम हरी,
जाके पिया परदेस बसत है भीजे बाहर खरी
मीरां के प्रभु गिरधर नागर कीजो प्रीत खरी.
स्याम मैं बादल देख डरी.'
मेड़ता का मंदिर मीरां के भक्तिभाव से आच्छादित था. उनकी और भगवान श्री कृष्ण की प्रतिमा के समक्ष उस समय मीरां के पद सस्वर गाये जा रहे थे. समय की कमी थी इसलिए उस भक्ति संगीत का मैं मन-मुताबिक आनंद नहीं ले सका लेकिन मंजीरा थाम कर मैंने भी एक अंतरे के गायन-श्रवण सुख लिया. आधुनिक मंदिरों में देवता-देवियों के समक्ष समृद्धि और सुरक्षा की याचना करने भक्तों को मीरां से कुछ सीखना चाहिए जिसने 'उससे' कुछ माँगा नहीं, अपना सर्वस्व दे दिया.
भारत के सुदूर पश्चिम में स्थित धार के मरुस्थल में जैसलमेर का भू-भाग प्राचीन काल में ’माडधरा’ अथवा ’वल्लभमण्डल’ के नाम से प्रसिद्ध था। इसकी स्थापना 1156 ई. में भाटी राजा जैसल ने की थी। जैसलमेर नक्काशीदार हवेलियों, गलियों, प्राचीन जैन मंदिरों, मेलों और मनाए जाने वाले उत्सवों के लिये प्रसिद्ध हैं। निकट के सम गाँव में रेत के टीलों का पर्यटन की दृष्टि से विशेष महत्व हैं। यहाँ का 'सोनार किला' राजस्थान के श्रेष्ठ दुर्गों में से एक माना जाता हैं। जैसलमेर के इस किले का निर्माण सन 1156 में किया गया था। रावल जैसल द्वारा निर्मित यह किला त्रिकूट पहाड़ी पर स्थित है। 250 फीट ऊंचा और सेंडस्टोन के विशाल खण्डों से निर्मित 30 फीट ऊंची दीवार वाले इस किले में 99 प्राचीर हैं। इसमें चार विशाल प्रवेश द्वार हैं जिनमें से अंतिम एक द्वार मुख्य चौक की ओर जाता है जहाँ महाराजा का पुराना महल है। इस किले के अंदर मौजूद कुंए में पानी का निरंतर स्रोत है। राजस्थान में सभी रजवाड़ों में किले बनाए गए थे लेकिन प्रजा के रहने की व्यवस्था केवल जैसलमेर और चित्तौड़गढ़ के किलों में ही थी, शेष किले राजाओं और सैनिकों के लिए बने थे.
जैसलमेर क्षेत्र में राजस्थान के मारवा क्षेत्र में बोली जाने वाली 'मारवाड़ी', थार के रेगिस्तान की बोली 'थली', परगना सम, सहागढ़ व घोटाडू की 'थाट' व सिंध की 'सिंधी' का मिश्रण है. विसनगढ़, खुहड़ी, नाचणा आदि परगनों में माङ, बीकानेरी व सिंधी भाषा का मिश्रण बोलचाल में है। इसी प्रकार लाठी, पोकरण, फलौदी के क्षेत्र में घाट व मा भाषा का मिश्रण है.
जनवरी से लेकर मार्च तक यहां ठंड पड़ती है और तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। अप्रैल-जून में यह खूब तपता है, औसत तापमान 45 डिग्री सेल्सियस रहता है. दोपहर के समय जब सूर्य सिर पर होता है और उसकी किरणों थार के रेगिस्तान पर पड़ती है तो सुनहरी रेत को देख ऐसा लगता है मानो चारों ओर सोने के कण बिखरे पड़े हों. अधिकतर कुओं का पानी खारा है. जिन स्थानों पर वर्षा का मीठा जल एकत्र हो जाता है, वही वर्ष भर आमजन के लिए उपलब्ध होता है.
बीकानेर के एक शिक्षामंदिर में हमारे साहित्य उत्सव का कार्यक्रम आयोजित था। सभागार छोटा था, गर्मी बहुत थी लेकिन मान-सम्मान भरपूर था. सह-साहित्यकारों ने लघु कथाएँ पढ़ीं, कुछ उपयोगी-अनुपयोगी भाषण हुए. समारोह स्थल के मध्य में एक लान था जहाँ एक तरफ पानी का कंटेनर रखा था और दूसरी तरफ चाय का। पास में डिस्पोजेबल कप भी रखे थे और उसके पास एक पुट्ठे का खुला हुआ डिब्बा भी जिसमें उपयोग के पश्चात कप डालने थे लेकिन लान में सब जगह जूठे कप बिखरे हुए थे। मैंने तो चाय पीकर अपना कप डिब्बे में डाल दिया लेकिन सब तरफ बिखरे कप को देख कर मुझे बेचैनी होने लगी, मैंने उन्हें समेट कर यथास्थान रखने का निर्णय लिया। अचानक मन में आया कि सहभागी साहित्यकारों को भी इस कार्य से जोड़ा जाए। तीन मित्र वहीं पर बैठे थे। मैंने उनका ध्यान जब आकर्षित किया तो वे भी उस गंदगी से नाखुश दिखे। मैंने उनसे कहा, 'चलिए, हम सब मिलकर इसे साफ कर देते हैं।' मेरा प्रस्ताव उन्हें पसंद नहीं आया, सब झिझक गये। एक ने कहा, 'ये हमारा काम थोड़े है।'
उस समय रात को तीन बज रहे थे, मुझे सुबह पांच बजे उठना था और दैनिक क्रिया के पश्चात मुझे योग-प्राणायाम में डेढ़ घंटे और लग जाते हैं. नास्ता के लिए निर्धारित समय सात बजे तक नीचे पहुँचना आवश्यक था क्योंकि हमें मरुभूमि के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए वहां से जल्दी निकलना था और रेगिस्तान में बसे गाँव सम जाना था.
उरजन डर बिछुरे दुख मानत, पल पिंजरा न समात।।
घूंघट विपट छाँह बिनु विहरत, रविकर कुलहिं डरात।
रूप अनूप चुनौ चुनि निकट अधर सर देखि सिरात।।
धीर न धरत, पीर कहि सकत न, काम बधिक की घात।
व्यास स्वामिनी सुनि करुना हँसि, पिय के उर लपटात।।'
घूँघट के अनेक प्रयोग और अर्थ हैं, जैसे , घूँघट उठाना, घूँघट पलटना, घूँघट हटाना, घूँघट करना, घूँघट डालना, घूँघट खोलना, घूँघट दूर करना, घूँघट के पट खोलना आदि. इन सब के अलग-अलग अर्थ हैं जो हमारी दैनन्दिनी में प्रयोग में हैं. महाकवि कालिदास अभिज्ञान शाकुंतलम' में लिखते हैं, '‘इन तपस्वियों के बीच में वह घूंघट वाली सुन्दरी कौन है, जो पीले पत्तों के बीच में नई कोंपल के समान दिखाई पड़ रही है.' अमृतलाल नागर ने एक उपन्यास लिखा था, 'सात घूँघट वाला मुखड़ा'. फिल्म 'सत्यम शिवम् सुन्दरम' की नायिका अपना जला हुआ चेहरा छुपाने के लिए आधा घूँघट करती है, ऐसा ही एक दृष्टान्त राजस्थान की श्रुतियों में रुक्मी और रसाल का किस्सा भी है.
मुझे अच्छा लगा कि आज भी राजस्थान अपनी परम्पराओं के निर्वहन के लिए सतर्क है; चाहे आतिथ्य-सत्कार हो, बड़ों का मान हो, या बातचीत का लोच हो. अंग्रेजी भाषा में, 'जस्ट ग्रेट'.
राजस्थान का इतिहास वीरता की कथाओं से परिपूर्ण हैं. राजपूताना में अनेक राज्य थे जो आपस में लड़ते रहते थे क्योंकि हर शासक अपनी धाक जमाने के लिए नज़दीकी राज्यों पर अपना कब्ज़ा करने या असर बनाने की जुगत में लगा रहता था ताकि उसके राज्य का विस्तार हो और आय बढ़े. जब मुगलों की नज़र राजपूताने के वैभव और बिखराव पर पड़ी तो उन्होंने हमले शुरू हुए. कुछ राजाओं ने मिलजुलकर अपना राज्य और राज्य का सम्मान बचाने के लिए मुगलों के आक्रमण का मुकाबला किया, कुछ ने मुगलों की ताकत के आगे घुटने टेक दिए और उनसे समझौता कर लिया.
जब भी और जहाँ भी युद्ध हुए हैं, उस क्षेत्र की धन-सम्पदा और स्त्रियों की इज्जत अवश्य लूटी गयी. मुगलकाल में युद्धों में भी ऐसा ही हुआ. राजपूताने की संपदा लुट गई तो लुट गई लेकिन स्त्रियों ने अपनी इज्ज़त पर आंच न आने दी. पहला 'साका' जैसलमेर के किले में हुआ था. जब शत्रु का आक्रमण हुआ तो पुरुष अपने सर पर केसरिया साफा बाँधकर घर से यह सोचकर निकलते कि या तो शत्रुओं को मारेंगे या मरेंगे, इस प्रक्रिया को 'केसरिया' कहा जाता था.
किले के बीचो-बीच एक विशाल हवनकुंड होता था, उसमें आग जलाई जाती थी. युद्ध क्षेत्र से यदि पराजय की खबर आती थी तो शत्रु सेना के किले में प्रवेश के पूर्व, उनके अत्याचार से बचने के लिए किले की समस्त स्त्रियाँ अपने बच्चों और आभूषणों के साथ उस धधकते हवन कुंड में कूदकर अपने प्राण त्याग देती थी, जिसे हम 'जौहर' के नाम से जानते हैं. जब 'केसरिया' और 'जौहर' दोनों होता था तो उसे पूर्ण 'साका' मानते थे लेकिन यदि हमारी सेना की विजय होती थी तो केवल 'केसरिया' होता था, 'जौहर' नहीं होता था, इसे 'आधा साका' कहते थे. जैसलमेर के इतिहास में दो युद्धों में पराजय हुई और जौहर हुआ इस प्रकार वहां दो साका हुए. उन्हें एक युद्ध में विजय मिली, जौहर नहीं हुआ, केवल केसरिया हुआ, इसलिए वह आधा साका हुआ; अर्थात कुल मिलाकर अढ़ाई साका.
हिन्दुओं के आपसी युद्ध में जौहर नहीं होता था. जौहर का प्रचलन मुस्लिम शासकों के आक्रमण के बाद शुरू हुआ. 'जौहर' दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य के अत्याचार से मुक्ति पाने के लिए सामूहिक आत्महत्या का दुस्साहस था. पहला जौहर सन 712 में सिंध में हुआ था जब वे मुहम्मद-बिन-कासिम से पराजित हुए थे. उसके बाद 1295 में जैसलमेर, 1301 में रणथम्भौर और 1303 में चित्तौड़गढ़ में अलाउद्दीन खिलजी से हारने के बाद हुआ. 1326 में जैसलमेर और 1327 में कम्पिली (कर्णाटक) में मोहम्मद-बिन-तुगलक से पराजित होने के कारण हुआ. 1528 में मध्यभारत के चंदेरी और रायसेन में बाबर और हुमायूं से हारने के कारण, 1535 में चित्तौड़गढ़ में बहादुर शाह (गुजरात) से हारने के कारण, 1568 में चित्तौड़गढ़ में अकबर से हारने के कारण और सन 1634 में औरंगजेब से हारने के कारण हज़ारों स्त्रियों और बच्चों ने अग्नि-समाधि ली.
'साका' अपने सम्मान की रक्षा के लिए तात्कालीन स्त्रियों के बलिदान का प्रणम्य लेकिन दुखद अध्याय था.
लम्बी यात्रा के बाद हम राजस्थान के एक और ख़ूबसूरत शहर जोधपुर पहुंचे. जोधपुर में मेरी मुलाकात श्री प्रतीक प्रजापति से हुई. 25 वर्षीय फेसबुक के माध्यम से जुड़े, उन्होंने सप्रयास मुझे खोज लिया और बहुत देर तक मेरे साथ रहे. प्रतीक प्रजापति 'फेसबुक' का सही उपयोग करते हैं. वे अब तक अपने फेसबुक मित्रों के आमंत्रण पर देश के अनेक शहरों का भ्रमण कर चुके हैं और आज तक उन्होंने कहीं भी होटल नहीं किया, उनके घरों में ही रहते हैं ! जानकारियों का खजाना है प्रतीक. मैंने उनसे पूछा, 'राजस्थान के विकास की गति क्या है?'
'अभी वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री हैं इसलिए पूर्वी राजस्थान का विकास हो रहा है, जब अशोक गहलोत थे तब पश्चिमी क्षेत्र का विकास हो रहा था. हर बार मुख्यमंत्री बदलते हैं तो दोनों क्षेत्र का विकास संतुलित हो जाता है.'
'इन दोनों में कौन अधिक लोकप्रिय है?'
'वसुंधरा राजे महारानी हैं, अशोक गहलोत जमीन का आदमी है. वैसे, दोनों अपने-अपने क्षेत्र में लोकप्रिय हैं.'
'इस राज्य की सबसे बड़ी समस्या क्या है?'
'पानी की कमी. यहाँ बारिश कम होती है. अब हम लोगों ने कम पानी में भी फसल उगाने की विधि विकसित कर ली है. बाजरा हमारी नियमित फसल है ही, इसके अलावा बाड़मेर की मिट्टी रेगिस्तानी है, जलवायु सूखी है, वहां खजूर का उत्पादन बड़े पैमाने पर हो रहा है. जैसलमेर के लोहावटी क्षेत्र में अनार के वृक्ष लहलहा रहे हैं.'
'क्या बारिश के पानी का संग्रहण नहीं होता?'
'होता है. राजा-महाराजा लोग इस पर बहुत ध्यान देते थे. हमारे जोधपुर में हर मोहल्ले में बावड़ी और तालाब हैं. यहाँ के राजा उमेदसिंह को लोग भगवान मानते थे क्योंकि वे प्रजा के हितचिन्तक थे. पुरानी बात है, सन 1930 में यहाँ मंदी आई थी, जिसे तीसा की मंदी कहते हैं, उस समय राजा उमेदसिंह ने मंदी के कारण पड़े अकाल से निपटने के लिए बावड़ी और तालाब खुदवाए, 'उमेद भवन' का निर्माण शुरू किया ताकि लोगों को रोजगार मिल सके और उनका भरण-पोषण हो सके.'
'राजस्थान के लोगों का पुरानेपन से बहुत जुड़ाव दिखता है?'
'किले और पुराने बने भवनों को देखकर आपको ऐसा लगा होगा. परिवर्तन बहुत तेज है यहाँ. जैसे, लोग नए मकान बनवा रहे हैं, ये आधुनिक शैली के बन रहे हैं. पुराने रीति-रिवाज़ भी कमजोर पड़ रहे हैं, जैसे, अब बहुएं साड़ी नहीं पहनना चाहती, सलवार-सूट पहनना है. यह ठीक है कि सलवार-सूट आरामदेह रहता है लेकिन राजस्थान में घाघरा, चोली, साड़ी और घूँघट का रिवाज़ वर्षों से चला आ रहा है. घूँघट घर में आँखों तक और घर के बाहर गले तक. सास ने बहू से कहा-
"'ये तो करना होगा." बस, झगड़ा शुरू. बहुएं कहती हैं- "कौन सी देवी परदा करती है जो हम करें? मुगलों से चेहरा छुपाने के लिए औरतें घूँघट करती थी, अब किससे चेहरा छुपाना है?" आधुनिकता के साथ अब सहनशीलता कम हो गयी है. बाहर से दिखेगा कि सब एक घर में रह रहे हैं लेकिन सबके चौके अलग-अलग हैं.'
'राजस्थान से बहुत लोग बाहर कमाने-खाने गये और बहुत धन-सम्पदा बनाई, वे लोग यहाँ कभी-कभार आते हैं?'
'पुराने समय में केवल पुरुष बाहर जाते थे, औरतें यहीं रहती थी. अब पुरुषों के साथ औरतें भी जा रही हैं. अब ये औरतें जब शहरी माहौल से यहाँ आती हैं तो वे बदलकर आती हैं. इस कारण यहाँ की घूँघट प्रथा अब भसक रही है, पहरावा बदल रहा है.'
'फिर भी, शादी-ब्याह और मुंडन संस्कार आदि के लिए तो उनका आना-जाना लगा रहता है?'
'पहले लोग आते थे, अब कम होते जा रहा है. कारण यह है कि जो बाहर गये वे बड़े आदमी बन गए. उनके पास पैसा है लेकिन उनका परिवार या रिश्तेदार, जो राजस्थान में रह रहा है, उसने पैसा देखा नहीं है, जब 'ये' मांगते हैं तो 'वे' बिदकते हैं इसलिए उनका आवागमन कम होते जा रहा है.'
मैं जोधपुर गया लेकिन घूम नहीं सका क्योंकि इस यात्रा को कुछ कारणों से मैंने अधूरा छोड़ने का निर्णय लिया. इसी वज़ह से माउंट आबू और उदयपुर भी छूट गया जबकि ये दोनों स्थान मेरे देखे हुए नहीं थे, बाकी सब देखा हुआ था. मैं इन्हीं दोनों जगहों को देखने की दिली ख्वाहिश के साथ इस यात्रा में खास तौर से सम्मिलित हुआ था, लेकिन संभव न हुआ. कभी फिर मौका मिलेगा तो इन स्थलों के अनुभव भी सामने आएँगे.
'प्रबंधन' में एक अवधारणा है कि वह हर व्यक्ति जिनके मध्य कोई व्यवहार हो रहा हो, वह 'कस्टमर' है. यद्यपि 'कस्टमर' शब्द व्यापार के संदर्भ में अधिक उपयोग में लाया जाता है और आम तौर पर ऐसा माना जाता है कि ग्राहक वह है जो प्रदत्त वस्तु या सेवा का भुगतान करे.
प्रबंधन की आधुनिक व्याख्या के अनुसार, हर-एक व्यक्ति ग्राहक है. जैसे मालिक और अधीनस्थ, साहब और बाबू, अधिकारी और नागरिक, चिकित्सक और रोगी, विक्रेता और क्रेता, शिक्षक और छात्र, साहित्यकार और प्रकाशक, लेखक और पाठक आदि सब 'एक-दूसरे' के 'कस्टमर' हैं, उनके बीच आर्थिक लेन-देन चाहे हुआ हो या न हुआ हो.
जब मैं जोधपुर से बिलासपुर वापस आने के लिए ट्रेन में बैठा, प्रबंधन का यह सूत्र मेरे मस्तिष्क में बहुत देर तक घूमता रहा. मैं खुद से प्रश्न कर रहा था कि इस यात्रा में मैं और मेरे जैसे अनेक यात्री क्या भुगतान करने के बाद भी 'कस्टमर' की इस परिभाषा के बाहर थे?
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मेड़ता का मंदिर मीरां के भक्तिभाव से आच्छादित था. उनकी और भगवान श्री कृष्ण की प्रतिमा के समक्ष उस समय मीरां के पद सस्वर गाये जा रहे थे. समय की कमी थी इसलिए उस भक्ति संगीत का मैं मन-मुताबिक आनंद नहीं ले सका लेकिन मंजीरा थाम कर मैंने भी एक अंतरे के गायन-श्रवण सुख लिया. आधुनिक मंदिरों में देवता-देवियों के समक्ष समृद्धि और सुरक्षा की याचना करने भक्तों को मीरां से कुछ सीखना चाहिए जिसने 'उससे' कुछ माँगा नहीं, अपना सर्वस्व दे दिया.
भारत के सुदूर पश्चिम में स्थित धार के मरुस्थल में जैसलमेर का भू-भाग प्राचीन काल में ’माडधरा’ अथवा ’वल्लभमण्डल’ के नाम से प्रसिद्ध था। इसकी स्थापना 1156 ई. में भाटी राजा जैसल ने की थी। जैसलमेर नक्काशीदार हवेलियों, गलियों, प्राचीन जैन मंदिरों, मेलों और मनाए जाने वाले उत्सवों के लिये प्रसिद्ध हैं। निकट के सम गाँव में रेत के टीलों का पर्यटन की दृष्टि से विशेष महत्व हैं। यहाँ का 'सोनार किला' राजस्थान के श्रेष्ठ दुर्गों में से एक माना जाता हैं। जैसलमेर के इस किले का निर्माण सन 1156 में किया गया था। रावल जैसल द्वारा निर्मित यह किला त्रिकूट पहाड़ी पर स्थित है। 250 फीट ऊंचा और सेंडस्टोन के विशाल खण्डों से निर्मित 30 फीट ऊंची दीवार वाले इस किले में 99 प्राचीर हैं। इसमें चार विशाल प्रवेश द्वार हैं जिनमें से अंतिम एक द्वार मुख्य चौक की ओर जाता है जहाँ महाराजा का पुराना महल है। इस किले के अंदर मौजूद कुंए में पानी का निरंतर स्रोत है। राजस्थान में सभी रजवाड़ों में किले बनाए गए थे लेकिन प्रजा के रहने की व्यवस्था केवल जैसलमेर और चित्तौड़गढ़ के किलों में ही थी, शेष किले राजाओं और सैनिकों के लिए बने थे.
जैसलमेर क्षेत्र में राजस्थान के मारवा क्षेत्र में बोली जाने वाली 'मारवाड़ी', थार के रेगिस्तान की बोली 'थली', परगना सम, सहागढ़ व घोटाडू की 'थाट' व सिंध की 'सिंधी' का मिश्रण है. विसनगढ़, खुहड़ी, नाचणा आदि परगनों में माङ, बीकानेरी व सिंधी भाषा का मिश्रण बोलचाल में है। इसी प्रकार लाठी, पोकरण, फलौदी के क्षेत्र में घाट व मा भाषा का मिश्रण है.
जनवरी से लेकर मार्च तक यहां ठंड पड़ती है और तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। अप्रैल-जून में यह खूब तपता है, औसत तापमान 45 डिग्री सेल्सियस रहता है. दोपहर के समय जब सूर्य सिर पर होता है और उसकी किरणों थार के रेगिस्तान पर पड़ती है तो सुनहरी रेत को देख ऐसा लगता है मानो चारों ओर सोने के कण बिखरे पड़े हों. अधिकतर कुओं का पानी खारा है. जिन स्थानों पर वर्षा का मीठा जल एकत्र हो जाता है, वही वर्ष भर आमजन के लिए उपलब्ध होता है.
बीकानेर के एक शिक्षामंदिर में हमारे साहित्य उत्सव का कार्यक्रम आयोजित था। सभागार छोटा था, गर्मी बहुत थी लेकिन मान-सम्मान भरपूर था. सह-साहित्यकारों ने लघु कथाएँ पढ़ीं, कुछ उपयोगी-अनुपयोगी भाषण हुए. समारोह स्थल के मध्य में एक लान था जहाँ एक तरफ पानी का कंटेनर रखा था और दूसरी तरफ चाय का। पास में डिस्पोजेबल कप भी रखे थे और उसके पास एक पुट्ठे का खुला हुआ डिब्बा भी जिसमें उपयोग के पश्चात कप डालने थे लेकिन लान में सब जगह जूठे कप बिखरे हुए थे। मैंने तो चाय पीकर अपना कप डिब्बे में डाल दिया लेकिन सब तरफ बिखरे कप को देख कर मुझे बेचैनी होने लगी, मैंने उन्हें समेट कर यथास्थान रखने का निर्णय लिया। अचानक मन में आया कि सहभागी साहित्यकारों को भी इस कार्य से जोड़ा जाए। तीन मित्र वहीं पर बैठे थे। मैंने उनका ध्यान जब आकर्षित किया तो वे भी उस गंदगी से नाखुश दिखे। मैंने उनसे कहा, 'चलिए, हम सब मिलकर इसे साफ कर देते हैं।' मेरा प्रस्ताव उन्हें पसंद नहीं आया, सब झिझक गये। एक ने कहा, 'ये हमारा काम थोड़े है।'
'फिर मैं अकेला ही करता हूँ।' मैंने उनसे कहा। मैंने लान का एक कोना चुना और झुक कर कप उठाने में जुट गया। किसी अध्यापक का ध्यान मेरी ओर गया होगा। वे लपककर मेरे पास आये और मेरे हाथ से कप लेने का यत्न करते हुए कहा, 'छोड़िए सर इसे, यह आपका काम नहीं है।'
'लान को साफ़ रखना हम सब का काम है।'
'आप रहने दीजिए, मैं करवाता हूँ।' उन्होंने कहा और आसपास खड़े लोगों को बुलाकर उस काम पर लगा दिया। दो तीन मिनट में लान खूबसूरत दिखने लगा।
'आप रहने दीजिए, मैं करवाता हूँ।' उन्होंने कहा और आसपास खड़े लोगों को बुलाकर उस काम पर लगा दिया। दो तीन मिनट में लान खूबसूरत दिखने लगा।
उल्लेखनीय यह है कि कप फ़ेंकने वाले पढ़े लिखे थे और उसे व्यवस्थित करने वाले भी। दुःख यह है कि फैलाने वाला कोई और है और समेटने वाला कोई और।
रात को साढ़े ग्यारह बजे हम उस स्थान पर पहुंचे जहाँ राजस्थानी शैली की सजावट थी, भोजन-गीत-संगीत-नृत्य का संक्षिप्त आयोजन था. वहां बीकानेर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री बुलाकी शर्मा, श्री नवनीत पाण्डेय, श्री राजाराम स्वर्णकार से मेरी आत्मीय चर्चा हुई. रात एक बजे हम अपने होटल पहुंचे. भव्य भवन और सुसज्जित रिसेप्शन को देखकर मन मुदित हो गया. आधे घंटे की मशक्कत के बाद कमरे की चाबी मिली. कमरे में मेरे सहवासी श्री सुनील जाधव और मैंने सामान रखा, स्नानागार का उपयोग किया और जैसे ही मैं बिस्तर में बैठा, पलंग धसक कर धराशायी हो गया. अचानक उत्पन्न उस स्थिति से मैं सहम सा गया, सुनील चौंक गए. मैं धीरे से बाहर निकला और रिशेप्शन में खबर की. उस समय रात को दो बज चुके थे, हम दोनों गपियाते हुए पलंग सुधरने का इंतज़ार कर रहे थे. बहुत देर बाद दो वेटर साज-ओ-सामान के साथ आये और उन्होंने पूरा पलंग खोला, उसे ठोंक-ठाककर बनाया, फिर से बिछाया. वेटर ने बताया, 'सर, पलंग कमजोर बने हैं. कई कमरों में ऐसा हो चुका है.' कहावत याद आई, 'ऊंची दूकान, फीके पकवान.'.
उस समय रात को तीन बज रहे थे, मुझे सुबह पांच बजे उठना था और दैनिक क्रिया के पश्चात मुझे योग-प्राणायाम में डेढ़ घंटे और लग जाते हैं. नास्ता के लिए निर्धारित समय सात बजे तक नीचे पहुँचना आवश्यक था क्योंकि हमें मरुभूमि के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए वहां से जल्दी निकलना था और रेगिस्तान में बसे गाँव सम जाना था.
सम नामक स्थान पर तम्बुओं की कई श्रृंखला हैं, आवास गृह बने हैं. हम जहाँ रुके, उसका नाम था, 'कैम्प-ए-खास'. उस सूखे रेगिस्तान में आवास की सुनियोजित व्यवस्था करने वालों को सलाम करने का दिल होता है. जहां पानी की बूँद-बूँद के लिए संघर्ष है, वहां भरपूर पानी, आरामदेह बिस्तर, उपयोगी टायलेट, पंखा आदि समस्त सुविधाएं उपलब्ध थी. शाम को पांच बजे हम लोग अपने दुस्साहसी ड्राइवर की जीप में बैठकर रेत के टीलों की ओर निकल पड़े. उन टीलों पर जीप का चढ़ना और उतरना रोमांचक अनुभव देता है. एक जगह गाड़ी रुकी. वहां सवारी करने के लिए ऊंट थे, राजस्थानी भाषा में लोकगीत गाती नर्तकियां थी और रेगिस्तानी क्षितिज पर सूर्यास्त का मनोरम दृश्य. धीरे-धीरे सूर्य रेतीली धरती में विलीन सा हो गया और धुंधलका छाने लगा. हम कैम्प में वापस आये जहाँ कैम्प के मध्य में बने मंच पर साजिंदों के साथ गायक लोकगीत सुना रहे थे और बालाएं नृत्य कर रही थी. दिन और शाम के मनभावन अनुभव के बाद रात घिर आई, हम उस रात तबीयत से सोये क्योंकि सुबह जल्दी उठने का आसन्न संकट नहीं था.
इसके पहले कि हम लोग जोधपुर के लिए प्रस्थान करें, मैं राजस्थान में प्रचलित 'पर्दा' के बारे में कुछ बताता चलूँ. पर्दा का तात्पर्य है, कुछ छुपाना या अलग करना. इस विषय पर बात इसलिए निकली क्योंकि मैं गट्टानी ट्रस्ट भवन नोखा में भोजन ग्रहण करने के पश्चात अपने हाथ धोने के लिए हाल के पीछे स्थापित बेसिन के पास गया. उसकी दाहिनी ओर एक बड़ा कमरा दिखा जहां रसोई तैयार हो रही थी. मैं वहां चुपचाप खड़ा हो गया और वहां पर काम कर रहे चार लोगों के हुनर देख रहा था. मैंने सोचा, एक फोटो ले ली जाए, मैंने मोबाईल कैमरा 'क्लिक' किया, आवाज से वे सब चौंके. मेरी तरफ देखकर मुस्कुराए और वहां पर काम कर रही तीन महिलाओं ने तुरंत घूँघट काढ़ लिए. उनका घूँघट करना मुझे भा गया.
राधा के रूप सौंदर्य के वर्णन में घूँघट के महत्व पर कृष्ण के माधुर्य भक्ति काव्य में कवि हरिराम व्यास रचते हैं :
'नैन खग उड़िबे को अकुलात।
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