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थाइलैण्ड में ता-था-थइया

थाइलैण्ड में ता-था-थइया
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(१)

          थाइलैण्ड के बारे में मेरी जानकारी कम थी, जो थी वह वहां के अश्लील माहौल की थी. आम तौर पर चर्चा होती थी कि नवकुबेर वहां 'मसाज़' कराने जाते हैं, खूबसूरत लडकियां उनके सम्पूर्ण बदन की मालिश करती हैं और उनकी युवावस्था की मानसिक-शारीरिक ज़रूरतें पूरा करती हैं. जिसे देखो, थाईलैण्ड जाने का जुगाड़ बना रहा है और वहां से तर-ओ-ताज़ा होकर वापस आ रहा है. अब मेरी उम्र सत्तर साल की होने वाली है, कब्र में पैर लटके हुए हैं, क्या तर और क्या ताज़ा?
          मेरे साहित्यप्रेमी रायपुरिया मित्र सुधीर शर्मा ने 'क्रबी साहित्य महोत्सव' में साथ चलने के लिये अनुरोध किया. आर्थिक असुविधा चल रही थी इसलिए मैंने असमर्थता ज़ाहिर की तो वे बोले- 'आप हाँ करो, बस, पैसा आता रहेगा.' अर्थात विदेश यात्रा भी उधार में! बिना रकम ढीले हवाई-ज़हाज की टिकट आ गयी, वीज़ा बन गया और मैं अपनी पत्नी माधुरी जी के साथ १जून २०१७ को थाईलैण्ड की यात्रा पर निकल गया.
थाइलैण्ड के नजदीकी द्वीप फुकेट में हम दोनों उस स्ट्रीट में गये जिससे वहां की प्रसिद्धता से जुड़ी हुई है अर्थात सेक्स का प्रदर्शन और आकर्षण और बहुत कुछ लेकिन वह सब बाद में बताऊंगा, पहले आप थाईलैण्ड के बारे में कुछ ख़ास जानकारियाँ ले लीजिए.

(२)

          दक्षिण पूर्व एशिया में स्थित थाइलेंड का प्राचीन नाम श्यामदेश था जो कालांतर में अपभ्रंश होकर सियाम हो गया. ११मई १९४९ को इसे थाइलेंड नाम दिया गया. थाई का अर्थ है आज़ाद. इसकी पूर्वी सीमा पर लाओस और कम्बोडिया, दक्षिण में मलयेशिया और पश्चिम में म्यांमार है.
इस देश का क्षेत्रफल ५१३११५ वर्ग किलोमीटर है तथा आबादी सन २०१३ की जनगणना के अनुसार ६,६७,२०,१५३ है. इस देश में सन २०१० में हुई जनगणना के अनुसार ९३.२% बौद्ध, ४.९% मुस्लिम, ०.९% ईसाई, ०.१% हिन्दू  और ०.३% अन्य धर्मों के लोग निवास करते हैं.
थाइलेंड का संगीत चीनी, जापानी, भारतीय और इंडोनेशिया के संगीत के निकट है। यहां की नृत्य शैली नाटकीयता से जुड़ी हुई हैं, इनमें रामायण का महत्वपूर्ण स्थान है। इन कार्यक्रमों में भारी परिधानों और मुखौटों का प्रयोग किया जाता है।
          थाइलेंड की राजधानी को हम बेंकाक के नाम से जानते हैं लेकिन इसका सरकारी नाम है: 'क्रुंग देव महानगर अमर रत्न कोसिन्द्र महिन्द्रायुध्या महा तिलक भव नवरत्न रजधानी पुरी रम्य उत्तम राज निवेशन महास्थान अमर विमान अवतार स्थित शक्रदत्तिय विष्णु कर्म प्रसिद्धि'. इस नाम की विशेषता यह है कि इसे बोलकर नहीं बल्कि गाकर कहा जाता है. अनेक राजनीतिक उथलपुथल के पश्चात अब थाईलेंड एक संसदीय लोकतंत्र और संवैधानिक राजतंत्र के मिश्रित रूप में अपने विकास के मार्ग पर अग्रसर है. भूमिबल अदुल्य देज यहाँ के राजा हैं जो राजा राम के नवें वंशज माने जाते हैं और प्रधानमंत्री हैं अभिसीत विजजीवा.
भारत और वियतनाम के बाद थाईलेंड विश्व का बड़ा चावल निर्यातक है. थाइलेंड में २७.२५% भूमि कृषि योग्य है जिसमें से ५५% जमीन में धान की खेती होती है. यहाँ की ४९% आबादी कृषि से जुड़ी हुई है. यहाँ चावल की एक सुगन्धित किस्म का उत्पादन होता है जिसे 'हों माली' कहा जाता है.
          वेश्यावृत्ति थाइलेंड के टूरिज्म का बहुत बड़ा आकर्षण है जो यहां के निवासियों की गरीबी और बेरोजगारी के कारण शनैः शनैः विकसित हो गया है. थाइलेंड में इस व्यवसाय से अनुमानतः भारतीय मुद्रा में ६६ अरब ८४ करोड़ वार्षिक आय होती है जो देश की कुल आय का लगभग ३% है.
          इसके अतिरिक्त लिंग-परिवर्तन-शल्यक्रिया ने भी थाइलेंड में मेडिकल टूरिज्म को बढ़ावा दिया है. इसके लिये विश्व भर के लोग यहाँ आते हैं. एक विश्वसनीय स्रोत के अनुसार सन २०१४ में २५ लाख लोगों ने यह शल्यक्रिया यहाँ आकर करवाई है.

(३)

          छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से ट्रेन द्वारा हम लोग हावड़ा पहुंचे. वहां से कोलकाता के नेताजी सुभाष अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा पहुंचकर हम थाइ-एयरलाइन्स के विमान से थाईलेंड की राजधानी बैंकाक के लिये उड़ चले. सुबह चार घंटे की लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात अन्य विमान से फुकेट द्वीप की और चल पड़े. फुकेट हवाई अड्डा से बस में बैठकर हम दोपहर को १२ बजे पटांग बीच सेन्ट्रल नामक शहर में पहुंचे जहाँ हमें वहां के थ्री-स्टार होटल 'हालीडे इन एक्सप्रेस' में रुकना था. होटल के पास ही एक कश्मीरी खुशमिजाज़ युवक ने भारतीय व्यंजन का रेस्तरां खोल रखा था जहाँ हमने तसल्ली के साथ घर जैसा खाना खाया.
          शाम को सब घूमने निकले. हम दोनों ने देखा के फुटपाथ पर एक थाइ सुकन्या ठेले पर दोसा जैसा कुछ बना रही है और उसमें पका आम या केला लपेटकर ग्राहकों को दे रही है. सोचा कि इसका आनंद लिया जाए. उसका नाम था 'पेनकेक', स्वाद मीठा-चाकलेटी और थाई आम के स्वाद से भरपूर. भुगतान करने के बाद हमने उससे आम की गुठलियाँ मांगी तो वह चौंक गयी और उसे यह समझ में नहीं आया कि जिन गुठलियों को उसने डस्टबिन में फेंक दिया था, उसे हम क्यों मांग रहे हैं?
          दो गुठलियों को पेपर नेपकिन में लपेटते हुए माधुरी जी ने कहा- 'इन्हें घर ले चलते हैं. वहां इनका पौधा तैयार करूंगी. एक गुठली को जमीन में लगाऊँगी और दूसरी को गमले लगाकर 'बोन्जाई' बनाऊँगी.' वे खुश थी कि थाइलेंड के आम की इस किस्म को वे अपने बगीचे में ले जाकर विकसित करेंगी.
          सड़क के उस पार विशाल सागर लहरा रहा था. रात के आठ बज चुके थे इसलिए अँधेरा था. वहां पर तट पर स्थित एक रेस्तरां ने अच्छी रोशनी कर रखी थी जिसके कारण आसपास काफी प्रकाश था. वहां पर हमारे समूह के और लोग भी मिल गये.
          तट पर हलचल कम थी. एक पचास वर्षीय सज्जन लहरों के किनारे दौड़ लगा रहे थे. उस उम्र में अपने स्वास्थ्य के प्रति उनकी जागरूकता को देखकर मन प्रसन्न हो गया. पूरे प्रवास में मैंने किसी थाइलेंड निवासी को बेडौल नहीं देखा, सब 'स्लिम' दिखे जबकि हमारे देश से वहां गये सैलानियों में अधिकतर बच्चे और युवक-युवतियां बेडौल दिखे क्योंकि उनका पूरा ध्यान भोजन की विविधता पर है, भोजन की अधिकता पर नहीं और न ही स्वास्थ्य के भविष्य पर.
          कुछ देर तक हम लोग समुद्र से आ रही हवाओं का आनंद लेते रहे फिर वापस सड़क पर आ गये. हमारे साथी एक 'मसाज़ पार्लर' में मालिश करवाने चले गए और हम दोनों बाज़ार देखने के लिए आगे बढ़ गये. कुछ दूर चलने के बाद एक साइड रोड पर विद्युत् छटा से जगमगाता द्वार दिखा. मेला जैसा माहौल समझ में आया, हम उस सड़क पर आगे बढ़ चले. सड़क लगभग पचास फुट चौड़ी थी, अच्छी-खासी भीड़ थी. दोनों और आधुनिक ढंग की दूकानें थी जिनमें शराब के पब बने हुए थे. स्त्री-पुरुष बीयर या शराब के घूँट ले रहे थे और उनकी टेबल की उंचाई पर बने प्लेटफार्म पर कमसिन थाई लडकियां उत्तेजक संगीत की लय पर मुस्कुराते हुए नृत्य कर रही थी. उनके बदन पर नाम मात्र के कपडे थे, जगमगाते हुए. अदाएं मनमोहक थी जो राहगीरों को भी ठिठक कर रुकने के लिए मज़बूर कर रही थी. पंद्रह से बीस वर्ष के लड़के और लडकियां हाथ में पोस्टर लिए ग्राहकों को लुभाने की भरपूर कोशिशें कर रहे थे. उनके पोस्टर पर लिखा हुआ था- 'Come on for sex', 'See open sex performance',  'Enjoy sex movies' आदि आदि. एक व्यक्ति जो न पुरुष था और न ही स्त्री, उसने अपनी छाती पर रबर के बने बड़े-बड़े और आकर्षक नुकीले स्तन पहन रखे थे और वह नाचते हुए अपनी छाती को मादकता का पुट देते हुए प्रकम्पित कर रहा था. मैंने उसकी फोटो लेने की कोशिश की लेकिन कैमरा क्लिक होने के पहले वह घूम गया और अपनी पीठ सामने कर दी. मैंने चतुराई से दुबारा क्लिक किया, अबकी बार वह मेरे लेन्स के सामने था लेकिन पास में खड़े एक लड़के ने मेरे कैमरे के सामने अपना पोस्टर अड़ा दिया.
          पूरा माहौल कामुकता से सराबोर था और उसकी खरीद-फ़रोख्त का खुला इंतज़ाम था. सैलानी अपने पैसे लुटा रहे थे और सेक्स खरीद रहे थे. सेक्स ऐसा, जिसमें खर्च करने वाले के लिए पेट के नीचे की आग बुझाने की उत्तेजना थी और दूसरी तरफ अपना शरीर बेचकर पेट की आग बुझाने की विवशता.
          वहां से लौटते समय एक वाइन शॉप के बाहर लगी टेबल-कुर्सियों पर चार अमेरिकी लड़कियां और एक लड़का शराब की चुस्कियां ले रहे थे. नेपथ्य में किसी अंग्रेजी धुन में संगीत बज रहा था. एक षोडशी उस धुन पर अपनी मस्ती में नाच रही थी. उसे देखकर मैंने भी चलते-चलते अपनी कमर लचकाई तो वह बेहद खुश हो गयी. उसने आँखों से हमें आमंत्रित किया. मेरे साथ माधुरी जी और वीणा गौतम जी भी आ गयी और उसके बाद दस मिनट तक उन्मुक्त नृत्य चलता रहा. थाइलेंड, अमेरिका और भारत अदृश्य हो गए, नृत्य की मस्ती छा गयी. हम चारों एक-दूसरे के गले में हाथ डाले बेसुध नाचते रहे. जब विलग होकर जाने लगे तो नृत्य का आनंद और अलग होने का दुःख हमारे ह्रदय में बारी-बारी आ-जा रहा था.
          पिछली रात हम हवाईयात्रा के कारण सो नहीं पाये थे. शाम की घुमाई-फिराई ने थका दिया था. भोजन करके हम टू-इन-वन रजाई में घुसने लगे तब ही माधुरी जी को रजाई की खोल में कुछ दाग दिखे जो फंगस जैसे दिख रहे थे. उन्होंने मेरा ध्यान आकर्षित किया लेकिन मैंने उसे 'ओवरलुक' करने के लिए कहा तो माधुरी जी ने रजाई को उल्टा घुमा दिया अर्थात सिर को ढंकने वाला छोर पैर की तरफ चला गया.
          उसके बाद हम गहरी निद्रा की गोद में चले गए क्योंकि हमें सुबह पांच बजे के पहले जागना था.

(४)

          अगली सुबह सुबह सात बजे हमारी बस फीफी आइलेंड की सैर के लिये निकलने वाली थी, हमें साढ़े छः बजे नास्ते की टेबल पर पहुँचना था. जब भी हम यात्रा में निकलते हैं तो हमारा दैनिक योग कार्यक्रम अक्सर अव्यवस्थित हो जाता है. योग-प्राणायाम के लिए मुझे डेढ़ घंटे चाहिए और माधुरीजी को तीन घंटे. नींद और योग का संतुलन बैठाने में दोनों में थोड़ी-थोड़ी कटौती करनी पड़ती तब जाकर काम बनता है.
          छः बजकर पैंतालिस मिनट पर हम 'बफे' टेबल पर पहुंचे. अधिकतर सामग्री नान-वेज थी. एक बर्तन में पका हुआ चावल रखा था. सुबह-सुबह चावल खाना मुझे नहीं सुहाता लेकिन पेट भरना था इसलिए प्लेट में एक बड़ी चम्मच चावल लिया, थोड़ी सी जेली, कुछ फल लिया और कुर्सी पर बैठकर खाने लगा. थोड़ी देर में माधुरी जी भी मेरे सामने अपनी प्लेट लेकर बैठ गयी. अचानक उनका ध्यान मेरी प्लेट पर गया. उन्होंने मुझसे तल्ख़ आवाज़ में पूछा- 'तुमने चावल लिया क्या?'
'हाँ, बहुत अच्छा है.' मैंने कहा.
'खा भी गए?'
'हाँ, क्यों?'
'उसमें सुअर का मांस मिला हुआ है, तुमने देखा नहीं, उस टेबल पर सब नान-वेज था.' वे मेरी असावधानी पर खिन्न दिख रही थी.
'मैडम, उसमें जो मिला हो, सो मिला हो, मैंने खा लिया, स्वाद ठीक ही था.'
'तुमको देखकर सामान उठाना था.'
'अब हो गया यार. हमारे पूर्वज खाते थे, आज मैंने भी खा लिया.' यह तर्क देकर मैंने उभरते हुए प्रतिरोध को शांत किया और फटाफट नास्ता लेकर हम अपनी बस में जा बैठे.
          सफ़र लम्बा था. सभी सहयात्री साहित्य से जुड़े थे, अपनी कविता सुना रहे थे. जब मुझे पुकारा गया तो मैंने मुकेश जी का गाया हुआ यह गीत गाया-

'छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी
नये दौर पर लिखेंगे, मिलकर नयी कहानी
हम हिन्दुस्तानी.

          हमारी बस एक छोटे से पोर्ट में रुकी. हम सब उतरकर लांच पर सवार हो गए. लांच में यात्रियों के बैठने के लिए दो मंजिलों में आरामदायक सोफानुमा चेयर लगी हुई थी जिसमें लगभग चार सौ लोग बैठने की व्यवस्था थी. पूर्णतः वातानुकूलित दोनों कक्षों में अधिकतर भारतीय सैलानी थे जो फीफी आइलेंड तक जाने के लिये जमे हुए थे. थोड़ी देर में हमारा लांच चल पड़ा और हम लोग चारों तरफ से समुद्र के गहरे नीले जल से घिर गए. आधे घंटे बाद हमें ऊपर डेक पर जाने की इज़ाज़त मिल गयी. हर दिशा में लहराती हुई जलराशि, हर-हर करती लहरें और उन्हें चीरता हुआ लांच तेजी से आगे बढ़ते जा रहा था. आसमान में सूरज तप रहा था लेकिन समुद्र में चल रही तेज ठंडी हवाएं उसके ताप को निष्प्रभावी कर रही थी. समुद्र के बीच छोटे-छोटे सीधे खड़े पहाड़ इस कदर खूबसूरत लग रहे थे कि आपको क्या बताऊँ?
          हमारे देश में स्त्रियों की वेशभूषा के पुराने मानदंड बदल रहे हैं. मुझे याद है, ६०-६५ वर्ष पूर्व प्रौढ़ महिलाएं घर में केवल साड़ी पहन कर रहती थी. साया (पेटीकोट) और पोल्का (ब्लाउज) खास अवसरों पर ही पहना जाता था. चोली (ब्रा) को कोई जानता नहीं था लेकिन बम्बइया फिल्म की हीरोइनों ने उसकी गुणवत्ता का लम्बे समय तक प्रचार-प्रसार किया तब जाकर वह स्त्रियों के लिए अनिवार्य बन सकी.
          जब लड़कियों को स्कूल में पढ़ाने का प्रचलन आया, उनके लिए शरीर को अधिकाधिक ढँककर रखने वाली वेशभूषा विकसित हुई, सलवार-कुर्ती आई और उसमें भी समय-समय पर विविध बदलाव होते रहे. अब जींस-शर्ट की चहल-पहल है. स्त्रियों के सिर से रखा साड़ी का घूँघट घटते-घटते कंधे में आया और अब सलवार-सूट या गाउन पर आकर टिक गया. साड़ी जो युग-युग से महिलाओं के पहनने की काम आती थी, अब दिखाने के काम आने लगी.
          महानगर में फैशन तेजी से बदलते हैं लेकिन छोटे शहरों में उनकी झलक भर दिखती है और वैसा खुलापन झिझकते-झिझकते आता है. विदेश-यात्रा में वेशभूषा का भारतीय संकोच समाप्त हो जाता है और वहां वैसी 'ड्रेस' पहनने की खुली छूट मिल जाती है जिसे धारण करना अपने देश में अब भी संभव नहीं है. हमारे लांच में लहरा रही जवानी और भारतीय जोड़ों के निःसंकोच खुलेपन ने मुझे अचंभित कर दिया.
          डेक पर एक हिन्दुस्तानी नव-विवाहित युगल भी था वहां जो वहां न समुद्र देख रहा था, न वहां के मनोरम दृश्य, वह फोटो-सेशन में लगा था. बहूरानी क्वार्टर-पैंट (फुलपैंट > हाफपैंट > क्वार्टर-पैंट) पहने हुई थी, ऊपरी अंग में पारदर्शी रंगीन ब्रा और उसके ऊपर अति-पारदर्शी शर्ट. अचानक उसने मुझे देखा और अपना कैमरा देते हुए मुझसे कहा- 'अंकल, हमारी फोटो खीच दीजिए.' मैंने उसका कैमरा सम्हाला और व्यू-फाइंडर से उन्हें देखने लगा. दोनों आमने-सामने खड़े हो गए, फिर चिपक गए. लड़की लड़के से ठिगनी थी इसलिए वह पंजे के बल खड़ी हो गयी ताकि कद का अंतर कम किया जा सके. लड़की ने अपने पति से कहा- 'जानू, मुझे 'किस' करो.'  इधर जानू ने 'किस' किया, उधर मैंने 'क्लिक' किया.
          शर्म-लिहाज़ किस चिड़िया का नाम है!
          फीफी आइलैंड आने के पहले हमें एक अपेक्षाकृत छोटे लांच में शिफ्ट किया गया. कुछ दूर जाकर उसने समुद्र के के किनारे लंगर लगा दिया. समुद्र तट छोटा सा था जिसमें इंसान से अधिक बन्दर थे जो आतंकवादी स्वभाव के दिख रहे थे इसलिए सैलानी तट पर जाने की अपेक्षा लांच से उतर कर सीधे समुद्र में जा रहे थे. लांच में पानी के अंदर जाने के लिए सैलानियों की सुरक्षा का पूरा इंतजाम था, जैसे मास्क, डाइविंग बोर्ड आदि. युवा लड़के और लडकियां समुद्री जीवों को गहराई में देखने के लिए चले गए और हम लोग उन्हें देखते डेक पर खड़े रहे. तब तक भोजन का समय हो चुका था. भोजन किया और वापस आपने विशाल लांच में आकर धम्म से बैठ गए और शीतल हवा के झोंके ने दो घंटे की गहरी नींद की सुविधा बना दी. समुद्री यात्रा के बाद हम बस में बैठ गए और शाम होते-होते अपनी होटल में आ गए.
          शाम के समय शहर देखने निकले. अधिकतर दूकानों और घरों के सामने हमने बिना दरवाजे वाले छोटे-छोटे मंदिर देखे जिनमें चार सिर वाले देवता स्थापित थे, उनका नाम था फफोम. सभी मंदिरों में देवता के समक्ष देवता को चढ़ा हुआ प्रसाद रखा हुआ था, जैसे आम, केला, चाकलेट, शराब, बीयर, सिगरेट-माचिस आदि. यह पता नहीं कि किसने प्रसाद चढ़ाया और बाद में कौन और कब खाने आएगा? हमारे देश में यदि चढ़ा हुआ प्रसाद इतना खुले में रखा हो तो पलक झपकते गायब हो जाएगा, खास तौर से शराब और बीयर के लिए तो छीना-झपटी भी हो सकती है.
          बाज़ार की सभी दूकानें सुसज्जित और माल से ठसाठस भरी हुई थी लेकिन ग्राहक नहीं थे. भारत की तुलना में वहां सामान दोगुना महंगा था इसलिए भारतीय सैलानी भाव पूछ कर बाहर निकल जाते थे. कुछ दूकानों में हम गए तो दूकानदारों ने हमसे एकदम ठंडा व्यवहार किया. हर चौथी दूकान में शराब बिक रही थी, हर पांचवी दूकान में मसाज़ सेंटर था, हर छठवीं दूकान में रेस्तरां था. अधिकतर दूकानें लड़कियां संभालती हैं इसलिए वे आकर्षक वेशभूषा में शोरूम के बाहर स्टूल पर एक टांग के ऊपर दूसरी टांग रखकर मोबाईल में डूबी हुई थी. कुछ-एक लडकियां मुस्कुराकर ग्राहकों को बुला रही थी- 'वाइन-वाइन', 'मसाज़- मसाज़', 'डिनर-डिनर'. एक मसाज़ सेंटर के सामने मैं ठिठक कर खडा हो गया क्योंकि आमंत्रण मन-मादक था. मैंने माधुरी जी से पूछा- 'बार-बार यहाँ आना नहीं होगा, मसाज़ करवा लिया जाये क्या?'
'एक जन की मसाज़ का भाव न्यूनतम २५० भात (लगभग ५२० रुपए) लिखा हुआ है, वह भी केवल पैर की मसाज़! दो जन का ५०० भात लग जाएगा. छोड़ो, रहने दो, इसके बदले मुझे कुछ सामान दिलवा देना.' मेरे पैरों में बहुत दर्द था, मैं मालिश करवाना चाहता था लेकिन माधुरी जी ने मेरे प्रस्ताव पर वीटो कर दिया.
          करूं क्या, आस निरास भई....
          चार जून की सुबह हमें क्रबी के लिए निकलना था. भोर होने के पहले जागे, योग-प्राणायाम संपन्न किया और अपना सामान पैक करने लगे. आपको याद होगा, आम की दो गुठलियाँ हम सहेज कर लाये थे ताकि उसे अपने देश ले जा सकें और उसका पौधा तैयार करें. दोनों गुठलियाँ लापता हो गयी. मैंने गुठलियों को भली-भांति धोकर बेसिन के पास रखा था, उसके बाद वे कहाँ गयी, मुझे मालूम नहीं था. एक विचार यह आया कि बाथरूम की सफाई के समय स्टाफ ने फेंक दिया होगा. फिर यह बात दिमाग में आई कि जब गुठलियाँ प्लास्टिक की पन्नी में थी तो वे क्यों फेकेंगे? माधुरी जी बेचैन हो गयी. मेरे और उनके बैग की यथासंभव तलाशी हुई लेकिन गुठलियाँ न मिली. माधुरी जी ने मुझसे कहा- 'तुमने फेंका क्या?'
'अरे वाह, मैंने उसे धोकर संभालकर रखा था, मैं क्यों फेकूँगा?'
'तुम सामान फेंकने में एक्सपर्ट हो, ऐसा बेदर्दी से बिना देखे डस्टबिन में सामान डालते हो कि मत पूछो.'
'मैंने नहीं फेंका मां, मेरी बात मानो.'
'ऐसे कैसे मान जाऊं? इतना संभालकर रखा था लेकिन तुम न?' माधुरी जी गुस्से में थी. मैं अपना बैग लेकर कमरे से बाहर निकल गया. नीचे डायनिंग में हमारे सहयात्री राजेन्द्र मौर्य मिले. मैंने उनसे गुठली वाला प्रकरण बताया ताकि मेरा क्षोभ कम हो सके तो वे बोले- 'भैया जी, मैं भी अपना दुःख आपको तश्तरी में रखकर बताने वाला था लेकिन आपका दुःख सुनकर मैं अब अपनी तश्तरी वापस ले रहा हूँ.'
          मिथ्या-दोषारोपण का दुःख कम नहीं हुआ था, एक और आरोप लग गया. मुझे होटल के काउंटर पर बुलाया गया और 'एकाउंट क्लीयर' करने के लिए कहा गया. मेरे लिए १५०० बाथ (लगभग ३२००रूपए) का बिल तैयार था. मैंने रिसेप्निष्ट से पूछा- 'हमने तो कमरे में कुछ मंगाया नहीं, ये किस बात का बिल है?'
'आपने हमारी चादर और तकिया की खोल गन्दी की है, इसकी पेनाल्टी है.' उसने मुझे रजाई और तकिया की खोल दिखाये जिसमें फंगस के हलके दाग लगे थे.
'ये दाग तो पहले से लगे थे, हमने नहीं लगाए.'
'तो आपने इन दागों को देखते ही हमसे शिकायत क्यों नहीं की?'
'क्या इतनी छोटी बात की शिकायत करनी थी?'
'आपने शिकायत नहीं की, यह आपकी गलती है.'
'हमारी ग़लती यह है कि हम आपकी होटल में रुके हैं.'
'देखिए, आपने अपने जूते पोछे होंगे.'
'मैं खुद होटल चलता हूँ, इंडिया में. मैं जानता हूँ कि ऐसा नहीं करना चाहिए और आप यह देखिए, मेरी चप्पल, जिसमें धूल अभी भी लगी हुई है.' मैंने अपनी हाथ से ऊपर चप्पल उठाकर उसे बताया. पर वह वसूली की जिद में थी. बाजू में हमारे टूर-आपरेटर खड़े थे. वे बोले- 'दे दो अंकल, नहीं तो चेक-आउट नहीं हो पाएगा.'
'जब मेरी गलती नहीं तो मैं जुर्माना क्यों भरूं?' मैं भड़का तो काउंटर पर कड़ी चारों लडकियां सहम गई. 'मैं नहीं देने वाला, मैं जा रहा हूँ, जिसको जो करना है कर ले.'
'तो मुझे देना पड़ेगा.' टूर-आपरेटर ने कहा.
'तुम जानो. हल्का दाग है, धुलाई में निकल जाएगा. मेरी गलती होती तो मैं तुरंत स्वीकार करता, जब मेरी गलती नहीं है तो मैं नहीं भुगतूंगा. मेरे पास हराम की कमाई नहीं हैं.' मैंने कहा और होटल के बाहर निकल गया.
          पांच घंटे की बस यात्रा के बाद हम क्रबी पहुंचे. क्रबी मुस्लिम बहुल इलाका है, बेहद खूबसूरत मस्जिद है और समुद्र का मनमोहक किनारा है. भोजन के पश्चात आई वी आई एस होटल में अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार एवं वैश्विक साहित्य सम्मलेन हुआ. प्रथम सत्र में 'ग्लोबल गाँव की हिंदी' विषय पर आलेख पढ़े गए तथा इस पर विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किये. चूंकि मैं मुख्यअतिथि के आसन पर स्थापित था इसलिए मुझे भी अपनी विद्वता झाड़ने का सुअवसर मिला. दूसरे सत्र में काव्यपाठ हुआ और रात को आठ बजे राजकोट (गुजरात) की काजल मुले के राजस्थानी नृत्य के साथ कार्यक्रम संपन्न हुआ. अगली सुबह हम लोग टाइगर केव टेम्पल देखने गए जहाँ चतुर्मुखी देवता फफोम का आकर्षक मंदिर था. वहां भगवान बुद्ध की भी प्रतिमाएं थी. वहां घूमफिर कर हम सीधे एयरपोर्ट पहुंचे जहाँ से हमारे वायुयान को बैंकाक के लिए उड़ान भरना था. शाम को पांच बजे थाइलेंड की राजधानी पहुँच गए.

(५)

          बैंकाक, विदेशियों के द्वारा रखा गया नाम है जैसे हमारा 'इण्डिया'. इस शहर का वास्तविक नाम ज़रा लम्बा है- Krungthepmahanakhon Amonrattanakosin Mahintharayutthaya Mahadilokphop Noppharatratchathaniburirom Udomratchaniwetmahasathan Amonphimanawatansathit Sakkathattiyawitsanukamprasit. इसमें संस्कृत और पाली भाषा के शब्द हैं जिसका अर्थ है- 'परियों का नगर, अमर लोगों का महान नगर, नव-रत्नों का भव्य नगर, महाराजा का सिंहासन, शाही महलों का नगर, दैवीय अवतारों का आवास, इन्द्र की आज्ञा से विश्वकर्मा द्वारा निर्मित नगर.'
          जैसा नाम है, वैसा शहर है बैकाक. भव्य इमारतें, साफ़-सुथरी चौड़ी सड़कें, फ्लाई-ओवर इतने अधिक बने हैं कि सड़कों में क्रासिंग नहीं है, यातायात स्व-नियंत्रित है. होटल और मसाज़ पार्लर की बहार है. सब कुछ वैसा, जैसा किसी देश की राजधानी को होना चाहिए, एकदम व्यवस्थित. 
          बैंकाक की बहुमंजली इमारतों की बाहरी साजसज्जा और कारीगरी देखने लायक है. विश्व के व्यापारिक संस्थानों को थाइलैंड ने आकर्षित किया, फलस्वरूप उन्होंने वैश्विक विपणन के हिसाब से अपने कार्यालय वहां खोल रखे हैं. पूरे थाइलेंड में शोरूम का काम महिलाओं ने संभाल रखा है. वहां पुरुषों की भूमिका पता नहीं चली, हो सकता है वे परदे के पीछे का काम सँभालते होंगे या आफिस में काम करते हों. मेरा मन था कि वहां की सामाजिक स्थिति पर किसी से बात करूं, समझूं लेकिन वे लोग न अंग्रेजी समझते थे और न बोल पाते थे. दो गाइड हमें मिली, एक फुकेट में और दूसरी बैंकाक में लेकिन दोनों गोबर-गणेश थी. 
          अगली सुबह हमें नगर भ्रमण के लिए निकलना था, सुबह ज़ल्दी उठे लेकिन यह क्या? बाथरूम में एक बूँद पानी नहीं था. थ्री स्टार होटल में जल-संकट? जीवन में पहली बार 'टिशू पेपर' का इस्तेमाल किया. मिनरल वाटर से कुल्ला किया. नौ बजे होटल प्रबन्धन ने हाथ ऊपर उठा लिए और बताया कि तकनीकी कारणों से पानी दे पाना संभव नहीं है. उन्होंने किसी दूसरे होटल के बाथरूम में जाकर बाथरूम का उपयोग करने की पेशकश की लेकिन हमने मिनरल वाटर को अपने ऊपर छिड़क लिया और मंत्रोच्चारण कर लिया- 'ॐ अपवित्र पवित्रो वा....'  
          ग्राउंड-फ्लोर में रेस्तरां था जिसमें शानदार दक्षिण भारतीय नास्ता मिला, चाय मिली, मज़ा आ गया. हमारे सहयात्री राजेंद्र मौर्य से मैंने कहा- 'राजेन्द्र भाई, आज हम लोग पानी की कमी से बिना नहाए रह गए.'
'अरे, सबसे ऊपरी मंजिल में स्वीमिंग पूल था ,वहां चले जाते.' उन्होंने बताया. 
'क्या बताऊँ आपको? कई मौकों पर मेरे दिमाग की बत्ती नहीं जलती और सुअवसर हाथ से निकल जाता है.' मैंने अफ़सोस व्यक्त किया. हम दोनों ठहाका लगाकर जोर से हँसे, कुछ विदेशी मेहमान हमें घूरकर देखने लगे. पर हम हिन्दुस्तानियों में एक खासियत है कि जब हंसते हैं तो खुलकर हंसते हैं. दुनिया जले तो जले. 
          अब देखिए, पिछली रात की एक बात बताना तो भूल ही गया, रात को हमने मसाज़ कराई, वही मसाज़ जिसकी दुनिया में चर्चे हैं.
          तो, रातको जब 'डिनर' लेकर हम लोग पैदल-पैदल वापस लौट रहे थे तो बाज़ार का नज़ारा हमारे सामने था. दुल्हन जैसे सजी-धजी दूकानें मटक रही थी लेकिन दूल्हों का पता नहीं था. ग्राहकी का समय था लेकिन ग्राहक नदारत थे. हमारे देश में रात को नौ बजे दूकानें सिमटना शुरू हो जाती हैं लेकिन वहां आधी रात के बाद दो बजे तक चहल-पहल की उम्मीद में खुली रहती हैं. उस समय दस बज रहे थे लेकिन सन्नाटा था. मसाज़ के हर शोरूम के बाहर चार-पांच लडकियां 'क्रास-लेग' किये बाहर बैठी थी, कुछ मुस्कुराते हुए आपस में बातें कर रही थी, कुछ मोबाइल में तल्लीन थी. मैंने माधुरीजी से कहा- 'कल रात अपन भारत वापस लौट जाएंगे, फिर कभी इधर आना नहीं होगा, क्यों न 'मालिश' करवा ली जाए?' मैंने 'मसाज़' का हिंदी अनुवाद उन्हें मनाने के लिए किया. 
'क्या होगा मालिश करवाने से?' उन्होंने सवाल किया.
'तुम चल-चल कर थक गयी हो, मालिश से पैरों का दर्द कम हो जाएगा और तुम्हें सुकून मिलेगा.'
'हाँ, दरद तो बहुत है पैरों में लेकिन...'
'लेकिन क्या? करवा कर देखते हैं कि इनके हाथ में कैसा हुनर है जो सब इनके काम की तारीफ़ करते हैं.'
'रेट तो देखो, कितना मंहगा है.'
'पैरों की मालिश का रेट कम है, केवल २५० Baht, हम दोनों का मिलाकर ५००.' मैंने समझाया. हमारे साथ में चल रही तृषा शर्मा ने कहा- 'चाचीजी, मसाज़ करवा लीजिए, आपको मज़ा आ जाएगा. मैं करवा चुकी हूँ. चलिए मैं आपको अच्छे से पार्लर में ले चलती हूँ.' 
          हमारी होटल के सामने ही एक पार्लर जिसमें बाहर पारदर्शी कांच लगे हुए थे. अन्दर अध-लेटू सोफे कतार में लगे हुए थे जिस पर हम दोनों आराम से पसर गए. इस बीच तीन और ग्राहक आ गए, वे भी लेट गए. अब लड़कियों ने अपना-अपना मोर्चा संभाल लिया. मसाज़ गर्ल ने पूछा- 'फुल बाडी सर?'
'ओनली लेग.' मैंने अपनी और माधुरी जी की ओर इशारा करते हुए कहा. 
'ओके.' उसने चौड़ी मुस्कान फेंकते हुए सिर हिलाया. 
          वह अन्दर गयी, एक कांच के तसले में पानी भर कर लायी जिसमें कोई वाशिंग-एजेंट था और मेरे पैरों के सामने आसन जमा कर बैठ गयी. उसने मेरे दोनों पैर के पंजों को अपने हाथों में थामा और धीरे से पानी में डुबा दिया और उन्हें आहिस्ता-आहिस्ता धोने लगी. उसके बाद एक मासूम से ब्रश से रगड़ना शुरू किया, मुझे गुदगुदी हुई तो मैंने अपने पैर संकुचित किये तो उसने पूछा- 'समथिंग रांग सर?' 
'नथिंग, केरी ऑन.' मैंने कहा. अब मैं उसे कैसे समझाता कि मुझे गुदगुदी हो रही है? चरण पखारने के बाद उसने मुलायम टावेल से पैर के पंजों को पोछा और अपनी गोद में ले लिया. मैं उस समय बहुत झिझका हुआ था क्योंकि हमें तो बचपन से सिखाया गया था कि किसी कन्या भी को अपने पैर स्पर्श नहीं करने देना क्योंकि कन्या पूज्य होती है.
          उसके बाद उसने मेरे घुटनों तक उसने एक क्रीम लगाई और मालिश करना शुरू किया. उसके बाद हुनरमंद की उँगलियों ने मुझे समझाया कि उसे पैरों के नस-नस का हाल मालूम है. सधी हुई उंगलियाँ कोमल थी लेकिन दक्ष भी. मैं सो सा गया. अचानक उसने मुझसे पूछा- 'हाउ डू यू फील सर?'
'ग्रेट.' मैंने अपने हाथ के अंगूठे से अनामिका को जोड़ते हुए संकेत दिया.
          मसाज़ के दौरान उसने पैरों की गहरी मालिश की, उसके बाद पीठ, कंधे और सिर की सूखी मालिश भी की और सारे दर्द को बदन से बाहर फेंक दिया. मैं कह नहीं सकता कि वह ज़ादू उसकी उँगलियों का था या कुछ और. वह एक घंटे का समय मेरे लिये यादगार बन गया. 
          आपको भी समय-समय पर मालिश करवाते रहना चाहिए.
          बैंकाक में बच्चों के लिये अप्रतिम आकर्षण है, 'सफारी वर्ल्ड' जिसमें दो पार्क हैं, मरीन पार्क और सफारी पार्क. इस पार्क को सन १९८८ में शुरू किया गया था. यह ४८० एकड़ भूमि में फैला हुआ है. मरीन पार्क में प्रवेश के लिए मंहगी टिकट और सुरक्षा जांच भी ज़रूरी है. भीतर घुसते ही ऐसा लगता है, जैसे हरियाली की छांह में आ गए हों. सबसे पहले उन रंग-बिरंगे पक्षियों से भेंट होती है जिन्हें हमने भारत में भी देखा है लेकिन यहाँ उनकी बात कुछ और है. जैसे, भारत में पाये जाने वाले मिट्ठुओं से बहुत बड़े और विविधरंगी, जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है. चिड़िया से लेकर बाज तक, मछलियों से लेकर मगरमच्छ तक, सब कुछ प्रदर्शित है वहां. 
वहां दर्शकों के लिए मनोरंजक 'शो' किये जाते हैं, Oran-Utan show, Sea Lion show, Cowboy show, Elephant show, Dolphin show, The Star-Wars show, जो किसी सर्कस से कम रोचक और रोमांचक नहीं होते. हर शो के लिए अलग-अलग वृहद् मंच और दो हज़ार दर्शकों के बैठने के लिये गैलरी. शो के समय उठता शोर और ख़ुशी देखने-सुनने लायक है. हमारे देश में उस विधा को अपनाने की बहुत ज़रुरत है.  
          मरीन पार्क देखने में छः घंटे लग गए. पैदल चल-चलकर थक गए थे, जाकर बस में बैठ गए. शाम पांच बजे बस चली और सफारी पार्क में प्रवेश कर गयी. दुनिया का कौन सा ऐसा जंगली जानवर है जो वहां पर नहीं हो? मैंने पहली बार जिराफ को वहां देखा. ऊंट जैसे ऊंचे-पूरे जिराफ के झुण्ड को देखकर मन प्रसन्न हो गया. सिंह, बाघ, चीता, लकड़बग्गा, गेंडा, ज़ेबरा, हाथी, ऊंट, सुअर, जंगली भैसा, हिरण, बारहसिंघा आदि जानवरों का झुण्ड का झुण्ड. सब मोटे-ताज़े, खाते-पीते और मस्ती में घूमते-उछलकूद करते हुए. समझिए, 'ओपन-एयर-थियेटर', कोई पिंजरा नहीं. केवल सुरक्षात्मक जालियां लगी हुई थी ताकि सिंह, बाघ, चीता और छोटे जानवर एक दूसरे के बाड़े में न घुस पायें. अद्भुत नज़ारा था वह. थाइलेंड का सफारी पार्क पैसा-वसूल सिद्ध हुआ. केवल इस सफारी पार्क को देखने के लिए आप थाइलेंड चले जाइए, सच में, आपको मज़ा आ जाएगा. 
          थाइलेंड की यात्रा का अंतिम दिन आ पहुंचा. सबसे पहले हम सब एक मंदिर में गए, अपने गौतम बुद्ध के मंदिर में, जहाँ उनकी अलग-अलग मुद्राओं में स्थापित पाषाण मूर्तियाँ सहज ही मन मोह लेती हैं. मुख्य मंदिर में सोने की परत चढ़ी हुई स्थापित मूर्ति की जगमगाहट अनुपम है. वहां एक अद्भुत नियम की जानकारी हुई, बुद्ध की प्रतिमाओं का फोटोग्राफ लेने की अनुमति थी लेकिन उनकी प्रतिमा के साथ 'सेल्फी' लेना प्रतिबंधित था. पूरे थाइलेंड में बुद्ध का बहुत सम्मान है इसलिए बुद्ध की मूर्ति या छायाचित्र का सजावट, विज्ञापन या किसी प्रकार का शौकिया और दिखावटी उपयोग कानूनन अपराध है. यह सूचना एयरपोर्ट से लेकर मंदिरों तक हर जगह चस्पा है.
          उसके बाद हम पहुंचे, वहां के प्रसिद्ध बाज़ार 'इन्द्रा मार्केट' में. बाज़ार बड़ा था, रेडीमेड कपड़े, घरेलू ज़रुरत की वस्तुओं और इलेक्ट्रानिक्स गुड्स से आच्छादित था. भारत की तुलना में सामानों की कीमत दो गुनी थी. भाव-ताव पूछते माधुरी जी को एक शॉप में बैग पसंद आ गए. अपनी नातिन अनन्या के लिए विदेशी चाकलेट ली और अपनी बस के पास पहुँच गए. बैंकाक में और भी बहुत कुछ देखने लायक था, हाथ में समय भी था लेकिन 'देर न हो जाये' का नारा लगाकर हड़बड़ी की गयी और हमें हवाई अड्डे में ले जाकर कैद कर दिया गया जहाँ हम स्टील की चमकती लेकिन चुभती कुर्सियों पर पूरे छः घंटे बैठे रहे. जिन्होंने हमें वह कष्ट दिया वे अगले जन्म में निश्चयतः निरपराध जेल जाएगे, यह हमारा दुर्वासा शाप है.
          हाँ, जाते-जाते आपको यह बता दूं कि बैंकाक में गुमी हुई आम की गुठलियाँ भारत में मिल गयी, माधुरी जी के बैग में थी. 

==========  

टिप्पणियाँ

  1. नमस्कार आदरणीय
    बहुत बढ़िया ।वहाँ के देवता भाये मुझे ।

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  2. आपकी लेखन शैली इतनी सहज एवम सजीव है कि मैं स्वम बिना किसी शारीरिक परिश्रम के थाईलेंड घूमने का अनुभव कर लिया है

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