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योग की संयोग यात्रा

योग की संयोग यात्रा :
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          तमिलनाडु में चेन्नई के बाद यदि किसी शहर को भारत भर में जाना जाता है तो वह है कोयम्बत्तुर. इसे मशीनों का उत्पादक नगर कहते हैं। अब कोयम्बत्तुर की प्रसिद्धता में एक स्थान और जुड़ गया है, सद्गुरु जग्गी वासुदेव द्वारा संचालित ईशा योग केंद्र जिसे वहां की बोलचाल में 'ईशा' कहते हैं। हमारे पुत्र कुंतल जब वहां पूर्णकालिक स्वयंसेवक बन गए तो हमारे मन में यह प्रश्न अक्सर आता था कि ऐसा कौन सा आकर्षण है जिसके वशीभूत होकर उन्होंने गृहस्थी त्याग दी और योगी बन गए. उस बात को समझने के लिए उस प्रकल्प में घुसना ज़रूरी था इसलिए हमने वहां आयोजित आठ दिवसीय कार्यक्रम 'Wholeness' में अपना पंजीकरण करवाया और कोयम्बत्तुर पहुँच गए।
          योग प्रशिक्षण का कार्यक्रम कोयंबत्तुर के वेलियंगिरी पहाड़ की तलहटी में बसे पुंडी ग्राम में स्थापित ईशा योग केंद्र के स्पंद सभागार में चल रहा था जिसमें लगभग तीन सौ स्त्री-पुरुष योग की प्राचीन विधा को सद्गुरु जग्गी वासुदेव के मार्गनिर्देशन में अत्यंत मनोयोग से सीख रहे थे। आठ दिवसीय इस कार्यक्रम में आसन, प्राणायाम और ध्यान की विधियाँ सिखाई गई। दिन भर में मुश्किल से छः घंटे का शयन, एक घंटा दैनिक क्रियाएँ , दो घंटे भोजन और पंद्रह घंटे का प्रशिक्षण।
          उस समूह में मेरे साथ माधुरीजी भी थी। माधुरीजी भाषागत समस्या से जूझ रही थी क्योंकि कार्यक्रम अंग्रेजी भाषा में संचालित हो रहा था, अंग्रेजी से अनभिज्ञ माधुरीजी निर्देशों को समझ नहीं पा रही थी लेकिन अन्य प्रतिभागियों को देखकर अभ्यास कर रही थी। सद्गुरु के प्रवचन उन्हें समझ में नहीं आ रहे थे इसलिए वे हैरान थी।
          पहला दिन सामान्य रहा लेकिन अगले दिन मेरी कमर में असहनीय पीड़ा आरंभ हो गई। मेरी कमर में दर्द की शिकायत विगत दस वर्षों से चली आ रही थी, योगासन सीखते समय झुकने से उसमें झटका सा लगा और मैं अपूर्व पीड़ा के कारण त्राहिमाम करने लगा। न बैठते बने, न दो कदम चलते बने लेकिन प्रशिक्षक मेरी तकलीफ को समझने के लिए तैयार न थे। अपना दर्द बताया तो बोले- 'Carry on...no pain, no gain.' आप बताइए, एक इंसान दर्द के कारण हिल नहीं पा रहा है और वे कह रहे हैं- 'Carry on...'। प्रशिक्षक मुझे किसी क्रूर खलनायक जैसे लगने लगे, बताओ भला, यहाँ हिलते-डुलते नहीं बन रहा है और उधर से आदेश है- 'केरी ऑन'! वहीं पर मैं अपने कमर के दर्द से हैरान था, मैं कामचलाऊ अंग्रेजी जानता हूँ, सभी निर्देश समझ रहा था लेकिन मेरा शरीर उस अंग्रेजी भाषा को न समझते हुए केवल मेरी कमर की पीड़ा को ही एकाग्रता से समझ रहा था।
          कार्यक्रम के मध्य में अवसर मिलने पर मैं सभागार से चुपचाप भाग कर आवासीय परिसर में अपने कमरे में जाकर लेट गया। मुश्किल से आधा घंटा बीता होगा, 'कालबेल' बजी, मैंने दरवाजा खोला, एक विदेशी षोडशी कन्या बाहर खड़ी थी, उसने मुझसे कहा- 'प्रणाम।'
'
प्रणाम।' मैंने उत्तर दिया।
'
मैं योग कार्यक्रम की 'वालिंटियर' हूँ, लेबनान से आई हूँ।' उसने अंग्रेजी भाषा में मुझसे बात शुरू की।
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जी?'
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आप कार्यक्रम छोड़कर 'स्पंद' सभागार से यहाँ क्यों आ गए?'
'
पहले आप अंदर आइये, बैठिए। दरअसल, मैं कमर के दर्द से परेशान होकर यहाँ आ गया, मुझसे योगासन करते नहीं बन रहा था।' मैंने बिस्तर पर लेटते हुए बताया।
'
क्या बहुत दर्द है?'
'
हाँ, बहुत अधिक।'
'
क्या मैं आपके कमर में दवा लगा दूँ?' वह अपने साथ 'वोलिनी आइंटमेंट' और दर्दनाशक गोलियां लेकर आई थी।
'
ठीक है, लगा दीजिए।' मैंने कहा और अपने अधोवस्त्र ढीले करके पेट के बल लेट गया। उसने दवा लगाई, दस मिनट रुक कर पूछा- 'अब कैसा लग रहा है?'
'
पहले से बेहतर।'
'
एक 'टेबलेट' खा लीजिए, मैं पानी लेकर आती हूँ ।' उसने मुझे दवा खिलाई, पुनः दस मिनट शांत बैठी रही फिर उसने पूछा- 'अब कैसा लग रहा है?'
'
और अच्छा।'
'
तो फिर उठिए, खड़े हो जाइए और मेरे साथ सभागार में चलिए।'
'
पर मैं नहीं चल पाऊँगा!'
'
आप मेरे साथ चलिए तो, मैं आपको सहारा देकर ले चलूँगी, कोशिश कीजिए, बन जाएगा।' उसने आग्रह किया, मेरे पास उसके साथ चलने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। मैं उसके कंधे का सहारा लेकर दर्द से कराहता सभागार की ओर चल पड़ा।
सभागार में मैं अपने निर्धारित स्थान पर बैठ गया और वहाँ फिर वही किस्सा- 'केरी ऑन.....।'
          मैं योग कार्यक्रम से जुड़ा रहा, जैसा भी बना, करता रहा। योगासन करने में असुविधा थी लेकिन प्राणायाम और ध्यान सीखने में कोई परेशानी न थी। दिनोंदिन वातावरण समृद्ध होता जा रहा था, इतने सारे लोग मिलजुलकर जब किसी विधा को सीखते हैं तो सब एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं और ऊर्जा को परस्पर संचरित भी करते हैं। हमने हठयोग, शक्तिचलन क्रिया और शून्य ध्यान का क्रमबद्ध अभ्यास किया। उस दौरान इस बात का एहसास होता रहा कि उम्र अधिक हो जाने के कारण हमारे शरीर का लोच कम हो गया है इसलिए योगासन करना कठिन लगता है, हमारा शरीर साथ नहीं देता। वैसे, कार्यक्रम के दौरान हमारा आहार इस विधि से नियोजित किया गया ताकि शरीर हल्का रहे और योगासन करना सुविधाजनक हो।
          यौगिक क्रियाओं के अतिरिक्त प्रतिदिन सद्गुरु जग्गी वासुदेव के आध्यात्मिक प्रवचन होते थे जिन्हें सुनना मेरे लिए अपूर्व अवसर था। प्रवचन के पश्चात जिज्ञासु प्रश्न करते थे जिनके उत्तर सद्गुरु के उत्तर हास्यबोध से आरंभ होते और सरल उदाहरणों के सहारे गंभीर निष्कर्ष तक पहुँचते। उनकी बातों में आध्यात्म के साथ ब्रह्माण्ड, विज्ञान, धर्म, और मानवीय व्यवहार की परत-दर-परत चर्चा होती जिसे सुनकर मुझे जीवन शैली और व्यवहार की नई दिशाएँ समझ में आई। उनका विस्तृत ज्ञान, अँग्रेजी भाषा का अद्भुत प्रयोग और उनकी वाणी का प्रभाव मेरे जीवन के अहोभाग्य अवसर जैसा था।
          पांचवे दिन सुबह 9 बजे वेलियंगिरी पर्वत के शिखर तक पैदल चढ़ाई करनी थी। हमें तीन विकल्प दिए गए थे, एक- पर्वतारोहण करना है, दो- जो पर्वतारोहण न करना चाहें वे आश्रम की चतुर्दिक पदयात्रा करें, और तीन- जो दोनों के लिए तैयार न हों वे अपने कमरे में आराम करें। तीसरे विकल्प ने मुझे प्रसन्न कर दिया और उस बड़े समूह में मैं अकेला मानुष था जिसने कमरे में आराम करने वाला विकल्प चुना!
          उस दिन सुबह नित्य की भांति छः बजे से अभ्यास आरंभ हुए। तीन घंटे बाद नौ बजा, सब लोग पर्वतारोहण के लिए उत्सुक थे और मैं उनके चेहरे की प्रसन्नता को देखकर कुढ़ रहा था- 'ये लोग वहाँ जा रहे हैं और मैं नहीं जा पा रहा हूँ।' अनायास मेरे मन ने कहा- 'चल, चलते हैं, जो होगा देखा जाएगा।' मैंने माधुरी से कहा- 'मैं भी चलूँगा।
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कैसे चढ़ोगे तुम? तुम्हारी कमर का दर्द?' माधुरीजी ने पूछा।
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दर्द तो है, लेकिन तुम सब लोग पर्वत-शिखर पर जाओगे, मस्ती करोगे और मैं यहाँ बिस्तर पर पड़ा रहूँगा!'
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रास्ते में तुम्हारी परेशानी बढ़ गई तो?'
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वह मेरी नहीं, सद्गुरु की समस्या है, वे करेंगे व्यवस्था।'
'
तो, फिर चलो।' वे बोली।
          मैंने पर्वतारोहण के लिए खास तौर से उपलब्ध कराए गए जूते पहने और सबके साथ निकल पड़ा। शिखर तक पहुँचने के लिए कोई सड़क न थी, पगडंडियाँ थी, अगल-बगल झाड़-झंखाड़ थे, छोटे-बड़े टीले थे, तीखी चढ़ाई थी, सब एक के पीछे एक ऊपर की ओर बढ़ते जा रहे थे। एक युवा 'वालेंटियर' मुझे सहारा देने के लिए मेरे आसपास अनवरत चलते रहे। कुछ देर बाद तेज बारिश शुरू हो गई, राह में फिसलन हो गई, कपड़े भीग गए लेकिन किसी प्रकार अपने दर्द को दरकिनार करते हुए मैं चढ़ता ही रहा। लगभग साढ़े तीन घंटे की पगयात्रा के बाद मैं पर्वत के शिखर पर पहुँच ही गया जबकि माधुरीजी और अन्य कई लोग मेरे वहाँ पहुँचने के पंद्रह-बीस मिनट बाद वहाँ पहुँचे। उस दिन मैंने अपनी शारीरिक पीड़ा से भिड़कर संघर्ष किया और यह जाना कि कुछ भी असंभव नहीं और यह भी समझ आया कि हौसले की कभी हार नहीं होती। पर्वत-शिखर पर पहुँच कर मैं जी भर कर नाचा, वे मेरे लिए खुशी के क्षण थे...आप बताइये, थे कि नहीं ? शिखर पर हमारे भोजन की व्यवस्था थी, सद्गुरु का प्रवचन भी हुआ।
          तीन घंटे रुक कर हम लोग वापस लौटे, वही पथरीला-फिसलन भरा रास्ता, वही हिम्मत, वही 'वालेंटियर' का सहारा, ढाई घंटे में तलहटी पर उतार आए। वहाँ से हम सब स्पंद सभागार में प्रविष्ट हुए, मैं थक कर चूर हो चुका था, चुपचाप पैर फैलाकर लेटने का मन हो रहा था लेकिन प्रशिक्षक ने निर्देश दिया- 'सब लोग आसन करना आरंभ करें।' फिर वही- 'केरी ऑन !'
          इस कार्यक्रम के पहले इधर-उधर से योगासन करना सीखा था, अनियमित था किन्तु करता था लेकिन कोयंबत्तुर के ईशा फाउंडेशन में हुए इस कार्यक्रम में मुझे सतर्क प्रशिक्षकों के मार्गदर्शन में अनेक आसन, प्राणायाम और ध्यान की विधियां सीखने को मिली, अपने शरीर और मन को व्यवस्थित रखने के उपाय ज्ञात हुए। क्रमबद्ध ढंग से शरीर को तैयार करते हुए जो अभ्यास करवाया गया उससे समस्त क्रियाएँ शुरुआती तकलीफ़ों से होते हुए क्रमशः सुविधाजनक होती गई और स्मृति में संरक्षित भी हो गई। कार्यक्रम सम्पन्न होने के पश्चात हमें निर्देश दिए गए- 'छः माह तक इसे नियमित रूप से करना है, यदि किसी वज़ह एक दिन भी अभ्यास न हो पाया तो अगले दिन से छः माह के लिए अभ्यास फिर से आरंभ करना होगा।' परिणामस्वरूप बिना चूके छः माह तक अभ्यास चला और उसके बाद शरीर इतना अभ्यस्त हो गया कि कि अब दस वर्ष होने को आए, वह सब बिना किए अब जी नहीं मानता ! यहाँ तक कि रेलयात्रा में भी जैसी जगह मिली, शुरू हो गए, लोग स्वयं ही खिसक कर समुचित जगह बना देते हैं और अपना काम सध जाता है। यदि किसी दिन व्यस्ततावश अभ्यास न कर पाए तो दिन भर बेचैनी सी होती है।
          हाँ, एक महत्वपूर्ण बात आपको बतानी रह गई, मेरा दस वर्ष पुराना कमर दर्द अब इतिहास की बात हो गई!

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