सेठानी ट्रेन में नहीं चढ़ी
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ईशा फ़ाउन्डेशन द्वारा आयोजित बद्रीनाथ, केदारनाथ और गंगोत्री की ध्यान-यात्रा संपन्न होने के पश्चात मैं अपनी पत्नी माधुरी के साथ नई दिल्ली वापस आया। दिल्ली हम लोग २४ अक्टूबर २००८ को अल-सुबह पहुंचे, हमारी वापसी ट्रेन ‘सम्पर्क क्रान्ति’ शाम को साढ़े पांच बजे थी, इसलिए हम दोनों दिल्ली के एक उपनगर ‘द्वारका’ में माधुरी की बड़ी बहन विद्या जवाहर अग्रवाल से भेंट करने चले गए। बिलासपुर जाने वाली यह ट्रेन निज़ामुद्दीन से आरंभ होती है जो द्वारका से लगभग डेढ़ घंटे की दूरी पर है इसलिए थोड़ी अधिक ‘मार्जिन’ लेकर दोपहर तीन बजे कार में स्टेशन के लिए रवाना हो गए। रास्ते में लगातार ट्रेफ़िक जाम होता रहा और जब हम लोग स्टेशन पहुंचे तब हमारी घड़ी में पांच बजकर पच्चीस मिनट हो चुके थे। स्टेशन में कुली ने हमें समझाया कि प्लेटफ़ार्म दूर है, हम लोग जब तक पहुंचेंगे तब तक गाड़ी जा चुकी होगी- ‘आप कहें तो कोशिश करें।’
‘कोशिश करो।’ मैंने कहा।
ठंड के दिन थे, हिमालय की पन्द्रह दिवसीय यात्रा थी, इसलिए साथ में बहुत सामान था, कुल ग्यारह अदद ! दो कुली सामान लादकर दौड़े, सच में दौड़े। हमारे प्लेटफ़ार्म में पहुंचते ही ट्रेन ने सीटी दी और धीरे- धीरे चल पड़ी। दोनों कुली आगे-आगे, मैं उनके पीछे-पीछे और संभवतः माधुरी बहुत पीछे रह गई। धीमी गति से चल रही ट्रेन के एक कोच में कुलियों ने सामान चढ़ा दिया फ़िर मैं भी चढ़ गया, उसी समय कुली ने मुझे आवाज दी- ‘सेठ जी, सेठानी ट्रेन में नहीं चढ़ी।’
मुझे उस समय तत्क्षण निर्णय लेना था। मस्तिष्क में कई प्रश्न एक साथ उभरे, समय कम था। मुझे सूझा कि ट्रेन से उतर जाना चाहिए और मैंने अपना चढ़ा हुआ सामान डिब्बे से बाहर फ़ेंक दिया और खुद भी उतर गया। दोनों कुली दौड़ते हुए आए, हमारा बिखरा सामान समेटा और पीछे मुड़कर ‘सेठानी’ को खोजा तो सेठानी गायब!
हज़रत निज़ामुद्दीन रेल्वे स्टेशन का प्लेटफ़ार्म सीधा नहीं वरन थोड़ा ‘कर्व्ह’ लिए हुए है इसलिए मैं कुलियों को ही सामान तकवा कर ‘ओवर ब्रिज’ तक वापस गया लेकिन माधुरी मुझे कहीं नहीं दिखी, आखिर गई कहाँ ? ऐसी स्थिति में मन में इष्ट-अनिष्ट दोनों भाव आया करते हैं- मैंने रेल पटरियों को देखा, वे भी साफ़-सुथरी चमक रही थी। मैं बेहद चिन्तित हो गया कि वे कहाँ होंगी ? यदि वे ट्रेन में चढ़ गई हों तो वे अपने पास मोबाइल फ़ोन नहीं रखती, उन्हें कोच और बर्थ नम्बर भी मालूम नहीं है, कैसा करेंगी? खैर, मैं अपने सामान तक वापस पहुंचा जहां दोनों कुली खड़े थे, मैंने उनसे पूछा- ‘जब वे ट्रेन में नहीं चढ़ी तो कहाँ गई?’
‘तो फ़िर वे बाद में चढ़ गई होंगी पर हमने उनको डिब्बे में चढ़ते हुए नहीं देखा।’ वे बोले।
‘फ़िर कैसा किया जाए?’
‘जैसा आप बोलें।’
‘चलो वापस, टिकट-खिड़की के पास सामान ले चलो।’ मैंने उनसे कहा। लगभग पौन घन्टे बाद मेरा मोबाइल बजा, किसी यात्री के मोबाइल फ़ोन से उन्होंने बात की और मुझसे पूछा- ‘कब से तुमको खोज रही हूँ, तुम कौन से कोच में हो और बर्थ नम्बर क्या है?’
‘मैं तो ह्ज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन में हूँ, तुम कहाँ हो।’
‘मैं तुम्हें एक-एक कोच में खोज रही हूँ, मुझे न तो कोच मालूम है और न बर्थ नम्बर। पर तुम तो ट्रेन में चढ़ गए थे, मैंने तुम्हें चढ़ते देखा था फ़िर उतरे क्यों?’
‘कुली ने मुझे आवाज देकर बताया कि तुम नहीं चढ़ पाई।’
‘अरे नहीं, जब मैंने देखा कि तुम सामान सहित डिब्बे में चले गए हो तो पीछे के डिब्बे में दौड़ कर चढ़ गई।’
‘अब कैसा किया जाए? तुम एक काम करो, मैं तुमको कोच और बर्थ नम्बर बताता हूँ, वहाँ जाकर बैठो और अगले स्टापेज आगरा में उतर जाना, मैं कोई दूसरी ट्रेन पकड़्कर आगरा पहुँचता हूँ।’
‘तुम न जाने कब आगरा पहुँचोगे, मैं वहाँ अकेले प्लेटफ़ार्म में नहीं बैठ सकती, अब अन्धेरा भी हो गया है, ठंड लग रही है। मैं तो अब बिलासपुर जा रही हूँ।’
‘कैसे जाओगी? न तुम्हारे पास टिकट है, न पैसे हैं, न पानी है, न खाना है और न ही ओढ़ने-बिछाने का है।’
‘तुम मेरी चिन्ता छोड़ो, कोई न कोई मदद मुझे मिल जाएगी, मैं देखती हूँ। तुम अपना इन्तज़ाम बनाओ और सामान लेकर बिलासपुर पहुँचो। मैं चली।’ माधुरी ने अपना निर्णय सुनाया।
चिन्तन मुद्रा में लीन मैं हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन में अपने सामान के ढेर के पास खड़ा था तब ही एक सूट-पेन्ट-टाई धारी अधिकारी ने आकर मुझसे पूछा- ‘ये सामान किसका है?’
‘मेरा है।’
‘आप अकेले हैं?’
‘अब अकेला हो गया हूँ।’
‘क्या मतलब?’ उसने पूछा। मैंने उसे सम्पूर्ण घटित बताया और अपनी दुर्दशा का विवरण दिया और पूछा- ‘अब आप बताइए, मैं क्या करूँ?’
‘आप घबराइए मत, आपका इन्तज़ाम करते हैं।’ उस व्यक्ति ने मुझे ढाढ़स बंधाया। उसने सब ओर नज़र घुमाई, ‘स्काउट एन्ड गाइड’ के एक ‘वालिन्टियर’ को इशारे से अपने पास बुलाकर उससे कहा- ‘जब तक मैं न आऊं, इस सामान की सुरक्षा तुम्हें करनी है, यहां से हटना नहीँ।’ फ़िर मुझसे कहा- ‘आइये मेरे साथ।’
वे सज्जन मुझे अपने साथ अपनी कार में बिठाकर समीप ही स्थित आरक्षण केन्द्र में ले गए। हम लोग पिछले दरवाजे से पहुंचे। उन्होंने काउन्टर पर बैठे लिपिक को आवाज देकर बुलाया, मेरे दोनों आरक्षण निरस्त करने तथा ‘जो भी बिलासपुर के लिए अगली ट्रेन उपलब्ध हो’- के लिए मेरा आरक्षण बनाने के लिए कहा। लिपिक ने तत्परता से मुझसे फ़ार्म भरवाया और पुराना आरक्षण निरस्त कर सुबह चार बजे प्रस्थान करने वाली ‘छत्तीसगढ़ एक्स्प्रेस’ में आरक्षण भी बना कर दे दिया। आरक्षण कार्यालय से वे मुझे वापस स्टेशन लेकर आए, मेरे सामान की रखवाली में वालिन्टियर तैनात थे, उनसे कहा- ‘थोड़ी देर और देखो।’
उधर, ट्रेन में माधुरी विचित्र संकट का सामना कर रही थी। उन्हें प्यास लगी तो हमारी आरक्षित सीट पर ही अनधिकृत रूप से विराजमान सहयात्री से पानी मांगा तो उसने देने से इंकार कर दिया और कहा- ‘यह पानी नहीं, बंगला साहेब का पवित्र जल है, आपको नहीं दे सकती।’ आस-पास कुछ छात्राएं बैठी थी लेकिन किसी के पास पानी नहीं था, पास में दस रुपए भी न थे कि पानी की बाटल खरीद सकें। छात्राएं रायपुर की थी, उनके एक ग्रुप लीडर साथ में थे जो माधुरी की परिस्थिति को समझ कर मदद के लिए आगे आए। उन्होंने माधुरी को एक सौ रुपए दिए, टीटी से बात की और ‘सेटिंग’ की। एक छात्रा ने अपनी शाल दी, इस प्रकार उन मददगारों के मिल जाने से माधुरी के संकट का समाधान हो गया।
इधर, मेरे मददगार मुझे अपने साथ ‘रिटायरिंग रूम’ की व्यवस्था के लिए संबन्धित लिपिक के पास ले गए। लिपिक ने मुझे तुरन्त एक कमरा आबन्टित किया। हम लोग वापस सामान के पास आए, उन्होंने वालिन्टियर की मदद से मेरा सामान रूम तक शिफ़्ट करवाया तब तक रात के आठ बज गए थे।
उन्होंने मुझसे कहा- ‘अब, आप आराम कर लीजिए, सुबह समय से जाग जाइयेगा, मैं चलता हूँ।’
मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और पूछा- ‘सर, आप हैं कौन?’
‘मैं रेल्वे का स्टाफ हूँ।
‘यहाँ क्या करते हैं?’
‘आप आराम करिए।’ वे अपना परिचय बताए बिना चले गए।
मैं रिटायरिंगरूम के बुकिंगक्लर्क के पास गया और उससे पूछा- ‘ मुझे जो आपके पास लेकर आए थे, वो कौन हैं?’
‘हमारे स्टेशन मास्टर वीरेन्द्र कुमार।’
मैं तुरंत स्टेशन मास्टर कार्य़ालय गया, वहां वे नहीं थे, मैंने वहां उपस्थित व्यक्ति से पूछा- ‘वीरेन्द्र कुमार जी कहां हैं?’
‘वे तो शाम को छः बजे घर चले गए।’ उसने बताया।
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‘कोशिश करो।’ मैंने कहा।
ठंड के दिन थे, हिमालय की पन्द्रह दिवसीय यात्रा थी, इसलिए साथ में बहुत सामान था, कुल ग्यारह अदद ! दो कुली सामान लादकर दौड़े, सच में दौड़े। हमारे प्लेटफ़ार्म में पहुंचते ही ट्रेन ने सीटी दी और धीरे- धीरे चल पड़ी। दोनों कुली आगे-आगे, मैं उनके पीछे-पीछे और संभवतः माधुरी बहुत पीछे रह गई। धीमी गति से चल रही ट्रेन के एक कोच में कुलियों ने सामान चढ़ा दिया फ़िर मैं भी चढ़ गया, उसी समय कुली ने मुझे आवाज दी- ‘सेठ जी, सेठानी ट्रेन में नहीं चढ़ी।’
मुझे उस समय तत्क्षण निर्णय लेना था। मस्तिष्क में कई प्रश्न एक साथ उभरे, समय कम था। मुझे सूझा कि ट्रेन से उतर जाना चाहिए और मैंने अपना चढ़ा हुआ सामान डिब्बे से बाहर फ़ेंक दिया और खुद भी उतर गया। दोनों कुली दौड़ते हुए आए, हमारा बिखरा सामान समेटा और पीछे मुड़कर ‘सेठानी’ को खोजा तो सेठानी गायब!
हज़रत निज़ामुद्दीन रेल्वे स्टेशन का प्लेटफ़ार्म सीधा नहीं वरन थोड़ा ‘कर्व्ह’ लिए हुए है इसलिए मैं कुलियों को ही सामान तकवा कर ‘ओवर ब्रिज’ तक वापस गया लेकिन माधुरी मुझे कहीं नहीं दिखी, आखिर गई कहाँ ? ऐसी स्थिति में मन में इष्ट-अनिष्ट दोनों भाव आया करते हैं- मैंने रेल पटरियों को देखा, वे भी साफ़-सुथरी चमक रही थी। मैं बेहद चिन्तित हो गया कि वे कहाँ होंगी ? यदि वे ट्रेन में चढ़ गई हों तो वे अपने पास मोबाइल फ़ोन नहीं रखती, उन्हें कोच और बर्थ नम्बर भी मालूम नहीं है, कैसा करेंगी? खैर, मैं अपने सामान तक वापस पहुंचा जहां दोनों कुली खड़े थे, मैंने उनसे पूछा- ‘जब वे ट्रेन में नहीं चढ़ी तो कहाँ गई?’
‘तो फ़िर वे बाद में चढ़ गई होंगी पर हमने उनको डिब्बे में चढ़ते हुए नहीं देखा।’ वे बोले।
‘फ़िर कैसा किया जाए?’
‘जैसा आप बोलें।’
‘चलो वापस, टिकट-खिड़की के पास सामान ले चलो।’ मैंने उनसे कहा। लगभग पौन घन्टे बाद मेरा मोबाइल बजा, किसी यात्री के मोबाइल फ़ोन से उन्होंने बात की और मुझसे पूछा- ‘कब से तुमको खोज रही हूँ, तुम कौन से कोच में हो और बर्थ नम्बर क्या है?’
‘मैं तो ह्ज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन में हूँ, तुम कहाँ हो।’
‘मैं तुम्हें एक-एक कोच में खोज रही हूँ, मुझे न तो कोच मालूम है और न बर्थ नम्बर। पर तुम तो ट्रेन में चढ़ गए थे, मैंने तुम्हें चढ़ते देखा था फ़िर उतरे क्यों?’
‘कुली ने मुझे आवाज देकर बताया कि तुम नहीं चढ़ पाई।’
‘अरे नहीं, जब मैंने देखा कि तुम सामान सहित डिब्बे में चले गए हो तो पीछे के डिब्बे में दौड़ कर चढ़ गई।’
‘अब कैसा किया जाए? तुम एक काम करो, मैं तुमको कोच और बर्थ नम्बर बताता हूँ, वहाँ जाकर बैठो और अगले स्टापेज आगरा में उतर जाना, मैं कोई दूसरी ट्रेन पकड़्कर आगरा पहुँचता हूँ।’
‘तुम न जाने कब आगरा पहुँचोगे, मैं वहाँ अकेले प्लेटफ़ार्म में नहीं बैठ सकती, अब अन्धेरा भी हो गया है, ठंड लग रही है। मैं तो अब बिलासपुर जा रही हूँ।’
‘कैसे जाओगी? न तुम्हारे पास टिकट है, न पैसे हैं, न पानी है, न खाना है और न ही ओढ़ने-बिछाने का है।’
‘तुम मेरी चिन्ता छोड़ो, कोई न कोई मदद मुझे मिल जाएगी, मैं देखती हूँ। तुम अपना इन्तज़ाम बनाओ और सामान लेकर बिलासपुर पहुँचो। मैं चली।’ माधुरी ने अपना निर्णय सुनाया।
चिन्तन मुद्रा में लीन मैं हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन में अपने सामान के ढेर के पास खड़ा था तब ही एक सूट-पेन्ट-टाई धारी अधिकारी ने आकर मुझसे पूछा- ‘ये सामान किसका है?’
‘मेरा है।’
‘आप अकेले हैं?’
‘अब अकेला हो गया हूँ।’
‘क्या मतलब?’ उसने पूछा। मैंने उसे सम्पूर्ण घटित बताया और अपनी दुर्दशा का विवरण दिया और पूछा- ‘अब आप बताइए, मैं क्या करूँ?’
‘आप घबराइए मत, आपका इन्तज़ाम करते हैं।’ उस व्यक्ति ने मुझे ढाढ़स बंधाया। उसने सब ओर नज़र घुमाई, ‘स्काउट एन्ड गाइड’ के एक ‘वालिन्टियर’ को इशारे से अपने पास बुलाकर उससे कहा- ‘जब तक मैं न आऊं, इस सामान की सुरक्षा तुम्हें करनी है, यहां से हटना नहीँ।’ फ़िर मुझसे कहा- ‘आइये मेरे साथ।’
वे सज्जन मुझे अपने साथ अपनी कार में बिठाकर समीप ही स्थित आरक्षण केन्द्र में ले गए। हम लोग पिछले दरवाजे से पहुंचे। उन्होंने काउन्टर पर बैठे लिपिक को आवाज देकर बुलाया, मेरे दोनों आरक्षण निरस्त करने तथा ‘जो भी बिलासपुर के लिए अगली ट्रेन उपलब्ध हो’- के लिए मेरा आरक्षण बनाने के लिए कहा। लिपिक ने तत्परता से मुझसे फ़ार्म भरवाया और पुराना आरक्षण निरस्त कर सुबह चार बजे प्रस्थान करने वाली ‘छत्तीसगढ़ एक्स्प्रेस’ में आरक्षण भी बना कर दे दिया। आरक्षण कार्यालय से वे मुझे वापस स्टेशन लेकर आए, मेरे सामान की रखवाली में वालिन्टियर तैनात थे, उनसे कहा- ‘थोड़ी देर और देखो।’
उधर, ट्रेन में माधुरी विचित्र संकट का सामना कर रही थी। उन्हें प्यास लगी तो हमारी आरक्षित सीट पर ही अनधिकृत रूप से विराजमान सहयात्री से पानी मांगा तो उसने देने से इंकार कर दिया और कहा- ‘यह पानी नहीं, बंगला साहेब का पवित्र जल है, आपको नहीं दे सकती।’ आस-पास कुछ छात्राएं बैठी थी लेकिन किसी के पास पानी नहीं था, पास में दस रुपए भी न थे कि पानी की बाटल खरीद सकें। छात्राएं रायपुर की थी, उनके एक ग्रुप लीडर साथ में थे जो माधुरी की परिस्थिति को समझ कर मदद के लिए आगे आए। उन्होंने माधुरी को एक सौ रुपए दिए, टीटी से बात की और ‘सेटिंग’ की। एक छात्रा ने अपनी शाल दी, इस प्रकार उन मददगारों के मिल जाने से माधुरी के संकट का समाधान हो गया।
इधर, मेरे मददगार मुझे अपने साथ ‘रिटायरिंग रूम’ की व्यवस्था के लिए संबन्धित लिपिक के पास ले गए। लिपिक ने मुझे तुरन्त एक कमरा आबन्टित किया। हम लोग वापस सामान के पास आए, उन्होंने वालिन्टियर की मदद से मेरा सामान रूम तक शिफ़्ट करवाया तब तक रात के आठ बज गए थे।
उन्होंने मुझसे कहा- ‘अब, आप आराम कर लीजिए, सुबह समय से जाग जाइयेगा, मैं चलता हूँ।’
मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और पूछा- ‘सर, आप हैं कौन?’
‘मैं रेल्वे का स्टाफ हूँ।
‘यहाँ क्या करते हैं?’
‘आप आराम करिए।’ वे अपना परिचय बताए बिना चले गए।
मैं रिटायरिंगरूम के बुकिंगक्लर्क के पास गया और उससे पूछा- ‘ मुझे जो आपके पास लेकर आए थे, वो कौन हैं?’
‘हमारे स्टेशन मास्टर वीरेन्द्र कुमार।’
मैं तुरंत स्टेशन मास्टर कार्य़ालय गया, वहां वे नहीं थे, मैंने वहां उपस्थित व्यक्ति से पूछा- ‘वीरेन्द्र कुमार जी कहां हैं?’
‘वे तो शाम को छः बजे घर चले गए।’ उसने बताया।
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