(१)
शिव कहते हैं - 'सर्वक्षेत्रेषु भूपृष्ठेकाशीक्षेत्रंचमेवपु:।'
(भूलोक के समस्त क्षेत्रों में काशी साक्षात् मेरा शरीर है।)
एक श्रुति के अनुसार महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदास ने गंगा तट पर वाराणसी नामक नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्र में उनके आवास की योजना बनाई। उन्हें काशी प्रिय लगी, वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आ कर रहने लगे। देवताओं के आगमन के कारण काशी नरेश दिवोदास का राजधानी का आधिपत्य समाप्त हो गया और वे बड़े दु:खी हुए। उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान मांगा- 'देवता देवलोक में रहें, पृथ्वी मनुष्यों के लिए रहे।' सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने उन्हें वरदान दिया- 'एवमस्तु'। फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणों को काशी छोड़ना पड़ा। शिवजी वापस मन्दराचलपर्वत पर चले गए किन्तु काशी के प्रति उनका आकर्षण कम नहीं हुआ। महादेव को काशी में पुन: बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने अनेक असफल प्रयास किए। अंततः गणेशजी के सहयोग से अभियान सफल हुआ। उनसे ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदास विरक्त हो गए और उन्होंने स्वयं एक शिवलिङ्ग की स्थापना करके शिव की अर्चना की और वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। इस प्रकार महादेव पुनः काशी आ गए।
काशी का इतना माहात्म्य है कि स्कन्दमहापुराण में 'काशीखण्ड' के नाम से एक विस्तृत पृथक विभाग ही है। इसके बारह प्रसिद्ध नाम हैं- काशी, वाराणसी, अविमुक्त क्षेत्र, आनन्दकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तप:स्थली, मुक्तिभूमि, शिवपुरी, त्रिपुरारिराज नगरी और विश्वनाथ नगरी। हरिवंश पुराण के अनुसार काशी नगरी को बसाने वाले राजा काशी थे। महाभारत ग्रंथ में काशी का उल्लेख है। भीष्म ने काशीराज की कन्याओं का अपहरण किया था और काशीराज ने युद्ध में पांडवों का साथ दिया था।
जातक कथाओं में भी काशी का उल्लेख है। बोधिसत्व ने 16 वर्ष की आयु में यहाँ आकर विद्याध्ययन किया था। गौतम बुद्ध के समय में काशी राज्य कोसल जनपद के अंतर्गत था। मगधराज बिंबसार के साथ जब कोसल की राजकुमारी का विवाह हुआ तब काशी को उन्हें दहेज में दिया गया था। बिंबसार के पुत्र अजातशत्रु ने काशी को मगध राज्य का अभिन्न भाग बना लिया और तत्पश्चात् मगध के उत्कर्षकाल में इसकी यही स्थिति बनी रही। बुद्ध ने अपना सर्वप्रथम उपदेश वाराणसी के निकट सारनाथ में दिया था।
बौद्ध धर्म की अवनति तथा हिन्दू धर्म के पुनर्जागरण काल में काशी का महत्व संस्कृत भाषा तथा हिंदू संस्कृति के केंद्र के रूप में निरंतर बढ़ता गया जिसका प्रमाण उस काल में लिखे गए पुराणों में प्राप्त होता है। पुराणों में काशी को मोक्षदायक स्थान माना गया है। चौथी सदी में चीनी यात्री फ़ाहयान काशी आए थे। सातवीं शताब्दी ई. के पूर्वार्ध में युवानच्यांग ने यहाँ लगभग ३० बौद्ध बिहार और १०० हिंदू मंदिर देखे थे। नवीं शताब्दी ई. में जगद्गुरू शंकरचार्य ने काशी को भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया। काशी की वह सांस्कृतिक परंपरा आज तक चली आ रही है।
लिखित इतिहास की मानें तो मध्य युग में मुसलमानों के आक्रमण के पश्चात् उस समय के अन्य सांस्कृतिक केंद्रों की भाँति काशी को भी दुर्दिन देखना पड़े। ११९३ ईस्वी में मोहम्मद गोरी ने कन्नौज को जीत लिया, काशी क्षेत्र उस समय कन्नौज के राठौड़ राजाओं के अधीन था इसलिए मुसलमानों के अधिकार में आ गया। उस समय कबीर और रामानन्द के धार्मिक और लोकमानस प्रेरक विचारों ने काशी मानस को जागृत रखा। मुगल शासक अकबर ने हिंदू धर्म की प्राचीन परंपराओं के प्रति उदारता और अनुराग दिखाई, उसकी प्रेरणा पाकर भारतीय संस्कृति की जो धारा उस काल में क्षीण हो चली थी, पुन: वेगवती हो गई। उस युग ने तुलसी दास, मधुसूदन सरस्वती और जगन्नाथ जैसे महाकवियों और विद्वानों को जन्म दिया फलस्वरूप काशी ने पुन: अपने प्राचीन गौरव को अर्जित कर लिया। कालांतर में इस नगरी को औरंगजेब की धर्मांधता का शिकार बनना पड़ा जिसने काशी के प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त करा दिया। भगवान विश्वनाथ के मूल मंदिर को तुड़वाकर उसके स्थान पर एक मस्जिद बनवाई जो आज भी कायम है।
मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात अवध के नवाब सफदरजंग ने काशी पर अधिकार कर लिया किंतु उसके पौत्र ने ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया। वर्तमान काशी नरेश के पूर्वज बलवंत सिंह ने अवध के नवाब से अपना संबंध तोड़ लिया, इस प्रकार काशी रियासत का जन्म हुआ। बलवंत सिंह के पुत्र चेतसिंह ने अंग्रेज़ वारेन हेस्टिंग्ज़ से जमकर मुक़ाबला किया लेकिन हार गए। देश की स्वतंत्रता के बाद काशी की रियासत भारत राज्य का अंग बन गई।
काशी में इस समय लगभग डेढ़ हजार मंदिर हैं, जिनकी परंपरा इतिहास के विविध कालों से जुड़ी हुई है। इनमें विश्वनाथ, संकटमोचन और दुर्गा मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। वर्तमान विश्वनाथ मंदिर प्राचीन नहीं है। संकटमोचन मंदिर की स्थापना गोस्वामी तुलसीदास ने की थी। दुर्गा मंदिर को सत्रहवीं शती में मराठों ने बनवाया था। बनारस के तट पर भी अनेक मंदिर बने हुए हैं, इनमें सबसे प्राचीन गढ़वालों का बनवाया हुआ आदिकेशव मंदिर है। नवीन मंदिरों में भारतमता का मंदिर तथा तुलसी मानस मंदिर प्रसिद्ध हैं। घाटों में दशाश्वमेध, मणिकार्णिंका, हरिश्चंद्र और तुलसीघाट सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। वाराणसी के घाटों का दृश्य बड़ा ही मनोरम होता है, प्रात:काल में इनकी छटा अपूर्व होती है। गंगा नदी के धनुषाकार तट पर इन घाटों की पंक्तियाँ दूर तक चली गई हैं।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने नागरी प्रचारिणी सभा को जन्म देकर आधुनिक हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया है। कवि, लेखक जयशंकर प्रसाद इसी पुण्यभूमि की देन हैं। आधुनिक शिक्षा के केंद्र काशी विश्वविद्यालय की स्थापना महामना मदनमोहन मालवीय ने सन १९१६ में की। प्राचीन परंपरा की अनेक संस्कृत पाठशालाएँ हैं जो सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय काशी से संबद्ध है। इसके अतिरिक्त यहाँ काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय भी है।
(२)
लगभग दो वर्ष पूर्व वाराणसी-यात्रा में मुझे इस शहर की एक झलक देखने के लिए मिली थी, कुछ और देखने की लालसा बनी हुई थी। मेरे बनारसी मित्र श्यामसुंदर शर्मा बहुत समय से बनारस आने का निमंत्रण दे रहे थे जबकि मैं उन्हें नेताओं-वाला लुभावना आश्वासन दे रहा था। अचानक मेरा मन बना और 12 अगस्त 2016 को मैं बनारस पहुँच गया तो स्टेशन पर अगवानी करने आए मेरे मेरे एक अन्य मित्र शैलेंद्र कुमार सिंह ने मुझसे कहा- 'बनारस देखने का नहीं महसूस करने की जगह है।' सच पूछिए तो मैं उनकी बात को नहीं समझ पा रहा था कि देखने और महसूस करने में कैसा फर्क होता है? बनारस का रसास्वादन करने या 'महसूसने' के लिए महज़ तीन दिन बेहद कम थे, इस बार भी मैं बनारस को केवल छू कर प्यासा लौट आया।
वाराणसी की पहली शाम मैंने अपने मित्र श्यामसुंदर शर्मा के साथ गंगा नदी के तट पर गुजारी। भारी बरसात से हरी-भरी गंगाजी का पीतवर्णी जल इस पार से उस पार तक प्रबल वेग से आगे बढ़ता चला जा रहा था। सभी घाट डूबे हुए थे, दर्शनार्थी गंगा के रौद्र को देखकर सहमे हुए से किनारे खड़े उस अथाह जल को निहार रहे थे। आकाश से मेघ बरस रहे थे, हमारे सामने विशाल जलराशि को अपनी बाहों में में समेटे हुए गंगा अनवरत बह रही थी। कुछ नौकाएँ सक्रिय थी, कुछ लोग नौकायन कर रहे थे लेकिन मेरे जैसे लोग जिन्हें तैरना नहीं आता, वे भयभीत से किनारे खड़े होकर नदी का बहाव कम होने की प्रतीक्षा कर रहे थे लेकिन क्या गंगा इतनी जल्दी घुटने टेक देती? मैं तीन दिन बनारस में रहा और गंगा उसी उत्साह से बहती रही और मुझसे कान में धीरे से बोली- 'तू बाद में आना, अभी मुझे इसी मस्ती में बह लेने दे, काशी में बहुत दिनों बाद मुझे बहने को मिला है।'
वाराणसी की पहली शाम मैंने अपने मित्र श्यामसुंदर शर्मा के साथ गंगा नदी के तट पर गुजारी। भारी बरसात से हरी-भरी गंगाजी का पीतवर्णी जल इस पार से उस पार तक प्रबल वेग से आगे बढ़ता चला जा रहा था। सभी घाट डूबे हुए थे, दर्शनार्थी गंगा के रौद्र को देखकर सहमे हुए से किनारे खड़े उस अथाह जल को निहार रहे थे। आकाश से मेघ बरस रहे थे, हमारे सामने विशाल जलराशि को अपनी बाहों में में समेटे हुए गंगा अनवरत बह रही थी। कुछ नौकाएँ सक्रिय थी, कुछ लोग नौकायन कर रहे थे लेकिन मेरे जैसे लोग जिन्हें तैरना नहीं आता, वे भयभीत से किनारे खड़े होकर नदी का बहाव कम होने की प्रतीक्षा कर रहे थे लेकिन क्या गंगा इतनी जल्दी घुटने टेक देती? मैं तीन दिन बनारस में रहा और गंगा उसी उत्साह से बहती रही और मुझसे कान में धीरे से बोली- 'तू बाद में आना, अभी मुझे इसी मस्ती में बह लेने दे, काशी में बहुत दिनों बाद मुझे बहने को मिला है।'
अब बनारस के रस का रसास्वादन रसभरी जलेबी से करते हैं। अगली सुबह मेरे मित्र शैलेंद्र सिंह अपनी 'बाइक' से मेरे डेरे पर पहुँच गए और मुझसे पूछा- 'कहाँ चलना है आपको?'
'जहां आप ले चलें।' मैंने कहा।
'तो चलिए, आज सुबह की शुरुआत बनारस की कचौरी-सब्जी और जलेबी से करते हैं।'
शैलेंद्र जी मुझे बूढ़ी माँ की उस बूढ़ी दूकान पर ले गए जहां वे बचपन से सुबह का नास्ता करते चले आए है। छोटा सा 40 वर्ग फुट का टपरा जिसके सामने दो भट्ठियाँ सुलग रही थी। एक भट्ठी में कड़ाही पर पूरी-कचौड़ी तली जा रही थी तो दूसरे में तई पर जलेबी। दीवार में एक वृदधा की फ्रेम की हुई रंगीन तस्वीर लटकी हुई थी जिसकी ओर इशारा करके शैलेंद्र जी बोले- 'ये अब गुजर गई, यह दूकान इन्हीं की है। मुझे याद आता है कि जब हम लोग पढ़ते थे तो सुबह से यहाँ लड़कों की भीड़ लगी रहती थी। बूढ़ी माँ सबको बड़े प्रेम से खिलाती थी साथ में गरियाते भी जाती थी- "दहिजार के नाती, आधा दोना सब्जी से तोहार पेटवा भर जाई का? ठीक से खाओ, अउर लेओ।'
वह बूढ़ी अम्मा चली गई, बहुत दूर चली गई परंतु अब भी उसकी नज़र अपनी दूकान पर है क्योंकि वहाँ की पूरी-कचौड़ी, आलू-कुम्हड़ा की सब्जी का स्वाद आज भी लाजवाब है और रसीली जलेबी की मिठास? मेरी नातिन अनन्या की भाषा में, यम्मी।
नास्ता करने के बाद हम लोग ने केशव का मशहूर मगही पान खाया। सुना था कि बनारसी पान खाने से 'अकल का ताला' खुल जाता है लेकिन मेरा नहीं खुला। लगता है, ताला जंग खा गया है।
उसके बाद हम लोग वहाँ का नवनिर्मित 'ट्रामा सेंटर' देखने गए जो बनारस और आसपास के नागरिकों के लिए आधुनिक चिकित्सा का विशाल केंद्र है। मित्र ने कहा- 'यह मोदी जी की देन है।'
'क्या केवल दो साल में इतने वृहद परिसर वाले प्रकल्प ने आकार ले लिया ?' मैंने पूछा।
'नहीं, समय तो बहुत लगा, मोदी जी ने इसका उदघाटन किया।' मित्र ने बताया।
वहाँ से हम काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी) की परिधि में गए जहां मैंने पराधीन भारत के स्वाधीन व्यक्तित्व महामना मदनमोहन मालवीय की अनुपम कल्पना का साकार वृहद रूप देखा। यह एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी है जिसे १४ जनवरी १९१६ को बसंत पंचमी के पावन पर्व पर आरंभ किया गया था। इस विश्वविद्यालय के दो परिसर हैं, मुख्य परिसर १३०० एकड़ का है जो वाराणसी में स्थित है। मुख्य परिसर में ३ संस्थान, १४ संकाय और १२४ विभाग है। विश्वविद्यालय का दूसरा परिसर २७०० एकड़ का है जो मिर्ज़ापुर जनपद के बरकछा में स्थित है। श्री सुंदरलाल, पं॰ मदनमोहन मालवीय, डॉ॰ एस. राधाकृष्णन, डॉ॰ अमरनाथ झा, आचार्य नरेंद्रदेव, डॉ॰ रामस्वामी अय्यर, डॉ॰ त्रिगुण सेन जैसे मूर्धन्य विद्वान इस महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं।
वहाँ से हम काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी) की परिधि में गए जहां मैंने पराधीन भारत के स्वाधीन व्यक्तित्व महामना मदनमोहन मालवीय की अनुपम कल्पना का साकार वृहद रूप देखा। यह एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी है जिसे १४ जनवरी १९१६ को बसंत पंचमी के पावन पर्व पर आरंभ किया गया था। इस विश्वविद्यालय के दो परिसर हैं, मुख्य परिसर १३०० एकड़ का है जो वाराणसी में स्थित है। मुख्य परिसर में ३ संस्थान, १४ संकाय और १२४ विभाग है। विश्वविद्यालय का दूसरा परिसर २७०० एकड़ का है जो मिर्ज़ापुर जनपद के बरकछा में स्थित है। श्री सुंदरलाल, पं॰ मदनमोहन मालवीय, डॉ॰ एस. राधाकृष्णन, डॉ॰ अमरनाथ झा, आचार्य नरेंद्रदेव, डॉ॰ रामस्वामी अय्यर, डॉ॰ त्रिगुण सेन जैसे मूर्धन्य विद्वान इस महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं।
मदनमोहन मालवीय ने इस विश्वविद्यालय की स्थापना तात्कालीन काशी नरेश प्रभुनाथ के अपूर्व सहयोग से की। जब महामना ने उनसे भूमिदान करने के लिए आग्रह किया तो काशी नरेश ने उनसे कहा- 'प्रातः से लेकर संध्या तक आप जितना चल लेंगे, उतनी भूमि आपकी।' मदनमोहन मालवीय सूर्योदय से सूर्यास्त तक बिना रुके पैदल चलते रहे। काशी नरेश ने अपने वादे के अनुसार उतनी भूमि विश्वविद्यालय को दान कर दी। महामना मदनमोहन मालवीय ने जनसहयोग से उस महत्वाकांक्षी प्रकल्प को पूरा करने का संकल्प लिया। बनारस में गंगा नदी के तट पर उपस्थित एक वृदधा से मात्र एक पैसा लेकर सहयोग लेना शुरू किया और उनकी झोली भरती गई।
लोग बताते हैं कि एक दिन मदनमोहन मालवीय हैदराबाद के निज़ाम से विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए आर्थिक सहयोग लेने पहुंचे। कंजूस निज़ाम ने मदद करने से मना कर दिया तो महामना ने उनसे कहा- 'कुछ तो दीजिए, वह दे दीजिए जो आपके काम न आ रहा हो।' निज़ाम ने अपनी उतारी हुई पुरानी जूतियाँ उन्हें दे दी। महामना उन जूतियों को हैदराबाद में सर-ए-बाज़ार नीलाम करने लगे। बढ़-बढ़कर बोली लगने लगी। जब निज़ाम को मालूम हुआ तो उन्होंने मदनमोहन मालवीय को बुलवाकर माफ़ी मांगी और अपनी जूतियाँ वापस लेकर सोने के सिक्कों से भरी थैली दान में दी।
विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में महामना ने कहा था- 'यह विश्वविद्यालय संकीर्ण सम्प्रदायवाद को नहीं वरन मनुष्य के सोच की स्वतंत्रता को और उस धार्मिकता को बढ़ाएगा जो मनुष्यों के बीच भाईचारा की भावना विकसित करे। मेरा विश्वास है कि वह हिन्दू हो या मुस्लमान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का पढ़ा हो या अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का, ऐसे मनुष्यों को जन्म देगा जो अपने धर्म, इष्ट, देश और मनुष्यता के प्रति निष्ठावान होंगे। मेरी कल्पना है कि जो छात्र इन विश्वविद्यालयों से पढ़कर निकलेंगे वे अपनी मातृभूमि की बेहतर संतान सिद्ध होंगे।'
(३)
'को नहि जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो'- हिंदुओं के मन में हनुमान उसी भांति बसे हुए हैं जिस तरह राम के हृदय में हनुमान बसे थे। अपने स्कूल के दिनों को याद करता हूँ तो मुझे हनुमान जी से अपना पुराना जुड़ाव याद आता है। बिलासपुर की श्याम टाकीज़ के पास हनुमान जी के मंदिर में प्रत्येक मंगल और शनिवार को मैं वहाँ जाया करता था। मंदिर में स्थापित सिंदूरी प्रतिमा वाले कक्ष के बाहर 'हनुमान-चालीसा' संग-ए-मर्मर पर उत्कीर्ण थी, उसे पढ़ा करता था, रोज पढ़ते-पढ़ते मुझे याद हो गई थी। मंदिर की परिक्रमा करना, पंडित जी से अपने हाथ की गदेलियाँ जोड़कर भक्तिभाव से मस्तक झुकाकर पवित्र जल और तुलसी ग्रहण करना, पेड़े का प्रसाद लेना, सब याद है। वार्षिक परीक्षा के पहले मैं हनुमान जी के समक्ष खड़े होकर अपनी सफलता की कामना करता था और उन्हें सवा रुपए के प्रसाद चढ़ाने का संकल्प करता था फलस्वरूप मैं अनवरत उतीर्ण होता रहा, प्रसाद चढ़ाता रहा लेकिन मुझे 'सवा रुपया' कभी खर्च नहीं करना पड़ा क्योंकि मेरी स्वयं की मिठाई की दूकान थी। हलवाई होने के अपने फायदे हैं।
शुरुआती उम्र में मुझे अंधेरे से डर लगने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक कायम है। जब मुझे डर लगा करता था, मैं मन-ही-मन हनुमान चालीसा' का पाठ करने लगता था क्योंकि उसमें एक पद था- 'भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै', वह सच में काम करता था, मेरा डर कम हो जाता था और मुझमें हिम्मत आ जाती थी।
एक दिन मैंने अपनी माँ से पूछा- 'अम्मा, हनुमानजी के मंदिर में सिर्फ आदमी लोग जाते हैं, औरतें क्यों नहीं जाती?'
अम्मा बोली- 'हनुमान जी आजीवन ब्रह्मचारी थे इसलिए औरतें उनके मंदिर में नहीं जाती।'
'क्या हो जाएगा, औरतों के मंदिर में जाने से ?'
'हनुमान जी का कुछ नहीं होगा लेकिन जो औरत वहाँ जाएगी उसकी दिमागी हालत बिगड़ जाएगी क्योंकि उनके मंदिर में प्रवेश करने से हनुमान जी रुष्ट हो सकते हैं।' अम्मा बोली।
उन दिनों में वही विश्वास था, स्त्रियाँ मंदिर में प्रवेश नहीं करती थी और न ही हनुमान जी पर चढ़ाया प्रसाद ग्रहण करती थी लेकिन अब समय बदल गया। मान्यताएँ बदली हैं, विचार बदले हैं, उसी के अनुरूप मंदिरों में पूजा-अर्चन के विधि-विधान भी बदल गए।
बनारस के 'संकट मोचन' में वह शनिवार का दिन था, श्रद्धालुओं का ताँता लगा हुआ था, वहाँ जितने पुरुष थे, उतनी स्त्रियाँ भी पंक्तिबद्ध होकर संकटमोचक के दर्शन हेतु उपस्थित थे। श्रद्धा और भक्तिभाव का वैसा अद्भुत संगम मुझे इलाहाबाद के हनुमान मंदिर में भी देखने को मिला था। बनारस का यह मंदिर अपनी एक विशेषता के कारण अनूठा है, इस मंदिर की स्थापना रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने स्वयं की थी।
'महावीर बिनवऊ हनुमाना
राम जासु जस आप बखाना।'
(४)
यह विवादित है कि रसगुल्ला नामक मिठाई की उत्पत्ति कहाँ हुई? ओडिशा और बंगाल दोनों प्रबल दावेदार हैं। विवाद सुलझाने के लिए ऐसा मान लेते हैं कि रसगुल्ला भारत के पूर्वी क्षेत्र का चमत्कार है। कलकत्ता (अब कोलकाता) के के॰सी॰दास का रसगुल्ला लंबे अरसे से पूरे भारत में प्रसिद्ध रहा है। रसगुल्ला सभी जगह बनता है लेकिन जैसा स्वाद कलकत्ता में बने रसगुल्ले का है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। यह दावा 'बीकानेरी भुजिया' और 'बीकानेर में बनी भुजिया' के स्वाद में फर्क जैसा है। बालूशाही हर शहर में बनती है किन्तु इलाहाबाद जैसा स्वाद कहीं नहीं। 'रतलामी सेव' इंदौर में बनता है लेकिन 'रतलाम में बने सेव' का स्वाद अद्भुत है।
मेरे मित्र शैलेंद्र सिंह की बाइक इधर-उधर भटकते हुए नेवादा के सुंदरपुर पुलिस थाने के सामने जाकर थमी। थाने के ठीक सामने एक छोटी सी दूकान पर 'बंगाल स्वीट' का बोर्ड लगा हुआ था। दूकान के अंदर घुसने का कोई रास्ता न था, प्रवेश द्वार पर एक बड़ा काउंटर अड़ा हुआ था, अर्थात ग्राहकों का प्रवेश वर्जित था। काउंटर के इस पार फुटपाथ पर ग्राहकों की भीड़ लगी थी- 'ए सुक्खू, मेरी सुनो, पहले मुझे दे दो' का समवेत स्वर गुंजायमान था। उस समय दिन के ग्यारह बजे थे और ग्राहकों की पेलम-पेल भीड़ थी, बिना कतार की भीड़, जैसी पुराने जमाने में सिनेमाघर की टिकट-खिडकी पर हुआ करती थी। मैंने गौर किया कि वहाँ खड़े सभी ग्राहक मिठाई, पनीर, शुद्ध घी आदि खरीदकर पैक करवा रहे थे, चिल्हर बिक्री का वहाँ कोई काम नहीं था और न ही काउंटर के उस पार खड़े तीन लोगों को छिन भर की फुर्सत थी। यह वैसा ही रोचक दृश्य था जैसा मेरी बिलासपुर की मिठाई दूकान में दीवाली और रक्षाबंधन के त्यौहार में हुआ करता था।
शैलेंद्र जी ने आवाज़ लगाई- 'सुक्खू, दुई दोना मा रसगुल्ला देइ।' सुक्खू को यद्यपि सांस लेने की फुर्सत न थी लेकिन उसने शैलेंद्र जी की आवाज़ सुन ली और कहा- 'परणाम साहब, बहुत दिनन मा आए।' उसने अंदर आदेश दिया, दो मिनट में दो दोने में दो-दो सफ़ेद रसगुल्ले आ गए। बड़े-बड़े रुई के फाहे जैसे रसीले रसगुल्ले, कसम से, कलकत्ता के रसगुल्ले की याद ताज़ा हो गई।
बनारस का अस्सी मोहल्ला याने गंगा जी के तीर में बसी बस्ती। वहाँ पप्पू की चाय की दूकान के बारे बहुत पढ़ा-सुना था जहां अघोषित साहित्यिक चर्चा हुआ करती थी, काशी के प्रख्यात साहित्यकार काशीनाथ सिंह वहाँ अपने साथियों के साथ बैठक जमाते थे। पिछली बार उनसे मिलना रह गया था इसलिए इस बार मिलना ही है, ऐसा तय करके बिलासपुर से निकला था। संयोग देखिए कि पप्पू की चाय की दूकान के नजदीक मारवाड़ी सेवा संघ में मेरा ठहरना हुआ और दुर्योग देखिए कि दूकानदार से ज्ञात हुआ कि काशीनाथ सिंह अब वहाँ नहीं आते। यक्ष प्रश्न यह था कि उनसे मिलन का जतन कैसे हो?
हमारे मित्रों ने प्रयास किए और शैलेंद्र जी के मित्र और काशीनाथ सिंह जी के शिष्य पीयूष त्रिपाठी ने हमारी मुलाक़ात तय करवा दी, यद्यपि उनसे मिलने की परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थी। काशीनाथ जी को उसी दिन सम्बलपुर के लिए निकलना था, वे गंभीर रूप से बीमार अपनी बेटी से मिलने के लिए जा रहे थे। वे स्वयं भी चोटिल थे क्योंकि एक सप्ताह पूर्व किसी नौजवान से उन पर अपनी बाइक चढ़ा दी थी, सिर पर चोट लगी थी और चेहरे पर घाव के निशान थे। मानसिक रूप से वे भेंट के लिए अनिच्छुक थे लेकिन जब उन्हें बताया गया कि कोई व्यक्ति बिलासपुर से मिलने आया है तो वे तैयार हो गए। बड़े दिल वाले लोग ऐसे ही होते हैं।
'आप बिलासपुर से आए हैं, मैं वहाँ जा चुका हूँ, डा॰ राजेश्वर सक्सेना के घर में रुका करता था, आप उन्हें जानते हैं?' काशीनाथ सिंह ने बातचीत का सूत्र संभाला।
'जी, डा॰ राजेश्वर सक्सेना मेरे 'रिसर्च गाइड' थे।' मैंने उन्हें बताया। मेरे उनके मध्य खड़ा अपरिचय का पहाड़ भरभराकर बिखर गया।
'अब वे कैसे हैं?'
'कमजोर हो गए हैं अब।'
'और रफीक खान, प्रताप ठाकुर कैसे हैं?'
'मज़े में हैं। रफीक रिटायर हो चुके है और प्रताप दृढ़तापूर्वक कैंसर से संघर्ष कर रहे है।'
'सुनाइये, कैसे आना हुआ?'
'बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने और आपसे मिलने आया हूँ।'
'मुझसे मिलने! मुझमें क्या खास बात है?'
'वो आपको समझ में नहीं आएगा।' मैंने कहा। वे हंस पड़े।
'साहित्यसृजन करते आपकी उम्र बीत गई, आपने बहुत लिखा है, आप यह बताइए कि लिखने के लिए पढ़ना कितना ज़रूरी है?' मैंने पूछा।
'पढ़ने से ज़्यादा ज़रूरी देखना है। समाज को देखना ज़रूरी है, सड़क चलते, लोगों से मिलते, बातचीत करते मनुष्यों को देखना और उन्हें समझना । पढ़ना भी आवश्यक है क्योंकि उससे दृष्टि मिलती है कि अब तक क्या लिखा गया है और आगे क्या और कैसे लिखा जाना चाहिए। मैं वह लिखता हूँ जो अब तक नहीं लिखा गया है। जब शुरू करता हूँ तो ऐसे, जैसे मैं कुछ नहीं जानता, एकदम अनाड़ी। पूरी ताजगी के साथ लिखता हूँ।'
'लिखते समय सब कुछ लिख देते हैं या कुछ बचाना पड़ता है?'
'बचाना पड़ता है। जैसे, मैं अपने प्रेम के बारे में लिखना चाहता था लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया। सोचता था, पत्नी पढ़ेगी, बेटियाँ पढ़ेगी इसलिए साहस नहीं जुटा पाया। अधिकतर बड़े लेखकों ने, जैसे तालस्तोय ने, जवानी में नहीं लिखा, बुढ़ापे में अपने प्रेम के बारे में बताया। मैंने चौंतीस-पैंतीस वर्षों तक अध्यापन किया है, यौवन गुज़रा है। जैसा मैं अध्यापक था, जैसी मेरी छबि थी मेरा आकर्षण था, ऐसे अवसर न जाने कितने आए!
अब सोचता हूँ कि लिख डालूँ। परिवार जाने तो जाने।'
इस बीच भाभीजी ट्रे में रसगुल्ला, बिस्कुट और चाय लेकर आ गई। चाय पीते-पीते बात आगे बढ़ी- 'कभी आत्मकथ्य जैसा कुछ लिखने का मन नहीं हुआ आपका?' मैंने पूछा।
'नहीं, नहीं हुआ। कारण यह है कि आपसे कोई भिन्न व्यक्ति नहीं हूँ। आम तौर पर मध्यमवर्गीय व्यक्ति का जीवन जैसा होता है, वैसा मेरा रहा। नौकरी की, पढ़ाया, अपना और भाइयों का परिवार चलाया, प्रेम किया, वह सब जो आम तौर पर लोग करते हैं, कोई ऐसी खास बात नहीं रही कि मैं आत्मकथा लिखूँ। वैसे मेरे पाठकों का ऐसा कुछ लिखने का बहुत दबाव रहा मुझ पर, खास तौर से प्रकाशकों का, किन्तु मुझे अपने जीवन में ऐसा कुछ अलग से नहीं दिखता कि मैं उसे लिखूँ।'
'आप बनारस के पर्यायवाची हैं सर, साहित्यिक अभिरुचि का जो व्यक्ति बनारस आता है वह आपसे मिलना चाहता है। आप बनारस के 'लीजेंड' हैं, यह बात आप नहीं जानते, हम जानते हैं। यदि आप आत्मकथा लिखेंगे तो 'लीजेंड' बनने के आपके संघर्ष को पढ़कर नई पीढ़ी को दिशा मिल सकती है, सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। यह मेरा प्रश्न नहीं, आपसे आग्रह है।' शैलेंद्र सिंह ने उनसे कहा।
'आप मुझे इस रूप में देख रहे हैं, मुझे अच्छा लग रहा है। आत्मकथा लिखने का साहस मुझमें नहीं है। इसके लिए ईमानदारी चाहिए, मैं लिखूंगा तो कहीं-न-कहीं बेईमानी कर जाऊंगा। लेखन के साथ, खास तौर से अपने साथ मैं यह बेईमानी नहीं करना चाहता। मैंने अब तक जो कुछ लिखा है, वह ईमानदारी से लिखा है। मैंने बहुत सी आत्मकथाएं पढ़ी हैं, लेखक कई बातें छुपा ले जाते हैं। सजग पाठक समझ जाता है कि क्या छुपाया गया है? आत्मकथा लिखने के लिए जो ईमानदारी चाहिए, वह मुझमें नहीं है, ऐसा मुझे लगता है।' काशीनाथ जी ने उत्तर दिया।
मैंने बातचीत में चल रहे विषय का लाभ उठाया और उसी बीच अपनी आत्मकथा के दो खंड उन्हें भेंट किए। वे प्रसन्न हो गए और बोले- 'अरे, आपने आत्मकथा लिखी है, तो अब मुझे भी सोचना पड़ेगा।' उन्होंने दोनों पुस्तकें अपनी पत्नी को सौंपी और उनसे कहा- 'मेरे बेग में इसे ऊपर रखना, सम्बलपुर जाते-आते रास्ते में पढ़ूँगा,'
'15 अगस्त सामने है, हमें आज़ाद हुए 69 वर्ष हो गए। आज़ादी के पहले अंग्रेज़ हमारे नेताओं से कहते थे- ''हम आज़ादी दे तो दें लेकिन देश चला पाओगे?'' तो उस समय के हमारे नेता उनसे कहते थे- ''पहले हमें आज़ाद तो करो, हम देश चला लेंगे।" आपको क्या लगता है कि हमारे नेता देश चला पाए?' मैंने अगला सवाल किया।
'वैसा नहीं चला पाए, जैसा चलाना था, लेकिन लोकतन्त्र बहुत बड़ी ताकत है। जैसे ही जनता को लगेगा कि मौजूदा सरकार उनकी लिए नहीं है, उद्योगपतियों के लिए है, ठीक से काम नहीं कर रही है, वे उसे हटा देगी।'
'जनता सरकार को बदल सकती है लेकिन जो आया वह पाँच साल के लिए जम गया, वह काम करे, न करे। सवाल यह है कि क्या नौकर बदलने से घर की व्यवस्था बदल जाएगी?'
'कुछ क्षेत्रों में विकास हुआ है, अच्छा हुआ है लेकिन आर्थिक मोर्चे पर सरकार असफल दिख रही है। जनता के पास बहुत बड़ी ताकत है, अभिव्यक्ति की आज़ादी है। लोग बाहर निकल रहे हैं और विरोध व्यक्त कर रहे है। इन बातों का असर यह हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा कि गोली मारना है तो मुझे मारो, दलितों को नहीं। देश में कोई भी बात यदि लोगों को अनुचित लगती है तो लोग अपना निर्णय सुनाते है, यह हमने आपातकाल में देखा है। वर्तमान सरकार अगर चाहे, जैसा कि उनका स्वभाव है, तो भी तानाशाही नहीं थोप सकती। हमें अपने संविधान पर भरोसा है। लोकतन्त्र के अलावा और कोई विकल्प हमारे पास नहीं है।'
'दो वर्ष पूर्व मैं बनारस आया था। उन्हीं दिनों श्री नरेंद्र मोदी यहाँ से सांसद निर्वाचित हुए थे। मैंने बहुत से लोगों से बात की थे, वे आशान्वित थे, उनको विश्वास था कि बनारस बदलेगा लेकिन मुझे तो कोई खास बदलाव नहीं दिख रहा है। क्या बनारस नहीं बदल पाएगा?' मैंने प्रश्न किया।
'बनारस की एक ज़िद जैसी है। मोदी बनारस को क्योतो जैसा बनाने की बात करते हैं। बनारस विकास चाहता है लेकिन वह अपना बनारसीपन नहीं छोड़ेगा।'
'यह बनारसीपन क्या है?'
'बनारसीपन? वे ऑफ लिविंग, जीने का ढंग, शांति और ठहराव। फुर्सत की जिंदगी, इत्मीनान की ज़िंदगी जीने की तलाश में देश-विदेश से लोग आते थे बनारस, अस्सी घाट पर शांति महसूस करने के लिए जाते थे, वह बात अब धीरे-धीरे गायब हो रही है। वहाँ अब लाउडस्पीकर का शोर-शराबा है। आरती हो रही है, आज यह त्यौहार कल वो उत्सव, हर समय शोर ही शोर। जहां तक विकास की बात है, उसमें कोई फर्क नहीं आया है। प्रायमरी स्कूल की मानसिकता वाले लोग राजनीति में जा रहे हैं, फर्जी डिग्री वाले लोग, अनपढ़, बिना दुम के बंदर, इनसे विकास की क्या उम्मीद करना? बनारस आश्वासन के बल पर चल रहा है, मैं इतना ही कह सकता हूँ।' काशीनाथ सिंह ने कहा।
काशीनाथ सिंह से एक घंटे तक लंबी बातचीत हुई, सुखदायक और ज्ञानवर्धक चर्चा का अवसर मिला। वे अब 80 वर्ष के हैं, उनसे बड़े भाई 85 के हैं और सबसे बड़े भाई नामवर सिंह हैं जो 90 वर्ष के हैं। तीनों भाई टनाटन।
उठते-उठते उन्होंने गालिब का एक शेर सुनाया- 'इंसां की कमर झुकती नहीं है बेवजह, अर्श से तलाश है जमीन मज़ार-ए-काबिल की।'
(५)
ये जो शैलेंद्र सिंह हैं, बनारस वाले मेरे मित्र, सौ परसेंट बनारसी हैं। मेरी इनकी आभासी दुनिया 'फेसबुक' की दोस्ती है, वह भी व्हाया मेडम नंदबाला सिंह, अर्थात उनसे मेरी दोस्ती उनकी पत्नी ने करवाई।
कहते हैं कि दोस्ती हो या दुश्मनी, बिना किए नहीं होती। इस 'फेसबुक' ने मेरे बुझते दीपक की लौ बढ़ा दी, मुझमें फिर से युवावस्था का जोश भर दिया। दोस्त ही दोस्त। कुछ मनमाफ़िक नहीं थे इसलिए उनसे भी दुश्मनी नहीं की, केवल अमित्र कर दिया।
तो मैं आपको बनारस के शैलेंद्र सिंह के बारे में बता रहा था। 12 अगस्त को मध्यान्ह जब मैं बनारस के स्टेशन में ट्रेन से उतरा तो मेरे लिए एक महकता गुलदस्ता लिए एक ऐसा व्यक्ति खड़ा था जिससे मैं जीवन में पहली बार मिल रहा था। 'मैं शैलेंद्र सिंह हूँ, सर।' उन्होंने बताया। उस दिन बनारस में रात भर से घनघोर बरसात हो रही थी, सड़कें पानी से सराबोर थी और स्टेशन से 15 किलोमीटर की दूरी से एक दोस्त अनायास मेरा स्वागत करने चला आया। शैलेंद्र सिंह ने बताया कि उन्हें अपने गाँव जाना ज़रूरी था, तहसीलदार से जमीन का नाप के लिए तारीख नियत थी लेकिन- 'आप आए हैं, यह अधिक महत्वपूर्ण है, जमीन का नाप बाद में भी हो जाएगा।' मुझसे बोले। कुछ देर में मेरे मित्र श्यामसुंदर शर्मा आ गए, मैं शर्मा जी के साथ चला गया और शैलेंद्र सिंह अपने घर चले गए। उनसे अगली सुबह मिलने की बात हुई। अगली सुबह नौ बजे वे अपनी बाइक में मेरे डेरे पर हाजिर हो गए और उसके बाद दो दिनों तक मेरी छाया की तरह मेरे साथ रहे।
मैंने बहुत जानने की कोशिश की कि वे क्या करते हैं लेकिन वे अपने मुंह से कुछ भी उगलने के लिए तैयार न थे- 'कुछ नहीं सर, बस ऐसे ही।' मैं उनके साथ जहां भी गया, मैंने सबके साथ उनका प्रेम-व्यवहार और गहरी जान-पहचान देखी। जो भी देखता, उनको देखकर प्रसन्न हो जाता और उनके प्रति सम्मान व्यक्त करता। कोई उनको 'डाक्टर साहब' कहता तो कोई 'सलिन्दर भैया', कोई 'सिंह साहब' कहता तो कोई 'शैलेंद्र जी'। एक सभागार में किसी कर्मचारी संगठन का वार्षिक अधिवेशन चल रहा था, वहाँ पहुंचे, उन्हें देखकर सभा में उपस्थित सब लोग खड़े हो गए। उन्हें और मुझे आदर से मंच पर बिठाया गया। माला पहनाई गई और क्रम तोड़कर उनका भाषण हुआ। भाषण समाप्त होते ही वे आयोजकों से बोले- 'आप लोग अपना कार्यक्रम करिए, मेरे अतिथि आए है, मैं निकल रहा हूँ।' बाबा विश्वनाथ के मंदिर गए तो मुझे उनके साथ 'वीवीआईपी ट्रीटमेंट' मिला। वहाँ पर तैनात पुलिस वालों ने उनके पैर छुए और आशीर्वाद लिया।
बहुत कोशिश करने पर सिर्फ इतना जान पाया कि वे बहुत प्यारे दोस्त हैं। आप भी खोजिए, श्यामसुंदर शर्मा और शैलेंद्र सिंह जैसे प्यारे लोग सब तरफ दोस्ती के लिए बाहें फैलाए खड़े हैं, केवल उन्हें पहचानने की ज़रूरत है।
(६)
बनारस में एक और मशहूर जगह है डी॰एल॰डब्ल्यू॰ अर्थात डीजल लोकोमोटिव वर्कशाप। डीजल इंजन के निर्माण का यह संयंत्र बनारस की आन-बान-शान है। यहाँ बनाए जा रहे इंजन न केवल अपने देश की पटरियों पर दौड़ते हैं वरन विश्व के अनेक देशों तक जा कर हमारे विदेशी मुद्रा भंडार को भरते हैं। कारखाने की व्यापक भूमिसीमा पर कार्मिकों के लिए आवास बनाए गए हैं जिसके एक क्वार्टर में अष्टभुजा मिश्र रहते हैं जो नागरिक सुरक्षा संगठन के वरिष्ठ निरीक्षक हैं, बनारस की बम-निरोधी स्क्वायड के प्रमुख हैं। बहुत शीघ्र ही राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित होने वाले हैं।
अष्टभुजा साहब के बारे में इसलिए बताना ज़रूरी है क्योंकि इनसे मिलने के बाद मुझे समझ आया कि कोई इन्सान जैसा दिखाई पड़ता है वैसा नहीं, कुछ और ही होता है। इनके बारे में कुछ जानने के पहले आपको 'रणभेरी' के बारे में जानना ज़रूरी है।
'रणभेरी' बनारस से प्रकाशित होने वाला एक अखबार था जो देश की आज़ादी के लिए अलख जगाने का का काम करता था। इस समाचारपत्र के संपादक थे विष्णुराव बाबूराव पराड़कर और वित्तपोषक थे बाबू शिवप्रसाद गुप्त। यह बनारस के पथरगलिया में स्थित जिस प्रिंटिंग प्रेस में छपता था उस मकान के मालिक थे, कन्हैयालाल गौड़। नमक सत्याग्रह के बाद 'रणभेरी' के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। ज़ाहिर है कि जो सरकार के खिलाफ़ लिखेगा, उसके प्रकाशन पर रोक लगेगी। अपने देश में अभी भी ऐसा हो रहा है, तरीका ज़रा बदल गया है, जो समाचारपत्र खिलाफत करता है उस पर सरकार आर्थिक प्रतिबंध लगा देती है। फिलहाल अंग्रेजों के शासन काल की घटना बता रहा था आपको। सन 1942 में अखबार के संपादक विष्णुराव बाबूराव पराड़कर और मकानमालिक कन्हैयालाल गौड़ गिरफ्तार कर लिए गए और उन पर देशद्रोह का मुकदमा चला।
इस विषय पर बना एक घंटे की अवधि का सीरियल 'रणभेरी' डी॰डी॰नेशनल में प्रसारित किया गया। इस सीरियल के कथानक के लिए शोध और पटकथा लिखने का काम अष्टभुजा मिश्र ने किया है। उन्होंने इस सीरियल में मकान मालिक कन्हैयालाल गौड़ के पात्र का अभिनय भी किया है। वे एक और अनाम फिल्म में अभिनय कर रहे हैं। सिर्फ इतना नहीं, अष्टभुजा मिश्र उत्तरप्रदेश की विलुप्त हो रही है लोकनाट्य विधा 'नौटंकी' को प्रोत्साहित करने के लिए कटिबद्ध हैं। उन्होने इस पर शोधप्रबंध भी लिखा है और 'लोक बिरवा' नामक नाट्यदल बनाकर देश-विदेश में अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत किए है। वे नौटंकी में प्रयुक्त होने वाले छंद, यथा दोहा, चौबाला, बहरतबील और उसकी गायकी में सिद्ध हैं। वे नगाड़ा ऐसा बजाते हैं कि सुनकर तबीयत मस्त हो जाए। बनारस का रस ऐसी ही विभूतियों के कारण मधु-माधुर्य से परिपूर्ण है।
(७)
शैलेंद्र सिंह ने कहा- 'सर, बनारस घूमने आए हैं आप तो कार में न घूम पाएंगे। मोटरसाइकल ठीक रहेगी क्योंकि यहाँ का ट्रेफिक-जाम हमारा बहुत सारा समय खा जाएगा और हम आपको जितना घुमाना चाहते हैं, वहाँ नहीं ले जा पाएंगे।'
'यहाँ के बारे में आप अच्छा जानते हैं, जैसा सही लगे करिए, मैं आपके पीछे लगा रहूँगा।' मैंने उन्हें आश्वस्त किया। उसके बाद दो दिनों तक शैलेंद्र सिंह ने अपनी बाइक पर मुझे चौतरफा घुमाया। बनारस की भीड़ भरी बीहड़ सड़क पर वे अपनी बाइक इस तरह घुसेड़ते थे कि मैं अपनी आँखें बंद कर लेता था, उनके पीछे डरित सा बैठा रहता फिर भी बनारस से सुरक्षित वापस आ गया। पैर में टखने के ऊपर जलने के कुछ निशान वहाँ से ले आया लेकिन वह शैलेंद्र सिंह की गल्ती से नहीं वरन बाइक के गरम साइलेंसर से पैर चिपक जाने की मेरी असावधानी के कारण हुआ।
'सर, आप जानते हैं कि बनारस की कौन सी जगह मुझे सबसे अधिक प्यारी लगती है ?'
'कौन सी?'
'भारत माता का मंदिर, जहां मैं आपको ले चल रहा हूँ। मैं यहाँ अक्सर आते रहता हूँ, अकेले चला आता हूँ। वहाँ मुझे ऐसा लगता है जैसे अपनी माँ की गोद में हूँ।' शैलेंद्र सिंह का गला रूंध गया। हमारी बाइक एक सूनसान जगह पर रुकी। वहाँ भारत माता का मंदिर था। चार-छः लोग थे वहाँ, इधर-उधर झांक रहे थे, घूम-घाम कर वापस निकल रहे थे। न कोई बताने-समझाने वाला और न ही कोई समझने वाला। मुझे संकटमोचन के मंदिर का जनसमूह याद आया और यह समझ आया कि भक्त कितने 'चूजी' होते हैं। भीड़ दाता के समक्ष याचना के लिए लगती है, भारतमाता से भला क्या मिलने वाला?
विगत शताब्दि में बनारस के लिए जैसा महत्वपूर्ण कार्य महामना मदनमोहन मालवीय ने किया था वैसा ही बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने किया था। वे लक्ष्मी-पुत्र होने के साथ दानवीर थे और देश की आज़ादी के आंदोलन में कदम में कदम मिला कर चला करते थे।
उन्होंने बनारस में भारतमाता मंदिर का निर्माण किया। इस मंदिर के निर्माण की कल्पना और उसका क्रियान्वयन किस तरह हुआ, इसे आप (स्व॰) बाबू शिवप्रसाद गुप्त के शब्दों में पढिए :
'भारतमाता के उभारदार मानचित्र की कल्पना संयोगवश हृदय में उत्पन्न हुई। संवत १९७० (१९१३ईस्वी) बैक्रम के जाड़ों में कराची कांग्रेस से लौटते हुए मुंबई जाने का अवसर मिला। वहाँ से पूना जाना हुआ। वहाँ श्रीमान घोंडो केशव करवे का विधवाश्रम देखने गया। आश्रम में जमीन पर भारत का एक मानचित्र बना हुआ देखा। था तो वह मिट्टी का ही पर उसमें पहाड़ और नदियां ऊंची-नीची बनी थी। बड़ा सुंदर लगा। इच्छा हुई कि एक ऐसा ही मानचित्र काशी में भी बनाया जाय। यह केवल एक संस्कार था जो संभवतः कुछ दिन में मिट जाता पर संयोगवश इसके बाद विदेशयात्रा करनी पड़ी। लंदन के ब्रिटिश म्यूज़ियम में इस प्रकार के अनेक छोटे-बड़े मानचित्र देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह भी एक संयोग था पर इसके पूर्व का संस्कार और भी दृढ़ हो गया। इसे लेकर घर लौटा। भारत का सुंदर उभारदार मानचित्र बनाने की इच्छा प्रबल हो रही थी। गुरुजनों और मित्रों से परामर्श और विचार के बाद यह बात चित्त में बैठ गई कि मानचित्र संगमरमर का हो तो उत्तम, क्योंकि वह अधिक टिकाऊ और अधिक सुंदर होगा और जननी जन्मभूमि की प्रतिमा के लिए अधिक उपयुक्त भी होगा। इस निश्चय के पश्चात कलाकार और मिस्त्री की खोज होने लगी। बहुत यत्न के बाद काशी निवासी श्री दुर्गाप्रसाद जी ने यह भर उठाया और बड़े परिश्रम तथा बड़ी योग्यता से निभाहा। कार्यारंभः संवत १९७५ (१९१८ ईस्वी) में हुआ और ५-६ वर्षों के परिश्रम में समाप्त भी हो गया। पर अनेक बाधाओं और विघ्नों के कारण, जिन पर मनुष्य का वश नहीं, कुछ समय तक सर्वसाधारण के लिए मातृमूर्ति का दर्शन संभव न हो सका। अंत में निवेदन यह करना है जिस मंदिर में माता की मूर्ति स्थापित है उसका शिलान्यास २४ लक्ष्य गायत्री पुरश्चरण के उपरांत बासन्ती नवरात्रि के प्रथम दिन चैत्रशुल्क प्रतिपदा, रविवार, संवत १९८४ को श्री भगवानदास जी के करकमलों से हुआ था। प्रथम दर्शन के उपलक्ष्य में चारों वेदों के पाठ होकर पूर्णाहुति महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी के करपात्र से महानवमी (आश्विन शुल्क ९) संवत १९९३ को हुई। सर्वसाधारण के दर्शनार्थ पाटोद्घाटन संवत १९९३ की विजयादशमी के शुभदिन उन्हीं के हाथों से हुआ।'
ॐ तत् सत् ब्रह्मार्पणमस्तु
- शिवप्रसाद गुप्त॰
भारतमाता का मंदिर शानदार कारीगरी और गणितीय सूझबूझ का अप्रतिम उदाहरण है जहां अखंड भारतवर्ष का नक्शा आज से एक शतक पूर्व ऐसी प्रवीणता से उकेरा गया है जिसे आधुनिक भाषा में 'थ्री-डी इफेक्ट' कहते हैं। पर्वतों की समुद्र से ऊंचाई और घाटियों की गहराई वास्तविक माप के अनुसार मान लेकर सटीक बनाई गई है। रंगों की विविधता पर्वत, नदी और मैदान को स्वयं उद्घाटित करती है। भारतमाता की एक रंगीन पेंटिंग भी दीवार पर बनी हुई है।
मंदिर के अंदर एक कोने में कुछ पुस्तकें और फोटोग्राफ बिक रहे थे। मैंने पूछा- 'भारतमाता मंदिर का कोई पिक्चर-कार्ड है आपके पास ?
'ऊं हूँ।' उसने उत्तर दिया।
मैंने मन-ही-मन में नारा लगाया- 'भारतमाता की जय।'
(८)
काशी की पुरानी गलियां सकरी हैं, गाय-बैल-सांड से हरी-भरी। इन गलियों में घुसना और निकलना ज़रा कठिन काम है। गोबर की गंध से महकता यह क्षेत्र गंगाजी के किनारे-किनारे मीलों तक फैला हुआ है। इन्हीं गलियों में एक आश्रम स्थापित है, कबीर चौरा। पवित्र वातावरण, कबीरपंथी श्रद्धालुओं की आवाजाही, बीचोबीच बना हुआ कबीरदास का समाधि स्थल। इस स्थल पर रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी जैसी विभूतियाँ अपनी आमद दर्ज़ करवा चुकी हैं। हाल में बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी आए थे और कबीर के घर के पुनरुत्थान के लिए भूमिपूजन करके अपने नाम का शिलालेख जड़वाकर घोषित धनराशि भेजना भूल गए और जो आने से रही क्योंकि वे स्वयं मुख्यमंत्री नहीं रहे। दुर्भाग्य कबीर का!
कबीरदास का जन्म स्थान विवादित है। कबीर के जन्मस्थान के संबंध में तीन स्थानों का ज़िक्र आता है, काशी, मगहर और आजमगढ़ का बेलहरा ग्राम। मगहर के पक्ष में यह तर्क है कि कबीर ने अपनी रचना में उल्लेख किया है- 'पहिले दरसन मगहर पायो पुनि कासी बसे आई' अर्थात् 'काशी में रहने से पहले उन्होंने मगहर देखा।' कबीर का अधिकांश जीवन काशी में व्यतीत हुआ। कई कबीरपंथियों का यही विश्वास है कि कबीर का जन्म काशी में हुआ किंतु कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। कुछ लोग बेलहरा गाँव को कबीर साहब का जन्मस्थान मानते हैं, वे कहते हैं कि ‘बेलहरा’ ही बदलते-बदलते 'लहरतारा' हो गया।
कबीरचौरा के महंत बताते हैं कि कबीर अविवाहित थे। जब शैलेंद्र सिंह ने उनके जिज्ञासा की- 'जब वे अविवाहित थे तो कमाल और कमाली का ज़िक्र आता है, वे कौन थे?'
'कबीरदास जी के एक अनुयायी के पुत्र की मृत्यु हो गई। वह उसकी लाश को 'साहिब' के पास लाया और उसे पुनः जीवित करने की प्रार्थना की। 'साहिब' ने उसे फिर से जीवित कर दिया तो अनुयायी ने अपने पुत्र को 'साहिब' को सौंप दिया और कहा- 'आज से यह आपका पुत्र है क्योंकि आपने इसे फिर से जन्म दिया है।' इसी तरह एक अन्य शव को उन्होंने पुनर्जीवित किया था जो कमाली थी।' महंत ने बताया।
किवदंती के अनुसार कबीर विवाहित थे। कबीर ने अपनी मां की इच्छा पूरी करने के लिए विवाह किया था। विवाह की पहली रात को उनकी पत्नी लोई रो रही थी। कबीर ने कारण पूछा तो उसने कहा- 'मैं किसी और से प्रेम करती हूँ, किन्तु मेरे माता-पिता ने मेरा विवाह आपसे करवा दिया।'
यह जानने पर कबीर अपनी पत्नी को उसके प्रेमी के घर पहुँचा आए। लोई के प्रेमी ने उससे पूछा- 'इतनी रात में तू कैसे भाग आई ? तेरे पति ने तुझे रोका नहीं ?'
'मेरे पति कबीर ही मुझे यहाँ पहुँचा कर गए हैं, मैं भागकर नहीं आई।'
'बाहर अभी बरसात बंद हुई है और रास्ते में घुटने भर पानी भरा हुआ है लेकिन तेरे पैर सूखे हैं गीले क्यों नहीं हुए?'
'बात ये है कि कबीर ने मुझे पीठ पर उठा रखा था ताकि कहीं मेरे कपड़े ख़राब न हो जाएँ।' लोई ने बताया। इतना सुनते ही लोई के प्रेमी ने कहा- 'तुझे ज़रा सी भी लाज नहीं आई कि तू कबीर जैसे महापुरुष की सेवा करने के अवसर को त्याग कर मेरे जैसे साधारण आदमी के पास चली आई?'
लोई का प्रेमी उसे लेकर कबीर के पास गया और पैरों में गिरकर लोई की भूल के लिए क्षमा मांगी और कबीर का शिष्य बन गया।
मान्यता है कि कमाल और कमाली उनकी पत्नी के माध्यम से हुई उनकी ही संतान है।
फ़िल्म "सत्यम् शिवम् सुन्दरम्" का गीत 'रंग महल के दस दरवाज़े, ना जाने कौन सी खिड़की खुली थी, सैंया निकस गए मैं ना लड़ी थी...' यह कमाली द्वारा रचित गीत है। इसमें 'रंग महल' का अर्थ है, हमारा शरीर और 'दस दरवाज़ों' से अर्थ है शरीर के वे दस मार्ग जिनसे प्राणों का निकलते है। जनसामान्य को ध्यान में रखते हुए रचनाएँ ऐसी ही बनाई जाती थीं, जिनका सामान्य अर्थ कुछ ऐसा होता था जो सबको रुचिकर लगे लेकिन वास्तविक अर्थ किसी न किसी दर्शन से संबंधित होता था।
(९)
बनारस के गोदौलिया में एक दूकान में कुछ साहित्यकारों और पत्रकारों से मुलाक़ात का सुयोग बन गया. मैंने वहां उपस्थित प्रख्यात विचारक-वक्ता अमिताभ भट्टाचार्य से पूछा- 'बनारस की कौन सी विशेषता आपको सबसे अधिक प्रभावित करती है?'
'सम्यक दृष्टि, सबको एक दृष्टि से देखने की मानसिकता, यह इस नगरी की विशेषता है. यही यहाँ की जीवनशैली है. वैसे, बनारसी अड़भंगी होता है, जो मन आता है वह करता है पर सबको साथ लेकर चलता है.'
'कहते हैं कि जिसकी मृत्यु काशी में होती है वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है.'
'यह सही बात है.'
'यहाँ होने मात्र से मोक्ष मिल जाता है?'
'बेशक.'
'मुझे समझ में नहीं आ रहा है.'
'मोक्ष का अर्थ है, पुनर्जन्म से मुक्ति. यहाँ आकर मनुष्य की लालसा समाप्त हो जाती है. यह काशी का स्थान-महात्म्य है.' अमिताभ भट्टाचार्य ने बताया. बात आगे और बढ़ती लेकिन अचानक 'फेसबुक' पर किए गए किसी के 'कमेंट' पर चर्चा मुड़ गई. वह चर्चा आक्रामक हो गई. वहां संस्कृतनिष्ठ हिंदी के अपशब्दों की छटा बिखर गई. मैं विस्मित होकर सोच रहा था- 'क्या फेसबुक पर की गई किसी एक टिप्पणी पर इतनी किचकिच हो सकती है?' मेरे मन में आया कि बनारस आया हूँ तो अपशब्दों के विशेषज्ञ बन्द्योपाध्यायजी से भी जाकर मिल लूं ताकि बनारस की गालियों का पूरा आनंद मिल जाए. वे शुद्ध संस्कृत में कर्णप्रिय बनारसी गालियां देने वाले विद्वान् हैं. उनकी विशेषता है कि वे जब संस्कृत में गालियाँ देते हैं तो सामने वाला उसे अपनी तारीफ समझता है लेकिन समय की कमी ने मुझे उस मिठास से वंचित कर दिया.
मोक्ष के अतिरिक्त वहां बनारस की स्वादिष्ट चाट की भी चर्चा चली. सत्ताईस मसालों से बनने वाले गोलगप्पे के पानी का विवरण सुनकर मुंह में पानी आ गया. चाट-चर्चा से प्रभावित होकर तय हुआ कि चाट को ही रात्रि-भोजन मानकर ग्रहण किया जाए. मैंने श्यामसुंदर शर्मा को उनके घर में भोजन करने के लिए मना कर दिया और हम लोग 'पेट भर' चाट खाने गरज़ से बनारस की प्रसिद्ध दूकान 'दीना चाट भण्डार' में पहुँच गए. बैठने की जगह खचाखच भरी हुई थी. कुछ देर इंतज़ार के बाद जब बैठने का जुगाड़ नहीं दिखा तो हमने खड़े-खड़े चाट खाने का निर्णय लिया. आलूचाप सिंकने की महक फ़ैल रही थी, हमने आलूचाप से आरम्भ किया और केवल एक आलूचाप खाने के बाद कुछ और खाने का मेरा साहस टूट गया. शर्मा जी ने अनमने होकर गोलगप्पे खाए और भुगतान कर दिया, वापसी में जो पैसे मिले उसमें विवाद हो गया. श्यामसुंदर शर्मा ने सौ का नोट दिया था लेकिन दूकानदार मानने के लिए तैयार नहीं था, वह कह रहा था कि सौ नहीं, पचास का नोट था. हम दोनों खिन्न होकर वहां से लौट आए. गए थे पेट भरकर खाने को, खाली पेट वापस आ गए. शर्मा जी ने कहा- 'चलिए कहीं और चलें.'
'अब और कुछ नहीं खाऊँगा, मैं अपने डेरे जाना चाहता हूँ. रात को वहीँ कुछ ले लूँगा.' मैंने कहा.
आलूचाप का ज़िक्र निकला है तो मुझे जबलपुर की याद आ रही है. जबलपुर में बड़े फौवारे पर अज्जू का ठेला लगता है, रात के समय. देशी घी की धीमी-धीमी आंच में बहुत देर तक सिंकता है आलूचाप. जब वह भलीभांति सिक जाता है तो बीच से फाड़कर उसकी दो परत बनाई जाती है, फिर उस पर खट्टी-मीठी खटाई डाली जाती है. आलूचाप का वह स्वाद अनोखा और परम सुखद है. अगर आपका उपवास हो तो आलूचाप के ऊपर सिंघाड़े का सेव, तली हुई मूंगफली और सेंधा नमक का छिडकाव होता है. याद कीजिए, युनाइटेड प्रेसर कुकर का विज्ञापन जिसमें तबस्सुम कहती हैं- 'खाए जाओ, खाए जाओ.'
(१०)
(१०)
शैलेंद्र जी की बाइक कबीर चौरा में घूमती-मटकती हुई गलियों के एक तिगड्डे पर जा रुकी जहां एक मार्ग-संकेतक-शिलापट लगा था, जिस पर लिखा था श्रीमति सितारादेवी मार्ग। सितारादेवी भारतीय नृत्य-आकाश का एक जगमगाता सितारा थी। जिस युग में उनका पदार्पण हुआ, वे उन फनकारों में से एक थी जिन्होने नृत्यकला को सम्मानजनक कला का कंठहार पहनाया।उनका जन्म कलकत्ता में हुआ था, पिता के वरद हस्त ने उन्हें गृहस्थी के जंजाल से बाहर निकाला और युवावस्था में बनारस में हुई नृत्यसाधना ने उन्हें बंबई होते हुए पूरे भारत का सितारा बना दिया। कबीर चौरा पर लगा उनके नाम का पत्थर उस गौरव का भी संकेतक है जो इन्हीं गलियों से होकर निकला था जिसका नाम था- सितारा देवी (1920-2014)।
बनारस घराना भारतीय शास्त्रीय संगीत का प्रसिद्ध घराना है जो गायन और वादन दोनों कलाओं में निपुण रहा है। इसके गायक ख्याल गायकी के लिए खास तौर से जाने जाते हैं। इस घराने के अनेक प्रसिद्ध गायकों के अतिरिक्त तबला और सारंगी वादकों ने भी अपनी कला के जौहर दिखाए हैं। देश-विदेश में लोकप्रिय गायनशैली ठुमरी का आरंभ लखनऊ में हुआ था लेकिन उसका विकास बनारस में हुआ है। इसे दो तरीकों से गाया जाता है- 'धनाक्षरी' जिसे द्रुत-लय में प्रस्तुत किया जाता है और 'बोल की ठुमरी' जिसे मंद गति में गाया जाता है। बनारस की ठुमरी में चैनदारी है और बनारस की बोली का असर है। यहाँ की ठुमरी में ठहराव और अदायगी का अलग रंग है।
ठुमरी गायन के क्षेत्र में रसूलन बाई, बड़ी मोतीबाई, सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी, छन्नूलाल मिश्र प्रमुख हैं। ख्याल गायन में पंडित बड़े रामदास जी, पंडित छोटे रामदास जी, पंडित महादेव प्रसाद मिश्र, पंडित राजन-साजन मिश्र गायन-मुक्ताकाश में सूर्य की तरह प्रकाशमान हैं। केवल गायन नहीं, बजायन के क्षेत्र में भी बनारस का नाम विश्वप्रसिद्ध है। शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खाँ, पंडित रामसहाय मिश्र; तबला वादक पंडित कंठेमहाराज, पंडित अनोखे लाल, पंडित सामता प्रसाद, पंडित किशन महाराज, पंडित बूंदी महाराज; पखावज और मृदंग वादक पंडित मदनमोहन, पंडित भोलानाथ पाठक, पंडित अमरनाथ मिश्र; सारंगी वादक शंभू सुमीर, गोपाल मिश्र, हनुमान प्रसाद मिश्र, नारायण विनायक जगप्रसिद्ध हैं। यह सूची छोटी है, संगीत की शास्त्रीय साधना करने वाले बनारसी तपस्वी असंख्य हैं, कुछ जाने जाते हैं, कुछ आगे जाने जाएंगे।
लगभग 23 वर्ष पूर्व मैंने सितारादेवी को बिलासपुर में आयोजित एक उत्सव में नृत्यमग्न देखा था। संयोग से मैं दर्शकदीर्घा में न होकर, स्टेज पर जहां उनके साज़िंदे बैठे थे, उनके पीछे खड़ा था। सितारादेवी के कदमों की थाप से सीमेंट से बना स्टेज थरथरा रहा था। साज़िंदे पसीना बहा रहे थे। दर्शक-श्रोता मंत्रमुग्ध थे। नाचते-नाचते कुछ क्षणों के लिए वे थमती सी और तबलावादक को गुर्रा कर गाली देते हुए बोलती- 'ठीक से बजा रे....।' तबलावादक की तो जैसे बेट्री री-चार्ज हो जाती और तबले की थाप द्विगुणित होकर सभागार में गुंजायमान होने लगती। उधर सितारादेवी का पद-संचलन और तीव्र हो जाता, वे ध्रुव तारे की तरह दमकने लगती और लगता जैसे आदि-नर्तक नटराज शिव स्वयं अवतरित होकर कत्थक शैली में कृष्णलीला दिखा रहे हों।
बहुत दिनों से तमन्ना थी कि पंडित छन्नूलाल मिश्र से मुलाक़ात हो जाए लेकिन इस बार भी न हो सकी क्योंकि वे विदेश गए हुए थे, फिर भी, बनारस के मिश्र घराने के अन्य वर्तमान संगीतज्ञों से हमारी भेंट श्री अष्टभुजा मिश्र के माध्यम से तय हो गई।
तात्कालीन काशी नरेश ने बनारस में संगीत को प्रश्रय दिया, संगीतकारों को आर्थिक सहयोग किया, आवास के लिए भूमि आबंटित की। कबीर स्मारक से लगी हुई गली में इन संगीतकारों के घर हैं, इन पुराने घरों की दीवारों ने अनगिनत संगीत सम्राटों के स्वर और वाद्य लहरियों को अपने आगोश में समेट रखा है।
तबला-सम्राट स्व॰पंडित बूंदी महाराज के वंशज गायक पंडित मोहनलाल, पंडित कांता प्रसाद और तबलावादक पंडित विजयकुमार हमारी राह देख रहे थे। पंडित मोहनलाल से मैंने बात आरंभ की- 'अपने देश में संगीत की वर्तमान स्थिति क्या है?'
'भारत में संगीत को दो धाराएँ चल रही हैं, शास्त्रीय संगीत और सुगम संगीत। हमारी पीढ़ी में शास्त्रीय संगीत का ज़ोर था, अब सुगम संगीत का। सुगम संगीत भी शास्त्रीय विधि से निकलता है लेकिन इसमें पश्चिमी संगीत का मिश्रण है। समय परिवर्तनशील है, उसी तरह रुचियाँ भी बदलती हैं और संगीत के चाहने वाले भी बदल जाते है।'
'आपके बच्चे क्या संगीत में रुचि रखते है?'
'हाँ, हमारे घराने के नौ युवक संगीत से जुड़े हुए हैं।'
'नई उम्र के लोग शौक से सीखते हैं या उन्हें मार-कूट का सिखाना पड़ता है?'
'गया मार-कूट वाला ज़माना। अब वह समय न रहा। घर में संगीत का माहौल है, बचपन से सुनते आ रहे हैं इसलिए लगाव बन जाता है। नई पीढ़ी अपनी खुशी से सीखती है, इन पर दबाव काम नहीं करता। इनको संगीत सीखना अब आसान हो गया है, कंप्यूटर का ज़माना है, मोबाइल की एक बटन दबाओ और चाहे जो सुन लो। इसके बावजूद बनारस में आज भी शास्त्रीय संगीत सीखने के लिए गुरु-शिष्य परंपरा कायम है, दक्षता तो इसी से आएगी। हमारा मोहल्ला गाने-बजाने का मोहल्ला है, हम सब एक दूसरे से जुड़े हुए है। हमारे यहाँ शादी-ब्याह भी संगीतज्ञों के घरों में किए जाते हैं ताकि दोनों के बीच तालमेल बना रहे।'
'ऐसा क्यों?'
'देखिए, संगीत के अभ्यास के लिए घंटों साधना करनी होती है। यदि पति-पत्नी में संगीत की समझ नहीं होगी तो रोज झगड़ा होगा। दोनों को एक-दूसरे को बहुत सहन करना पड़ता है तब संगीत-साधना होती है।'
'कहते हैं संगीत से ध्यान सधता है?'
'संगीत से ध्यान सधता है और ध्यान से संगीत। संगीत-साधना का आरंभ ॐ की साधना से होता है। ॐ से स्वर का आरोह-अवरोह संतुलित होता है, एकाग्रता सिद्ध होती है। गायन में गले का काम बाद में है, पहले नाभि से स्वर निकालना होता है। जो भी व्यक्ति संगीत से जुड़ा होगा, उसका ध्यान तुरंत लग जाएगा। संगीत भी ध्यान की एक अवस्था है।'
'ॐ कैसे साधते हैं?'
'बैठो हमारे साथ तो हम बताएं आपको कि ॐ कैसे साधते हैं।' पंडित मोहनलाल हँसते हुए बोले।
'आप गायन के साथ-साथ तबला बजाने में भी प्रवीण हैं, आम तौर पर गायक केवल गायकी में सिद्ध होते है? मैंने पंडित कांता प्रसाद मिश्रा से प्रश्न किया।
'गायक को सभी वाद्य-यंत्रों का ज्ञान होना चाहिए क्योंकि वाद्य से गायन चलायमान होता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। कोई गा रहा है और यदि उसके गायन में लय और ताल नहीं है तो वह अधूरा लगेगा। गायन और वादन का सम्मिश्रण ही शास्त्रीय संगीत है।'
'क्या नृत्य भी शास्त्रीय संगीत है?'
'प्रमुख गायन है, सहयोगी वादन है और उसकी भावाभिव्यक्ति नृत्य है। शास्त्रीय संगीत के लिए नृत्य अनिवार्य नहीं है लेकिन नृत्य के लिए संगीत अनिवार्य है। गायन में भी भाव होता है लेकिन वह आंतरिक होता है जबकि नृत्य में भाव का बाह्य-प्रकटीकरण होता है।'
'क्या संगीत की सीमा होती है?'
'नहीं, संगीत असीमित होता है। संगीत आध्यात्म से जुड़ा हुआ है इसलिए उसकी कोई सीमा नहीं। स्वर, राग-रागनियाँ सीमित हैं लेकिन उनका प्रयोग असीमित है। संगीत शिव जी के मुखारविंद से निकला स्रोत है जो गंगाजी की तरह अविरल प्रवाहमान है। किसी ने एक लोटा निकाल लिया तो किसी ने एक बाल्टी।' पंडित मोहनलाल बीच में बोलपड़े।
'संगीतकार के घर में जन्मे और सामान्य घर में जन्मे व्यक्ति के संगीत सीखने में क्या अंतर होता है?'
'जिसकी चार पीढ़ी से संगीत की परंपरा रही है, उसके रक्त में संगीत बहता है, वह संगीत को किसी नए सिखाड़ी की तुलना में जल्दी पकड़ता है।'
'काशी में क्या खास है?'
'यहाँ की सहजता खास है। बड़े-बड़े कलाकार हो गए हैं, गुदई महाराज को हमने देखा है, गमछा लपेटे बगीचा में टहल रहे हैं, चार चेला आगे-पीछे घूम रहे हैं। बिस्मिल्ला खान को देखा, वही एक गमछा और खुला बदन में। एक किस्सा बताते हैं आपको अग्रवाल जी, सुबह का समय था, दो बंगाली हमारे पास आए और कहा- "बिस्मिल्ला खान से मिलना है।" हमने कहा- "चलो मिलवाए देते हैं।"
मेरे साथ कामेश्वरप्रसाद भी थे। हम दोनों उन दोनों को लेकर गंगाजी के किनारे ले गए। बिस्मिल्ला खान वहीं घूमते हुए मिले, गमछा पहने हुए थे। दर्शनार्थियों ने उन्हें प्रणाम किया। उनकी फोटो खींची। खान साहब ने पूछा- "बोलो, क्या बात है बोलो। कैसे आए तुम लोग?"
"आपका दरशन के वास्ते।" बंगाली सज्जन बोले।
"दर्शन करने आया, खाली हाथ क्यों आया? तुमको मालूम नहीं था कि हम सिगरेट पीते हैं? विल्स फिल्टर साथ में लेकर आना था।" बिस्मिल्ला खान ने उन्हें फटकारा। एक बंगाली सज्जन की जेब में एक पैकेट सिगरेट थी, उसने तुरंत निकाली और बिस्मिल्ला खान को दे दी। वे हंसने लगे और बोले- "खुदा ने दो हाथ दिए हैं तुमको तो दो पैकेट सिगरेट लाना था और तुम एक ही पैकेट दे रहे हो।" उसके बाद उनकी उन्मुक्त हंसी और धौल-धप्पा।
आप अंदाज़ लगाइये कि बिस्मिल्ला खान कितनी बड़ी हस्ती थे और उनमें कितनी सरलता थी? यही काशी की खासियत रही है। वह सरलता खो गई, अब दिखावटीपन बढ़ गया है।' कांता प्रसाद मिश्रा ने बताया।
'संगीतकारों को राजाश्रय मिला करता था, अब भी आपको सरकारी सहयोग मिलता है क्या?' मैंने पंडित मोहनलाल से प्रश्न किया।
'जिस घर में आप-हम बैठे हुए हैं वह काशी नरेश ने हमारे पुरखों को दिया था। सरकार की ओर से कोई सहयोग नहीं है। जब मोदी जी आए तो सुनते थे कि वे कबीरचौरा आएंगे, यहाँ की विरासत को बढ़ावा देंगे, कुछ करेंगे ताकि इस बस्ती के लोग भूखों न मरे लेकिन अब तक कोई आया नहीं। बातें हैं अभी तक लेकिन हमें आशा है कि वे शास्त्रीय संगीत को जीवित रखने के लिए वे कुछ करेंगे, हम आशा ही तो कर सकते हैं।' वे बोले।
उठते-उठते मिश्र घराने के नवोदित गायक पंडित विष्णु मिश्र से मैंने पूछा- 'शास्त्रीय संगीत का भविष्य कैसा नज़र आता है?'
'अच्छा है। नई पीढ़ी के लोग संगीत को गंभीरता से ले रहे हैं। यह अवश्य है कि उन्हें परंपरा से हटकर काम करना पड़ रहा है क्योंकि अब केवल शास्त्रीय गायन से काम नहीं चलता इसलिए सब किस्म की तैयारी करनी पड़ती है ताकि 'वर्सेटाइल' प्रस्तुतीकरण किया जा सके।'
'मैंने टीवी पर चल रहे 'सारेगामा' के कार्यक्रम देखे हैं, उसमें कई गायक श्रेष्ठ होने के बावजूद पिछड़ गए क्योंकि वे शास्त्रीय गायन में दक्ष थे लेकिन अन्य शैली के गीत अच्छे से नहीं गा सके।'
'एक तो यह कारण था जो आप बता रहे हैं, इसके अलावा इन कार्यक्रमों में राजनीति होती है, टीआरपी की लालच होती है, भावुकता को उभारा जाता है और उन्हें अधिक 'प्रोजेक्ट' किया जाता है जिसके कारण कई अच्छे गायक कम वोट पाने के कारण 'सिलेक्ट' नहीं हो पाते।'
'इससे तो योग्य गायकों को निराशा होती होगी?'
'गायकों को निराशा तो होती है, साथ ही शास्त्रीय संगीत को भी बहुत नुकसान पहुंचता है। इसीलिए नई पीढ़ी के लोग सभी शैली के गाने गाना सीख रहे हैं क्योंकि इस युग में केवल शास्त्रीय संगीत की पूंछ पकड़कर वैतरणी पार करना असंभव है।'
'आप बनारस घराने के हैं, आप परंपरागत संगीत से भटकेंगे तो आपके घराने का शास्त्रीय संगीत आहत नहीं होगा क्या?'
'मेरा दृष्टि एकदम स्पष्ट है, मैं शास्त्रीय गायक हूँ और रहूँगा लेकिन कभी मौका आया तो अपनी गायकी का हुनर दिखाने के लिए सुगम संगीत को भी अपना सकता हूँ।' पंडित विष्णु मिश्र ने बताया।
(१२)
बनारस के तेलियाबाद में एक पुराना सिनेमा हाल अभी भी जीवित है, आनंद मंदिर, जिसमें आम तौर पर भोजपुरी फिल्में दिखाई जाती है। दोपहर तीन बजे के आसपास मैं शैलेंद्र जी के साथ वहाँ पहुंचा क्योंकि टाकीज़ के बगल में एक रेस्टोरेन्ट है जहां वे मुझे बाटी-चोखा खिलाने वाले थे, जो बनारस का सर्वप्रिय भोजन है। टाकीज़ में वही भीड़ थी जो हम लोग अपने जमाने में देखा करते थे। रेस्टोरेन्ट भी खचाखच भरा हुआ था। छोटी सी जगह में गाँव जैसा माहौल बनाने की असफल कोशिश की गई थी लेकिन रेस्टोरेन्ट सफलतापूर्वक चल रहा था। कुछ देर तक हम दोनों वहाँ रखी खटिया पर बैठे रहे फिर वेटर ने हमें बुलाकर आठ सीटर टेबल की दो खाली सीट पर बैठा दिया, बाकी छः सीट पर अन्य ग्राहक बैठे हुए थे। उन लोगों ने हमसे पहले आर्डर दे दिया था इसलिए उनकी बाटी-चोखा की पत्तल आ गई, साथ में चटनी, अचार और कटोरा भरकर शुद्ध घी। जब मैंने उनकी बाटी देखी तो मैंने शैलेंद्र जी से कहा- 'कहाँ ले आए मुझे? इस बुढ़ापे में ये बाटी मैं कैसे खाऊँगा? मेरे जबड़े में न तो दाढ़ है और न दाँत।'
'तो आपके लिए खिचड़ी मँगवा देते हैं, ठीक रहेगी?' शैलेंद्र जी ने मेरी हिम्मत बंधाई। हमारा सामान आने में देर थी इसलिए मैं टेबल पर विराजमान अन्य लोगों को बड़े प्यार से बाटी-चोखा खाते हुए देख रहा था। उन छः में एक सरदार जी भी थे जिन्होंने बाटी को भरपूर घी पिलाया और उसके बाद दाल में आधा कटोरा घी उड़ेल लिया। गजब की पाचन शक्ति रही होगी उनकी, मुझे तो उनको ऐसा करते देख पेट में गुड़गुड़ होने लगा। हाय....जवानी जो जा कर न आए, बुढ़ापा जो आ कर न जाए।
इतनी देर में हमारा भोजन आ गया। शैलेंद्र जी दांतों वाले हैं, वे बाटी-चोखा चबाने लगे और मैं खिचड़ी निगलने लगा। खिचड़ी के साथ चोखा आया, खीर भी। सच बताऊँ, मुझे भूख नहीं थी लेकिन जब मैंने खिचड़ी खाना शुरू किया तब जैसे भूख के द्वार खुल गए। वाह, शानदार खिचड़ी मिलती है वहाँ। कभी बनारस जाइए तो आप दाँत वाले हों, तो भी वहाँ की खिचड़ी और खीर अवश्य खाइये, लाजवाब है।
(१२)
भारतेन्दु हरिश्चंद्र (1850-1885) का जन्म काशी के प्रसिद्ध वैभवशाली सेठ अमीचन्द के परिवार में 9 सितंबर 1850 को हुआ था। पाँच वर्ष की आयु में उनकी माँ चल बसी और दस वर्ष की आयु में पिता। ऐसे अनाथ बालक की प्रतिभा को परखने के लिए उनके द्वारा सृजनित 72 ग्रन्थों को कसौटी पर कसिए, वह भी इतने कम समय में! भारतेन्दु द्वारा रचित सप्त संग्रह यथा- 1-प्रेम फुलवारी, 2-प्रेम प्रलाप, 3-प्रेमाश्रु वर्णन, 4-प्रेम मालिका, 5-प्रेम तरंग, 6-प्रेम सरोवर और 7-प्रेम माधुरी; बीस काव्यकृतियाँ और दस नाटक यथा- वैदिक हिंसा हिंसा न भवति, भारत दुर्दशा, साहित्य हरिश्चंद्र, नीलदेवी, अंधेर नगरी, सत्य हरिश्चंद्र, चंद्रावली, प्रेम योगिनी, धनंजय विजय और मुद्रा राक्षस उनकी अद्वितीय साहित्यिक प्रतिभा-यात्रा है जो उनके 35 वर्षीय जीवन के साथ पूर्ण हो गई।
बनारस में जन्मे भारतेन्दु हरिश्चंद्र आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह माने जाते हैं। वे आधुनिक हिन्दी के प्रथम रचनाकर थे। जिस समय उनका आविर्भाव हुआ, देश अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरों से जकड़ा हुआ था। अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना गौरव की बात मानी जाती थी और हिन्दी के प्रति लोगों का आकर्षण कम होता जा रहा था। ऐसे समय में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का उदय हिन्दी भाषा की पुनर्स्थापना और अंग्रेजों के विरुद्ध भाषाई विरोध के रूप में हुआ।
वे परम दानवीर थे, पूर्वजों की अर्जित संपत्ति और धन दान देकर उन्होंने अपने अंतिम दिनों में आर्थिक असुविधा को भोगा लेकिन देने का भाव सदा बनाए रखा। अंग्रेजों के आधिपत्य में भयभीत भारतीयों के हृदय में हिन्दी भाषा के प्रति अनुराग जागृत करने का अद्वितीय प्रयास करने वाले भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिन्दी साहित्य के सिरमौर के रूप में जाने जाते हैं।
शैलेंद्र जी के साथ मैं 'नागरी नाटक मंडली' पहुंचा जहां एक भव्य नाट्यशाला बनी हुई है जिसमें आज भी नाटक खेले जाते हैं। नाट्यशाला के बाहर दीवार पर भित्ति-चित्र उकेरे गए हैं जो नाटक की कल्पना को बहिरंग स्वरूप देते हैं, ये दर्शनीय हैं। यह भवन बनारस के उस सपूत भारतेन्दु हरिश्चंद्र का स्मारक है जो मृत्यु की एक शताब्दि बीत जाने के पश्चात भी हिन्दी-भाषियों के हृदय में आज भी धड़क रहा है।
(१३)
बनारस प्रवास में इस बार फिर बहुत कुछ छूट गया। गंगाजी में स्नान और नौकायन नहीं कर पाया। 'कामायनी' के रचयिता जयशंकर प्रसाद की दूकान को प्रणाम नहीं कर पाया, 'गोदान' वाले प्रेमचंद की भतीजी से नहीं मिल पाया, मानस मंदिर नहीं जा पाया आदि। मेरे तीन दिन पूरे हो गए थे, दोपहर 12 बजे मेरी रवानगी ट्रेन थी, अपने एक और बनारसी मित्र त्रिलोचन प्रसाद शास्त्री से मिलने की उत्सुकता थी लेकिन उनके फोन पर घंटी जाती थी लेकिन दूसरी तरफ से 'हेलो' की आवाज़ नहीं आ रही थी। सुबह नौ बजे मैंने अंतिम प्रयास किया, फोन लग गया और आधे घंटे के अंदर त्रिलोचन प्रसाद मेरे डेरे पर पधार गए।
त्रिलोचन प्रसाद शास्त्री बनारस के मानस मंदिर के व्यवस्थापक है, संस्कृत के विद्वान हैं, वेद-पुराण पाठी है, प्रवचक हैं, कवि हैं, लेखक हैं और कठोर शब्दों वाले आलोचक हैं। हम दोनों पहली बार मिले थे, शिकवा-शिकायत-स्पष्टीकरण के बाद बात निकल पड़ी। वे तुरंत वक्ता की भूमिका में स्थापित हो गए और मैं सुधी श्रोता।
त्रिलोचन प्रसाद शास्त्री बनारस के मानस मंदिर के व्यवस्थापक है, संस्कृत के विद्वान हैं, वेद-पुराण पाठी है, प्रवचक हैं, कवि हैं, लेखक हैं और कठोर शब्दों वाले आलोचक हैं। हम दोनों पहली बार मिले थे, शिकवा-शिकायत-स्पष्टीकरण के बाद बात निकल पड़ी। वे तुरंत वक्ता की भूमिका में स्थापित हो गए और मैं सुधी श्रोता।
'बनारस में गालियों का प्रयोग सामान्य है क्या?' मैंने पूछा।
'हमारे बनारस में गाली को आशीर्वाद समझा जाता है। गाली जिसे चुभती है, उसे खराब लगता है अन्यथा यह यहाँ की सहज भावाभिव्यक्ति है। यह बनारसीपन है। बनारस की गालियों पर किए गए एक शोध में दो सौ गालियों को चलन में पाया गया है।' त्रिलोचन प्रसाद ने बताया।
'तुलसीदास का बनारस से क्या संबंध रहा है? मैंने पूछा।
'तुलसीदास ने अपने जीवन का उत्तरार्ध यहीं बिताया। वे उस युग के महान क्रांतिकारी कवि थे। उन्होंने रामकथा को सामाजिक और राजनैतिक चेतना जागृत करने का माध्यम बनाया। मुगलों के शासनकाल में हिंदुओं की मनोदशा दूषित हो गई थी, वे धर्म के नाम पर परेशान थे। तुलसीदास ने रामकथा को संस्कृत से अवधी भाषा में बदल दिया ताकि वह जनमानस में आसानी से प्रवेश कर सके। उस समय वैष्णव और शैव समुदाय आपस में विरोधी थे, हिंसक झड़प हो जाती थी, तुलसीदास ने उनके मतभेद दूर करने के लिए रामचरित मानस में भगवान शिव से राम की स्तुति कराई और राम से शिव की।'
'बनारस में उनकी भूमिका क्या थी?'
'बनारस में ग्यारह रुद्र हैं संभवतः उसी भावना से तुलसीदास ने अपने आराध्य बजरंगबली के ग्यारह मंदिर बनवाए। जनसामान्य को भक्तिभाव से जोड़ने के लिए इन मंदिरों में रामभक्त हनुमान को स्थापित किया गया।'
'मैंने संकटमोचन मंदिर में हनुमानजी के दर्शन किए, भक्तों का तांता लगा था, क्या ऐसी भीड़ अन्य मंदिरों में भी होती है?'
'सभी मंदिरों में एक जैसे इष्ट हैं लेकिन श्रद्धालुओं की जो भीड़ संकटमोचन में होती है, अन्य मंदिरों में नहीं होती।'
'क्यों?'
'प्रथम, वह आकार में बड़ा है, आम लोग भव्यता से प्रभावित होते हैं। द्वितीय, तुलसीदास जी की गद्दी पर आसीन महंत वीरभद्र मिश्र, जिन्होंने 'गंगा सफाई अभियान' का आंदोलन आरंभ किया था, उस मंदिर में नियमित रूप से कार्यक्रम करवाते थे जैसे, धार्मिक प्रवचन और शास्त्रीय संगीत महोत्सव आदि, इसलिए बनारसवासियों का वहाँ आगमन बढ़ता गया और तृतीय, एक पुरानी घटना है जिसने संकटमोचन मंदिर के हनुमानजी को अधिक चुम्बकत्व दे दिया।'
'घटना? कौन सी?'
'काशी के शिवप्रसाद मिश्र 'रुद्र' की एक पुस्तक में विवरण है कि एक ब्राह्मण प्रतिदिन गंगास्नान के पश्चात संकटमोचन मंदिर में दर्शन हेतु जाया करता था। एक दिन बहुत बारिश हुई और राह में पड़ने वाली असि नदी, जो अब गंदे पानी के निकासी का नाला बन गई है, में बाढ़ आ गई थी। वे बाढ़ को देखकर ठिठक गए लेकिन किसी भक्त ने उन्हें याद दिलाया- 'रोम रोम में बज्र बल...' और वे उफनती नदी में कूद गए, पार लग गए। उस घटना के बाद उस मंदिर का महत्व और अधिक हो गया।'
'पुरानी पीढ़ी असुविधा में जीती थी, आनंदित रहती थी; अब नई पीढ़ी सुविधाजनक स्थितियों में मग्न है, उसे पुरानी बातें पसंद नहीं आती। नई पीढ़ी के सामने नए संकट हैं, बढ़ी हुई जनसंख्या के कारण वे कठिन प्रतियोगिता का सामना कर रहे हैं। प्रश्न यह है कि पुरानी बातों से नई पीढ़ी को कैसे 'लिंक' किया जाए?' मैंने त्रिलोचन प्रसाद शास्त्री से प्रश्न किया।
'दो पीढ़ी का अंतर सदा रहा है, यह कोई नई बात नहीं है। ऐसे समय में गांधी की याद आती है। वे कहते थे कि विरोध करना है तो पहले विरोध करने लायक बनो। उन्होंने इसीलिए खुद को मजबूत करने के लिए चरखे से सूत कातना और पाखाना साफ करना शुरू किया। अंग्रेजों ने कहा- 'तुमको मारेंगे।' उन्होंने अनशन शुरू किया और बोले- "तुम हमको क्या मारोगे, हम खुद मरने के लिए तैयार हैं।" इस तैयारी से आज़ादी की लड़ाई आगे बढ़ी।' वे बोले।
'लेकिन नई पीढ़ी इस बात को नहीं मानती कि गांधीजी का देश को आज़ादी दिलाने में योगदान है। असल में गरम लोगों ने आज़ादी दिलवाई।' मैंने कहा।
'हर युग में नरम और गरम लोग रहे हैं। जो गरम है वह अपनी गर्मी दिखाएगा। मरेगा या मारेगा। गौतम बुद्ध नरम थे, वे बौद्ध धर्म को उतना नहीं फैला पाए जितना अशोक ने डंडे के ज़ोर पर फैलाया; आदि शंकराचार्य सहज थे लेकिन हिन्दू धर्म तब फैला जब समकालीन नागाओं ने बौद्धों के पेट में त्रिशूल घुसेड़ा। वह मुक़ाबला कमजोर नागरिकों से था इसलिए शक्ति जीत गई लेकिन अंग्रेजों को गर्मी दिखाने में कोई फायदा नहीं था क्योंकि उनकी ताकत बहुत बड़ी थी। गरमदल की ताकत अंग्रेजों के मुक़ाबले बहुत कम थी। अंग्रेजों का मुक़ाबला करने के लिए उनकी फौज से भी बड़ी फौज की ज़रूरत थी। गांधी जी ने पूरे देश की जनता को उस फौज के मुक़ाबले निहत्था खड़ा कर दिया। अंग्रेजों की समझ में ही नहीं आया कि इनका मुक़ाबला कैसे किया जाए, इसलिए वे भारत छोड़कर भागे। खुद मर गए या किसी को मार दिया, इससे वह महान हो सकता है लेकिन संत नहीं हो सकता। गांधीजी ने अहिंसा के बल को जानते थे। उन्होंने अहिंसा के मार्ग को अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित किया। जो दूसरों की मति बदल दे, वह संत होता है, इसीलिए गांधीजी को लोग महात्मा कहते थे। आज़ादी की लड़ाई में सबका सहयोग था, भगत सिंह का, चन्द्रशेखर आज़ाद का और उन लोगों का भी जो उस लड़ाई में मर गए और उनका नाम कोई नहीं जानता। यह अकेले गांधी जी का काम नहीं था, जैसे कृष्ण भगवान ने अपनी उंगली में गोवर्धन पर्वत उठाया, ग्वाल-बाल ने भी अपना डंडा लगाया। जिसके पास जो था, वह उसने किया। कहानी यह नहीं बताती कि कृष्ण ने अकेले पर्वत उठाया, आशय यह है कि सबने मिलकर उठाया, उसी प्रकार आज़ादी के लिए सबने अपने-अपने ढंग से प्रयास किए तब आज़ादी मिली।'
'अपनी बात भटक गई, प्रश्न यह था कि पुरानी बातों से नई पीढ़ी को कैसे 'लिंक' किया जाए?'मैंने शुरू में कहा था कि किसी को बदलने के लिए पहले उस लायक बनाना जरूरी है। गांधी को मैंने उदाहरण के रूप में लिया था। लोगों को बदलने वाला व्यक्ति, सौ-पचास साल में एक पैदा होता है और उसके चले जाने के बाद भी उसका असर बना रहता है। आप नई पीढ़ी को धर्म से जोड़ना चाहते है लेकिन है कोई? जितने संत-महात्मा दिख रहे हैं, धार्मिक प्रवचनकार हैं, कथाकार हैं, वे काले धन को सफ़ेद करने के माध्यम हैं। जिसको देखो, वह गुरु बना घूम रहा है। विज्ञापन कर रहा है, मेरे पास आओ, मेरे पास आओ। तुलसी, रैदास और कबीर गुरु खोजते थे, उन्हें गुरु मिलता नहीं था जबकि वह सच बोलने का युग था। आज झूठ के युग में सब तरफ गुरु ही गुरु है। यह सब इन्दिरा के समय से शुरू हुआ। अब शंकरचार्य स्वरूपानन्द को लो, कांग्रेसी बाबा हैं, सबके सामने दिग्विजय सिंह उनके चरण पकड़े रहता है और पीछे से चोटी। जो वह कहेगा, वैसा शंकराचार्य कहेंगे। कुछ बाबा नेताओं के हैं तो कुछ उद्योगपतियों के हैं। अब ऐसे लोगों के ज़रिए धर्म कैसे फैलेगा? नई पीढ़ी ये सब पाखंड समझती है इसलिए इनके चक्कर में नहीं पड़ती। तो, प्रतीक्षा है ऐसे व्यक्ति की जो मनसा-वाचा-कर्मणा सम हो, जिसकी बात पर भरोसा किया जा सके, तब नई पीढ़ी को बदला जा सकेगा।' त्रिलोचन प्रसाद शास्त्री ने अपनी बात समाप्त करते हुए कहा।
(१४)
त्रिलोचन जी ने मेरे लिए आटो बुलवाई, मैं सामान लेकर बैठ गया, इस प्रकार मेरी बनारस यात्रा का अंतिम चरण आरंभ हुआ। जब आटो आगे बढ़ी, मैं सोच रहा था, इन तीन दिनों में क्या मिला? बहुत कुछ देखा लेकिन शब्द की सीमाएं होती है इसलिए अधिकांश बातें न लिख पाया। मेरा डेरा मारवाड़ी सेवा संघ में था। श्यामसुंदर शर्मा जी ने मुझे वहाँ के प्रबन्धक से परिचय करवाया उनका नाम था श्यामसुंदर अग्रवाल और मेरे कमरे के वेटर थे, श्याम बिहारी। इस प्रकार वहाँ श्याम-त्रयी की प्रेमपूर्ण सेवाएँ प्राप्त करने का सुखद संयोग बना।
साहित्यकारों और कलाकारों से लंबी चर्चाएँ हुई जिसे मुझे इस आलेख में संक्षिप्त करना पड़ा। विश्वनाथ जी के फटाफट दर्शन हुए, वह कहानी भी छूट गई। यह भी बताना छूट गया कि इस प्रवास में मेरी पर्स के घूँघट-पट शुरू से अंत तक नहीं खुल पाए क्योंकि मेरे मित्र-द्वय श्यामसुंदर जी और शैलेंद्र जी ने ऐसा होने नहीं दिया। मेरा वणिक-हृदय प्रसन्न हुआ लेकिन एक कसर रह गई कि मैंने उनसे आने-जाने के रेल भाड़े का ज़िक्र नहीं किया, यदि करता तो मित्र-भाव इतने उत्कर्ष पर था कि उसकी भी भरपाई हो जाती लेकिन मैं खुशी के मारे उसकी चर्चा करना भूल गया। खैर, अब देर हो गई, छोड़िए उस चूक को।
बनारस का स्टेशन आ गया। मैं अपने बैग लेकर प्लेटफार्म पर बैठा सारनाथ एक्स्प्रेस का इंतज़ार करने लगा। प्लेटफार्म यात्रियों से भरा हुआ था। ट्रेन लेट होती गई। मैं प्लेटफार्म पर पड़े एक पार्सल पर आसान जमा कर बैठा गया।एक पोर्टर ने मेरे बगल में कुछ व्यवस्था बनाई और अपना टिफिन रखा। उसी वक्त दूसरा पोर्टर आया, उसने भी अपना टिफिन वहीँ पर रखा और आमने सामने बैठ गए। एक ने दही एक्सचेंज किया तो दूसरे ने बर्बट्टी की सब्जी, जैसे स्कूल में बच्चे करते हैं।
भूख मुझे भी लग रही थी लेकिन उनके पास रोटी सब्जी दही सीमित मात्रा में थी, उनके टिफिन में मेरे घुसने की गुंजाइश न थी इसलिए मैंने उनसे केवल बात करने का फैसला लिया।
मैंने पूछा- 'क्या नाम है?' एक ने बताया मंगला प्रसाद और दूसरे ने नथुनी अली। मैंने नथुनी से प्रश्न किया- 'अजीब नाम है तुम्हारा, हिंदू हो या मुसलमान?'
'मुसलमान हूं साहब।'
'क्या रोज इसी तरह साथ मिल-बाँट कर खाना खाते हो?
'मुसलमान हूं साहब।'
'क्या रोज इसी तरह साथ मिल-बाँट कर खाना खाते हो?
इस तरह मेरी बनारस यात्रा सम्पन्न हुई, अनमोल मुलाकातों और मीठी यादों के साथ।जीवन शेष रहा तो फिर आऊँगा। जय हो वाराणसी।
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