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हमेशा हनीमून

'हमेशा हनीमून' (Honeymoons are forever) उत्सव नहीं है, एक सोच है। साथ रहने का सुख, बतियाने का सुख, एक-दूसरे का हाथ थाम कर गुदगुदी महसूस करने का सुख और 'हमारा साथ बना हुआ है' की तसल्ली का सुख। लहर में कांपती नाव में कदम रखती पत्नी को हाथ से सहारा देकर बुलाने के उपक्रम में कहीं दूर एक मधुर स्वर कानों में गूँजता सा है, 'कहाँ ले चले हो, बता दो मुसाफिर, सितारों के आगे, ये कैसा जहां है...'

हनीमून की बात इसलिए निकली, कि ट्रेन में मिली एक नवयुवती ने हमसे पूछा, 'आप लोग नैनीताल क्यों जा रहे हैं, घूमने?'
'घूमने नहीं, हनीमून मनाने।' मैंने उत्तर दिया। उसके चेहरे पर विस्मय मिश्रित मुस्कान फैल गयी, आँखें तनिक बड़ी हो गयी, गाल और कान गुलाबी हो गए। फिर उसने मेरे पके बालों पर नज़र डाली, उसके बाद माधुरी जी के काले बालों पर नजर घुमायी, ऐसा लगा जैसे उसके मन में कोई सवाल आया लेकिन उसकी ज़ुबान नहीं खुली, वह चुप रह गयी और मुस्कुराते हुए ट्रेन के बाहर देखने लगी। हम दोनों ने भी एक-दूसरे को देखा और उस लड़की की तरफ देखने लगे। जब माहौल सहज हो गया तो मैंने बालिका को समझाया, 'जब हमारी शादी हुई थी, तब हनीमून का रिवाज नहीं था, पाबंदी थी इसलिए जो सुख घर में मिलना था, मिला। अब हमें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है तो हम जवानी की हसरत पूरी कर रहे हैं। उम्र हमारे आड़े नहीं आती क्योंकि हमारी चाहत अभी भी कायम है, वही पुरानी।'

उस लड़की के चेहरे पर अब भी मुस्कान थी लेकिन अब उस मुस्कुराहट में अदब भी शामिल था।

काठगोदाम रेल्वे-स्टेशन मैंने पहली बार देखा। उत्तराखंड में इसके आगे रेल की पटरियाँ नहीं हैं, यह उत्तर-पूर्व रेल्वे का अंतिम स्टेशन है। इंजिन और उससे लगे डिब्बे यहाँ आकर विश्राम करते हैं कुछ समय बाद और यहाँ से सवारी लेकर वापस चले जाते हैं। काठगोदाम गौला नदी के तीर में बसा हुआ है। अंग्रेजों के शासन काल में हल्द्वानी स्टेशन से काठगोदाम तक रेल-पांत बिछाई गयी ताकि नदी में बहकर आई लकड़ी को रेलमार्ग द्वारा देश के अन्य हिस्सों में भेजा जा सके। लकड़ी का संग्रह काठगोदाम में किया जाता था, संभवतः इसीलिए इस जगह का यह नाम इसकी उपयोगिता के अर्थ में जन-प्रचलित हो गया। इसके अलावा गौला नदी की रेत में चूने के पत्थर का हल्का सा मिश्रण है जो भवन निर्माण को अतिरिक्त मजबूती प्रदान करता है इसलिए यहाँ की रेत महंगी है और आसपास के बड़े शहरों में इसकी बड़ी मांग है।

हम सुबह चार बजे काठगोदाम पहुँच गये। यहाँ से हमें 21 किलोमीटर दूर भीमताल तक जाना था, जहां के एक होटल में हमारी बुकिंग थी। होटल में 'घुसने' का समय दोपहर 12 बजे था इसलिए हमने काठगोदाम रेल्वे-स्टेशन के रिटायरिंग रूम में ही अपना डेरा जमा लिया। साफ-सुथरी व्यवस्था देखकर मन प्रसन्न हो गया। पाँच घंटे में नहाना-धोना-पसरना सब हो गया। 10 बजे एक टैक्सी की और कुमायूं की सुरम्य वादियों में हम प्रविष्ट हो गए। घाटियों का चक्कर लगाते हुए हम भीमताल पहुँच गये। होटल में सामान रखकर हम उसी टैक्सी में बैठकर वहाँ के सात ताल देखने निकल पड़े।

तालाब बहुत देखे हैं, लेकिन सुना था "तालों में ताल, भोपाल ताल, बाकी सब तलैया' लेकिन इधर आए, यहाँ के ताल देखे तो समझ आया कि भोपाल के मुक़ाबले और भी कई बड़े-बड़े ताल हैं। यहाँ कुल सात ताल हैं, आसपास। सबकी छटा सुरम्य। हरे भरे वृक्षों से लदे पहाड़ और उन पहाड़ों की मुट्ठी में कैद चमचमाते पानी से लबालब ताल। ताल क्या, उन्हें झील कहिए।

सैलानियों की रंग-बिरंगी भीड़, भीड़ में नव-विवाहित मदमस्त जोड़े, मध्य-विवाहितों के साथ उनके उछल-कूद करते बच्चे और दीर्घ-विवाहितों के साथ उनकी सूनी-सूनी थकी नज़रें।

वहाँ के सात ताल में नौकायन के लिए टिकट ली। टिकट लेकर अंदर गए तो प्राण-रक्षक-वस्त्र मिले जिसे पहनकर हम निर्धारित नाव में चढ़ गए। नाव में बैठते ही नाविक ने पूछा, "कितना घुमाऊँ? छोटा या लंबा?"
"छोटा या लंबा? क्या मतलब ?'
"आपने जो टिकट ली है, वह छोटा चक्कर है। 200 रुपये और देंगे तो मैं आपको लम्बा चक्कर घुमाकर लाऊँगा।"
"हमको छोटा ही घुमा दो भैया।" माधुरी जी बोली।
"टिकट का पूरा पैसा तो ठेकेदार को चला जाएगा, मुझे कुछ नहीं मिलेगा। लंबा चक्कर लगाएंगे तो मुझे भी कुछ मिल जाएगा।"
"हमें लंबा चक्कर नहीं लगाना।''
"आप घूमने आए हैं, मेरा भी ख्याल करना चाहिए आपको।"
"जितने की टिकट है, उतना घुमा दो जी।"
"उतना तो घुमाऊंगा ही लेकिन बड़ा चक्कर लगवा लेते तो मेरा भी कल्याण हो जाता।" वह लगातार हमारे पीछे लगा रहा, हम उसे लगातार मना करते रहे। उसके निरंतर व्यवधान के कारण हमारा आनंद भंग हो रहा था। उसके ऊपर चिढ़ छूट रही थी लेकिन वह चुप नहीं हो रहा था। मैंने पूछा, "क्या नाम है तुम्हारा?"
"सुजीत।"
''तुम्हारी शादी हो गयी?"
"अभी नहीं।"
"क्यों नहीं किया?"
"जिससे करना था, उसकी कहीं और हो गयी।"
"क्यों?"
"मैं कमाता नहीं था इसलिए नहीं किया। उससे मैं खुद बोला कि तू शादी कर ले इसलिए उसने दूसरे से कर लिया।"
"वह तेरे से प्यार करती थी?"
"हाँ।"
"तू उससे प्यार करता था?"
"हाँ।"
"चुम्मी-उम्मी लिया उसकी?"
"नहीं।" उसने सिर हिलाकर मना किया।
"कैसा बाँगड़ू है रे तू?"
"वो लड़की एक शादी में मिली थी। वहीं पर हम दोनों की जान-पहचान हुई थी, बस....।"
"कब की बात है?"
"चार साल हो गया।"
"पुरानी बात हो गयी। अब तो कमाने लगा है तू, अब शादी करेगा?"
"हाँ, एक लड़की नज़र में है, उससे करूंगा।"
"क्या नाम है उसका?"
"खुशबू।" उसने मुसकुराते हुए बताया। इतने में हमारा 'छोटा चक्कर' पूरा हो गया। यद्यपि हमने 'लंबा चक्कर' नहीं लगाया फिर भी वह खुश था। हम दोनों को उसने सहारा देकर प्यार से नाव से उतारा और वापस चला गया।

भीमताल एक त्रिभुजाकार झील है, जिसकी लंबाई 1674 मीटर, चौड़ाई 447 मीटर और गहराई 15 से लेकर 20 मीटर तक है। वहाँ भी नौकायन का इंतजाम है। एक एक्वेरियम भी है, बीच तालाब में। नौकायन करने का मन नहीं था लेकिन एक्वेरियम पहुँचने के लिए नाव करना जरूरी हो गया। साठ-साठ रुपए की दो टिकट ली, नाव में बैठने का जुर्माना भरा और चल पड़े। तीन मिनट में एक्वेरियम पहुँच गए। ऐसी दुर्दशा थी वहाँ की, कि देखी न गयी। सरकारी काम में लापरवाही और अक्षमता का उससे अधिक खराब प्रदर्शन हमने कहीं नहीं देखा। वह दुखदायक प्रवास याद रखने लायक नहीं है लेकिन उसकी चर्चा यहाँ इसलिए की ताकि आप कभी वहाँ जाएँ तो आपका पैसा व समय बचा लें।

और भी ताल हैं वहाँ, नल-दमयंती ताल, नकुचिया ताल, हिडिंबा पर्वत आदि। सभी की प्राकृतिक छटा मनमोहक है। सभी जगह तैरती नाव हैं, गरम-गरम भोजन है, ललचाता हुआ नास्ता है, खुशबू बिखेरता भुट्टा है। मस्ती में झूमते नव-विवाहित, दौड़भाग करते बच्चों को संभालते हुए दंपत्ति और उनके आसपास से गुजरती हुई ठंडी मदमाती हवा।

उत्तराखंड में देवदार, चीड़, बांज (ओक) बांस और बुरांस के वृक्ष बड़ी संख्या में आज भी हैं पर सबके अलग-अलग क्षेत्र हैं। बांस के वृक्ष सब जगह हैं लेकिन देवदार, चीड़ और बुरांस के वृक्ष अपनी-अपनी पसंदीदा जगह पर पनपते हैं। देवदार अत्यंत उपयोगी और कीमती वृक्ष है, जबकि चीड़ का महत्व उससे कम है। कहते हैं कि देवदार और चीड़ की आपस में नहीं बनती, जहाँ चीड़ की बहुतायत है वहाँ देवदार कम है और जहां देवदार की बहुतायत है, वहाँ चीड़ कम होता है। इन सीधे तन कर खड़े हुए वृक्षों को देखने का सुख कुछ ऐसा है जो अन्यत्र दुर्लभ है। हर समय आंधियों का मुक़ाबला करते ये वृक्ष हमें जैसे संदेश देते हैं कि कैसे विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए भी अपने स्वाभिमान की रक्षा की जाती है? कैसे अपनी अकड़ बनाकर रखी जाती है? कैसे सीना तान कर अपने सम्मान की रक्षा की जा सकती है?

इन वृक्षों के बीच कहीं-कहीं बुरांस (Rhododendron) के घने-छायादार पेड़ भी हैं जो वहाँ की आबादी के लिए बहु-उपयोगी हैं। खास तौर से इसके फूल बेहद आकर्षक हैं जो मार्च और अप्रैल में जमकर फूलते हैं। बुरांश हिमालयी क्षेत्रों में 1500 से 3600 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाने वाला सदाबहार वृक्ष है। गर्मियों के दिनों में खिलने वाले बुरांस के सूर्ख फूलों से यहाँ के पहाड़ भर जाते हैं। यह उत्तराखंड राज्य का 'राज्य पुष्प' है जबकि नेपाल में यह 'राष्ट्रीय पुष्प' है। इसके फूलों से बना शर्बत अत्यंत स्वादिष्ट होता है और हृदय-रोगियों के लिए लाभकारी माना जाता है। बुरांस के फूलों की चटनी भी बनती है। सड़क के किनारे एक ग्रामीण ने दूकान सजाकर रखी थी, हमने वहाँ कार रोकी, सेब खरीदे और बुरांस का बोतल-बंद शर्बत भी।

प्रकृति की छटा किसी निर्जन प्रदेश में जैसी दिखाई पड़ती है, भीड़-भाड़ में नहीं। अब तक मैं जहां गया, इसी भीड़ के बीच घुस कर प्रकृति के सौन्दर्य को निहारने का निष्फल प्रयास किया। मुझे याद आता है गोवा, वहाँ का केलेंगुट-सी-बीच, जहां मैं सन 1973 में गया था। विशाल समुद्र का विस्तृत तट था। यहाँ से वहाँ तक सुनहली रेत का विस्तार। उस मनोरम जगह पर खड़ा होकर मैं जो देख पा रहा था, वह दृश्य आज भी भुलाता नहीं है। दाएँ से बाएँ, ऊपर से नीचे, हर कोण पर प्रकृति मुस्कुरा रही थी। समुद्र ठहाके मार रहा था और किनारे की विस्तीर्ण रेत पर अपनी जल-राशि बिखेर रहा था। सब तरफ समुद्र की लहराती ध्वनि और वापस जाती लहरों की मधुर सरसराहट, इसके अलावा और कोई ध्वनि नहीं। मुझे लगा, यहीं रह जाऊं। उस समय मैं अकेला था, मेरा कोई साथी नहीं था। सन 2015 में अपने जीवनसाथी के साथ फिर गया। हम लोग वहाँ किराये की स्कूटर में घूम रहे थे। बीच आने के पहले मैंने माधुरी जी को बताया, "अब हम ऐसी जगह में जा रहे हैं जिसकी खूबसूरती मेरे मन में पिछले आधे शतक से छायी हुई है।"
वहाँ हम पहुंचे, जो दिखा, वह ऐसा था कि मैं हतप्रभ रह गया। समुद्र था, रेत भी थी लेकिन 'केलेंगुट-सी-बीच' गायब था। पूरी रेत पर मीनाबाजार लगा हुआ था जहां सौन्दर्य प्रसाधन सजे हुए थे, स्थानीय कलाकृतियाँ बिक रही थी और खाने-पीने के स्टाल। सब तरफ शोर मचाते दूकानदार और खरीददार थे। उन दूकानों से बच कर पगडंडियों से होते हुए जब हम समुद्र के पास पहुंचे तो समुद्र शिथिल सा आगे-पीछे हो रहा था, किनारे की बची-खुची रेत झिझकती सी पसरी हुई थी। मैं उस दृश्य को अत्यंत निराश भाव से देख रहा था, तब ही मेरी पत्नी ने मुझे ऐसे देखा जैसे वह मुझसे पूछ रही हो, "यही है वह जगह जिसकी खूबसूरती तुम्हारे मन में पिछले आधे शतक से छायी हुई है?"

पर्यटन स्थलों के व्यापारीकरण और वहाँ बढ़ती भीड़ ने सब जगह ऐसी बदसूरती फैला दी है कि अब प्राकृतिक सौन्दर्य कहीं नहीं बचा, केवल प्रसिद्धि बच गयी है जिसे देखने के लिए लोग उमड़ पड़ते हैं। नैनीताल में भी हमने वैसा ही महसूस किया, जैसा हमें गोवा के हालिया दौरे में महसूस हुआ था। सैलानियों को देखकर ऐसा लगता था जैसे वे घर से 'मार्केटिंग' करने के लिए निकले हैं या फिर खाने-पीने; प्रकृति का सौन्दर्य देखने तो कतई नहीं।

प्रकृति का सौन्दर्य तो इस धरा पर बिखरा हुआ है, देखने के लिए दृष्टि चाहिए, समझने के लिए सोच और महसूस करने के लिए दिल। छुट्टी मनाने और होटल में आरामदायक समय बिताने वाले सैलानी इन खूबसूरत जगहों को केवल छू कर चले जाते है, शायद ही उसे महसूस कर पाते हों। इन जगहों पर घूमने का मतलब है वह जगह, जहां टैक्सी वाला ले जाए। वह वहीं ले जाता है जहाँ वह सबको ले जाता है। ये वह जगह होती हैं जो 'बाजार' के कब्जे में हैं। जहां जाओ, लगता है कि हम पर्यटन स्थल नहीं, बाजार देख रहे हैं, बाजार खरीद रहे हैं और बाजार में लुट रहे हैं।

हमें एक टैक्सी वाला अचानक काठगोदाम के रेलवे-स्टेशन में टकराया जो काठगोदाम वापस छोड़ने तक हमारे साथ रहा। आदमी भला था। वहाँ का रहने वाला था इसलिए वहाँ के रीति-रिवाज व इतिहास का जानकार था। उसके कारण हमें गाइड की कमी महसूस नहीं हुई। गाड़ी उसकी खुद की नहीं थी, ठेके पर चलाता था। समय का पाबंद था और बात-व्यवहार में बहुत अच्छा। रास्ते में माधुरी जी ने उसकी तारीफ की तो उसने कहा, "मैडम, हमारी टैक्सी में हर बार कोई नया 'ग्रुप' आ कर बैठता है। बहुत जल्दी समझ में आ जाता है कि 'सवारी' कैसी है? हम सवारी को देखकर बात और काम करते हैं। कई बार ऐसे विचित्र और 'सिर-चाट' लोग मिल जाते हैं कि दिन काटना मुश्किल हो जाता है। ऐसे लोगों को 'ड्रायवर' भी पसंद नहीं आता, वे चार दिन रुकेंगे तो उनके चार ड्रायवर बदल जाएंगे।"
"फिर?" माधुरी जी ने पूछा।
"फिर क्या मैडम? धंधा है हमारा। सब सहना पड़ता है।
"ज्यादा परेशानी कब होती है?"
"जब 'उल्टी करने वाली' सवारी बैठ जाती है।"
''उससे क्या फर्क पड़ता है? थोड़ा रुक गए, फिर आगे बढ़ गए।"
"कई बार 'डेस्टिनेशन' में पहुँचने में दोगुना समय लग जाता है और यदि किसी ने गाड़ी के अंदर ही उल्टी कर दी तो समझिए चौतरफा मुसीबत आ गयी।"
"फिर कैसा करते हो?''
"धोते हैं, साफ करते हैं, सवारी तो कार से उतर जाती है और मटक कर आगे बढ़ जाती है।"
"तुम अपनी गाड़ी में 'एवोमिन' रखा करो और शुरू में ही सबको खिला दिया करो, सस्ती दवा है।" मैंने सुझाव दिया।
"जी, अब ऐसा करूंगा, आपका 'आइडिया' अच्छा है। एक घटना याद आई, बताऊँ आपको?"
''हाँ, बताओ।"
"एक फैमिली के लिए टैक्सी बुक हुई, उनका मुक्तेश्वर का 'ट्रिप' था। काठगोदाम से मुक्तेश्वर ले जाना था जो  लगभग 70 किलोमीटर का लंबा पहाड़ी रास्ता है। उसमें एक मैडम थी जिसको हर दस मिनट में उल्टी हो रही थी। मुक्तेश्वर तक पहुँचने में वे हलकान हो गयी, मैं त्रस्त हो गया। मुक्तेश्वर घूमने के बाद लौटते समय मैंने  मैडम को अपने बगल वाली सीट पर बैठाया और उन्हें एक लकड़ी की टहनी देते हुए कहा कि रास्ते भर इसे कसकर पकड़े रहिएगा।"
"फिर क्या हुआ?"
"वो उस टहनी को कसकर पकड़ी रही और हम काठगोदाम वापस पहुँच गए।"
"रास्ते में उनको उल्टी हुई?"
"एक भी बार नहीं हुई। वो मैडम बहुत खुश हो गयी और मुझसे पूछी कि वो कौन सी लकड़ी है? तो मैंने कुछ नहीं बताया उनको।"
"कौन सी लकड़ी थी?" माधुरी जी ने पूछा।
"उनको सड़क के किनारे पड़ी हुई एक लकड़ी थमा दिया था।" टैक्सी ड्रायवर ने हँसते हुए बताया।

अगला दिन नैनीताल देखने के लिए तय था। हमारी टैक्सी भीमताल से चली, राह सुहानी थी। फिल्म 'मधुमती' का गाना याद आ रहा था, "सुहाना सफर और ये मौसम हसीं, हमें डर है हम खो न जाएँ कहीं...", मेरा मन हो रहा था कि ज़ोर से आवाज लगाऊँ, 'हो हो हो SSSS....' लेकिन इस डर से नहीं लगाया कि 'कोई' वैजयंतीमाला मेरी आवाज सुन कर अगर वहाँ आ गयी तो मेरी वाली वैजयंतीमाला गुस्सा जाएगी।

एक मोड़ पर हमारी कार रुकी। हम सब उतरे। हमारे ड्रायवर-कम-गाइड ने बताया, "यह वह जगह है जहां सभी किस्म के वृक्ष हैं।'' उसने सभी वृक्षों के पास ले जाकर हमारा उनसे परिचय कराया, उनकी विशेषताओं के बारे में बताया।

लंबे सफर के बाद हम नैनीताल पहुँच गये, वही नैनीताल जिसे देखने की हसरत मुझे बचपन से थी। सबसे पहले हम वहाँ 'हिमालयन बॉटनिकल गार्डन' देखने गये। जैसे ही वहाँ घुसे, हल्की सी बारिश शुरू गयी, बादल आसमान से उतरकर हमारे इर्द-गिर्द मंडराने लगे। मौसम में ठंडक घुल गयी और मादकता भी। झिरझिराते पानी में हम नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे उन फूलों की बहार देखते रहे जो न केवल खूबसूरत थे वरन औषधीय गुणों से परिपूर्ण थे। ऐसा खूबसूरत नज़ारा था जो आँखों में समेटे न समटे। अद्भुत और अवर्णनीय।
हिमालय वानस्पतिक उद्यान सन 2005 में विकसित किया गया। यह शानदार बाग अपनी प्राकृतिक सुंदरता के संदर्भ में उत्कृष्ट है। यहाँ कुछ ऐसे पौधे भी हैं, जो मूल हिमालय क्षेत्र की दुर्लभ प्रजाति के हैं। यह आर्किड, फर्न, कैक्टस के पौधे के अतिरिक्त अनेक किस्म के पेड़ और पक्षियों के साथ-साथ जलीय जीव का समृद्ध संग्रहालय है। यहाँ एक तितली पार्क भी है जो सैलानियों को आकर्षित करता है। इस बाग को आपने घूम लिया, समझ लीजिए, आपने निहायत खूबसूरत देख ली। 

एक छोटा सा बच्चा अपने माता-पिता से दस क़दम आगे चल रहा था तितली पार्क में। मैंने उसे अपनी गोद में उठाने का इशारा किया। वह मेरी ओर सहमी-सहमी देख कर बोला, "मम्मी।"
"मम्मी आ रही है।" मैंने उससे कहा।
कुछ क्षणों में वह मेरी गोद में था। उसने मेरे दोनों गाल छुए और ठहाका मार हंसने के बाद प्यार से बोला, "दादा दादा।"
वह मेरी गोद में खेलता रहा। प्लास्टिक सर्जरी के कारण मेरा एक गाल जरा बढ़ा हुआ है, वह उसे छूकर आनंदित होता रहा। तीन मिनट में उसने मुझे कोई तीस बार 'दादा दादा' कहा होगा। 

इतनी देर में विदा का समय आ गया। उसकी माँ ने उसे अपनी गोद में बुलाया, वह चला गया और मेरी ओर उंगली दिखाकर बोला, "मम्मी.... दादा दादा...." फिर मेरी ओर देख कर मुस्कुराते हुए बोला,"टाटा टाटा।"
उसे छोड़कर मैं आगे बढ़ा। वह अपनी मम्मी की गोद में मचल मचल कर रो रहा था, "दादा, दादा।"


बाग में विचरते समय बारिश होती रही, हम दोनों भीगते रहे, भीगने से बचते भी रहे। उस शानदार दृश्य को महसूस करने के बाद हम पहाड़ी के नीचे पहुंचे जहां वह झील थी जिसे नैनीताल कहते हैं। ताल के एक ओर बसाहट है जिसे 'माल' कहते हैं, दूसरी ओर नैना देवी का मंदिर है और ताल का शेष भाग पहाड़ियों से घिरा हुआ है। शहरी बसाहट हो गयी है इस वजह से इस ताल में वह आभा नहीं है जो भीमताल के तालों की है। नौकायन जारी है, नवकुबेरों के 'हेवी-वेट' परिवार जल-यात्रा कर रहे हैं। तालाब के बाहर 'फोटो-सेशन' चल रहे हैं, युवा बालाएँ अनेक प्रकार के मुंह बनाकर 'सेल्फी' ले रही हैं , बच्चे इधर से उधर दौड़ रहे हैं, हम उन्हें देख रहे थे। 
नजदीक ही मंदिर में हमने शीश नवाए, प्रसाद चढ़ाया और माल घूमने निकल पड़े।

वहाँ के माल में दूकानें सजी हुई हैं, दूकानों में भीड़ है लेकिन सबसे ज्यादा 'एम्बेसी' में है जिसे मेरे मित्र श्री विक्रम स्याल संचालित करते हैं। लगभग सौ ग्राहकों के एकसाथ बैठने लायक उस रेस्टोरेन्ट में एक भी सीट खाली नहीं थी। मैंने काउंटर में बैठे व्यक्ति से पूछा, "मिस्टर विक्रम स्याल कहाँ हैं?"
"यहीं कहीं ग्राहकों के बीच होंगे।" उसने बताया।
मैंने इधर-उधर नज़र घुमाई तो वे बेयरों के साथ काम में लगे हुए थे, हर टेबल के पास जाकर ग्राहकों से पूछताछ कर रहे थे। हम दोनों एक किनारे खड़े होकर चुपचाप उनकी व्यस्तता देख रहे थे। कुछ देर में वे खुद एक टेबल पर पहुंचे और ग्राहक के खाने का 'आर्डर' लेने लगे। 'लंच' का समय था, हर काम पूरी गति से चल रहा था। अचानक विक्रम ने मुझे देखा और हमारी ओर लपके, "अरे, द्वारिका भाई, आप ? कब आए? कब से खड़े हैं यहाँ? भाभी जी प्रणाम।" विक्रम ने खुशी से झूमते हुए कहा।
हम दोनों गर्मजोशी से गले मिले। मैंने कहा, "एक बार और।" दोबारा गले मिले। मैंने कहा, "एक बार और।" हम तिबारा गले मिले। विक्रम ने पूछा, "मैं समझा नहीं, यह गले मिलना तीन बार क्यों?"
मैंने बताया, "पहली बार तुम मेरे गले मिले, दूसरी बार तुम अपने अभिन्न मित्र नन्दन चतुर्वेदी के लिए मिले और तीसरी बार वाला बिलासपुर के तुम्हारे सभी मित्रों के लिए।"
"वाह, मज़ा आ गया। आज बिलासपुर याद आ गया, वहाँ बिताया शानदार समय याद आ गया।'' विक्रम ने कहा।

शाम हो गयी, अंधकार घिरने लगा, हम अपने होटल में वापस आ गये। हम दसेरी आम खाकर सो गये। सुबह जल्दी उठे ताकि योगाभ्यास और प्राणायाम यथासमय सम्पन्न हो सके। माधुरी जी खिन्न थी क्योंकि पिछली दो रात से वे ठीक से सो नहीं पा रही थी। उनकी परेशानी का कारण मैं नहीं था वरन होटल के रूम में पलंग पर बिछा वह गद्दा थ जो बहुत मोटा और गुलगुला था, तकिया का भी वही हाल था।
मैंने देखा है, उम्र बढ़ने के साथ खाने-पीने-सोने के मापदंड बदल जाते हैं। जैसा हम घर में रहते हैं, उसमें यदि कोई बदलाव होता है तो असुविधा महसूस होने लगती है। सवाल यह है कि घर से बाहर निकलने के बाद अपना घर कहाँ मिलेगा? जो और जैसा मिलता है, खाओ-पियो-सोओ। अड़चन तो सबको होती होगी लेकिन घुमक्कड़ लोग इन छोटी-मोटी असुविधाओं पर ध्यान नहीं देते, जो और जैसा मिलता है, काम चलाते हैं। इन यात्राओं में मेरा यह भी अनुभव रहा है कि भोजन हमारे मन का मिले, न मिले, सुबह का नास्ता सभी जगह बहुत अच्छा मिलता है इसलिए हमने तय किया कि सुबह खींच कर खा लिया जाए ताकि दोपहर को भूख न लगे और रात को फल का 'डिनर' कर लो। अपना पैसा बचता है और स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। हर रात को आठ बजे कमरे में 'डायनिंग' से फोन आता था, "सर, डिनर में क्या लेंगे?"
मैं कहता था, "कुछ नहीं।" तो उधर से फोन पर उदासी वाली सांस की ध्वनि सुनाई पड़ती थी।

उस दोपहर को विक्रम स्याल ने भोजन के लिए पूछा था तो मैंने कहा, ''सुबह 'हेवी ब्रेकफ़स्ट' ले लिया था, भोजन का मन नहीं है।" तो उसने एक खट्टा-मीठा पेय मंगवाया हमारे लिए। यदि विक्रम ने भोजन के लिए एक बार और आग्रह किया होता तो कर लेते लेकिन 'अधिक आग्रह' हुआ नहीं, इस कारण हम 'एम्बेसी' का स्वाद चखने से चूक गए अन्यथा आपको वहाँ के भोजन का स्वाद भी बताते। फिलहाल, आप जब नैनीताल जाएँ तो 'एम्बेसी' में ज़रूर जाएँ क्योंकि वहाँ 'वेज' और 'नान-वेज' दोनों किस्म का खाना अच्छा 'दिख' रहा था और वहाँ का मालिक तो बहुत ही अच्छा है।

तीसरा दिन मुक्तेश्वर जाने के लिए नियत था। लंबा सफर था। सब तरफ खूबसूरती बिखरी पड़ी थी। मुक्तेश्वर पहुँचने पर एक गाइड मिला जो हमें पहाड़ी के ऊपर निर्मित मंदिर तक ले जाने के लिए खड़ा था। मुक्तेश्वर पहाड़ की ऊँची चोटी पर है जहां 400 मीटर की पहाड़ी पगडंडी से होकर जाना होता है। हांफते-थके-मांदे हम ऊपर चढ़ गये। मंदिर के ठीक पहले पत्थर के एक टीले पर निर्मला जी की चाय की दूकान सजी हुई थी। उसने पूछा, "चाय पियेंगे सर?"
"जरूर पीता लेकिन नीचे नीबू-सोडा पीकर आ रहा हूँ। मुझे मालूम होता कि ऊपर चाय मिलेगी तो फिर चाय ही पीता।" मैंने उत्तर दिया।
"कोई बात नहीं सर।"
"वाह, तुम इतनी ऊंचाई पर दूकानदारी करती हो? कहाँ रहती हो?"
"नीचे गांव में।" उसने खुश होकर बताया।
सामने कुर्सियों पर एक खूबसूरत जोड़ा मैगी खा रहा था। मैंने उनकी ओर मुस्कान फेंकी। जवाब में मुस्कान का जोड़ा आया। मैंने पूछा, "कहाँ से आए हो?"
"दिल्ली से।"
"नयी-नयी शादी हुई है?"
"अभी शादी नहीं हुई है।" झिझकते हुए उत्तर आया। "हम लोग मंगेतर हैं।"
"फिर तो मजे हैं तुम दोनों के।" मैंने कहा।
दोनों जोर से हंसे। मेरे मन में आया कि आगे कुछ और पूछूं लेकिन मैं उनका भी फोटो खींच कर आगे बढ़ गया।

मैं सोच रहा था कि हमारे देखते ही देखते जमाना कितना आगे बढ़ गया! मेरी शादी हुई थी तो विवाह के पूरे चार दिन बाद 'उनका' मुखड़ा देखने को मिला था। इन दोनों को देखो, अभी शादी नहीं हुई है और हनीमून मना रहे हैं ! आजकल का माहौल देखकर कई बार मुझे लगता है कि मैं गलत समय इस दुनिया में आ गया, अब आते तो इस दौर में मज़े ही मज़े हैं। Feeling jealous...(जलकुकड़ाई)॰

शिखर पर देवता ग्वाली देव विराजमान हैं। दर्शनार्थी कतारबद्ध होकर दर्शन कर रहे हैं, बीच-बीच में कुछ परिवार पूजन के लिए बैठ जाते हैं तो दर्शन अवरुद्ध हो जाता है। कुछ देर में पुनः आरंभ हो जाता है। मंदिर की बनावट प्राचीन है इसलिए झुक कर और सामने देखकर चल रहा हूँ ताकि सिर न टकराए। पूरे मंदिर में सब तरफ पीतल के घंटे और घंटियाँ लटकी हुई हैं। ये घंटियाँ मनौती करने की प्रतीक हैं। हर श्रद्धालु आते-जाते घंट-ध्वनि विस्तारण कर रहा है। घंटी की ध्वनि जो मंदिर की पवित्रता और आस्था का संकेत है, असहनीय हो रही है। पुजारी सस्वर पूजन-पाठ कर रहे हैं, उच्चारण शुद्ध और मधुर है। हम भी पंक्तिबद्ध थे, हमें भी देव-दर्शन का सुअवसर मिला। मंदिर की सीढ़ियों से उतरते समय एक तरफ हरियाली थी, हम रुक कर उसे गौर से देखने लगे। सीढ़ी पर बैठी भिखारिन ने बताया, "ये 'बिच्छू बूटी' का पौधा है, इसकी सब्जी बनती है।"

लौटते समय टैक्सी में हमने अपने ड्रायवर से पूछा, "बिच्छू बूटी' का पौधा बहुत काँटेदार दिख रहा है, कोई बता रहा था कि इसकी सब्जी बनती है?"
वह हँसने लगा और उसने बताया, ''बिच्छू बूटी की महिमा अपरंपार है। यह कुमायूं के लोगों के लिए वरदान है क्योंकि इसमें औषधीय गुण हैं। इसका अनेक रोगों को ठीक करने में उपयोग होता है। मेरे दादा जी इसके बारे में बहुत सी बातें बताते थे लेकिन मैं भूल गया हूँ।"
"क्या इसकी सब्जी बनती है?" माधुरी जी ने पूछा। 
"जी मैडम, यह काँटेदार पौधा है, इसे हाथ से छू नहीं सकते इसलिए इसकी पट्टियाँ चिमटी से पकड़कर तोड़ी जाती हैं। सबसे पहले इसकी पत्तियों को पानी में बहुत देर तक उबाला जाता है ताकि इसके कांटे खत्म हो जाएँ। उबालने के बाद इसका पानी निचोड़ लेते हैं, उसके बाद जैसी दूसरी सब्जियाँ बनती हैं, उसी ढंग से पकाकर इसे तैयार करते हैं। जब आप खाएँगे तब इसका स्वाद जानेंगे।"
"तो खिलाओ हमें।"
''इस बार तो मुश्किल है लेकिन फिर कभी इधर आइएगा तो आपको अपने घर ले चलूँगा।''
"इस बार क्या समस्या है?"
''बीवी मेरी, मुझसे नाराज चल रही है।"
"क्या हो गया?"
"घर की बात क्या बताऊँ आपको? चलिए, एक दूसरी बात बताता हूँ।"
"क्या?"
"मैं जब छोटा था, जब उधम मचाता था तो मेरे पिताजी बिच्छू बूटी को मेरे शरीर में 'टच' कर देते थे। इतनी खुजली होती थी कि दिनभर बदन खुजलाता रहता था। बिच्छू बूटी के डर से मेरी बदमाशियां कम हो गयी।'' पुरानी बात याद करके वह हँसने लगा। हमने भी उसका साथ दिया।  

उस मंदिर में प्रवेश के पूर्व मैं कर रहा था कि हमारे आराध्य योगी शिव का मंदिर होगा क्योंकि मुक्तेश्वर तो वही हैं लेकिन वहाँ ग्वालीदेव की प्रतिमा स्थापित थी। रोचक बात यह है कि मंदिर का नाम ग्वालीदेव मंदिर न होकर मुक्तेश्वर मंदिर है। कई वर्षों पूर्व पंडित मुक्तेश्वर जी ने उस मंदिर की स्थापना की थी इसलिए वह मंदिर और सम्पूर्ण क्षेत्र उनके नाम से प्रसिद्ध हुआ। 
जैसा कि सभी हिन्दू मंदिरों में एक अलिखित नियम है कि मंदिर में प्रवेश के पूर्व जूते-चप्पल बाहर उतारने होते है और पैर धोकर देवदर्शन के लिए जाते हैं, मैंने यहाँ भी उस नियम का पालन किया। ऐसी जगहों पर मेरी चप्पलें गुम हो चुकी हैं इसलिए अब मैं अपनी चप्पल की जोड़ी तोड़ कर अलग-अलग जगह पर रख देता हूँ। इसके फलस्वरूप चप्पल की जोड़ी न बन पाने के कारण चोरी बंद हो गयी। आप भी इस उपाय को अपनाकर अपनी पादुकाओं की सुरक्षा निश्चित कर सकते हैं। 
इसे पढ़ कर आप सोच रहे होंगे कि यात्रा विवरण में चप्पल का ज़िक्र क्यों आ गया? आप ठीक सोच रहे हैं। हुआ यह कि हम मंदिर परिसर में नंगे पैर अंदर गए और दर्शन करके बाहर आ गए। मुझे चप्पल मिल गयी, उसे पहन लिया और हम वहाँ से टैक्सी में बैठकर निकल पड़े लेकिन कुछ दूर पर मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे बाएँ पैर के तलवे और चप्पल के बीच कुछ चिपचिपा सा रहा है। कार में बैठे-बैठे मैंने चप्पल उतारकर श्वान-विधि से अपने तलवे को कार्पेट पर खूब रगड़ा लेकिन चिपचिपाहट खत्म नहीं हुई। शाम को जब होटल लौटा, बाथरूम में जाकर पैरों को मनोयोग से धोया लेकिन बात नहीं बनी। रात को उसी तरह सोता रहा। अगली सुबह हमें वापसी यात्रा करनी थी, नहाते समय अपने तलवे में साबुन लगाया, खूब रगड़ा-धोया पर उसने मेरा साथ न छोड़ा। दरअसल, वह चुइंग-गम थी जिसे किसी बच्चे ने मंदिर परिसर में थूक दिया था और वह मुझसे मजबूती के साथ लिपट गयी थी।
चुइंग-गम का ज्ञान सबसे पहले न्यूयार्क के व्यवसायी थामस एडम्स को सन1869 में हुआ। वह रबर का विकल्प तलाश रहा था। उसने सापोडिला-चीकू का गोंद अपने मुंह में रखा, उसे इसका स्वाद अच्छा लगा। सन 1871 में थामस एडम्स ने इसे पेटेण्ट करा लिया और इस प्राडक्ट का नाम 'एडम्स न्यूयार्क गम' रखा। 
चुइंग-गम मुंह के स्लाइवा को तेजी से बनाता है। शुगर के लो होने या बिल्कुल न होने की हालत में यह एसिड की तीब्रता को कम करता है, मुंह की दुर्गंध को दूर करता है और सिगरेट छुड़ाने में भी यह मददगार होता है।
इसे खाने से कुछ नुकसान भी हैं। चुइंग-गम खाने से माइग्रेन की बीमारी भी हो सकती है और यह कैंसर का भी कारक है। यह पेट में जाकर बड़ी मुश्किल से पचता है। सामान्य भोजन कुछ घण्टों में पच जाता है जबकि इसे पचने में दो से तीन दिन तक का समय लग सकता है अतः इसे निगलने से बचना चाहिए। यदि बालों में चिपक जाए तो बड़ी मुश्किल से निकलता है। चुइंग-गम खाकर उसके अवशेष को इधर-उधर थूकना पक्षियों के लिए प्राणघातक है क्योंकि यदि कोई चिड़िया इसे खा ले तो उसके दोनों जबड़े आपस में चिपक जाते हैं, इस कारण वह चिड़िया खाना नहीं खा पाती और भूख के मारे तड़प तड़प कर मर जाती है। 

किसी अबोध बालक का उगला हुआ चुइंग-गम मेरे तलवों में चिपक गया था, जिसे निकालने में मुझे वही कष्ट हुआ जो किसी सांसद या विधायक के पाँच साल के लिए चुन लिए जाने के बाद उसे उसके कार्यकाल में हटाने की कोशिश में होता है। 

'पैर में कुछ चिपका हुआ है' का एहसास लिए मैं माधुरी जी के साथ भीमताल से काठगोदाम के लिए वापस लौट पड़ा। पिछली रात भर घनघोर बारिश हुई थी, सुबह थम गयी थी लेकिन रास्ते में बादल फिर बरस पड़े। कोहरा भी छा गया। सभी गाडियाँ 'हेडलाइट' जलाकर चल रही थी ताकि कोई दुर्घटना न हो। कहीं-कहीं पहाड़ टूटे थे रात को लेकिन हमारे निकलते तक मलवा हटाया जा चुका था, एक-दो जगह काम जारी था। काठगोदाम के कुछ पहले मुझे पुराने बहुमंजली फ्लेट दिखे, वीरान पड़े थे, उनका पलस्तर उखड़ रहा था, घास उग रही थी और दीवारों पर काई जम रही थी। मैंने टैक्सी रुकवाई और उनके फोटोग्राफ लिए। उन्हें देखकर मैं सोच रहा था कि इन सैकड़ों मकानों में कोई नहीं रहता, ऐसा क्यों है? ड्रायवर ने बताया, ''अंकल, यहाँ एच॰एम॰टी॰ का कारख़ाना था, जो बंद हो गया, उसके कर्मचारी यहाँ रहते थे।''
वहाँ कोई नहीं नहीं था जो मुझे बता सके कि उन खंडहरों की क्या कहानी है? उदास भाव से मैं काठगोदाम स्टेशन पहुँच गया और विश्रामालय में डेरा जमा लिया क्योंकि ट्रेन निकलने में तीन घंटे की देर थी। मेरे फेसबुक मित्र दिनेश पांडे, जो नजदीक ही हल्द्वानी में रहते हैं, वे हमसे मिलने स्टेशन आ पहुंचे। उनसे कुमायूं के इतिहास और संस्कृति पर लंबी बात हुई और एच॰एम॰टी॰ के कारखाने के दुर्दशा पर भी।

आज इस बात पर कौन विश्वास करेगा कि लगभग पचास वर्ष पूर्व एच॰एम॰टी॰ की घड़ियाँ पहनना सौभाग्य की बात थी और उनको हासिल करने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते थे। एच॰एम॰टी॰ घड़ियों की खूबसूरती और समय की सटीकता की ख्याति पूरे भारत में फैली हुई थी। हर चौबीस घंटे के बाद चाभी भरकर चलने वाली एच॰एम॰टी॰ की 'रिस्ट-वाच' आभिजात्य वर्ग की पहली पसंद थी। एच॰एम॰टी॰ एक अर्ध-सरकारी उपक्रम था जो स्वतंत्र भारत के लाभदायक सार्वजनिक उद्योगों में से एक था। मेरे मित्र दिनेश पांडे इसी उपक्रम में कार्यरत थे, वे उन दिनों की याद में खो गए और दुखी होकर आज की दुखद स्थिति के बारे में बताने लगे। 

कुमायूं में हल्द्वानी के आस-पास का इलाका कभी एकदम वीरान था। वहाँ कोई नहीं रहता था यद्यपि अंग्रेजों ने वहाँ बसाहट की कोशिश की थी लेकिन जमीनी स्तर पर मानवीय सुविधाओं के न होने के कारण वहाँ कोई न टिक सका। भारत के विभाजन के बाद जो लोग पाकिस्तान छोड़ कर भारत आए उन्हें देश के विभिन्न हिस्सों में बसाया गया जिन्हें 'कैम्प' कहा जाता था। उनमें से एक हल्द्वानी भी था। पाकिस्तान के समृद्ध हिन्दू परिवार विभाजन की विभीषिका से त्रस्त होकर अपनी जान बचाकर इन कैम्पों में प्रवासी के रूप में अपना नया किन्तु अभावग्रस्त जीवन शुरू किया। जो जगह रहने लायक नहीं थी, अनेक तकलीफ़ों के बावजूद भी वे वहाँ रहे और अपने परिश्रम से उस जगह को गुलजार कर दिया।

जब स्वतंत्र भारत ने अपनी विकास यात्रा शुरू की तो उसकी आहट इस क्षेत्र में भी पहुंची, सड़कें बनी और यह इलाका पर्यटन स्थल के रूप में लोकप्रिय होता गया। तात्कालीन  मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी (1984-85) ने इस क्षेत्र के विकास के लिए जो कार्य किये, उसे स्थानीय निवासी आज भी याद करते हैं। उन्हीं की पहल पर HMT घड़ी बनाने का एक बड़ा प्रकल्प कुमायूं क्षेत्र को मिला। यह कारख़ाना सन 1985 में रानीबाग में स्थापित किया गया जो इस क्षेत्र के विकास, रोजगार और व्यापार के लिए वरदान सिद्ध हुआ।

जापान की 'सिटीजन वाच कंपनी' के सहयोग से बनी HMT की घड़ियाँ एक जमाने में भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय थी, लाइन लगाकर बिकती थी। इसके लिए मिनिस्टर और सांसद की सिफ़ारिश भी लगवाई जाती थी। HMT ने रिस्ट-वाच के कई माडल बाजार में उतारे जिनमें 'जनता' को सबसे अधिक प्यार मिला, उसके बाद 'पायलट', 'झलक', 'सोना', 'ब्रेली' के माडल भी खूब चले। देखते ही देखते HMT ने सोलह माडल निकाले जिसमें 'फ्लोरल', 'सोलर', 'टावर' और 'इन्टरनेशनल' घड़ियाँ भी थी। 

जब घड़ी के बाजार में विदेशी कंपनियों को प्रवेश की अनुमति मिली तो उनके सामने HMT के उत्पाद अपनी मांग बनाए रखने में असफल हो गए। लगातार हो रहे घाटे के कारण भारत सरकार ने सन 2014 में HMT के सभी प्रकल्पों को क्रमबद्ध तरीके से बंद करने का निर्णय लिया, जिनमें काठगोदाम के समीप स्थित रानीबाग का प्रकल्प भी है। यह प्रकल्प भी अघोषित रूप से बंद है। अधिकारियों और कर्मचारियों को स्वैच्छिक अवकाश लेकर काम छोड़ने के लिए विवश कर दिया गया। जो युवा थे, वे स्वैच्छिक अवकाश लेकर अन्य नौकरियों में चले गए या व्यापार करने लगे। जो वरिष्ठ थे, वे बेचारे कहाँ जाते? उनको कौन काम देता? आज भी अपने रिहायशी मकानों में रहते हैं, चार-छह महीने में कभी तनख्वाह आ जाती है तो मुस्कुराने लगते हैं अन्यथा इकट्ठा होकर 'ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद' के नारे लगाते हैं।

इन फ्लेट्स के अतिरिक्त कई बड़े बंगले भी हैं जो अधिकारियों के निवास हेतु बनाए गए थे। प्लांट के शेड हैं, केंटीन है, गेरेज हैं, अस्पताल है और आफिस केम्पस है, सब वीरानी झेल रहे हैं। वहाँ की हालत को देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। इस बात का दुख है कि ये खाली क्यों हुए और खाली हुए तो अब तक खाली क्यों हैं? अगर घड़ियाँ बनना बंद हो गयी या प्रकल्प बंद करने का निर्णय सरकार ने ले लिया है तो इन फ्लेट्स और बंगलों को सरकार कम कीमत में नागरिकों को बेच क्यों नहीं देती? खड़े-खड़े ये बर्बाद हो रहे हैं, जैसे जैसे समय बीतता जाएगा, इनका अधिक अवमूल्यन हो जाएगा। इन्हें बेचकर सरकार अपने घाटे को कम कर सकती है और इनके हस्तांतरण से अनेक परिवारों को उनकी अपनी छत मिल जाएगी।  

श्री दिनेश पांडे ने मुझे नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक "पंडितों का पंडित" भेंट की जो कुमाऊं के महान खोजी और ज्ञानी स्व. चैनसिंह रावत की जीवन गाथा है जिसके लेखक हैं, शेखर पाठक। हम लोग अब वापसी यात्रा के लिए शताब्दी एक्सप्रेस से निकल चुके हैं। माधुरी जी पुस्तक पढ़ रही हैं और बता रही हैं, "पुस्तक जोरदार और शानदार है।"

हमारा यह हनीमून भी पुस्तक की तरह जोरदार और शानदार रहा, हाँ, लौटते समय HMT के इतिहास की मधुर यादें जहां सुख दे गयी और वहाँ उसका वर्तमान दुख दे गया। क्या अच्छा हो कि अगली बार हम उधर से गुजरें तो वहाँ की बालकनी के बाहर हमें रंग-बिरंगे कपड़े सूखते हुए दिखाई पड़ें। 

(समाप्त)

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