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श्री लंका में डंका

 श्रीलंका में डंका :

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विदेश घूमने की इच्छा बहुत दिनों से थी लेकिन कोई जुगाड़ नहीं बैठ रहा था. अचानक रायपुर के सृजन गाथा डाट काम के सौजन्य से श्री लंका जाने का कार्यक्रम प्रस्तावित हुआ तो हम पति-पत्नी साहित्यकारों के समूह के बीच चेन्नई हवाई अड्डा में पहुँच गए जहाँ से श्री लंका की हवाई यात्रा आरम्भ होने वाली थी. वह तारीख १८ जनवरी २०१४ थी, जिस दिन हमारा हवाईजहाज श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो की यात्रा पर निकल पड़ा. 

हवाई यात्रा डेढ़-दो घंटे की थी लेकिन मेरे कान ऐसे भन्नाए, सिर में इस कदर तेज दर्द हुआ कि लगा जैसे मेरा सिर टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरने वाला है. मुझे उस पीड़ा की आज तक याद है. लग रहा था कि हवाईजहाज का दरवाजा खोल कर रास्ते में ही उतर जाऊं लेकिन कहाँ उतरता, हमारा जहाज हिन्द महासागर के ऊपर उड़ रहा था और दरवाजा पूरी तरह से लाक था, मैं भला कैसे उतरता? किसी प्रकार राम-राम करते हमारा जहाज कोलम्बो के हवाईअड्डा के रन वे पर उतरा, तब मेरी जान में जान आई, ओह, कितनी कष्टदायक यात्रा थी वह! 

६५६१० वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैले इस देश की आबादी २ करोड़ से कुछ अधिक है. इसका अधिकारिक नाम श्रीलंका समाजवादी जनतांत्रिक गणराज्य है जो दक्षिण एशिया में हिन्द महासागर के उत्तरी भाग में स्थित एक-द्वीपीय देश है. १९७२ तक इस देश का नाम सीलोन था जिसे बदल कर लंका किया गया और १९७८ में इसके आगे सम्मानसूचक शब्द 'श्री' जोड़कर श्रीलंका कर दिया गया. 

सुबह की श्री लंकाई ठंडक ने हमारा स्वागत किया. हम सब साहित्यकार थे, उस समूह में, बस में बैठे और चल पड़े श्री लंका की हरियाली को देखते हुए अपने गंतव्य की ओर.

आरामदेह एसी बस में हम लोग जम कर बैठ गए. कोलम्बो शहर ख़त्म होने के बाद जब खुले मैदानों की तरफ बढ़े तो वहां की हरियाली देखने लायक थी. सड़क के दोनों ओर छोटी-छोटी पहाड़ियां थी जिनमें चाय के पौधे लगे हुए थे. कई किलोमीटर तक हमारी बस दौड़ती रही और हमारे साथ में चाय के बगान भी दौड़ते रहे. जिस प्रकार भारत के आँध्रप्रदेश से होकर गुजरने वाली ट्रेन यात्रा में दोनों तरफ धान के खेत दिखाई पड़ते हैं, या पंजाब और हरयाणा की सड़क यात्रा में न ख़त्म होने वाली फसलों की हरियाली दिखाई पड़ती है, वही मनोरम दृश्य हमें कोलम्बो-केंडी की राह में देखने को मिला. हमारी बस के कंडक्टर-कम-गाइड ने बताया कि चाय उत्पादन में श्रीलंका का विश्व में चौथा स्थान है. पहला चीन का, दूसरा भारत का और तीसरा केन्या का है. चाय के उत्पादन के लिए आवश्यक जलवायु और अनुकूल मिट्टी के कारण यहाँ देश की पांच प्रतिशत आबादी खेती से लेकर प्रसंस्करण तक में लगी हुई है. 

बगीचे में चाय के पौधे पहाड़ी की ढलान की तरफ लगाए जाते हैं. सामान्यतया दो पौधों के बीच एक मीटर की दूरी रखी जाती है. चाय की पत्ती का स्वाद इस बात पर निर्भर होता है कि वह कितनी ऊंचाई पर उगाई गयी है अर्थात जिस बगीचे की ऊंचाई जितनी अधिक होगी, वहां की चाय का स्वाद उतना ही अच्छा होगा. इसी स्वाद के आधार पर चाय का मूल्य निर्धारित होता है. 

लगभग चार घंटों की लम्बी यात्रा के बाद हम अपने होटल में पहुंचे जो बीच जंगल में अत्यंत खूबसूरती से बनाया गया था. मजेदार बात यह थी कि उस होटल में लिफ्ट नहीं थी क्योंकि ग्राउंड फ्लोर के नीचे अंडरग्राउंड फ्लोर था जिसमें उतरने-चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थी और दोनों फ्लोर पर सुन्दर तथा आरामदेह कमरे बने हुए थे.  

भोजन के पश्चात् हम लोग महात्मा बुद्ध के उस मंदिर में गए जहाँ उनके पवित्र दांत के अवशेष सुरक्षित रखे हुए हैं. मंदिर की भव्यता देखने योग्य थी. वहां का वातावरण बौद्ध धर्म की शांति का जीता-जागता उदाहरण था. वहां से कुछ दूर पर एक ऐसे कारखाने को देखने का अवसर मिला जहाँ पर चाय की प्रसंस्करण प्रक्रिया सम्पादित होती है.  इस प्रक्रिया की शुरुआत एक विशालकाय स्वचलित चलनी से होती है जिसमें खेतों से लाई गयी पत्तियों को डाल दिया जाता है. इस प्रक्रिया से छोटी और बड़ी पत्तियाँ अलग हो जाती हैं. इन पत्तियों को अलग-अलग प्रोसेस किया जाता है क्योंकि छोटी पत्तियों वाली चाय बड़ी पत्तियों वाली चाय से कई गुना अधिक मंहगी होती हैं. इसके बाद इन पत्तियों को बेहद गर्म तापमान में सुखाया जाता है और उसके पश्चात् उसे मोटा या बारीक पीसा जाता है. तैयार चायपत्ती को पैकिंग विभाग में वायुरहित पैकेट में पैक करके स्टोर में भेजा जाता है. कारखाने में काम करने वाले मजदूरों को उस गर्म तापमान में लगातार खड़े होकर काम करते हुए देखना मेरे लिए आश्चर्यजनक था. मेरे लिए वहां एक मिनट के लिए खड़ा होना मुश्किल हो गया था, वे लोग कैसे सहते होंगे पूरे दिन भर उस तापमान को? 

रात को भोजन काल में भोजन के साथ संगीत की भी व्यवस्था थी. एक गायक अपने हाथों में एक वाद्ययंत्र लिए हुए हिंदी गाने गा रहा था तो दूसरा अपनी कमर में बांधे ड्रम को खूबसूरती से बजा रहा था. गानों का चयन इस प्रकार से किया गया था कि थिरकने का दिल हो रहा था. मैं भी पांच-सात नाचने वालों के साथ शामिल हो गया. खूब मज़ा आया. निर्मल आनंद. नाचने के पश्चात् जब हम लोग भोजन की टेबल पर आए, हमने प्लेट हाथ में ली, चम्मच से खाना उठाने लगा, तब ही माधुरी जी (मेरी पत्नी) ने मुझसे कहा, 'तुम कैसा नाचते हो, तुमको पता है?'

'मुझे क्या पता? मैं नाचते समय खुद को नहीं देख सकता न?'

'भोंडे लगते हो एकदम. तुमको नाचना तो आता नहीं, कमर मटकाते हो. सब लोग तुम्हें देखकर तुम्हारा मज़ा ले रहे थे.'

'ऐसा क्या? चलो अच्छा हुआ कि सबने मज़ा लिया, मुझे भी मज़ा आया.'

'लेकिन मुझे अच्छा नहीं लग रहा था.'

'क्यों?'

'क्यों ? इसलिए कि लोग तुम्हें देखकर हंस रहे थे, तुम तो बस नाचने में मशगूल थे.'

'तो क्या हुआ? मैं वहां बैठे लोगों के लिए नहीं नाच रहा था, अपनी ख़ुशी से अपने लिए नाच रहा था. मैं जानता हूँ कि मुझे नाचना नहीं आता फिर भी थिरकना आता है. जैसा भी आता है, मैंने किया. अपन यहाँ अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन करने के लिए नहीं आये हैं, मज़ा लूटने आए हैं.' मैंने उत्तर दिया. 

माधुरी जी मेरे उत्तर से संतुष्ट नहीं दिखी, अप्रसन्नता का भाव उनके चेहरे पर दिखा जिसे मैंने इग्नोर कर दिया और चुपचाप भोजन करने में व्यस्त हो गया. 

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अगली सुबह हम फिर अगली यात्रा के लिए तैयार होकर बस में बैठ गए. आज हमें राम-जानकी के मंदिर जाना था जो प्राचीन काल में अशोक वाटिका के नाम से प्रसिद्ध था. नुवरा एलिया में स्थित बड़े-बड़े वृक्षों से आच्छादित अत्यंत खूबसूरत स्थल. पौराणिक कथाओं के अनुसार जब अयोध्या के राजा राम चौदह वर्षों का बनवास काट रहे थे, उसी समय लंका के राजा रावण के द्वारा राजा राम की पत्नी सीता का साधु वेश धारण कर छलपूर्वक अपहरण करके अपने राज्य लंका में स्थित अशोक वाटिका में कैद करके रखा था. जिस वट वृक्ष के नीचे सीता जी के बैठने का उल्लेख पुराने ग्रंथों में है, वह वट वृक्ष तो अब वहां नहीं है लेकिन लोक मान्यता है कि सीता को इसी स्थान पर रखा गया था. वहां पर स्थित मंदिर में राम-सीता-लक्ष्मण की अत्यंत आकर्षक मूर्तियाँ स्थापित हैं. 


हमारी बस अगले गंतव्य की ओर रवाना हो गयी. बस का कंडक्टर हमारा गाइड भी था जो हमें गुजरती बस के आसपास के दृश्यों व स्थानों के बारे में जानकारियाँ दे रहा था. उसने बताया कि श्री लंका बहुजातीय देश है जिसमें ७४% सिंहली, १८% तमिल, ७% ईसाई तथा १% अन्य जातियों के लोग निवास करते हैं. 

ज्ञात इतिहास के अनुसार, सोलहवीं सदी में योरोपीय देशों ने श्री लंका में अपना व्यापार शुरू किया और चाय, रबड़, काफी, चीनी, दालचीनी सहित अन्य मसालों का निर्यातक देश बन गया. इसी समय पुर्तगालियों ने देश पर कब्ज़ा कर लिया और उनका शासन रहा. उसी सदी में डच शासकों ने आक्रमण करके पुर्तगालियों को हटाया। उसी समय अंग्रेजों की नज़र श्रीलंका पर पड़ी और अठारहवीं सदी में उन्होंने अपना सम्पूर्ण प्रभुत्व जमा लिया। लगभग डेढ़ सदी तक राज्य करने के पश्चात ४ फरवरी १९४८ को श्रीलंका अंग्रेजों से स्वतंत्र हुआ और एक जनतांत्रिक राष्ट्र बना. 

देश की आज़ादी के बाद यहाँ एक दर्दनाक हादसा हुआ, बहुसंख्यक सिंहली और अल्पसंख्यक तमिलों के बीच २३ जुलाई १९८३ को आपसी संघर्ष शुरू हुआ जो मई २००९ तक चला. यह संघर्ष आंतरिक युद्ध में बदल गया और श्रीलंका की सरकार और अलगाववादी लिट्टे के बीच लड़ा गया जिसमें ३० महीनों के सैन्य अभियान के बाद अंतत लिट्टे की सेना परास्त हुई. २६ वर्षों तक चले इस विवाद में सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग ८०,००० लोग कालकलवित हुए तथा व्यापक धन-संपत्ति की हानि हुई.   

वह दोपहर हमने एक बहुत बड़े बाग़ में गुजारी. वह इतना बड़ा कि चलते चलते थक जाए कोई पर पूरा घूम न पाए। उसी बाग में हमें एक प्राचीन वृक्ष दिखा जिसका तना हाथी के शरीर जैसा चौड़ा था। माधुरी जी का मन हुआ कि उस वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यान किया जाए, हम दोनों वृक्ष से टिक कर बैठ गये। उसके बाद एक ऐसे बगीचे को भी देखने गए जहाँ औषधीय पौधों की व्यापक खेती होती है. अब राजधानी कोलम्बो पहुँचने के लिए हमारी बस दौड़ रही थी और हम लोग सड़क के दोनों ओर फैले चाय के खेतों को देखकर मोहित हो रहे थे. 

हमारे 'गाइड' ने वहां के रीति-रिवाजों के बारे में भी विस्तृत जानकारियाँ दी. श्रीलंका में विभिन्न जातीय समूहों में प्रचलित भाषा, खान-पान, वेशभूषा तथा शादी-ब्याह के बारे में भी बताया। एक रोचक जानकारी भी दी कि सिंहली समूह में लड़कियों का उनके विवाह होने तक उनका कौमार्य सुरक्षित होना अनिवार्य होता है. विवाह के पश्चात सुहागरात की सुबह लड़के की मां स्वयं जाकर बिस्तर में रक्त-क्षरण की जांच करती है तब संतुष्ट होती है कि उसकी नवागंतुक बहू का कौमार्य अक्षत रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि यदि किसी लड़की का विवाह किसी लड़के से तय हो गया है और लड़की ने विवाहपूर्व सम्भोग कर लिया हो तो वह स्वयं लड़के की मां के पास जाकर उस घटना को बताती है और मां से अनुमति प्राप्त होने पर ही विवाह करती है. गाइड के अनुसार, 'इसीलिए हमारे देश में लड़के-लड़कियों के बीच प्यार-मोहब्बत तो चलता है लेकिन विवाह के पहले सेक्सुअल रिलेशनशिप नहीं होती।'

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वहां पर आयोजित साहित्यिक चर्चा के दौरान मैंने 'सिनेमा : तेरे मेरे सपने' विषय पर अपने विचार रखे. 

'जीवन स्वप्नवत तो है पर नींद खुल जाने पर उससे मुक्त होने जैसी सुविधा नहीं होती। जागृत अवस्था में संकट से जूझते रहना और उससे मुक्त होने के स्वप्न देखना ही हमारा जीवन है। जैसे जीवन अनिश्चित है वैसे ही संकट भी हमारे अनुमान से परे होते हैं। सबसे बड़ा संकट भरोसे का है। किसी दूसरे का भरोसा न करना समझ में आता है लेकिन जब मनुष्य का खुद से भरोसा उठ जाए तो संकट और अधिक प्रगाढ़ हो जाता है। हम सब उसी से जूझ रहे हैं। सिनेमा इस संकट से कुछ देर की मुक्ति का साधन बन कर आया।

मनुष्य की उत्सुकताओं में से एक है- दूसरे व्यक्ति की ज़िन्दगी में झांक कर देखना। हम वह सब इसलिए देखना चाहते हैं क्योंकि एक सामाजिक प्राणी होने के कारण हमें अपने आस-पास हो रही घटनाओं पर नज़र रखना ज़रूरी लगता है। दूसरों की ज़िन्दगी में विविध रंग हुआ करते हैं यथा: कोई खुश दिखता है तो कोई परम दुखी, कोई वीर दिखता है तो कोई कायर, कोई चतुर दिखता है तो कोई बुद्धू। अगर गौर से देखा जाए तो प्रत्येक मनुष्य में ये सारे लक्षण विद्यमान रहते हैं और अलग-अलग अवसरों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रकट होते रहते हैं। इसके अतिरिक्त दूसरों की गल्तियां भी हमें आकर्षित करती हैं क्योंकि वे हमें कुत्सित आनन्द दिया करती हैं। सिनेमा हमारी इन आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक सिद्ध हुआ है, सम्भवतः इसीलिए लोकप्रिय भी हुआ।
          
जब सिनेमा भारत में आया तो उसकी तकनीक का जादू सर चढ़कर बोला. शुरूआती दौर में पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक घटनाओं और सामाजिक परिस्थितियों पर लिखे गए कथानक पर बनी फिल्मों ने सबको मोह लिया. धीरे-धीरे तकनीक में सुधार हुआ, सिनेमा में आवाज आई जिसके बल पर संवाद और संगीत ने उसे इस कदर सजाया कि वह मोहक से मादक बन गया. चलती-फिरती, बोलती गाती तस्वीरों ने आम लोगों के दिल  में जगह बना ली और भारत के फिल्मकारों ने दर्शकों के दिल में झांककर उन्हें हंसाया-रुलाया, वर्जनाओं से ग्रस्त समाज की पीड़ा को उकेरा और फिर मरहम भी लगाया.
          
बीसवीं शताब्दी की शुरुआत के भारतवर्ष पर गौर करें तो वह गरीबी, गुलामी और सामाजिक वर्जनाओं का दौर था. फिल्मों के कथानक इन्हीं विषयों के आसपास लिखे गए और एक से एक फ़िल्में बनी, सबसे ज्यादा रोमांटिक क्योंकि तात्कालीन समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में एक अदृश्य लक्ष्मण रेखा थी जिसे लांघना अनैतिक माना जाता था. लिहाज़ा, प्यार करने पर प्रतिबन्ध था और यदि किसी ने किसी घटनावश प्यार कर ही लिया तो उनके विवाह पर महाप्रतिबंध था. सिनेमा रचने वालों ने इस सामाजिक मनःस्थिति का भरपूर विदोहन किया, पहले छेड़-छाड़ दिखाई, फिर आँखे मिलीं, दोनों मुस्कुराए, साथ-साथ गाने गाए. उसके बाद किसी ने उन्हें प्यार करते देख लिया, परिवार की इज्जत आड़े आ गई, विरह-वियोग के गीत गाए गाए और फिल्म का दुखांत हो गया. 
         
सिनेमा अगर आसन्न संकटों का दिग्दर्शन है तो मीठे सपने बेचनेवाला सौदागर भी है। मेरे किशोर-वय की एक सच्ची बात, सन १९६१ में जब मैं चौदह वर्ष का था, एक फ़िल्म आई- ‘जंगली’, जिसमें काश्मीर की हसीन वादियां, शंकर-जयकिशन का मधुर संगीत, उछलता-कूदता शम्मी कपूर और जन्नत की परी जैसी सायराबानो आई। सायराबानो की छरहरी काया, मोहक नाक-नक्श, सलोनापन और झील जैसी शान्त आंखों ने मुझपर जादू सा कर दिया। जब वह बोलती तो ऐसा लगता कि उसके होंठों से होकर दसेहरी आम की फ़ांकों से रस अब गिरा कि तब। सच, मैं रात को अपनी तकिया के नीचे उसका फ़ोटोग्राफ़ रखकर सोता था क्योंकि मुझे किसी ने बताया था कि वैसा करने पर वह सपने में आएगी। यह दूसरी बात है कि सायरा तो नहीं, एक बार मीनाकुमारी जरूर मेरे सपने में आई थी। उस समय अक्ल ने काम नहीं किया अन्यथा मैं मीनाकुमारी का फ़ोटोग्राफ़ तकिए के नीचे रखकर सोता तो शायद सायरा सपने में आ जाती। इस घटना से यह समझा जा सकता है सिनेमा सिर्फ़ हमें सपने ही नहीं दिखाता वरन हमारे सपनों में दिखता भी है।
          
हिन्दी सिनेमा ने विगत सौ वर्षों में अपने सीमित साधनों के बावज़ूद विश्व सिनेमा में अपनी अलग साख बनाई है, संख्या के साथ-साथ गुणवत्ता में भी। इस अवधि की फ़िल्मों का अवलोकन किया जाए तो अनेक ऐसी फ़िल्में बनी जो मानवीय मूल्यों की गहरी समझ लिए हुए थी, भले तकनीकी रूप से उतनी समर्थ न रही हों। स्वप्न और संकट को कसौटी पर कसने के लिए इन तीन फ़िल्मों की चर्चा को माध्यम बनाया जाए। ‘श्री ४२०’ (१९५५) में मनुष्य के छ्द्म सपनों का अभूतपूर्व चित्रण, ‘मदर इन्डिया’ (१९५७) में कृषक जीवन की विषमताओं और समस्याओं का गहन विश्लेषण और ‘दो आँखें बारह हाथ’ (१९५७) में आत्मविश्वास से परिपूर्ण नवोन्मेषी साहस और विश्वास के संकट का भीषण संघर्ष सिनेमा के परदे पर अत्यन्त गहराई से दिखाया गया।
           
सन १९५५ में भारतवर्ष आजादी की ताज़ी सांस ले रहा था, उमंगें लहरा रही थी, आशाओं के दीप जगमगा रहे थे; उसी समय `श्री ४२०' आई जिसने सभ्यता और प्रगति के मुखौटे पहने समाज को पहचानने का प्रयास किया और उसके संभावित खतरों से स्वप्न देखते समाज को परिचित कराया। उस फिल्म में संकट से जूझती गरीबी, अभावों की कसक, धनिक बनने की चाहत और उसके टेढ़े-मेढ़े रास्तों का मानवीय चित्रण किया गया था। राजकपूर पर केन्द्रित पुस्तक 'आधी हकीकत आधा फसाना' में लेखक प्रहलाद अग्रवाल ने सटीक विश्लेषण किया है : '...दिन-रात भीख मांगकर गुजर-बसर करने वाले भिखारी के सपने पर वह धूल कैसे डाल सकता है जो  'अपने राजू' के विश्वास के कारण संतान्वे रूपए नौ आने और दो खोटे पैसे दे गया है, अपनी ज़िन्दगी के सबसे दिलकश सपने- अपने घर की खातिर ! "दो-ढाई रूपए कम हैं तो चाहे एक खिड़की कम लगाना पर घर दे देना भाई !".....सभ्यता का मतलब मनुष्य के भीतर कोमलता का विस्तार है, पाशविकता का नहीं। देव और दानव मनुष्य के ह्रदय में एक साथ मौजूद होते हैं और दानवी प्रवृतियों से मुक्त होने की लगातार संघर्ष यात्रा ही सभ्यता के उत्थान की महागाथा है।' फिल्म `श्री ४२०' में मनुष्य के संकट और स्वप्न का ह्रदयस्पर्शी चित्रण था। 
          
फ़िल्म ‘मदर इन्डिया’ में भारतीय ग्रामीण जीवन के वैविध्य भरे कथानक को पिरोया गया था। उसमें सपने भी थे और जिजीविषा का संघर्ष भी। लहलहाती फ़स्लों का संतोष था और बाढ़ से उजड़ गए सपने भी। स्त्री की लज्जा एवं सम्मान का संकट था और भूखे बच्चे का पेट भरने की विवशता भी। मेहबूब खान ने इन्सानी ज़ज़्बात और उसकी मजबूरियों को इस तरह उकेरा था कि फ़िल्म देखने वाले का दिल दहल जाए। स्वप्न और संकट का अनवरत संघर्ष मनुष्य के जीवन की वह विशेषता है जो सपनों को सच करने चाहत और उसे संकट से लड़ने की ताकत देते रहती है। यदि निराश करती है तो फ़िर से नए सपने दिखाकर पुनः आशा का संचार करती है और इसी तरह जीवनचक्र चलते रहता है। फ़िल्म ‘दो आँखें बारह हाथ’ एक जेलर के विश्वास का स्वप्न और छः दुर्दान्त अपराधियों के खुली जेल से भागने की कोशिश का अनमोल दस्तावेज है। जेलर का कैदियों पर भरोसा और कैदियों को घूरती दो आँखॊं का संकट उन्हें बेड़ियों के बगैर बेड़ियां पहना देता है और भागने की आज़ादी होने के बाद भी न भागने के लिए मज़बूर कर देता है। व्ही. शांताराम ने विश्वास और अविश्वास के डगमगाते संकट को इस फ़िल्म में पिरो कर नायक के स्वप्न को सच होते वर्णित किया था जो मानवीय मूल्यों की स्थापना पर व्यक्तिगत सोच की मुहर थी।
          
प्रख्यात शायर साहिर लुधियान्वी की यह नज़्म ‘स्वप्न और संकट’ को खूबसूरती से परिभाषित करती है:

          "इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा
          जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा
          जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नग्में गाएगी
          वो सुबह कभी तो आएगी, वो सुबह कभी तो आएगी।

          मज़बूर बुढ़ापा जब सूनी गलियों में धूल न फ़ांकेगा
          मासूम लड़कपन जब गन्दी गलियों में भीख न मांगेगा
          हक मांगनेवालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी
          वो सुबह कभी तो आएगी, वो सुबह कभी तो आएगी।

          दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जाएगा
          चाहत को न कुचला जाएगा गैरत को न बेचा जाएगा
          अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी
          वो सुबह कभी तो आएगी।

          बीतेंगे कभी तो दिन आखिर ये भूख के और बेकारी के
          टूटेंगे कभी तो बुत आखिर दौलत की इजारेदारी के
          जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी
          वो सुबह कभी तो आएगी।

          माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं
          मिटटी का है कुछ मोल मगर इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं
          इंसानों की इज्ज़त जब झूठे सिक्कों में न तौली जाएगी
          वो सुबह कभी तो आएगी।

          जिस सुबह की खातिर जुग जुग से हम मर मर कर जीते हैं
          जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
          उन भूखी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फर्माएगी
          वो सुबह कभी तो आएगी."

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अब कोलम्बो की ओर चला जाए. कोलम्बो श्रीलंका की राजधानी है. दरअसल इसका नाम कुल और अम्बा का मिश्रित रूप है. कुल का अर्थ है हरा (रंग) और अम्बा का अर्थ है आम (फल); मतलब हरा आम. यह अंग्रेजों की कृपा से कोलम्बो हो गया. 

कोलम्बो हिंदमहासागर के किनारे बसा हुआ एक खूबसूरत नगर है. साफ़-सुथरी और चौड़ी सड़कें, हर समय समुद्र से नगर की ओर बहती मनमोहक हवा, बेहद शालीन यातायात. यातायात का ज़िक्र इसलिए किया क्योंकि बीच सड़क में हम दोनों जब चालू ट्रेफिक में सड़क पार करने की कोशिश करने लगे तो हमारे सामने पड़ी कार हमें देखकर रुक गयी, हम दोनों भी रुके और उन्हें आगे बढ़ने का इशारा किया लेकिन वे रुके रहे, उसके चालक ने हमें सड़क पार करने का इशारा किया. उस कार के पीछे कारों का काफिला भी रुका रहा, किसी ने हार्न नहीं दिया, सब रुके रहे. क्या पैदल चलने वालों के लिए भारत में ऐसे दृश्य की कल्पना संभव है?

भारत में निर्मित टाटा की नैनो कार वहां पर टैक्सी के रूप में चलती दिखी तो बहुत अच्छा लगा अन्यथा अधिकतर कारें चीन, जापान और कोरिया में बनी दिखीं. इसी प्रकार वहां के क्लाथ मार्किट में भारत से आयातित रेडीमेड कपड़ों की भरमार दिखी, बेशक कीमत भारत से दोगुनी थी. इनके अलावा श्रीलंका में भारत अनुपस्थित था. सब ओर चीन का वर्चस्व दिखाई पड़ रहा था. शानदार क्रिकेट स्टेडियम हो या वृहदकाय पुस्तकालय, ओवरब्रिज हों या महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ, सब चीन के आर्थिक सहयोग से निर्मित. 

अगले दिन होटल में एक वैवाहिक कार्यक्रम आयोजित हुआ. दूल्हा-दुल्हन श्रीलंका की पारंपरिक साज सजा से विभूषित थे, लड़के और लड़की वाले भी एक जैसी सुसज्जित वेशभूषा में थे. एक घंटे तक चले उस कार्यक्रम को देखने के लिए हम लोगों ने नगर भ्रमण का कार्यक्रम के समय को स्थगित कर दिया और उस मनोरम कार्यक्रम का आनंद लेते रहे. 

दिन भर कोलम्बो शहर को निहारते रहे, जब शाम हुई तो हम सब साहित्यकार होटल के पास फैले समद्र तट पर इकठ्ठा हो गए, कोई कविता सुना रहा था तो कोई गीत. कुछ लोग छोटे-छोटे समूह में बैठे बतिया रहे थे. बेहद खुशनुमा माहौल था. 

रात की फ्लाईट से हम लोग भारत की वापसी यात्रा पर निकल पड़े. इस बार हवाई जहाज में बैठते ही थकान के मारे ऐसी नींद आई कि कब चेन्नई आ गया, मालूम ही नहीं पड़ा. कान और सर में होने वाला दर्द भी महसूस नहीं हुआ. 

तो, यह रही हमारे जीवन की पहली विदेश यात्रा. श्रीलंका बेहद खूबसूरत देश है, बिलकुल अपने दक्षिण भारत जैसा लगता है. मौका लगे तो अवश्य जाइए, आपको मज़ा आएगा, इसकी गेरेंटी है. 

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लखनऊ का नाम सुनते ही दिमाग में उस तहज़ीब की याद आती है, 'पहले आप, पहले आप'. फिर फिल्म 'चौदहवीं का चाँद' (1960) केे उस गीत की याद आती है जिसे शकील बदायूँनी ने लिखा था : "ये लखनऊ की सरजमीं. ये रंग रूप का चमन, ये हुस्न और इश्क का वतन यही तो वो मुकाम है, जहाँ अवध की शाम है जवां जवां हसीं हसीं, ये लखनऊ की सरजमीं. शवाब-शेर का ये घर, ये अह्ल-ए-इल्म का नगर है मंज़िलों की गोद में, यहाँ हर एक रहगुजर ये शहर ला-लदार है, यहाँ दिलों में प्यार है जिधर नज़र उठाइए, बहार ही बहार है कली कली है नाज़नीं, ये लखनऊ की सरजमीं. यहाँ की सब रवायतें, अदब की शाहकार हैं अमीर अह्ल-ए-दिल यहाँ, गरीब जां निसार है हर एक शाख पर यहाँ, हैं बुलबुलों के चहचहे गली-गली में ज़िन्दगी, कदम-कदम पे कहकहे हर एक नज़ारा दिलनशीं, ये लखनऊ की सरजमीं. यहाँ के दोस्त बावफ़ा, मोहब्बतों के आशना किसी के हो गए अगर, रहे उसी के उम्र भर निभाई अपनी आन भी, बढ़ाई दिल की शान भी हैं ऐसे मेहरबान भी, कहो तो दे दें जान भी जो दोस्ती का हो यकीं, ये लखनऊ की सरजमीं." इस बार जब लखनऊ जाने का सबब बना तो मेरी पत्नी माध...

रंगीला राजस्थान

राजस्थान अंग्रेजों के ज़माने में राजपूताना कहलाता था क्योंकि इस क्षेत्र में अजमेर-मेरवाड़ा और भरतपुर को छोड़कर अन्य भूभाग पर राजपूतों की रियासतें थी. बारहवीं सदी के पूर्व यहाँ गुर्जरों का राज्य था इसलिए इस क्षेत्र को गुर्जरत्रा कहा जाता था. अजमेर-मेरवाड़ा अंग्रेजों के अधीन था जबकि भरतपुर में जाटों के. कुल मिलाकर छोटी-बड़ी 21 रियासतें थी जिन्हें स्वाधीन भारत में शामिल करना बेहद कठिन था क्योंकि अधिकतर राजा एकीकरण के पक्ष में नहीं थे, कुछ खुद-मुख्त्यारी चाहते थे तो कुछ पाकिस्तान में विलय चाहते थे. स्वाधीन भारत के तात्कालीन गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वी. के. मेनन ने इस असंभव को संभव कर दिखाया और उसकी परिणिति बनी, भारतवर्ष का नूतन राज्य, राजस्थान, जो 30 मार्च 1949 को संवैधानिक रूप से गठित हुआ. राजस्थान की आकृति पतंगाकार है. इसके उत्तर में पाकिस्तान , पंजाब और हरियाणा , दक्षिण में मध्यप्रदेश और गुजरात , पूर्व में उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश एवं पश्चिम में पाकिस्तान हैं. सिरोही से अलवर जाती हुई अरावली-पर्वत-श्रृंखला राज्य  को दो भागों में विभाजित करती है.  राजस्थान का...