जीरो कोविड में गाडरवारा :
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भारत देश के मध्य में है मध्यप्रदेश, मध्यप्रदेश के मध्य में है गाडरवारा, गाडरवारा के मध्य में है मेरे साढू राजेंद्र खजांची का घर. मेरी पत्नी की बड़ी बहन माया जी का विवाह उनके साथ १६ जनवरी १९७१ को हुआ था, मेरा विवाह लगभग साढ़े चार साल बाद माया जी की छोटी बहन माधुरी जी के साथ हुआ इस प्रकार मैं उनका साढू बना.
विवाह की रजत जयंती तो आम बात है लेकिन स्वर्ण जयंती मनाने वाले जोड़े कम ही होते हैं और हीरक जयंती मनाने वाले तो शायद ही होते होंगे. तो, अपने माता-पिता के विवाह की स्वर्ण जयंती मनाने का संकल्प उनके बेटे रीतेश और बहू रंजीता ने किया और सारी रिश्तेदारी में अपने मोबाईल से चढ़ाई कर दे. 'चढ़ाई' शब्द का उपयोग इसलिए किया कि सच में, सबसे इस कार्यक्रम में शामिल होने का इतना आग्रह किया गया कि किसी को बुचकने की गुन्जाइश नहीं बची थी. हम लोग भी उनके आग्रह के शिकार बने, तुरंत रेल-रिजर्वेशन भी करवा लिया लेकिन मेरा जी धुक-धुक कर रहा था क्योंकि मेरे मन में कोविड का भय कायम था, श्री अमिताभ बच्चन कई बार फोन पर रोज डराते थे, खासतौर से बुजुर्गों को. १५ जनवरी २०२१ को हम दोनों को दुर्ग-भोपाल स्पेशल ट्रेन से रात को नौ बजे रवाना होना था और उस दिन सुबह से ही मेरा मन हो रहा था कि वहां जाने का रिजर्वेशन केंसिल करवा लिया जाए, कहीं हम उस आयोजन के चक्कर में कोविड के चक्कर में न फंस जाएं. मैंने माधुरी जी को प्यार से समझाने की कोशिश की लेकिन वे तो अपनी अटैची तैयार कर चुकी थी और गाडरवारा जाने के लिए एकदम उद्यत थी क्योंकि वहां उनकी मुलाकात अन्य सभी बहनों से होने वाली थी, एक साल से उनसे मिलने के लिए वे बेचैन थी, इस मरी बीमारी ने उन्हें रोक रखा था. मेरे समझाने पर वे भड़की और बोली, 'हम तो वहां जाएंगे, भले ही मर जाएं, ऐसा डर-डर के जीने से अच्छा है कि मर जाएं.'
'जब मरने का डर नहीं है तो कोविड से क्या डरना, चलो चलते हैं.' मैंने भी उत्साहित होकर उनकी हाँ में हाँ मिला दी और मैं उनके साथ ट्रेन में सवार हो गया.
अगली सुबह हम लोग गाडरवारा के स्टेशन पर उतरे. वहां की ठण्ड ने हमारा स्वागत किया. होटल से घर पहुंचे, दिन भर पूजन-हवन तथा नास्ता-भोजन का दौर चला. शाम को पांच बजे किसी मंदिर में चलने की हड़बड़ी मची, हम लोग वहां पहुंचे. श्रीकृष्ण जी का छोटा सा मंदिर था जिसमें अति-सांवले कृष्ण की मूर्ति विराजमान थी. ठीक सवा पांच बजे मंदिर का रंगीन परदा एक तरफ खिसका, सबने श्रीकृष्ण के दर्शन किए और आरती आरम्भ हुई. पंडित विट्ठलदास भट्ट ने राग पूरवी में सुर साधा और बीस मिनट तक आरती का सस्वर पाठ करते रहे. इस पाठ में उनकी संगत में हार्मोनियम और तबला नहीं थे, नेपथ्य से तानपूरा की संगत का स्वर और पंडित जी की दोनों हाथों में ४ इंच वृत्त का बड़ा सा मंजीरा था जिसका बजना भजन को और अधिक मधुर बना रहा था. उस भजन में ब्रज की संध्या का विवरण था जिसमें गोपियाँ श्री कृष्ण की आतुरता से प्रतीक्षा कर रही हैं और उनकी प्रतीक्षा की घड़ी इतनी लम्बी हो रही है कि उन्हें असहनीय होते जा रही है. तब ही श्रीकृष्ण उपस्थित हो जाते हैं और गोपियों के मुख पर प्रसन्नता का भाव उभर जाता है.
यह कार्यक्रम विशेष रूप से दंपत्ति की स्वर्णजयंती के अवसर पर 'मनोरथी' के रूप में आयोजित किया गया था. अद्भुत आयोजन था, बहुत मन भाया. फिर रात्रिकालीन उत्सव आरम्भ हुआ जिसमें स्टेज पर प्रयागराज से आये उद्घोषक राहुल ने अपनी मनमोहक शैली में विभिन्न कार्यक्रमों का प्रस्तुतीकरण किया. चार घंटों तक बिना मास्क पहने लोग कार्यक्रम का आनंद लेते रहे, जैसे करोना को एकदम भुला दिया गया हो.
ऐसा देखा गया है कि आम तौर पर बस्तियां वहां बसती हैं जहाँ नदियाँ होती हैं. गाडरवारा भी शक्कर नदी के पास बसा हुआ है. नदी का नाम शक्कर क्यों पड़ा? कहते हैं कि शक्कर नदी का प्राचीन नाम सुअर नदी था। पुराने समय में माल वाहक साधन खच्चर, घोड़े, गधे ही होते थे। हुआ यूं कि एक मारवाड़ी व्यापारी लल्ला मारमोर बरसात के दिनों में सैकड़ों खच्चरों पर सामान लादे शक्कर नदी पार कर रहा था कि अचानक नदी का जलस्तर बढ़ने लगा। नौकरों ने मालिक को आवाज दी कि कचरों पर लदी शक्कर की बोरियां बाढ़ से गीली व वज़नदार हो गईं हैं और खच्चर तैरने में असमर्थ हैं तब लल्ला मारमोर ने आदेश दिया कि सारी शक्कर नदी में बहा दो और जानवरों की जान बचाई जावे। तब से सुअर नदी शक्कर नदी के नाम से जानी जाती है। यहाँ गन्ने की उपज बहुत अधिक मात्रा में होती है, संभवतः उसकी मिठास से नदी के नाम का भी कोई सम्बन्ध हो. शक्कर के साथ-साथ यहाँ पर गुड़ का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है. यहाँ से विशेष गुणवत्ता वाला गुड़ विदेशों में भी निर्यात किया जाता है, ऐसे गुड़ की चार भेलियाँ हमें भी हमारे भतीजे रितेश ने भेंट की.
सुबह रंगीन थी, न अधिक ठण्ड और न ही गर्मी. गरम-गरम नास्ते के बाद हम लोग इनोवा में सवार होकर निकल पड़े नर्मदा जी के लिए. यहाँ से लगभग १८ किलोमीटर दूर ग्राम भटेरा और हीरापुर के बीच नर्मदा नदी बहती है. नदी के जिस किनारे पर हम पहुंचे उसे ककड़ा घाट कहते हैं. नदी की रेत भुरभुरी थी, एकदम सफ़ेद रेत. छोटी-छोटी झोपड़ियाँ बनी हुई थी जिनमें नारियल, अगरबत्ती और प्रसाद बिक रहा था. झोपड़ी के पीछे कुछ बकरियां मिमिया रही थी, कुछ बच्चे खेल रहे थे. कुछ साधुओं के वेश में भिक्षार्थी डेरा जमाए हुए थे. नदी में कम लोग ही थे, अधिकतर बच्चे थे जो उछलते-कूदते नहा रहे थे, कुछ वरिष्ठ नर्मदा स्नान के पश्चात् देव पूजन में व्यस्त थे. एक युवा स्वयं नहाने के बाद अपनी मोटरसायकल को नहला रहा था. नदी में पानी था लेकिन सीमित मात्रा में. उस बहते जल को देखकर मुझे फिल्म 'बैजू बावरा' के उस दृश्य की याद आ रही थी जिसमें 'तू गंगा की मौज मैं जमना की धारा' गीत का फिल्मांकन किया गया था. माया जी ने भी वहां पूजन किया. वापस लौटते समय भिक्षार्थियों ने आवाज़ दी, 'नर्मदे हर....नर्मदे हर', मैंने सुनकर भी अनसुना करने जैसा अभिनय किया, उसके बाद हम लोग वहां से वापस गाडरवारा आ गए.
गाडरवारा के शम्भूरत्न दुबे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपने गाँव का नाम देश के पटल पर अंकित किया था. शम्भुरत्न दुबे ने मिनर्वा मूवीटोन द्वारा निर्मित सोहराब मोदी की रंगीन फिल्म 'झाँसी की रानी' (१९५३) की कहानी और संवाद लिखे थे. दूसरे व्यक्ति थे (आचार्य) रजनीश और तीसरे व्यक्ति हैं अभिनेता आशुतोष राणा. मैंने सुना था कि आचार्य रजनीश का बचपन अपने नाना-नानी के घर गाडरवारा में बीता था इसलिए उत्सुकता थी कि उनके अतीत के बारे में कुछ जानकारी एकत्रित करूँ. वहां संयोग से 'ओशो' (अब आचार्य रजनीश का प्रचलित नाम) के अति-प्रेमी स्वामी अनुराग धर्मा मिल गए, उन्होंने मुझे रजनीश के अतीत से जोड़ने में बहुत मदद की.
रजनीश का जन्म गाडरवारा से ६६ किलोमीटर दूर कुचवाड़ा में हुआ था. बाल्यकाल से वे अपने ननिहाल आ गए और उनकी प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा गाडरवारा में हुई थी. सबसे पहले हम उस प्राथमिक शाला को देखने गए जहाँ रजनीश की प्रारंभिक शिक्षा संपन्न हुई, शासकीय गंज प्राथमिक शाला. अब तो फ़ैल गया है यह स्कूल लेकिन तब केवल दो कमरों का था, एक में कक्षा लगती थी और दूसरे में कार्यालय था. कक्षा के बाहर बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था, 'ओशो कक्ष'. कक्षा में विद्यार्थी पढ़ रहे थे, शिक्षक जी ने हमें देखा तो पढ़ाई रोक कर बड़े आदर के साथ कक्षा के भीतर ले गए. पुराने सिनेमा हाल की बालकनी की तरह सीढ़ियों पर रखी पुराने ज़माने की पुरानी सीटिंग बेंच रखी हुई थी, इनमें स्याही भरने के लिए कोने में छेद बने हुए थे. ब्लेक बोर्ड के ऊपर ओशो का चित्र लगा हुआ था. सबसे ख़ुशी बात यह थी कि शिक्षक से लेकर हरेक विद्यार्थी की चप्पलें कक्षा के बाहर रखी हुई थी, ओशो के प्रति सम्मान व्यक्त करने का यह अत्यंत सम्मानजनक उपक्रम लगा.
वहां से हम लोग निकले और बीच बाज़ार में स्थित आदर्श उच्चतर माध्यमिक शाला में पहुंचे जहाँ रजनीश की हाई स्कूलिंग हुई थी. वीरान सा पड़ा, टूटी-फूटी अवस्था में उस शाला प्रांगण को देखकर किसी भी सरकारी स्कूल का दृश्य सामने आ खड़ा हुआ. जिस कमरे में वे पढ़ते थे, वह आज भी यथास्थिति में है. छत के ऊपर बिछे हुए बेतरतीब खप्पर, सालों से खड़ी बेरौनक दीवारें और पत्थर के फर्श. यहाँ रजनीश के पढ़ने का कोई संकेत नहीं मिला जैसा कि प्राथमिक शाला में मिला था. उदासी लेकर हम लोग अब उस स्थान की बढ़े जहाँ रजनीश को सम्बोधि प्राप्त हुई थी, 'ओशो लीला आश्रम'.
बेहद सकरी गलियों से होते हुए हम लोग शक्कर नदी के किनारे पहुंचे, जहाँ एक खंडहरनुमा बड़ा द्वार दिखाई पड़ा जिसमें ऊपर लिखा हुआ था, 'ओशो लीला आश्रम'. भीतर घुसते साथ एक बहुत बड़ा और विस्तृत फैला हुआ बरगद का वृक्ष दिखा जो बहुत पुराना लगा, शायद सौ साल से अधिक का रहा होगा. उसके आगे हल्की सी चढ़ाई के बाद बायीं और कार्यालय और दायीं और एक मंदिर जैसा निर्माण था जिसमें ओशो चित्र स्थापित किया गया था. वहां पर उपस्थित एक स्वामी ने बताया कि यही वह स्थान है जहाँ रजनीश को सम्बोधि प्राप्त हुई थी. मंदिर के पीछे शक्कर नदी का जल इठलाता हुआ बह रहा था. किनारे रेत पर किसी पुराने मंदिर के पथरीले अवशेष पड़े हुए थे. बताया गया कि यहाँ शिव मंदिर था जो किसी समय नदी की बाढ़ में बह गया था, अब उसकी निशानियाँ भर शेष हैं. आश्रम के पिछवाड़े में एक सुसज्जित कमरा है जहाँ प्रतिदिन ध्यान का कार्यक्रम होते हैं. न जाने उस वीराने में कौन आता होगा ध्यान करने?
गाडरवारा में कोई न कोई बात तो है, जो इस नगर को विशिष्टता प्रदान करती है. अपने प्रतिदिन के प्राणायाम में मैंने इस स्थान की शक्ति और ऊर्जा को अनुभूत किया. संभवतः ओशो की साधना का प्रभाव यहाँ अभी भी सुरक्षित है क्योंकि ओशो जैसे विद्वान अपना शरीर छोड़ देते हैं लेकिन उनकी आत्मिक ऊर्जा सर्वत्र व्याप्त रहती है.
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