सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

दिल की बात

दिल की बात : 

========

'दिल है कि मानता नहीं...' ये गीत आपने सुना होगा. बचपन से ही मेरी घूमने की चाहत रही लेकिन दिल की दिल में रह जाती थी. रिश्तेदारी के अलावा कहीं जाने को नहीं मिलता था. रिश्तेदारी की जगहें भी आसपास की थी जैसे, गौरेला, जैथारी, मनेन्द्रगढ़, सतना, रीवा, जबलपुर और बस. घर में बड़ों का आतंक इतना था कि उनकी अनुमति के बिना घर से निकल नहीं सकते थे और किसी जगह अपनी मर्जी से जाने की अनुमति नहीं मिलती थी. एक घटना याद आ रही है, मैं नवमी कक्षा में पढ़ रहा था, स्कूल में एक नाटक खेला गया, भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखित 'सबसे बड़ा आदमी', जिसमें शंकर का पात्र मैंने निभाया था. उस नाटक को मात्र १२८ किलोमीटर दूर स्थित सारंगढ़ में संभागीय नाट्य प्रतिस्पर्धा में खेला जाना था. मुझे बड़ों की 'परमीशन' नहीं मिली, मैं नहीं जा पाया, अचानक एक महत्वपूर्ण पात्र के वहां न जाने से निर्देशक को जो असुविधा हुई होगी, नाटक की जो दुर्दशा हुई होगी, उसका अनुमान आप लगा सकते हैं. 

पहाड़ों को समीप से देखने की अभिलाषा और समुद्र की उठती लहरों को देखने की इच्छा दिल में रखे हुए मेरी  किशोरावस्था बीत गयी. जब युवा हुआ तब महाराष्ट्र के कुछ शहर जैसे नागपुर, पूना, बम्बई, मिरज, सांगली और गोवा की यात्रा का मौका मिला, मैं इन शहरों की भव्यता और उनके विकास को देखता ही रह गया. घर से बाहर निकलकर जब मैंने यह दुनिया देखी तब मुझे समझ में आया कि दूसरी दुनिया कितना आगे बढ़ गयी है और हमारी दुनिया कितनी सीमित है, कितने पिछड़े हुए हैं हम. यात्राएं हमारी दृष्टि को, हमारी सोच को विस्तार देती हैं और मार्गदर्शक की समर्थ भूमिका निभाती हैं. 

सन १९८२ में मैंने जूनियर चेंबर इंटरनेशनल के सौजन्य से व्यक्तित्व विकास का प्रशिक्षण देना शुरू किया, नेशनल ट्रेनर बना और फिर इंटरनेशनल ट्रेनर. इसके बाद मैंने प्रशिक्षण के विषय को विस्तार देना शुरू किया, मानव व्यवहार प्रबंधन और संस्थान प्रबंधन के विभिन्न विषयों में प्रशिक्षण देने के लिए स्वयं को तैयार किया. उसके बाद तो जैसे मुझे पंख लग गए. मैंने उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, हरयाणा, मध्यप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के विभिन्न शहरों की भरपूर यात्राएं की. मैं जहाँ भी प्रशिक्षण देने के लिए जाता था, मैं वहां से आनंदित होकर लौटता था क्योंकि यात्रा के दौरान ट्रेन में बैठे-बैठे जिन प्राकृतिक दृश्यों को देखता था, जिन लोगों से सफ़र के दौरान मिलता था, जिन शहरों की आंतरिक यात्रा करता था, वह अनुभव मेरे लिए अपूर्व था. मानो, जीवन भर की मेरी साध पूरी हो गयी.  

युवावस्था में मैंने एक पुस्तक पढ़ी थी, भगवत शरण उपाध्याय की 'पुरातत्व का रोमांस'. उस पुस्तक में मिस्र देश में  तूतनखामन की कब्र पर एक अध्याय था. मेरा बहुत मन था कि एक बार उसे देखने का मौक़ा निकालना है, लेकिन मेरी विदेश यात्रा की शुरुआत हुई श्रीलंका से सन २०१३ में, जिसका विवरण इस कृति में है. 

वैसे तो 'होम स्वीट होम' में जो मिठास है, उसका अलग आनंद है लेकिन जब मिठास अधिक बढ़ जाती है तब कुछ चटपटा खाने का दिल करता है. इस चटपटी चाट का सुख लेने के लिए घर से बाहर निकलना पड़ता है, दूर, बहुत दूर, जहाँ जाकर मन आल्हादित हो जाए, प्रसन्न हो जाए. ऐसी ही कुछ यात्राओं का ज़िक्र मैंने अपने पूर्ववर्ती यात्रा वृत्तान्त की पुस्तक 'मुसाफिर....जाएगा कहाँ' में किया था. 

उसके बाद भी यात्राएं होती रही, मैं घर से बाहर और कुछ देखने-जानने की खोज में निकलता रहा. सन २०२० और २०२१ का समय करोना संक्रमण की भेंट चढ़ गया. एक तो संक्रमण का खतरा, ऊपर से आवागमन के साधन भी कम हो गये. वैसे, सड़क या वायुमार्ग के बदले मुझे रेल की पटरियां अधिक पसंद हैं. रेल यात्रा में सिकुड़ कर बैठने की तकलीफ नहीं झेलनी पड़ती, दूसरे की छोड़ी हुई सांस को लेने की मज़बूरी नहीं होती, जब मन पड़े आराम से लेट जाओ, जब मन पड़े सामने बैठे अनजान व्यक्ति से बातें करो या चुपचाप उसे ताकते-निरखते रहो. जब भूख लगे, पास में रखा सामान निकालो और खा लो या किसी स्टेशन में उतरकर कुछ खरीद कर खा लो. बैठे-बैठे या सोते-सोते ऊब गए हों तो ट्रेन जहाँ खड़ी हो, डब्बे से उतर कर कमर सीधी कर लो या अपने पैरों को चलायमान कर लो. फिर, ट्रेन की टिकट सस्ती पड़ती हैं, हवाई मार्ग या सड़क मार्ग के मुकाबले 'पाकेट फ्रेंडली' होती हैं. इन सब कारणों से मुझे ट्रेन की यात्रा तुलनात्मक रूप से अधिक पसंद है. परेशानी यह है कि करोना संक्रमण की वज़ह से ये सभी साधन बाधित हो गए हैं. जो चालू हैं, उनमें जाने से करोना संक्रमण का डर बना रहता है.

विगत दो वर्षों से मेरे घुटनों ने मुझे सताना शुरू कर दिया है, डाक्टर बताते हैं कि घुटनों में 'आस्टो-आर्थराइटिस' विकसित हो गया है, अधिक उम्र में यह तकलीफ होना आम बात है, वैसे, बहुतेरा उपचार किया लेकिन दर्द में कोई राहत नहीं मिली लेकिन मेरे बाहर घूमने जाने के उत्साह में कोई कमी नहीं आई, जब तक मैं पूरी तरह से लाचार नहीं हो जाता, तब तक यह घूमना-फिरना बदस्तूर जारी रहेगा. घूमना जारी रहेगा तो लिखना भी जारी रहेगा. मैं घूमने और लिखने, दोनों से मजबूर जो हूँ!

यात्रा संस्मरण की मेरी यह कृति 'कहाँ ले चले हो...बता दो मुसाफिर' आपको भेंट करते हुए मुझे बेहद ख़ुशी हो रही है. 


बिलासपुर (छत्तीसगढ़)                                                                   द्वारिका प्रसाद अग्रवाल 

०१.०८.२०२१ 


 


   











 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जब तब अब जबलपुर

तब जब अब जबलपुर ============== ( १)           अपनी ससुराल होने के कारण मुझे शहर जबलपुर अत्यंत प्रिय है क्योंकि वहाँ दामाद होने के कारण मेरे मान-सम्मान की स्थायी व्यवस्था बनी हुई है यद्यपि सास-श्वसुर अब न रहे लेकिन तीन में से दो भाई , मदन जी और कैलाश जी , मुझे अभी भी अपना जीजा मानते हुए अपने माता-पिता की कोमल भावनाओं का प्रसन्नतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं। मैं पहली बार जबलपुर विवाह में बाराती बन कर दस वर्ष की उम्र (सन 1957) में गया था। मोहल्ला हनुमानताल , सेठ गोविंद दास की ' बखरी ' के कुछ आगे , जैन मंदिर के पास , सेठ परसराम अग्रवाल के घर , जहां से उनकी भतीजी मंदो का ब्याह मेरे बड़े भाई रूपनारायण जी के साथ हुआ था। उन्हीं दिनों सेठ गोविंद दास की ' बखरी ' के बाजू में स्थित एक घर में एक वर्ष की एक नहीं सी लड़की जिसका नाम माधुरी था , वह घुटनों के बल पूरे घर में घूमती और खड़े होने का अभ्यास करती हुई बार-बार गिर जाती थी। इसी घर में 8 मई 1975 में मैं दूल्हा बनकर आया था तब माधुरी 19 वर्ष की हो चुकी थी , वे मेरी अर्धांगिनी बनी।      ...

ये लखनऊ की सरजमीं

लखनऊ का नाम सुनते ही दिमाग में उस तहज़ीब की याद आती है, 'पहले आप, पहले आप'. फिर फिल्म 'चौदहवीं का चाँद' (1960) केे उस गीत की याद आती है जिसे शकील बदायूँनी ने लिखा था : "ये लखनऊ की सरजमीं. ये रंग रूप का चमन, ये हुस्न और इश्क का वतन यही तो वो मुकाम है, जहाँ अवध की शाम है जवां जवां हसीं हसीं, ये लखनऊ की सरजमीं. शवाब-शेर का ये घर, ये अह्ल-ए-इल्म का नगर है मंज़िलों की गोद में, यहाँ हर एक रहगुजर ये शहर ला-लदार है, यहाँ दिलों में प्यार है जिधर नज़र उठाइए, बहार ही बहार है कली कली है नाज़नीं, ये लखनऊ की सरजमीं. यहाँ की सब रवायतें, अदब की शाहकार हैं अमीर अह्ल-ए-दिल यहाँ, गरीब जां निसार है हर एक शाख पर यहाँ, हैं बुलबुलों के चहचहे गली-गली में ज़िन्दगी, कदम-कदम पे कहकहे हर एक नज़ारा दिलनशीं, ये लखनऊ की सरजमीं. यहाँ के दोस्त बावफ़ा, मोहब्बतों के आशना किसी के हो गए अगर, रहे उसी के उम्र भर निभाई अपनी आन भी, बढ़ाई दिल की शान भी हैं ऐसे मेहरबान भी, कहो तो दे दें जान भी जो दोस्ती का हो यकीं, ये लखनऊ की सरजमीं." इस बार जब लखनऊ जाने का सबब बना तो मेरी पत्नी माध...

रंगीला राजस्थान

राजस्थान अंग्रेजों के ज़माने में राजपूताना कहलाता था क्योंकि इस क्षेत्र में अजमेर-मेरवाड़ा और भरतपुर को छोड़कर अन्य भूभाग पर राजपूतों की रियासतें थी. बारहवीं सदी के पूर्व यहाँ गुर्जरों का राज्य था इसलिए इस क्षेत्र को गुर्जरत्रा कहा जाता था. अजमेर-मेरवाड़ा अंग्रेजों के अधीन था जबकि भरतपुर में जाटों के. कुल मिलाकर छोटी-बड़ी 21 रियासतें थी जिन्हें स्वाधीन भारत में शामिल करना बेहद कठिन था क्योंकि अधिकतर राजा एकीकरण के पक्ष में नहीं थे, कुछ खुद-मुख्त्यारी चाहते थे तो कुछ पाकिस्तान में विलय चाहते थे. स्वाधीन भारत के तात्कालीन गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वी. के. मेनन ने इस असंभव को संभव कर दिखाया और उसकी परिणिति बनी, भारतवर्ष का नूतन राज्य, राजस्थान, जो 30 मार्च 1949 को संवैधानिक रूप से गठित हुआ. राजस्थान की आकृति पतंगाकार है. इसके उत्तर में पाकिस्तान , पंजाब और हरियाणा , दक्षिण में मध्यप्रदेश और गुजरात , पूर्व में उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश एवं पश्चिम में पाकिस्तान हैं. सिरोही से अलवर जाती हुई अरावली-पर्वत-श्रृंखला राज्य  को दो भागों में विभाजित करती है.  राजस्थान का...