कहाँ ले चले हो...बता दो मुसाफिर
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दिल की बात :
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वैसे तो 'होम
स्वीट होम' में जो
मिठास है, उसका अलग
आनंद है लेकिन जब मिठास अधिक बढ़ जाती है तब कुछ चटपटा खाने का दिल करता है. इस
चटपटी चाट का सुख लेने के लिए घर से बाहर निकलना पड़ता है, दूर, बहुत दूर, जहाँ जाकर मन आल्हादित हो
जाए, प्रसन्न
हो जाए. ऐसी ही कुछ यात्राओं का ज़िक्र मैंने अपने पूर्ववर्ती यात्रा वृत्तान्त की
पुस्तक 'मुसाफिर....जाएगा
कहाँ' में किया
था.
उसके बाद भी यात्राएं होती रही, मैं घर से बाहर और कुछ देखने-जानने की खोज में निकलता रहा. सन २०२०
और २०२१ का समय करोना संक्रमण की भेंट चढ़ गया. एक तो संक्रमण का खतरा, ऊपर से आवागमन के साधन भी
कम हो गये. वैसे, सड़क या
वायुमार्ग के बदले मुझे रेल की पटरियां अधिक पसंद हैं. रेल यात्रा में सिकुड़ कर
बैठने की तकलीफ नहीं झेलनी पड़ती,
दूसरे की छोड़ी हुई सांस को लेने की मज़बूरी नहीं होती, जब मन पड़े आराम से लेट जाओ, जब मन पड़े सामने बैठे अनजान
व्यक्ति से बातें करो या चुपचाप उसे ताकते-निरखते रहो. जब भूख लगे, पास में रखा सामान निकालो
और खा लो या किसी स्टेशन में उतरकर कुछ खरीद कर खा लो. बैठे-बैठे या सोते-सोते ऊब
गए हों तो ट्रेन जहाँ खड़ी हो, डब्बे से
उतर कर कमर सीधी कर लो या अपने पैरों को चलायमान कर लो. फिर, ट्रेन की टिकट सस्ती पड़ती
हैं, हवाई
मार्ग या सड़क मार्ग के मुकाबले 'पाकेट
फ्रेंडली' होती
हैं. इन सब कारणों से मुझे ट्रेन की यात्रा तुलनात्मक रूप से अधिक पसंद है.
परेशानी यह है कि करोना संक्रमण की वज़ह से ये सभी साधन बाधित हो गए हैं. जो चालू
हैं, उनमें
जाने से करोना संक्रमण का डर बना रहता है.
विगत दो वर्षों से मेरे घुटनों ने मुझे सताना शुरू कर दिया है, डाक्टर बताते हैं कि घुटनों
में 'आस्टो-आर्थराइटिस' विकसित हो गया है, अधिक उम्र में यह तकलीफ
होना आम बात है, वैसे, बहुतेरा उपचार किया लेकिन
दर्द में कोई राहत नहीं मिली लेकिन मेरे बाहर घूमने जाने के उत्साह में कोई कमी
नहीं आई, जब तक
मैं पूरी तरह से लाचार नहीं हो जाता, तब तक यह घूमना-फिरना बदस्तूर जारी रहेगा. घूमना जारी रहेगा तो लिखना
भी जारी रहेगा. मैं घूमने और लिखने, दोनों से मजबूर जो हूँ!
यात्रा संस्मरण की मेरी यह दूसरी कृति 'बता दो मुसाफिर' आपको भेंट करते हुए मुझे
बेहद ख़ुशी हो रही है.
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
०१.०८.२०२१
श्रीलंका में डंका
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विदेश
घूमने की इच्छा बहुत दिनों से थी लेकिन कोई जुगाड़ नहीं बैठ रहा था. अचानक रायपुर
के सृजन गाथा डाट काम के सौजन्य से श्री लंका जाने का कार्यक्रम प्रस्तावित हुआ तो
हम पति-पत्नी साहित्यकारों के समूह के बीच चेन्नई हवाई अड्डा में पहुँच गए जहाँ से
श्री लंका की हवाई यात्रा आरम्भ होने वाली थी. वह तारीख १८ जनवरी २०१४ थी, जिस दिन हमारा हवाईजहाज
श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो की यात्रा पर निकल पड़ा.
हवाई
यात्रा डेढ़-दो घंटे की थी लेकिन मेरे कान ऐसे भन्नाए, सिर में इस कदर तेज दर्द हुआ
कि लगा जैसे मेरा सिर टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरने वाला है. मुझे उस पीड़ा की आज तक याद
है. लग रहा था कि हवाईजहाज का दरवाजा खोल कर रास्ते में ही उतर जाऊं लेकिन कहाँ
उतरता, हमारा जहाज हिन्द महासागर के
ऊपर उड़ रहा था और दरवाजा पूरी तरह से लाक था, मैं भला कैसे उतरता? किसी प्रकार राम-राम करते
हमारा जहाज कोलम्बो के हवाईअड्डा के रन वे पर उतरा, तब मेरी जान में जान आई, ओह, कितनी कष्टदायक यात्रा थी
वह!
६५६१०
वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैले इस देश की आबादी २ करोड़ से कुछ अधिक है. इसका
अधिकारिक नाम श्रीलंका समाजवादी जनतांत्रिक गणराज्य है जो दक्षिण एशिया में हिन्द
महासागर के उत्तरी भाग में स्थित एक-द्वीपीय देश है. १९७२ तक इस देश का नाम सीलोन
था जिसे बदल कर लंका किया गया और १९७८ में इसके आगे सम्मानसूचक शब्द 'श्री' जोड़कर श्रीलंका कर दिया गया.
सुबह
की श्री लंकाई ठंडक ने हमारा स्वागत किया. हम सब साहित्यकार थे, उस समूह में, बस में बैठे और चल पड़े श्री
लंका की हरियाली को देखते हुए अपने गंतव्य की ओर.
आरामदेह
एसी बस में हम लोग जम कर बैठ गए. कोलम्बो शहर ख़त्म होने के बाद जब खुले मैदानों की
तरफ बढ़े तो वहां की हरियाली देखने लायक थी. सड़क के दोनों ओर छोटी-छोटी पहाड़ियां थी
जिनमें चाय के पौधे लगे हुए थे. कई किलोमीटर तक हमारी बस दौड़ती रही और हमारे साथ
में चाय के बगान भी दौड़ते रहे. जिस प्रकार भारत के आँध्रप्रदेश से होकर गुजरने
वाली ट्रेन यात्रा में दोनों तरफ धान के खेत दिखाई पड़ते हैं, या पंजाब और हरयाणा की सड़क
यात्रा में न ख़त्म होने वाली फसलों की हरियाली दिखाई पड़ती है, वही मनोरम दृश्य हमें
कोलम्बो-केंडी की राह में देखने को मिला. हमारी बस के कंडक्टर-कम-गाइड ने बताया कि
चाय उत्पादन में श्रीलंका का विश्व में चौथा स्थान है. पहला चीन का, दूसरा भारत का और तीसरा
केन्या का है. चाय के उत्पादन के लिए आवश्यक जलवायु और अनुकूल मिट्टी के कारण यहाँ
देश की पांच प्रतिशत आबादी खेती से लेकर प्रसंस्करण तक में लगी हुई है.
बगीचे
में चाय के पौधे पहाड़ी की ढलान की तरफ लगाए जाते हैं. सामान्यतया दो पौधों के बीच
एक मीटर की दूरी रखी जाती है. चाय की पत्ती का स्वाद इस बात पर निर्भर होता है कि
वह कितनी ऊंचाई पर उगाई गयी है अर्थात जिस बगीचे की ऊंचाई जितनी अधिक होगी, वहां की चाय का स्वाद उतना
ही अच्छा होगा. इसी स्वाद के आधार पर चाय का मूल्य निर्धारित होता है.
लगभग
छः घंटों की लम्बी यात्रा के बाद हम अपने होटल में पहुंचे जो बीच जंगल में अत्यंत
खूबसूरती से बनाया गया था. मजेदार बात यह थी कि उस होटल में लिफ्ट नहीं थी क्योंकि
ग्राउंड फ्लोर के नीचे अंडरग्राउंड फ्लोर था जिसमें उतरने-चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी
हुई थी और दोनों फ्लोर पर सुन्दर तथा आरामदेह कमरे बने हुए थे.
भोजन
के पश्चात् हम लोग महात्मा बुद्ध के उस मंदिर में गए जहाँ उनके पवित्र दांत के
अवशेष सुरक्षित रखे हुए हैं. मंदिर की भव्यता देखने योग्य थी. वहां का वातावरण
बौद्ध धर्म की शांति का जीता-जागता उदाहरण था.
वहां
से कुछ दूर पर एक ऐसे कारखाने को देखने का अवसर मिला जहाँ पर चाय की प्रसंस्करण
प्रक्रिया सम्पादित होती है. इस प्रक्रिया की शुरुआत एक विशालकाय स्वचलित
चलनी से होती है जिसमें खेतों से लाई गयी पत्तियों को डाल दिया जाता है. इस
प्रक्रिया से छोटी और बड़ी पत्तियाँ अलग हो जाती हैं. इन पत्तियों को अलग-अलग
प्रोसेस किया जाता है क्योंकि छोटी पत्तियों वाली चाय बड़ी पत्तियों वाली चाय से कई
गुना अधिक मंहगी होती हैं. इसके बाद इन पत्तियों को बेहद गर्म तापमान में सुखाया
जाता है और उसके पश्चात् उसे मोटा या बारीक पीसा जाता है. तैयार चायपत्ती को
पैकिंग विभाग में वायुरहित पैकेट में पैक करके स्टोर में भेजा जाता है. कारखाने
में काम करने वाले मजदूरों को उस गर्म तापमान में लगातार खड़े होकर काम करते हुए
देखना मेरे लिए आश्चर्यजनक था. मेरे लिए वहां एक मिनट के लिए खड़ा होना मुश्किल हो
गया था, वे लोग कैसे सहते होंगे पूरे
दिन भर उस तापमान को?
रात
को भोजन काल में भोजन के साथ संगीत की भी व्यवस्था थी. एक गायक अपने हाथों में एक
वाद्ययंत्र लिए हुए हिंदी गाने गा रहा था तो दूसरा अपनी कमर में बांधे ड्रम को
खूबसूरती से बजा रहा था. गानों का चयन इस प्रकार से किया गया था कि थिरकने का दिल
हो रहा था. मैं भी पांच-सात नाचने वालों के साथ शामिल हो गया. खूब मज़ा आया. निर्मल
आनंद. नाचने के पश्चात् जब हम लोग भोजन की टेबल पर आए, हमने प्लेट हाथ में ली, चम्मच से खाना उठाने लगा, तब ही माधुरी जी (मेरी
पत्नी) ने मुझसे कहा, 'तुम कैसा नाचते हो, तुमको पता है?'
'मुझे क्या पता? मैं नाचते समय खुद को नहीं
देख सकता न?'
'भोंडे लगते हो एकदम. तुमको
नाचना तो आता नहीं, कमर मटकाते हो. सब लोग
तुम्हें देखकर तुम्हारा मज़ा ले रहे थे.'
'ऐसा क्या? चलो अच्छा हुआ कि सबने मज़ा
लिया, मुझे भी मज़ा आया.'
'लेकिन मुझे अच्छा नहीं लग
रहा था.'
'क्यों?'
'क्यों ? इसलिए कि लोग तुम्हें देखकर
हंस रहे थे, तुम तो बस नाचने में मशगूल
थे.'
'तो क्या हुआ? मैं वहां बैठे लोगों के लिए
नहीं नाच रहा था, अपनी ख़ुशी से अपने लिए नाच
रहा था. मैं जानता हूँ कि मुझे नाचना नहीं आता फिर भी थिरकना आता है. जैसा भी आता
है, मैंने किया. अपन यहाँ अपनी
नृत्य कला का प्रदर्शन करने के लिए नहीं आये हैं, मज़ा लूटने आए हैं.' मैंने उत्तर दिया.
माधुरी
जी मेरे उत्तर से संतुष्ट नहीं दिखी, अप्रसन्नता का भाव उनके चेहरे पर दिखा जिसे
मैंने इग्नोर कर दिया और चुपचाप भोजन करने में व्यस्त हो गया.
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अगली
सुबह हम फिर अगली यात्रा के लिए तैयार होकर बस में बैठ गए. आज हमें राम-जानकी के
मंदिर जाना था जो प्राचीन काल में अशोक वाटिका के नाम से प्रसिद्ध था. नुवरा एलिया
में स्थित बड़े-बड़े वृक्षों से आच्छादित अत्यंत खूबसूरत स्थल. पौराणिक कथाओं के
अनुसार जब अयोध्या के राजा राम चौदह वर्षों का बनवास काट रहे थे, उसी समय लंका के राजा रावण
के द्वारा राजा राम की पत्नी सीता का साधु वेश धारण कर छलपूर्वक अपहरण करके अपने
राज्य लंका में स्थित अशोक वाटिका में कैद करके रखा था. जिस वट वृक्ष के नीचे सीता
जी के बैठने का उल्लेख पुराने ग्रंथों में है, वह वट वृक्ष तो अब वहां नहीं है लेकिन लोक
मान्यता है कि सीता को इसी स्थान पर रखा गया था. वहां पर स्थित मंदिर में
राम-सीता-लक्ष्मण की अत्यंत आकर्षक मूर्तियाँ स्थापित हैं.
हमारी
बस अगले गंतव्य की ओर रवाना हो गयी. बस का कंडक्टर हमारा गाइड भी था जो हमें
गुजरती बस के आसपास के दृश्यों व स्थानों के बारे में जानकारियाँ दे रहा था. उसने
बताया कि श्री लंका बहुजातीय देश है जिसमें ७४% सिंहली, १८% तमिल, ७% ईसाई तथा १% अन्य जातियों
के लोग निवास करते हैं.
ज्ञात
इतिहास के अनुसार, सोलहवीं सदी में योरोपीय
देशों ने श्री लंका में अपना व्यापार शुरू किया और चाय, रबड़, काफी, चीनी, दालचीनी सहित अन्य मसालों का
निर्यातक देश बन गया. इसी समय पुर्तगालियों ने देश पर कब्ज़ा कर लिया और उनका शासन
रहा. उसी सदी में डच शासकों ने आक्रमण करके पुर्तगालियों को हटाया। उसी समय
अंग्रेजों की नज़र श्रीलंका पर पड़ी और अठारहवीं सदी में उन्होंने अपना सम्पूर्ण
प्रभुत्व जमा लिया। लगभग डेढ़ सदी तक राज्य करने के पश्चात ४ फरवरी १९४८ को
श्रीलंका अंग्रेजों से स्वतंत्र हुआ और एक जनतांत्रिक राष्ट्र बना.
देश
की आज़ादी के बाद यहाँ एक दर्दनाक हादसा हुआ, बहुसंख्यक सिंहली और अल्पसंख्यक तमिलों के बीच
२३ जुलाई १९८३ को आपसी संघर्ष शुरू हुआ जो मई २००९ तक चला. यह संघर्ष आंतरिक युद्ध
में बदल गया और श्रीलंका की सरकार और अलगाववादी लिट्टे के बीच लड़ा गया जिसमें ३० महीनों
के सैन्य अभियान के बाद अंतत लिट्टे की सेना परास्त हुई. २६ वर्षों तक चले इस
विवाद में सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग ८०,००० लोग कालकलवित हुए तथा व्यापक धन-संपत्ति की
हानि हुई.
वह
दोपहर हमने एक बहुत बड़े बाग़ में गुजारी. वह इतना
बड़ा कि चलते चलते थक जाए कोई पर पूरा घूम न पाए। उसी बाग में हमें एक प्राचीन
वृक्ष दिखा जिसका तना हाथी के शरीर जैसा चौड़ा था। माधुरी जी का मन हुआ कि उस
वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यान किया जाए, हम दोनों
वृक्ष से टिक कर बैठ गये।
उसके बाद एक ऐसे बगीचे को भी देखने गए
जहाँ औषधीय पौधों की व्यापक खेती होती है. वहां पर उत्पादित जड़ी-बूटियों और शहद का
विक्रय हो रहा था, कुछ सहयात्रियों ने खरीदा भी.
अब
राजधानी कोलम्बो पहुँचने के लिए हमारी बस दौड़ रही थी और हम लोग सड़क के दोनों ओर
फैले चाय के खेतों को देखकर मोहित हो रहे थे. दोनों तरफ हरियाली ही हरियाली. ऐसा लगे, जैसे प्रकृति की
सारी सुन्दरता इन हरे-भरे खेतों में समायी हुई है.
हमारे
'गाइड' ने वहां के रीति-रिवाजों के
बारे में भी विस्तृत जानकारियाँ दी. श्रीलंका में विभिन्न जातीय समूहों में
प्रचलित भाषा, खान-पान, वेशभूषा तथा शादी-ब्याह के
बारे में भी बताया। एक रोचक जानकारी भी दी कि सिंहली समूह में लड़कियों का उनके
विवाह होने तक उनका कौमार्य सुरक्षित होना अनिवार्य होता है. विवाह के पश्चात
सुहागरात की अगली सुबह लड़के की मां स्वयं जाकर बिस्तर में रक्त-क्षरण की जांच करती
है, यदि रक्त के निशान दिखे, तब वह संतुष्ट होती है कि उसकी नवागंतुक बहू का
कौमार्य अक्षत रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि यदि किसी लड़की का विवाह किसी लड़के
से तय हो गया है और लड़की ने विवाहपूर्व सम्भोग कर लिया हो तो वह स्वयं लड़के की मां
के पास जाकर उस घटना को बताती है और मां से अनुमति प्राप्त होने पर ही विवाह करती
है. गाइड के अनुसार, 'इसीलिए हमारे देश में
लड़के-लड़कियों के बीच प्यार-मोहब्बत तो चलता है लेकिन इसी कारण विवाह के पहले
सेक्सुअल रिलेशनशिप नहीं होती।'
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अगले
दिन वहां पर आयोजित साहित्यिक चर्चा का आयोजन हुआ जिसमें मैंने 'सिनेमा : तेरे मेरे सपने' विषय पर अपने विचार रखे.
'जीवन स्वप्नवत तो है पर नींद
खुल जाने पर उससे मुक्त होने जैसी सुविधा नहीं होती। जागृत अवस्था में संकट से
जूझते रहना और उससे मुक्त होने के स्वप्न देखना ही हमारा जीवन है। जैसे जीवन
अनिश्चित है वैसे ही संकट भी हमारे अनुमान से परे होते हैं। सबसे बड़ा संकट भरोसे
का है। किसी दूसरे का भरोसा न करना समझ में आता है लेकिन जब मनुष्य का खुद से
भरोसा उठ जाए तो संकट और अधिक प्रगाढ़ हो जाता है। हम सब उसी से जूझ रहे हैं।
सिनेमा इस संकट से कुछ देर की मुक्ति का साधन बन कर आया।
मनुष्य की उत्सुकताओं में से एक है- दूसरे व्यक्ति की
ज़िन्दगी में झांक कर देखना। हम वह सब इसलिए देखना चाहते हैं क्योंकि एक सामाजिक
प्राणी होने के कारण हमें अपने आस-पास हो रही घटनाओं पर नज़र रखना ज़रूरी लगता है।
दूसरों की ज़िन्दगी में विविध रंग हुआ करते हैं यथा: कोई खुश दिखता है तो कोई परम
दुखी, कोई वीर दिखता है तो कोई
कायर, कोई चतुर दिखता है तो कोई
बुद्धू। अगर गौर से देखा जाए तो प्रत्येक मनुष्य में ये सारे लक्षण विद्यमान रहते
हैं और अलग-अलग अवसरों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रकट होते रहते हैं।
इसके अतिरिक्त दूसरों की गल्तियां भी हमें आकर्षित करती हैं क्योंकि वे हमें
कुत्सित आनन्द दिया करती हैं। सिनेमा हमारी इन आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक
सिद्ध हुआ है, सम्भवतः इसीलिए लोकप्रिय भी
हुआ।
जब सिनेमा भारत में आया तो उसकी तकनीक का जादू सर चढ़कर
बोला. शुरूआती दौर में पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक घटनाओं और सामाजिक परिस्थितियों पर
लिखे गए कथानक पर बनी फिल्मों ने सबको मोह लिया. धीरे-धीरे तकनीक में सुधार हुआ, सिनेमा में आवाज आई जिसके बल
पर संवाद और संगीत ने उसे इस कदर सजाया कि वह मोहक से मादक बन गया. चलती-फिरती, बोलती गाती तस्वीरों ने आम
लोगों के दिल
में
जगह बना ली और भारत के फिल्मकारों ने दर्शकों के दिल में झांककर उन्हें
हंसाया-रुलाया, वर्जनाओं से ग्रस्त समाज की
पीड़ा को उकेरा और फिर मरहम भी लगाया.
बीसवीं शताब्दी की शुरुआत के भारतवर्ष पर गौर करें तो वह
गरीबी, गुलामी और सामाजिक वर्जनाओं
का दौर था. फिल्मों के कथानक इन्हीं विषयों के आसपास लिखे गए और एक से एक फ़िल्में
बनी, सबसे ज्यादा रोमांटिक
क्योंकि तात्कालीन समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में एक अदृश्य लक्ष्मण रेखा थी
जिसे लांघना अनैतिक माना जाता था. लिहाज़ा, प्यार करने पर प्रतिबन्ध था और यदि किसी ने
किसी घटनावश प्यार कर ही लिया तो उनके विवाह पर महाप्रतिबंध था. सिनेमा रचने वालों
ने इस सामाजिक मनःस्थिति का भरपूर विदोहन किया, पहले छेड़-छाड़ दिखाई, फिर आँखे मिलीं, दोनों मुस्कुराए, साथ-साथ गाने गाए. उसके बाद
किसी ने उन्हें प्यार करते देख लिया, परिवार की इज्जत आड़े आ गई, विरह-वियोग के गीत गाए गाए
और फिल्म का दुखांत हो गया.
हिन्दी सिनेमा ने विगत सौ वर्षों में अपने सीमित साधनों के
बावज़ूद विश्व सिनेमा में अपनी अलग साख बनाई है, संख्या के साथ-साथ गुणवत्ता में भी। इस अवधि की
फ़िल्मों का अवलोकन किया जाए तो अनेक ऐसी फ़िल्में बनी जो मानवीय मूल्यों की गहरी
समझ लिए हुए थी, भले तकनीकी रूप से उतनी
समर्थ न रही हों। स्वप्न और संकट को कसौटी पर कसने के लिए इन तीन फ़िल्मों की चर्चा
को माध्यम बनाया जाए। ‘श्री ४२०’ (१९५५) में मनुष्य के छ्द्म
सपनों का अभूतपूर्व चित्रण, ‘मदर इन्डिया’ (१९५७) में कृषक जीवन की
विषमताओं और समस्याओं का गहन विश्लेषण और ‘दो आँखें बारह हाथ’ (१९५७) में आत्मविश्वास से
परिपूर्ण नवोन्मेषी साहस और विश्वास के संकट का भीषण संघर्ष सिनेमा के परदे पर
अत्यन्त गहराई से दिखाया गया।
सन १९५५ में भारतवर्ष आजादी की ताज़ी सांस ले रहा था, उमंगें लहरा रही थी, आशाओं के दीप जगमगा रहे थे; उसी समय `श्री ४२०' आई जिसने सभ्यता और प्रगति
के मुखौटे पहने समाज को पहचानने का प्रयास किया और उसके संभावित खतरों से स्वप्न
देखते समाज को परिचित कराया। उस फिल्म में संकट से जूझती गरीबी, अभावों की कसक, धनिक बनने की चाहत और उसके
टेढ़े-मेढ़े रास्तों का मानवीय चित्रण किया गया था। राजकपूर पर केन्द्रित पुस्तक 'आधी हकीकत आधा फसाना' में लेखक प्रहलाद अग्रवाल ने
सटीक विश्लेषण किया है : '...दिन-रात भीख मांगकर गुजर-बसर
करने वाले भिखारी के सपने पर वह धूल कैसे डाल सकता है जो 'अपने राजू' के विश्वास के कारण संतान्वे
रूपए नौ आने और दो खोटे पैसे दे गया है, अपनी ज़िन्दगी के सबसे दिलकश सपने- अपने घर की
खातिर ! "दो-ढाई रूपए कम हैं तो चाहे एक खिड़की कम लगाना पर घर दे देना भाई
!".....सभ्यता का मतलब मनुष्य के भीतर कोमलता का विस्तार है, पाशविकता का नहीं। देव और
दानव मनुष्य के ह्रदय में एक साथ मौजूद होते हैं और दानवी प्रवृतियों से मुक्त
होने की लगातार संघर्ष यात्रा ही सभ्यता के उत्थान की महागाथा है।' फिल्म `श्री ४२०' में मनुष्य के संकट और
स्वप्न का ह्रदयस्पर्शी चित्रण था।
फ़िल्म ‘मदर इन्डिया’ में भारतीय ग्रामीण जीवन के वैविध्य भरे कथानक
को पिरोया गया था। उसमें सपने भी थे और जिजीविषा का संघर्ष भी। लहलहाती फ़स्लों का
संतोष था और बाढ़ से उजड़ गए सपने भी। स्त्री की लज्जा एवं सम्मान का संकट था और
भूखे बच्चे का पेट भरने की विवशता भी। मेहबूब खान ने इन्सानी ज़ज़्बात और उसकी
मजबूरियों को इस तरह उकेरा था कि फ़िल्म देखने वाले का दिल दहल जाए। स्वप्न और संकट
का अनवरत संघर्ष मनुष्य के जीवन की वह विशेषता है जो सपनों को सच करने चाहत और उसे
संकट से लड़ने की ताकत देते रहती है। यदि निराश करती है तो फ़िर से नए सपने दिखाकर पुनः
आशा का संचार करती है और इसी तरह जीवनचक्र चलते रहता है। फ़िल्म ‘दो आँखें बारह हाथ’ एक जेलर के विश्वास का
स्वप्न और छः दुर्दान्त अपराधियों के खुली जेल से भागने की कोशिश का अनमोल
दस्तावेज है। जेलर का कैदियों पर भरोसा और कैदियों को घूरती दो आँखॊं का संकट उन्हें
बेड़ियों के बगैर बेड़ियां पहना देता है और भागने की आज़ादी होने के बाद भी न भागने
के लिए मज़बूर कर देता है। व्ही. शांताराम ने विश्वास और अविश्वास के डगमगाते संकट
को इस फ़िल्म में पिरो कर नायक के स्वप्न को सच होते वर्णित किया था जो मानवीय
मूल्यों की स्थापना पर व्यक्तिगत सोच की मुहर थी।
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अब
कोलम्बो की ओर चला जाए. कोलम्बो श्रीलंका की राजधानी है. दरअसल इसका नाम कुल और
अम्बा का मिश्रित रूप है. कुल का अर्थ है हरा (रंग) और अम्बा का अर्थ है आम (फल); मतलब हरा आम. कुलम्बा नाम
अंग्रेजों की कृपा से कोलम्बो हो गया. आम की फसल वहां भरपूर होती है और साल में आठ महीनों तक
बाज़ार में आम मिलते हैं. हम लोग जब वहां गये थे, वह ‘ऑफ़ सीजन’ था, फिर भी वहां आम
मिल रहा था, हालांकि बहुत महंगा था इसलिए खरीदने की मेरी हिम्मत नहीं हुई.
कोलम्बो
हिंदमहासागर के किनारे बसा हुआ एक खूबसूरत नगर है. साफ़-सुथरी और चौड़ी सड़कें, हर समय समुद्र से नगर की ओर
बहती मनमोहक हवा, बेहद शालीन यातायात. यातायात
का ज़िक्र इसलिए किया क्योंकि बीच सड़क में हम दोनों जब चालू ट्रेफिक में सड़क पार
करने की कोशिश करने लगे तो हमारे सामने पड़ी कार हमें देखकर रुक गयी, हम दोनों भी रुके और उन्हें
आगे बढ़ने का इशारा किया लेकिन वे रुके रहे, उसके चालक ने हमें सड़क पार करने का इशारा किया.
उस कार के पीछे कारों का काफिला भी रुका रहा, किसी ने हार्न नहीं दिया, सब रुके रहे. क्या पैदल चलने
वालों के लिए भारत में ऐसे किसी दृश्य की कल्पना संभव है?
भारत
में निर्मित टाटा की नैनो कार वहां पर टैक्सी के रूप में चलती दिखी, एक मात्र
भारतीय उत्पाद, तो उसे देखकर बहुत अच्छा लगा अन्यथा सामान्यतया निजी कारें चीन, जापान और कोरिया में बनी हुई
दिखीं. एक से एक डिजाइन की कारें. इसी प्रकार वहां के क्लाथ मार्किट में भारत से
आयातित रेडीमेड कपड़ों की भरमार दिखी, बेशक कीमत भारत से दोगुनी थी. इनके अलावा
श्रीलंका में भारत अनुपस्थित था. सब ओर चीन का वर्चस्व दिखाई पड़ रहा था. शानदार
क्रिकेट स्टेडियम हो या वृहदकाय पुस्तकालय, ओवरब्रिज हों या महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ, सब चीन के आर्थिक सहयोग से
निर्मित बताया गया. पहले प्रायः सभी वस्तुओं का भारत से आयात होता
था क्योंकि श्रीलंका में रोजमर्रा की वस्तुओं का उत्पादन बहुत कम होता है लेकिन अब
धीरे-धीरे श्रीलंका की भारत पर निर्भरता अब कम होती जा रही है, चीन की भागीदारी
राजनैतिक कारणों से लगातार बढ़ रही है.
अगले
दिन होटल में एक वैवाहिक कार्यक्रम आयोजित हुआ. दूल्हा-दुल्हन श्रीलंका की
पारंपरिक साज सजा से विभूषित थे, लड़के और लड़की वाले भी एक जैसी सुसज्जित वेशभूषा
में थे. पूरा कार्यक्रम होटल के भीतर ही चलता रहा. एक घंटे तक चले उस सजे-धजे कार्यक्रम
को देखने के लिए हम लोगों ने नगर भ्रमण का कार्यक्रम के समय को स्थगित कर दिया और
उसका आनंद लेते रहे.
दिन
भर कोलम्बो शहर को निहारते रहे, जब शाम हुई तो हम सब साहित्यकार होटल के पास
फैले समद्र तट पर इकठ्ठा हो गए, कोई कविता सुना रहा था तो कोई गीत. कुछ लोग
छोटे-छोटे समूह में बैठे बतिया रहे थे. बेहद खुशनुमा माहौल था. अनायास ही चर्चा के दौरान मेरे मुंह से माधुरी
जी के हस्तरेखा ज्ञान की बात निकल गयी तो अपना हाथ दिखाकर भविष्य जानने वालों का
तांता लग गया. माधुरी जी ने सबका हाथ बड़े ध्यान से देखा और ‘अच्छा है’, ‘सब अच्छा
है’ का मन्त्र सबके कानों में फूंक दिया. एक सज्जन उनके पीछे ही पड़ गए, ‘विस्तार
से बताइये’ तो उन्होंने जब उनके अतीत के बारे में बताना शुरू किया तो वे हाथ छुड़ा
कर भाग खड़े हुए.
रात
की फ्लाईट से हम लोग भारत की वापसी यात्रा पर निकल पड़े. इस बार हवाई जहाज में
बैठते ही थकान के मारे ऐसी नींद आई कि कब चेन्नई आ गया, मालूम ही नहीं पड़ा. कान और
सर में होने वाला दर्द भी महसूस नहीं हुआ.
तो, यह रही हमारे जीवन की पहली
विदेश यात्रा. श्रीलंका बेहद खूबसूरत देश है, रंग-रंगीला, धरती हो या आकाश या पर्वत हो या सागर, सब
मनमोहक. बेहद प्यारे लोग, सुसंस्कृत और व्यवहार कुशल लोग. मुझे तो श्रीलंका अपने दक्षिण भारत जैसा लगा.
मौका लगे तो अवश्य जाइए, आपको बहुत अच्छा लगेगा, इसकी गेरेंटी है.
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रंगीला
राजस्थान
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राजस्थान
अंग्रेजों के ज़माने में राजपूताना कहलाता था क्योंकि इस क्षेत्र में अजमेर-मेरवाड़ा
और भरतपुर को छोड़कर अन्य भूभाग पर राजपूतों की रियासतें थी. बारहवीं सदी के पूर्व
यहाँ गुर्जरों का राज्य था इसलिए इस क्षेत्र को गुर्जरत्रा कहा जाता था.
अजमेर-मेरवाड़ा
अंग्रेजों के अधीन था जबकि भरतपुर में जाटों के. कुल मिलाकर छोटी-बड़ी 21 रियासतें थी जिन्हें स्वाधीन
भारत में शामिल करना बेहद कठिन था क्योंकि अधिकतर राजा एकीकरण के पक्ष में नहीं थे, कुछ खुद-मुख्त्यारी चाहते थे
तो कुछ पाकिस्तान में विलय चाहते थे. स्वाधीन भारत के तात्कालीन गृह मंत्री वल्लभ
भाई पटेल और उनके सचिव वी. के. मेनन ने इस असंभव को संभव कर दिखाया और उसकी
परिणिति बनी, भारतवर्ष का नूतन राज्य, राजस्थान, जो 30 मार्च 1949 को संवैधानिक रूप से गठित
हुआ.
राजस्थान
की आकृति पतंगाकार है. इसके उत्तर में पाकिस्तान, पंजाब और हरियाणा, दक्षिण में मध्यप्रदेश और
गुजरात, पूर्व में उत्तर प्रदेश और
मध्यप्रदेश एवं पश्चिम में पाकिस्तान हैं. सिरोही से अलवर जाती हुई
अरावली-पर्वत-श्रृंखला राज्य को दो भागों में विभाजित
करती है. राजस्थान का पूर्वी संभाग
शुरु से ही उपजाऊ रहा है. इस भाग में वर्षा का औसत 50 से.मी. से 90 से.मी. तक है.
राजस्थान के निर्माण के पश्चात् चम्बल और माही नदी पर बड़े-बड़े बांध और विद्युत
गृह बने हैं, जिनसे राजस्थान को सिंचाई
और बिजली की सुविधाएं उपलब्ध हुई है. अन्य नदियों पर भी मध्यम श्रेणी के बांध बने
हैं, जिनसे यहाँ के खेतों में
सिंचाई होती है।
राज्य का पश्चिमी भाग देश के सबसे बड़े रेगिस्तान 'थार' का भाग
है. इस भाग में वर्षा का औसत 12 से.मी. से 30 से.मी. है. इस भाग में लूनी, बांड़ी
आदि नदियां हैं जो वर्षा के दिनों को
छोड़कर प्राय: सूखी रहती हैं. देश की स्वतंत्रता से पूर्व बीकानेर राज्य गंगा नहर
द्वारा पंजाब की नदियों से पानी प्राप्त करता था, स्वतंत्रता
के बाद राजस्थान इण्डस-बेसिन से रावी और व्यास नदियों से 52.6% पानी का भागीदार बन
गया. उक्त नदियों का पानी राजस्थान में लाने के लिए सन 1958 में 'राजस्थान
नहर' परियोजना शुरु की गई.
जोधपुर, बीकानेर, चूरू एवं
बाड़मेर जिलों के नगर और कई गांवों को इस नहर के माध्यम से पीने का पानी उपलब्ध हो
रहा है. राजस्थान के रेगिस्तान का एक बड़ा भाग अब शस्य-श्यामला भूमि में बदल गया
है.
राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य
है. इसका क्षेत्रफल 342,239 वर्ग-किलोमीटर है. सन 2011 की जनगणना के
अनुसार राज्य की जनसंख्या 68,548,437 थी और जनसंख्या का घनत्व 200 प्रति वर्ग-किलोमीटर.
वेब
पत्रिका 'सृजनगाथा डाट काम' के द्वारा नियोजित बारह
दिवसीय १४वें अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में देश के विभिन्न भागों से आए हिंदी
साहित्य के रचनाकारों ने राजस्थान की यात्रा की और साहित्यिक विमर्श किया. हमारा
पहला पड़ाव था,
राजस्थान
की राजधानी जिसे गुलाबी शहर के नाम से जाना जाता है, जयपुर.
इस
शहर की स्थापना सन 1728
में
आमेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने की थी. जयपुर शहर अपने ऐतिहासिक महत्व, स्थापत्य कला और
सांस्कृतिक रुझान के लिए सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है. यहाँ के किले, महल और झील दर्शनीय हैं, खास तौर से आमेर का किला, कल्पना और कारीगरी का
अनोखा शाहकार है.
इस
शहर के निर्माण के सन्दर्भ में वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य को लोग शिद्दत से
याद करते हैं जो आमेर दरबार की कचहरी में एक नायब दरोगा थे लेकिन वास्तुकला में
उनकी गहरी समझ और योग्यता से प्रभावित होकर महाराजा ने उन्हें नयी राजधानी की नगर
योजना की जिम्मेदारी सौंपी. इस शहर के वास्तु की ज्यामितीय उत्कृष्टता इतनी सटीक
है कि कोई इसे सूत से नाप ले तो बाल बराबर फर्क भी नहीं मिलेगा. नगर की सुरक्षा के
लिए निर्मित परकोटे में प्रवेश के लिए सात दरवाजे बने हैं, एक दरवाजा बाद में बना
जिसे 'न्यू गेट' कहते हैं. शहर छः भागों
में बनता हुआ है और 111 फुट चौड़ी सड़कों से विभाजित है. यहाँ जलमहल, जंतर मंतर, आमेर महल, नाहरगढ़ का किला और हवामहल
इतिहास और स्थापत्यकला की दृष्टि से दर्शनीय है.
गुलाब
एक फूल का नाम है जिसकी देशी प्रजाति का एक विशिष्ट रंग है जो गुलाबी कहलाता है.
यह बताना मेरे लिए मुश्किल है कि गुलाबी रंग के कारण फूल का नाम गुलाब हुआ या गुलाब
के फूल के रंग के कारण रंग का नाम गुलाबी हो गया. सन 1876 में इंग्लैण्ड की
महारानी एलिजाबेथ व प्रिंस ऑफ़ वेल्स एल्बर्ट के स्वागत में तात्कालीन महाराजा सवाई
रामसिंह ने पूरे जयपुर नगर को गुलाबी रंग से पुतवाया था, तब से यह परंपरा अब तक चली
आ रही है. देखने में वहां का रंग मुझे गुलाबी नहीं लगा, धूसर सा है पर जब लोग कहते
हैं तो वह रंग गुलाबी ही होगा.
जयपुर
रेलवे-स्टेशन पर जयपुरिया मित्र श्री फारुक अफरीदी मुझे लेने आये और कार को एक
लस्सी की दूकान पर रोका,
'सबसे
पहले जयपुर की लस्सी हो जाए क्योंकि आपका होटल यहाँ से बारह किलोमीटर दूर है, वहां पहुँचने में देर
लगेगी.'
वे
बोले. यद्यपि अक्तूबर का महीना था लेकिन जयपुर उस दिन तप रहा था, मई-जून जैसी गर्मी, ऊपर से अकुलाहट. जब
गिलासनुमा सकोरे में मलाई से सराबोर लस्सी आई तो उसे देखते ही मन प्रसन्न हो गया.
लस्सी शानदार थी. उन्होंने मुझे होटल छोड़ा. दोपहर के भोजन के बाद मेरा सोने का
अभ्यास है,
उस
दोपहर बिना खाए सो गया क्योंकि वहां भोजन का प्रावधान ही नहीं था लेकिन लस्सी का
सहारा था,
नींद
आ गयी. शाम को पांच बजे नींद खुली, मैं फटाफट तैयार हुआ. काउंटर में पता किया तो
मालूम हुआ कि सब लोग कार्यक्रम स्थल के लिए बस से रवाना हो गए, 'किसी' का क्या दोष? मुझे स्वयं सतर्क रहना था
और समय पर समूह के साथ कार्यक्रम के लिए निकलना था.
वह
मुहर्रम की शाम थी,
सड़कें
और ऑटो ठसाठस थे. एक घंटे की कठिन तपस्या के पश्चात एक ऑटो मिला. 'सूचना केंद्र' में कार्यक्रम चल रहा था.
वहां मेरी आत्मीय मुलाक़ात जयपुर के श्री नन्द भरद्वाज से हुई, श्री किशन कुमार पुरोहित
से हुई,
श्री
गोविन्द माथुर से हुई,
श्री
हरीश करमचंदानी से भी हुई,
इन
सबसे मिलकर बहुत अच्छा लगा. लगभग दस बजे रात्रि को कार्यक्रम समाप्त हुआ. हम सब
अपनी बस से होटल के लिए रवाना हुए लेकिन मुहर्रम की भीड़ की वज़ह से हमारी बस भटक
गयी और हमें होटल पहुँचने में रात को एक बज गए. सुबह से कुछ नहीं खाया था, भूख चरम पर थी. हमारे वहां
पहुंचते तक भोजन की टेबल पर रोटी और छोले की तरी बची हुई मिली. 'कुछ और' के लिए पूछा तो 'कुक' से उत्तर मिला, 'आठ बजे से खाना बना कर रखा
हूँ,
तीन
बार गरम कर चुका हूँ. रात को एक बजे आए हो, सब ख़त्म हो गया. जो है, उसे खा लो.' मजबूरन जो था, उसे मैंने खा लिया और अपने
साथी डा.सुनील जाधव (नांदेड़) के साथ बिस्तर शेयर करके सो गया.
अगली
सुबह मैंने अपने पुराने मित्र प्रवीण नाहटा को फोन करके अपने जयपुर आने की खबर की.
वे मुझे लेने बिरला मंदिर आये, समूह के अन्य सदस्य जयपुर दर्शन के लिए निकल
गए और मैं प्रवीण जी के घर चला गया. मैंने उनसे कहा कि मुझे जयपुर की उन हस्तियों
से मिलना है जो संस्कृति,
कला
और संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हों. आधे घंटे के प्रयास के बाद
हमें वीणा वादक सलिल भट्ट और गजल गायक हुसैनबंधु से मिलने का समय मिल गया और
मूर्तिकार अर्जुन प्रजापति से भी फोन पर बात हुई लेकिन वे व्यस्त थे इसलिए उनसे
समय न मिल सका. दोपहर को एक बजे हम दोनों श्री सलिल भट्ट के घर पहुँच गए.
जब
एक घर के सामने प्रवीण जी की कार रुकी, मैं बाहर निकला तो माहौल की तपन ने झुलसा सा
दिया. भागते हुए घर के बाहर लगी फुलवारी में घुसे, आगे बढ़कर घंटी बजाई, एक गृहिणी ने द्वार खोला
और हमारा स्वागत किया. ये श्रीमती प्रमिला भट्ट थी. कहा, 'आइए, बैठिए.'
सोफे
पर हम दोनों बैठ गए. कुछ ही क्षणों में उनके पति श्री राजीव भट्ट आ गए और एक ट्रे
में ठंडा पानी लेकर प्रमिला जी.
कुशल-क्षेम
के आदानप्रदान के बाद प्रवीण जी ने उनसे मेरा परिचय कराया और हमारे वहां पहुँचने
का उद्देश्य बताया. मोहन-वीणा वादक श्री विश्वमोहन भट्ट उस दिन जयपुर में नहीं थे
लेकिन उनके पुत्र सलिल भट्ट घर पर थे, प्रमिला जी ने उन्हें हमारे आने की खबर अपने
मोबाईल से दी. सलिल जी के आने तक हम लोग आपसी चर्चा में मशगूल हो गए. राजीव भट्ट
और प्रमिला भट्ट जयपुर में संगीत की शिक्षा के पर्याय हैं. गायन और वाद्य संगीत की
सभी विधाओं में प्रवीण हैं दोनों. उनके संगठन का नाम है 'दर्शक', जिसके अंतर्गत वे नवोदित
पीढ़ी को संगीत से जुड़ने और सीखने में मदद करते हैं. हर वर्ष स्वाधीनता दिवस पर
जयपुर के बिड़ला आडिटोरियम एक कार्यक्रम विगत सोलह वर्षों से करते आ रहे हैं, 'हम गीत वतन के गाएंगे', जिसमें देशभक्ति के गीत
गाए जाते हैं और उस कार्यक्रम में 100 गायक, 10 संगीतकार और 50 नर्तक भाग लेते हैं.
इस
दंपत्ति को नाटकों से भी प्यार है. जयपुर में प्रत्येक वर्ष सात दिवसीय 'फुग्गे' उत्सव मनाया जाता है
जिसमें राजीव भट्ट,
दीपक
गेरा और संजीव सचदेव की त्रिमूर्ति नाटकों का आयोजन करती है.
नाटक
की चर्चा चली तो एक रोचक घटना की याद सामने आई. प्रवीण नाहटा ने मुझे बताया, 'इन्हें शिकायत थी कि हम
इतनी मेहनत से नाटक तैयार करते हैं लेकिन उसे देखने के लिए दर्शक नहीं आते.'
'तो?' मैंने पूछा.
'मैंने इनसे कहा कि 300 प्रवेशपत्र 'राजस्थान पत्रिका' के कार्यालय में एक दिन
पहले पहुंचा दीजिए.'
'फिर?'
'अगले दिन हमारे अखबार में
छपा,
'फुग्गे' नाट्य उत्सव का प्रवेश
पत्र 'राजस्थान पत्रिका' के कार्यालय में निःशुल्क उपलब्ध है. सीमित
मात्रा में है. जो पहले आएगा, उसे मिलेगा.' शाम तक सारे प्रवेशपत्र ख़त्म हो गए, परिणामस्वरूप नाटकों के हर
'शो' में भीड़ बनी रही.' प्रवीण जी ने बताया, 'इन्हें नाटक के दर्शक मिल
गए और हमारे अखबार का सामाजिक सरोकार सिद्ध हो गया.'
इतने
में सलिल जी,
सलिल
भट्ट,
हमारे
सामने आ बैठे. सांवले से,
बड़े-लटकते
हुए बाल,
चेहरे
पर मोहक मुस्कान,
अच्छा
खासा डीलडौल. मैंने उनसे कहा, 'आपका कार्यक्रम बिलासपुर के 'विचारमंच-सरगम' में दो वर्ष पूर्व हुआ था, तब आपको पहली बार मैंने
सुना था,
आज
भी आपकी वीणा की ध्वनि मेरे कान में गूंजती है.'
'सब मेरे गुरु और पिता
विश्वमोहन जी का आशीर्वाद है और मेरे दादा-गुरु पंडित रविशंकर की कृपा है.' सलिल भट्ट ने अपने दोनों
कान छूते हुए कहा.
सात्विक
वीणावादक सलिल भट्ट ने पैंतालिस मिनट की बातचीत में संगीत, संगीत के प्रभाव, संगीत की हालत और
संगीतकारों के मनोविज्ञान पर खुलकर विचार व्यक्त किए. उन्होंने सुझाव दिया, 'संगीत को 'नर्सरी' से ही पाठ्यक्रम का
अनिवार्य विषय बनाया जाना चाहिए. इस सम्बन्ध में एक ज्ञापन मेरे गुरु पद्मविभूषण
विश्व मोहन भट्ट ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सौंपा है. संगीत महज़ शिक्षा
नहीं है,
संस्कार
है. संगीत से जुड़ा इंसान अपनी मर्यादा को जानता है. मैं अपने बेटे और बेटी को हर
समय संगीत के माहौल में रखता हूँ. उनके सामने चाहे कोई बड़ा हो या छोटा; स्त्री हो पुरुष; बच्चा हो या वृद्ध, वे कभी भी किसी से अशोभनीय
व्यवहार नहीं करेंगे.
हमारे
देश में जब लड़की होती है तो उसे समझाते हैं कि झुककर रहो; छुप कर रहो, जबकि अपने लड़के को कुछ
नहीं कहते. वह छुट्टा सांड की तरह घूमता है, उसे कुछ नहीं समझाते. इसी कारण राम रहीम जैसे
लोग बनते हैं. संगीत इंसान को इंसान बनाकर रखता है और उसे मानवीयता से जोड़ता है.
हमें समाज में जानवर नहीं,
इंसान
चाहिए. उसे इंसान बनाने की जिम्मेदारी हमारी है.'
'संगीत के माध्यम से आप
पीढ़ी को समझदार और मानवीय बना रहे हैं, यह स्तुत्य है. मैंने कहा.
'हम किस के ऊपर अहसान नहीं
कर रहे हैं. अपने जीवन में अच्छा काम करने से हमें ख़ुशी मिलती है. अब आपने सुना
होगा,
कलाकार
को जब सम्मान मिल जाता है,
उसका
नाम फ़ैल जाता है
तो
उसके नाज़-नखरे बढ़ जाते हैं. वह ऐसा व्यवहार करने लगता है जैसे वह कोई अनोखा बन गया
है. यह बात ठीक नहीं,
मनुष्य
को हर स्थिति में सहज होना चाहिए.' सलिल जी ने कहा.
'अपने संगीत जीवन की कोई
ऐसी घटना बताइए जिसने आपको दुखी कर दिया हो और ऐसी भी बताइए जिसने आपको खुश किया
हो.'
मैंने
पूछा.
'एक बार की बात है, मैं 'स्पिक मैके' की और से पानीपत गया था.
वहां मुझसे आयोजक ने मुझसे पूछा, "इसको कब चलाओगे?"
"यह कार या गाड़ी नहीं हैं
जिसे चलाया जाए. इसे चलाया नहीं जाता, इसके तारों को झंकृत किया जाता है.'
"हाँ, हाँ, गिटार है न यह? कब बजाओगे?"
"यह गिटार नहीं है, सात्विक वीणा है."
"जो भी हो, कब बजाओगे?'' उसने मुझसे पूछा. उसकी बात
सुनकर थोड़ा बुरा लगा कि मैं 'कल्चर' नहीं 'एग्रीकल्चर' जानने वालों के बीच आ गया. कई बार ऐसी स्थिति
आ जाती है लेकिन यदि हम अपना आपा खो दें तो वह हमारी कमजोरी है. उसकी अज्ञानता को
मैंने मुस्कुरा कर टाल दिया.'
'और कोई यादगार घटना?'
'वह भी पानीपत की ही है. एक
कार्यक्रम में मंच पर बड़ा बैनर लगा हुआ था जिसमें पंडित विश्वमोहन भट्ट और पंडित
रविशंकर के चित्र लगे हुए थे. उसे देखकर मैंने कहा, "आज मैं धन्य हो गया कि आज
इस मंच में मेरे गुरु और उनके गुरु के चित्र लगे हुए हैं. मुझे ऐसा लग रहा है कि
मैं उनकी उपस्थिति में मैं वीणा बजा रहा हूँ. आज मैं अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ
वादन प्रस्तुत करने की कोशिश करूंगा.'' सलिल जी ने हंसते हुए बताया.
दोपहर
के समय खोले के हनुमान जी के मंदिर में आयोजित एक भोज में राजस्थानी व्यंजन का
आनंद लिया. तीन किस्म की बाटी, तीन किस्म का चूरमा, तीन किस्म की सब्जी. सब
कुछ शुद्ध घी से तर, मज़ा आ गया. हमारे घर में तो शुद्ध घी
और खाद्य तेल के उपयोग पर 'राशनिंग' है. माधुरी जी जब खाना
बनाती हैं तो सब्जी बनाते समय उसमें चार बूँद तेल गिनकर डालती हैं और दाल या खिचड़ी
में दो-दो बूंद शुद्ध घी को टपका देती हैं, ऊपर से कहती हैं, 'तेल-घी से शरीर बिगड़ता है.
वैसे ही नब्बे किलो के हो,
और
मोटाना है क्या?'
काश, हमारे भाग्य में कोई
राजस्थानी बीवी होती तो हम भी घी में तैरते-उतराते!
शाम
के वक्त मैं सवाई मानसिंह मेडिकल कालेज के सभाभवन में पहुंचा. प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक
अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन से वहीँ पर हमारी मुलाकात तय थी. उन्हें आमने-सामने
देखकर मन प्रफुल्लित हो गया. वहां पर स्नेह सुरमंडल की ओर से 'सूफी कल्चरल इवनिंग' का आयोजन था जिसमें देश के
नवोदित गायक मयूख पारीक (मुंबई), मोहम्मद सलीम (भोपाल) और मोहम्मद अमान
(सारेगामा फेम) अपनी गायकी का
प्रस्तुतीकरण कर रहे थे. इन गायकों को वे जिस ढंग से उत्साहित कर रहे थे, उसे देखकर उनका बड़प्पन झलक
रहा था. अपनी किशोरावस्था में संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा था, जिसके उत्तरार्द्ध का
भावार्थ था,
'फलों
से लदा हुआ वृक्ष सदा झुका हुआ होता है.'
तीन
अक्तूबर की सुबह हम लोग अजमेर के लिए निकल पड़े. अजमेर में हमारा स्वागत साहित्य
प्रेमी स्वामी ज्योतिषाचार्य ने किया जहाँ से एक सर्व-धर्म-सद्भाव यात्रा निकली.
पदयात्रा में हिन्दू,
मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन और प्रजापिता
ब्रह्मकुमारी के प्रमुख हमारे साथ नगर की मुख्य सड़क से होते हुए श्री गणेश मंदिर, सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती (1141-1236) की दरगाह और चर्च गए तथा
सामूहिक आराधना की. राह में जगह-जगह नागरिक हम पर गुलाब के फूल की सुगन्धित
पंखुडियां बरसा रहे थे. कितना शुभ हो कि ऐसी पवित्र भावना का प्रसार देश के
प्रत्येक नगर,
कस्बे
और गाँव में हो.
अगली
सुबह पुष्कर में हुई. वहां के लघु-प्रवास के पश्चात हम लोग अजमेर के लिए निकल पड़े.
हम लोग दो बस में सवार थे. एक बड़ी बस थी और एक मझोली. जयपुर में मैं मझोली बस में
बैठ गया तो जोधपुर तक उसमें ही बैठा रह गया. धीरे-धीरे सब एक-दूसरे से परिचित होते
गए और गाते-झगड़ते आठ दिन तक साथ-साथ रहे. हमारी बस में एक तेज-तर्रार सात वर्षीय
बालक था,
आयुष, जो समस्तीपुर में पदस्थ
श्री अशोक कुमार (राज्य पुलिस सेवा) और श्रीमती शीला का पुत्र है, हम सबके आकर्षण का केंद्र
था. चलती बस में उसने हम सबके नाम पूछकर अपनी डायरी में नोट किया और घोषणा की, 'कल की बस यात्रा में मैं
सबको पुरस्कार दूंगा.'
हमने
पूछा,
'क्या
देने वाले हो आयुष?'
'सीक्रेट है, कल मालूम पड़ेगा.' उसने कहा.
राजस्थान
में 'ओरिजनल ब्यूटी' की तलाश है तो वह पुष्कर
के आसपास की गाड़िया-लोहार,
सासी, नटिया और कालबेलिया जाति
की स्त्रियों में मिलेगी. ये घुमक्कड़ कौम है, इनका कोई घर नहीं होता लेकिन इनके चेहरे में
कोई दुःख का भाव नहीं होता,
ये
सदा मुस्कुराते रहती हैं. चेहरे पर कोई मेकअप नहीं लेकिन चेहरे का रंग सुनहरा. कालबेलिया जाति की
स्त्रियां सर्प-नृत्य में प्रवीण होती है, यायावरी जीवन जीती हैं और अभाव में भी खुश
रहना जानती हैं.
नागौर
और अजमेर के बीच के कई गाँव 'कूबड़ पट्टी' कहलाते हैं. आप सोच रहे होंगे की ऐसा नामकरण
क्यों हुआ?
कारण
यह है कि अजमेर से जुड़े गाँवों में पानी की बहुत कमी है, वहीँ पर पुष्कर से जुड़े
गाँवों में पानी उपलब्ध है लेकिन यह पानी दूषित है, पानी में 'फ्लोराइड' की मात्रा बहुत है. इस पानी के पीने से 'स्केलेटल फ्लोरोसिस' नामक बीमारी हो जाती है और
उसके सेवन से मनुष्य में कूबड़ निकल जाता है. यहाँ जायल विधानसभा क्षेत्र में 120 से अधिक गाँव हैं जो इस
दूषित पानी को पीने के लिए अभिशप्त हैं.
पुष्कर
से हम बीकानेर के लिए निकल पड़े. बहुत लम्बा और उजाड़ रास्ता था. बस के अन्दर दो
साहित्यकारों के बीच साहित्यिक विमर्श चल रहा था, विमर्श बहस में बदल गया, आवाज़ तेज हो गई. तीसरे भी
उसमें प्रविष्ट हो गए,
अब
त्रिकोणीय मुकाबला हो रहा था. हमारी बस में कार्यक्रम सञ्चालन का काम सुनील जाधव
ने संभल रखा था. विमर्श को बहस तक पहुँचाने में उनका भी योगदान था. जब तीनों रचनाकार
बोलते-बोलते थक गए तो वे चुप हो गए. ए.सी. चालू होने के बावज़ूद बस का माहौल गर्म
हो गया. सुनील जाधव ने उनकी चुप्पी
का लाभ उठाते हुए कविता पाठ करने का अनुरोध किया, कविता और ग़ज़ल का लंबा दौर चला. बीच-बीच में
कोई सबके लिए पेड़े बढ़ा देता, कोई नमकीन का पैकेट तो कोई
पका हुआ केला. हमारे साथ कत्थक नृत्यांगना अनुराधा दुबे थी जिन्होंने चलती बस में
विभिन्न भाव-मुद्राओं का फर्माइशी प्रस्तुतीकरण किया. इस बीच आयुष ने घोषणा की कि
वह कल के घोषित पुरस्कार देने जा रहा है. आयुष ने बहुत परिश्रम से सभी के लिए
ग्रीटिंग-कार्ड जैसे फोल्डर बनाए थे. मुखपृष्ठ पर खूबसूरत फूल की पेंटिंग और अन्दर
के पृष्ठ में हर व्यक्ति को अलग-अलग उपाधियाँ. इतनी कम आयु में बच्चे की समझ और
कल्पनाशीलता ने सबका मन मोह लिया.
हमारे
सहयात्री श्री सेवाशंकर अग्रवाल (सरायपाली) ने बस-ड्राइवर से जाकर कुछ बात की और
हमारी बस हाई-वे से बायीं ओर एक कच्ची सड़क में मुड़ गयी. हम वहां पहुँच गए जहाँ
मीरां का जन्मस्थल था,
श्री
कृष्ण-मीरां का मंदिर था. मीरां बाई (1504-1558) का जन्म राठौड़ की मेड़तिया शाखा के प्रवर्तक
राव दूदाजी के पुत्र रतनसिंह के यहां मेड़ता में हुआ था. मेवाड़ के महाराणा सांगा
के पुत्र भोजराज से मीरां का ब्याह हुआ था. कुछ समय बाद वे विधवा हो गयी थी. मीरां
बचपन से ही कृष्ण भक्त थी. उनकी कृष्ण-भक्ति ससुराल में किसी को पसंद नहीं थी.
कहते हैं कि उनकी कृष्णभक्ति से रुष्ट होकर उन्हें विष दिया गया था, सर्प भेजा गया परंतु मीरां बच गयी. अपने अंतिम
दिनों में उन्होंने मेवाड़ छोड़ दिया और वृंदावन होती हुई द्वारिका पहुँच गयी जहाँ
उनके जीवन का अंत हुआ. मीरां के पद राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में हैं. हृदय की गहरी
पीड़ा, विरह की अनुभूति और प्रेम की तन्मयता से
परिपूर्ण मीरां के पद गीतिकाव्य के उत्तम
उदाहरण हैं.
'बादल
देख डरी हो,
स्याम, मैं बादल देख डरी
स्याम मैं बादल देख डरी.
काली-पीली
घटा ऊमड़ी बरस्यो एक घरी
जित
जाऊं तित पाणी पाणी हुई सब भोम हरी,
जाके
पिया परदेस बसत है भीजे बाहर खरी
मीरां
के प्रभु गिरधर नागर कीजो प्रीत खरी.
स्याम मैं बादल देख डरी.'
मेड़ता
का मंदिर मीरां के भक्तिभाव से आच्छादित था. उनकी और भगवान श्री कृष्ण की प्रतिमा
के समक्ष उस समय मीरां के पद सस्वर गाये जा रहे थे. समय की कमी थी इसलिए उस भक्ति
संगीत का मैं मन-मुताबिक आनंद नहीं ले सका लेकिन मंजीरा थाम कर मैंने भी एक अंतरे
के गायन-श्रवण सुख लिया. आधुनिक मंदिरों में देवता-देवियों के समक्ष समृद्धि और
सुरक्षा की याचना करने भक्तों को मीरां से कुछ सीखना चाहिए जिसने 'उससे' कुछ माँगा नहीं, अपना सर्वस्व दे दिया.
भारत
के सुदूर पश्चिम में स्थित धार के मरुस्थल में जैसलमेर का भू-भाग प्राचीन काल में ’माडधरा’ अथवा ’वल्लभमण्डल’ के नाम से प्रसिद्ध था।
इसकी स्थापना 1156 ई. में भाटी राजा जैसल ने
की थी। जैसलमेर नक्काशीदार हवेलियों, गलियों, प्राचीन जैन मंदिरों, मेलों और मनाए जाने वाले उत्सवों के लिये
प्रसिद्ध हैं। निकट के सम गाँव में रेत के टीलों का पर्यटन की दृष्टि से विशेष
महत्व हैं। यहाँ का 'सोनार किला' राजस्थान के श्रेष्ठ
दुर्गों में से एक माना जाता हैं। जैसलमेर के इस किले का निर्माण
सन 1156 में किया गया था। रावल जैसल द्वारा निर्मित यह किला त्रिकूट
पहाड़ी पर स्थित है। 250 फीट ऊंचा और सेंडस्टोन के विशाल खण्डों से
निर्मित 30 फीट ऊंची दीवार वाले इस किले में 99 प्राचीर हैं। इसमें चार विशाल प्रवेश द्वार
हैं जिनमें से अंतिम एक द्वार मुख्य चौक की ओर जाता है जहाँ महाराजा का पुराना
महल है। इस किले के अंदर मौजूद
कुंए में पानी का निरंतर स्रोत है। राजस्थान में सभी रजवाड़ों
में किले बनाए गए थे लेकिन प्रजा के रहने की व्यवस्था केवल जैसलमेर और चित्तौड़गढ़
के किलों में ही थी,
शेष
किले राजाओं और सैनिकों के लिए बने थे.
जैसलमेर
क्षेत्र में राजस्थान के मारवा क्षेत्र में बोली जाने वाली 'मारवाड़ी', थार के रेगिस्तान की बोली 'थली', परगना सम, सहागढ़ व घोटाडू की 'थाट' व सिंध की 'सिंधी' का मिश्रण है. विसनगढ़, खुहड़ी, नाचणा आदि परगनों में माङ, बीकानेरी व सिंधी भाषा का
मिश्रण बोलचाल में है। इसी प्रकार लाठी, पोकरण, फलौदी के क्षेत्र में घाट व मा भाषा का
मिश्रण है.
जनवरी
से लेकर मार्च तक यहां ठंड पड़ती है और तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस तक पहुंच
जाता है। अप्रैल-जून में यह खूब तपता है, औसत तापमान 45 डिग्री सेल्सियस रहता है. दोपहर के समय जब
सूर्य सिर पर होता है और उसकी किरणों थार के रेगिस्तान पर पड़ती है तो सुनहरी रेत
को देख ऐसा लगता है मानो चारों ओर सोने के कण बिखरे पड़े हों. अधिकतर कुओं का पानी खारा है. जिन स्थानों पर
वर्षा का मीठा जल एकत्र हो जाता है, वही वर्ष भर आमजन के लिए उपलब्ध होता है.
बीकानेर
के एक शिक्षामंदिर में हमारे साहित्य उत्सव का कार्यक्रम आयोजित था। सभागार छोटा
था,
गर्मी
बहुत थी लेकिन मान-सम्मान भरपूर था. सह-साहित्यकारों ने लघु कथाएँ पढ़ीं, कुछ उपयोगी-अनुपयोगी भाषण
हुए.
समारोह
स्थल के मध्य में एक लान था जहाँ एक तरफ पानी
का कंटेनर रखा था और दूसरी तरफ चाय का। पास में डिस्पोजेबल कप भी रखे थे और उसके
पास एक पुट्ठे का खुला हुआ डिब्बा भी जिसमें उपयोग के पश्चात कप डालने थे लेकिन लान में सब जगह जूठे
कप बिखरे हुए थे। मैंने तो चाय पीकर अपना कप डिब्बे में डाल दिया लेकिन सब तरफ
बिखरे कप को देख कर मुझे बेचैनी होने लगी, मैंने उन्हें समेट कर यथास्थान रखने का
निर्णय लिया। अचानक मन में आया कि सहभागी साहित्यकारों को भी इस
कार्य से जोड़ा जाए। तीन मित्र वहीं पर बैठे थे। मैंने उनका ध्यान जब आकर्षित किया
तो वे भी उस गंदगी से नाखुश दिखे। मैंने उनसे कहा, 'चलिए, हम सब मिलकर इसे साफ कर देते हैं।' मेरा प्रस्ताव उन्हें पसंद
नहीं आया,
सब
झिझक गये। एक ने कहा,
'ये
हमारा काम थोड़े है।'
'फिर मैं अकेला
ही करता हूँ।' मैंने उनसे कहा। मैंने लान का एक कोना चुना और झुक कर कप
उठाने में जुट गया। किसी अध्यापक का ध्यान मेरी ओर गया होगा। वे लपककर मेरे पास
आये और मेरे हाथ से कप लेने का यत्न करते हुए कहा, 'छोड़िए सर इसे, यह आपका काम नहीं है।'
'लान को साफ़
रखना हम सब का काम है।'
'आप रहने दीजिए, मैं करवाता
हूँ।' उन्होंने कहा और आसपास खड़े लोगों को बुलाकर उस काम पर लगा दिया। दो तीन मिनट
में लान खूबसूरत दिखने लगा।
उल्लेखनीय यह
है कि कप फ़ेंकने वाले पढ़े लिखे थे और उसे व्यवस्थित करने वाले भी। दुःख यह है कि
फैलाने वाला कोई और है और समेटने वाला कोई और।
रात को साढ़े
ग्यारह बजे हम उस स्थान पर पहुंचे जहाँ राजस्थानी शैली की सजावट थी, भोजन-गीत-संगीत-नृत्य
का संक्षिप्त आयोजन था. वहां बीकानेर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री बुलाकी शर्मा, श्री नवनीत
पाण्डेय, श्री राजाराम स्वर्णकार से मेरी आत्मीय चर्चा हुई. रात एक बजे हम अपने होटल
पहुंचे. भव्य भवन और सुसज्जित रिसेप्शन को देखकर मन मुदित हो गया. आधे घंटे की
मशक्कत के बाद कमरे की चाबी मिली. कमरे में मेरे सहवासी श्री सुनील जाधव और मैंने
सामान रखा, स्नानागार का उपयोग किया और जैसे ही मैं बिस्तर में बैठा, पलंग धसक कर
धराशायी हो गया. अचानक उत्पन्न उस स्थिति से मैं सहम सा गया, सुनील चौंक गए. मैं
धीरे से बाहर निकला और रिशेप्शन में खबर की. उस समय
रात को दो बज चुके थे, हम दोनों गपियाते हुए पलंग सुधरने का इंतज़ार कर रहे थे. बहुत देर बाद दो वेटर
साज-ओ-सामान के साथ आये और उन्होंने पूरा पलंग खोला, उसे ठोंक-ठाककर बनाया, फिर से बिछाया.
वेटर ने बताया, 'सर, पलंग कमजोर बने हैं. कई कमरों में ऐसा हो चुका है.' कहावत याद आई, 'ऊंची दूकान, फीके पकवान.'.
उस समय रात को
तीन बज रहे थे, मुझे सुबह पांच बजे उठना था और दैनिक क्रिया के पश्चात मुझे योग-प्राणायाम में
डेढ़ घंटे और लग जाते हैं. नाश्ते के लिए निर्धारित समय सात बजे तक नीचे पहुँचना
आवश्यक था क्योंकि हमें मरुभूमि के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए वहां से जल्दी निकलना
था और रेगिस्तान में बसे गाँव सम जाना था.
सम नामक स्थान
पर तम्बुओं की कई श्रृंखला हैं, आवास गृह बने हैं. हम जहाँ रुके, उसका नाम था, 'कैम्प-ए-खास'. उस सूखे
रेगिस्तान में आवास की सुनियोजित व्यवस्था करने वालों को सलाम करने का दिल होता
है. जहां पानी की बूँद-बूँद के लिए संघर्ष है, वहां भरपूर पानी, आरामदेह
बिस्तर, उपयोगी टायलेट, पंखा आदि समस्त सुविधाएं उपलब्ध थी. शाम को पांच बजे हम लोग अपने दुस्साहसी
ड्राइवर की जीप में बैठकर रेत के टीलों की ओर निकल पड़े. उन टीलों पर जीप का चढ़ना
और उतरना रोमांचक और डरावना अनुभव देता है. एक जगह गाड़ी रुकी. वहां सवारी करने के
लिए ऊंट थे, राजस्थानी भाषा में लोकगीत गाती नर्तकियां थी और रेगिस्तानी क्षितिज पर सूर्यास्त
का मनोरम दृश्य. धीरे-धीरे सूर्य रेतीली धरती में विलीन सा हो गया और धुंधलका छाने
लगा. हम कैम्प में वापस आये जहाँ कैम्प के मध्य में बने मंच पर साजिंदों के साथ
गायक लोकगीत सुना रहे थे और बालाएं नृत्य कर रही थी. दिन और शाम के मनभावन अनुभव
के बाद रात घिर आई, हम उस रात तबीयत से सोये क्योंकि सुबह जल्दी उठने का आसन्न संकट नहीं था.
इसके पहले कि
हम लोग जोधपुर के लिए प्रस्थान करें, मैं राजस्थान में प्रचलित 'पर्दा' के बारे में
कुछ बताता चलूँ. पर्दा का तात्पर्य है, कुछ छुपाना या अलग करना. इस विषय पर बात
इसलिए निकली क्योंकि मैं गट्टानी ट्रस्ट भवन नोखा में भोजन ग्रहण करने के पश्चात
अपने हाथ धोने के लिए हाल के पीछे स्थापित बेसिन के पास गया. उसकी दाहिनी ओर एक
बड़ा कमरा दिखा जहां रसोई तैयार हो रही थी. मैं वहां चुपचाप खड़ा हो गया और वहां पर
काम कर रहे चार लोगों के हुनर देख रहा था. मैंने सोचा, एक फोटो ले ली
जाए, मैंने मोबाईल कैमरा 'क्लिक' किया, आवाज से वे सब चौंके. मेरी तरफ देखकर मुस्कुराए और वहां पर काम कर रही तीन
महिलाओं ने तुरंत घूँघट काढ़ लिए. उनका घूँघट करना मुझे भा गया.
राधा के रूप
सौंदर्य के वर्णन में घूँघट के महत्व पर कृष्ण के माधुर्य भक्ति काव्य में कवि
हरिराम व्यास रचते हैं :
'नैन खग उड़िबे को अकुलात।
उरजन डर
बिछुरे दुख मानत, पल पिंजरा न समात।।
घूंघट विपट छाँह बिनु विहरत, रविकर कुलहिं डरात।
रूप अनूप चुनौ
चुनि निकट अधर सर देखि सिरात।।
धीर न धरत, पीर कहि सकत न, काम बधिक की घात।
व्यास स्वामिनी
सुनि करुना हँसि,
पिय के उर
लपटात।।'
घूँघट के अनेक
प्रयोग और अर्थ हैं,
जैसे , घूँघट उठाना, घूँघट पलटना,
घूँघट हटाना, घूँघट करना, घूँघट डालना,
घूँघट खोलना, घूँघट दूर करना, घूँघट के पट खोलना आदि. इन सब के अलग-अलग
अर्थ हैं जो हमारी दैनन्दिनी में प्रयोग में हैं. महाकवि कालिदास अभिज्ञान
शाकुंतलम'
में लिखते हैं, '‘इन तपस्वियों के बीच में वह घूंघट वाली सुन्दरी कौन है, जो पीले पत्तों के बीच में नई कोंपल के समान
दिखाई पड़ रही है.'
अमृतलाल नागर ने
एक उपन्यास लिखा था,
'सात घूँघट वाला
मुखड़ा'.
फिल्म 'सत्यम शिवम् सुन्दरम' की नायिका अपना जला हुआ चेहरा छुपाने के लिए
आधा घूँघट करती है,
ऐसा ही एक
दृष्टान्त राजस्थान की श्रुतियों में रुक्मी और रसाल का किस्सा भी है.
मुझे अच्छा
लगा कि आज भी राजस्थान अपनी परम्पराओं के निर्वहन के लिए सतर्क है; चाहे
आतिथ्य-सत्कार हो, बड़ों का मान हो, या बातचीत का लोच हो. अंग्रेजी भाषा में, 'जस्ट ग्रेट'.
राजस्थान का
इतिहास वीरता की कथाओं से परिपूर्ण हैं. राजपूताना में अनेक राज्य थे जो आपस में
लड़ते रहते थे क्योंकि हर शासक अपनी धाक जमाने के लिए नज़दीकी राज्यों पर अपना कब्ज़ा
करने या असर बनाने की जुगत में लगा रहता था ताकि उसके राज्य का विस्तार हो और आय
बढ़े. जब मुगलों की नज़र राजपूताने के वैभव और बिखराव पर पड़ी तो उन्होंने हमले शुरू
हुए. कुछ राजाओं ने मिलजुलकर अपना राज्य और राज्य का सम्मान बचाने के लिए मुगलों
के आक्रमण का मुकाबला किया,
कुछ ने मुगलों
की ताकत के आगे घुटने टेक दिए और उनसे समझौता कर लिया.
जब भी और जहाँ
भी युद्ध हुए हैं,
उस क्षेत्र की
धन-सम्पदा और स्त्रियों की इज्जत अवश्य लूटी गयी. मुगलकाल में युद्धों में भी ऐसा
ही हुआ. राजपूताने की संपदा लुट गई तो लुट गई लेकिन स्त्रियों ने अपनी इज्ज़त पर
आंच न आने दी. पहला 'साका' जैसलमेर के किले में हुआ था. जब शत्रु का आक्रमण हुआ तो पुरुष अपने सर पर
केसरिया साफा बाँधकर घर से यह सोचकर निकलते कि या तो शत्रुओं को मारेंगे या मरेंगे, इस प्रक्रिया को 'केसरिया' कहा जाता था.
किले के
बीचो-बीच एक विशाल हवनकुंड होता था, उसमें आग जलाई जाती थी. युद्ध क्षेत्र से यदि पराजय की खबर आती थी तो शत्रु सेना के किले में प्रवेश के पूर्व, उनके अत्याचार से बचने के लिए किले की समस्त स्त्रियाँ अपने बच्चों और
आभूषणों के साथ उस धधकते हवन कुंड में कूदकर अपने प्राण त्याग देती थी, जिसे हम 'जौहर'
के नाम से जानते
हैं. जब 'केसरिया' और 'जौहर' दोनों होता था तो उसे पूर्ण 'साका' मानते थे लेकिन यदि हमारी सेना की विजय होती
थी तो केवल 'केसरिया' होता था,
'जौहर' नहीं होता था, इसे 'आधा साका' कहते थे. जैसलमेर के इतिहास में दो युद्धों में पराजय हुई और जौहर हुआ इस
प्रकार वहां दो साका हुए. उन्हें एक युद्ध में विजय मिली, जौहर नहीं हुआ, केवल केसरिया हुआ,
इसलिए वह आधा
साका हुआ;
अर्थात कुल मिलाकर अढ़ाई साका.
हिन्दुओं के
आपसी युद्ध में जौहर नहीं होता था. जौहर का प्रचलन मुस्लिम शासकों के आक्रमण के
बाद शुरू हुआ. 'जौहर' दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य के अत्याचार से मुक्ति पाने के लिए सामूहिक
आत्महत्या का दुस्साहस था. पहला जौहर सन 712 में सिंध में हुआ था जब वे मुहम्मद-बिन-कासिम से पराजित हुए थे. उसके बाद 1295 में जैसलमेर, 1301 में रणथम्भौर और 1303 में चित्तौड़गढ़ में अलाउद्दीन खिलजी से हारने के बाद हुआ. 1326 में जैसलमेर और 1327 में कम्पिली (कर्णाटक) में मोहम्मद-बिन-तुगलक
से पराजित होने के कारण हुआ. 1528 में मध्यभारत के चंदेरी और रायसेन में बाबर और हुमायूं से हारने के कारण, 1535 में चित्तौड़गढ़ में बहादुर शाह (गुजरात) से हारने
के कारण,
1568 में चित्तौड़गढ़ में अकबर से हारने के कारण और सन 1634 में औरंगजेब से हारने के कारण हज़ारों
स्त्रियों और बच्चों ने अग्नि-समाधि ली.
'साका' अपने सम्मान की रक्षा के लिए तात्कालीन स्त्रियों के बलिदान का प्रणम्य लेकिन
दुखद अध्याय था.
लम्बी यात्रा के
बाद हम राजस्थान के एक और ख़ूबसूरत शहर जोधपुर पहुंचे. जोधपुर में मेरी मुलाकात
श्री प्रतीक प्रजापति से हुई. 25 वर्षीय फेसबुक के माध्यम से जुड़े, उन्होंने सप्रयास मुझे खोज लिया और बहुत देर तक मेरे साथ रहे. प्रतीक प्रजापति 'फेसबुक' का सही उपयोग करते हैं. वे अब तक अपने फेसबुक मित्रों के आमंत्रण पर देश के
अनेक शहरों का भ्रमण कर चुके हैं और आज तक उन्होंने कहीं भी होटल नहीं किया, उनके घरों में ही रहते हैं ! जानकारियों का
खजाना है प्रतीक. मैंने उनसे पूछा, 'राजस्थान के विकास की गति क्या है?'
'अभी वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री हैं इसलिए
पूर्वी राजस्थान का विकास हो रहा है, जब अशोक गहलोत थे तब पश्चिमी क्षेत्र का विकास हो रहा था. हर बार मुख्यमंत्री
बदलते हैं तो दोनों क्षेत्र का विकास संतुलित हो जाता है.'
'इन दोनों में कौन अधिक लोकप्रिय है?'
'वसुंधरा राजे महारानी हैं, अशोक गहलोत जमीन का आदमी है. वैसे, दोनों अपने-अपने क्षेत्र में लोकप्रिय हैं.'
'इस राज्य की सबसे बड़ी समस्या क्या है?'
'पानी की कमी. यहाँ बारिश कम होती है. अब हम
लोगों ने कम पानी में भी फसल उगाने की विधि विकसित कर ली है. बाजरा हमारी नियमित
फसल है ही,
इसके अलावा
बाड़मेर की मिट्टी रेगिस्तानी है, जलवायु सूखी है,
वहां खजूर का
उत्पादन बड़े पैमाने पर हो रहा है. जैसलमेर के लोहावटी क्षेत्र में अनार के वृक्ष
लहलहा रहे हैं.'
'क्या बारिश के पानी का संग्रहण नहीं होता?'
'होता है. राजा-महाराजा लोग इस पर बहुत ध्यान
देते थे. हमारे जोधपुर में हर मोहल्ले में बावड़ी और तालाब हैं. यहाँ के राजा
उमेदसिंह को लोग भगवान मानते थे क्योंकि वे प्रजा के हितचिन्तक थे. पुरानी बात है, सन 1930 में यहाँ मंदी आई थी,
जिसे तीसा की
मंदी कहते हैं,
उस समय राजा उमेदसिंह ने मंदी के कारण पड़े अकाल से निपटने के लिए बावड़ी और तालाब खुदवाए, 'उमेद भवन' का निर्माण शुरू किया ताकि लोगों को रोजगार मिल सके और उनका भरण-पोषण हो सके.'
'राजस्थान के लोगों का पुरानेपन से बहुत जुड़ाव
दिखता है?'
'किले और पुराने बने भवनों को देखकर आपको ऐसा
लगा होगा. परिवर्तन बहुत तेज है यहाँ. जैसे, लोग नए मकान बनवा रहे हैं, ये आधुनिक शैली के बन रहे हैं. पुराने रीति-रिवाज़ भी कमजोर पड़ रहे हैं, जैसे, अब बहुएं साड़ी नहीं पहनना चाहती, सलवार-सूट पहनना है. यह ठीक है कि सलवार-सूट आरामदेह रहता है लेकिन राजस्थान
में घाघरा,
चोली, साड़ी और घूँघट का रिवाज़ वर्षों से चला आ रहा
है. घूँघट घर में आँखों तक और घर के बाहर गले तक. सास ने बहू से कहा-
"'ये तो करना होगा." बस, झगड़ा शुरू. बहुएं कहती हैं- "कौन सी देवी परदा करती है जो हम करें? मुगलों से चेहरा छुपाने के लिए औरतें घूँघट करती
थी,
अब किससे चेहरा
छुपाना है?"
आधुनिकता के साथ
अब सहनशीलता कम हो गयी है. बाहर से दिखेगा कि सब एक घर में रह रहे हैं लेकिन सबके
चौके अलग-अलग हैं.'
'राजस्थान से बहुत लोग बाहर कमाने-खाने गये और
बहुत धन-सम्पदा बनाई,
वे लोग यहाँ
कभी-कभार आते हैं?'
'पुराने समय में केवल पुरुष बाहर जाते थे, औरतें यहीं रहती थी. अब पुरुषों के साथ औरतें
भी जा रही हैं. अब ये औरतें जब शहरी माहौल से यहाँ आती हैं तो वे बदलकर आती हैं.
इस कारण यहाँ की घूँघट प्रथा अब भसक रही है, पहरावा बदल रहा है.'
'फिर भी, शादी-ब्याह और मुंडन संस्कार आदि के लिए तो उनका आना-जाना लगा रहता है?'
'पहले लोग आते थे, अब कम होते जा रहा है. कारण यह है कि जो बाहर
गये वे बड़े आदमी बन गए. उनके पास पैसा है लेकिन उनका परिवार या रिश्तेदार, जो राजस्थान में रह रहा है, उसने पैसा देखा नहीं है, जब 'ये'
मांगते हैं तो 'वे' बिदकते हैं इसलिए उनका आवागमन कम होते जा रहा है.'
मैं जोधपुर गया
लेकिन घूम नहीं सका क्योंकि इस यात्रा को कुछ कारणों से मैंने अधूरा छोड़ने का
निर्णय लिया. इसी वज़ह से माउंट आबू और उदयपुर भी छूट गया जबकि ये दोनों स्थान मेरे
देखे हुए नहीं थे,
बाकी सब देखा
हुआ था. मैं इन्हीं दोनों जगहों को देखने की दिली ख्वाहिश के साथ इस यात्रा में
खास तौर से सम्मिलित हुआ था, लेकिन संभव न हुआ. कभी फिर मौका मिलेगा तो इन स्थलों के अनुभव भी सामने आएँगे.
'प्रबंधन' में एक अवधारणा है कि वह हर व्यक्ति जिनके मध्य कोई व्यवहार हो रहा हो, वह 'कस्टमर'
है. यद्यपि 'कस्टमर' शब्द व्यापार के संदर्भ में अधिक उपयोग में
लाया जाता है और आम तौर पर ऐसा माना जाता है कि ग्राहक वह है जो प्रदत्त वस्तु या
सेवा का भुगतान करे.
प्रबंधन की आधुनिक व्याख्या के अनुसार, हर-एक व्यक्ति ग्राहक है. जैसे मालिक और अधीनस्थ, साहब और बाबू, अधिकारी और नागरिक,
चिकित्सक और
रोगी,
विक्रेता और
क्रेता,
शिक्षक और छात्र, साहित्यकार और प्रकाशक, लेखक और पाठक आदि सब 'एक-दूसरे' के 'कस्टमर' हैं,
उनके बीच आर्थिक
लेन-देन चाहे हुआ हो या न हुआ हो.
जब मैं जोधपुर
से बिलासपुर वापस आने के लिए ट्रेन में बैठा, प्रबंधन का यह सूत्र मेरे मस्तिष्क में बहुत देर तक घूमता रहा. मैं खुद से
प्रश्न कर रहा था कि इस यात्रा में मैं और मेरे जैसे अनेक यात्री क्या भुगतान करने
के बाद भी 'कस्टमर' की इस परिभाषा के बाहर थे?
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रायपुर के दो दिन
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11 नवम्बर 2017 की शाम को मैं अपनी पत्नी
माधुरी जी और नातिन अनन्या के साथ पारिवारिक कार्य से रायपुर पहुंचा, मेरी बड़ी बेटी डा. संगीता
अग्रवाल वहाँ रहती हैं। रायपुर अक्सर जाता हूँ लेकिन इस बार का यह छोटा सा प्रवास
यादगार बन गया. हुआ यह कि हमारे दामाद डा. केदारनाथ ने प्रस्ताव रखा, 'पापाजी, आज रात का डिनर छत्तीसगढ़
क्लब में लेंगे क्या?'
'चलो.' मैंने कहा.
हम सब
रात को नौ बजे वहां पहुंचे. वहां मेरे मित्र श्री संजय अलंग मिले. श्री संजय
प्रशासनिक अधिकारी होने के अतिरिक्त समर्थ कवि हैं, सहृदय मनुष्य हैं. मुझसे बोले, 'मुझे आत्मकथा का पहला खंड
मिल गया, मैंने पढ़ लिया. अच्छा लगा.
अब दूसरा और तीसरा खंड पढ़ना है मुझे.'
'बिलासपुर
पहुँच कर भेजता हूँ.' मैंने कहा और पूछा, 'आप बिलासपुर कब आ रहे हैं?'
'कल ही
जा रहा हूँ लेकिन हमें रतनपुर जाना है इस कारण इस बार नहीं, अगली बार आपके पास अवश्य
आऊंगा.' वे बोले.
और
अन्दर जाते ही मेरे एक और मित्र श्री तेजिंदर गगन, जो दूरदर्शन के डिपुटी डायरेक्टर जनरल रहे हैं
और बहुत अच्छे लेखक-कवि हैं, मिल गए. उनसे मिलना हमेशा सुखद और
आत्मीयतापूर्ण होता है. मुझे वहां देखकर वे चौंके और मुझसे पूछा, 'आप यहाँ कैसे?'
अन्दर
सभागार में बच्चों की प्रस्तुति चल रही थी. मैं अंतिम प्रस्तुति देख पाया जिसमें
एक बारह-तेरह वर्षीय बालिका ने योग के विभिन्न आसन प्रदर्शित किये. किसी दक्ष योगी
की तरह उसका प्रदर्शन था. दरअसल योग सीखने की सही उम्र यही है क्योंकि शरीर का
लचीनापन उम्र बढ़ने के साथ कम होता जाता है. कम उम्र में योग सीखकर करना और अधिक
उम्र में योग करके सीखना, अलग-अलग बात है.
उस
रात 'मिनी डिनर' था, उपमा, डोसा, इडली, बड़ा, सांबर, चटनी का दक्षिण भारतीय और
जलेबी का उत्तर भारतीय सम्मिश्रण. सब कुछ अत्यंत स्वादिष्ट. सब तरफ टेबल के आसपास
गोल घेरा बनाकर लोग बैठे थे. हम लोग जिस टेबल में बैठे थे, वहां एक वृद्ध पुरुष अकेले
बैठे इडली और उपमा का आनंद ले रहे थे. उनकी उम्र 85 से 90 के मध्य होनी चाहिए. कुछ देर में उनकी बहू उनके
पास आयी. उसने वृद्ध सज्जन के कान के पास जाकर ऊंची आवाज़ में पूछा, 'जिलबी पाहिजे?'
'आयं?'
'जिलबी
पाहिजे, जिलबी, जिलबी?' उसने प्यार से पूछा.
'हौ.' बुजुर्ग ने कहा. बहू दौड़ते
हुए गयी और जलेबी लेकर आयी. वृद्ध सज्जन ने जलेबी समाप्त की, पानी पिया और रूमाल से मुंह
पोछकर आराम से टिक कर बैठ गए. दो मिनट बाद उनकी युवा पोती आयी और उनसे कहा, 'दादू डोसा लो.'
'नहीं, मेरा पेट भर गया.'
'पेट
भर गया? मैं आपके लिए कितनी देर तक
लाइन में खड़ी रही तब यह मिला.
'न, अब नहीं खा सकता.'
'खा लो
दादू.' उसने डोसा का एक कौर बनाया
और दादू को अपने हाथ से खिलाकर ही मानी. वह दृश्य देखकर मेरा मन अंदर से भीग गया.
घर के बुजुर्ग का ऐसा सम्मान भारत के संयुक्त परिवार की वह विशिष्टता है जिसके बीज
सदियों पहले बोये गये थे, उसके वृक्ष अब भी यदा-कदा
दिख जाते हैं. यादगार बन गया यह प्यार.
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रात
को जल्दी सोने की जुगत होने लगी क्योंकि सुबह चार बजे जागकर, तैयार होकर घर छोड़ना था
क्योंकि हमारी नातिन वैशाली जो ईशा होम स्कूल कोयम्बत्तूर में पढ़ती है, को साढ़े पांच बजे सुबह नया
रायपुर के स्टेडियम में आयोजित 'वुमन हेल्थ अवेयरनेस : रायपुर गोइंग पिंक रेस' नामक मेराथन दौड़ में भाग
लेना था.
शहर
से 25 किलोमीटर दूर बसे 'नया रायपुर' के स्टेडियम में अजब सी
गहमागहमी थी. पूरा वातावरण गुलाबी-गुलाबी था. ढोल नगाड़ों की उत्साह भरने वाली आवाज़
और 'ट्रेक' पर मेराथन दौड़ पूरी करके 'फिनिश पाइंट' पर आती हुई लडकियां.
इसके
पहले कि मैं आपको इस आयोजन की मस्ती के बारे बताऊँ, आपने मिलिंद सोमण का नाम अवश्य सुना होगा, उनके बारे में कुछ जानिए.
अपनी युवावस्था में भारत
के प्रसिद्धतम माडल मिलिंद सोमण फिलहाल फिटनेस प्रमोटर हैं. मिलिंद ने 19 जुलाई, 2016 को ज्यूरिख में 'आयरनमैन कॉन्टेस्ट' जीता है. आपने उन्हें फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' (2015) में अम्बाजी पंत का का अभिनय करते देखा
है. वे इन दिनों स्त्रियों में स्वास्थ्य के प्रति
जागरूकता के लिए 'पिंक-मेराथन' का आयोजन देश भर में कर रहे हैं. इसी
श्रृंखला में यह आयोजन रायपुर में 12 नवम्बर को हो रहा है जिसमें दर्शक के
रूप में मैं भी माधुरीजी के साथ स्टेडियम पहुँच गया. हमारे साथ हमारी बड़ी बेटी
डा.संगीता, दामाद डा.केदारनाथ और अनन्या भी थे.
सच तो यह है कि मैं मैराथन दौड़ में अपनी नातिन का हौसला
बढाने के लिए गया था लेकिन स्टेडियम के माहौल से प्रत्येक औरत का हौसला बढ़ने वाला
था. टी-शर्ट और लेगिज़ पहनकर आई हुई लड़कियां और औरतें जोश-खरोश के साथ मैराथन दौड़
में भाग ले रही थी. यह दौड़ चार केटेगरी में निर्धारित थी, तीन, पांच, दस और
इक्कीस किलोमीटर की. 6 वर्ष की प्रिया से लेकर 75 वर्ष की
रुक्मणी ने इसमें भाग लिया.
दौड़ संपन्न
होने के बाद वे सब मंच की और बढ़ी जहाँ प्रसिद्ध जुम्बा आर्टिस्ट समीर सचदेव अपने
नृत्य का अद्भुत प्रदर्शन कर रहे थे और सबको नाचने के लिए प्रेरित भी कर रहे थे.
महिलाओं का उन्मुक्त भाव से सार्वजनिक स्थान पर नृत्य देखने का यह अवसर बेहद
मनभावन था. यद्यपि मैंने सड़क पर गुजरती कई बारातों में महिलाओं को नृत्य करते हुए
देखा है लेकिन झिझकते हुए. यहाँ कोई संकोच नहीं, कोई मानसिक बंधन नहीं था.
वह दृश्य मुझे उस अतीत में ले गया जब स्त्रियाँ अपने घरों की चारदीवारी से
बाहर नहीं निकल सकती थी. निकलती भी थी तो अपने सिर पर लम्बा घूँघट ले कर! आज ऐसा
लगा कि पुरुषों और औरतों की ग़ैरबराबरी अब समाप्त हो रही है. यह सही है कि वह समूह
अभिजात्य वर्ग की महिलाओं का था लेकिन यह भी देखा गया है कि समाज में परिवर्तन ऊपर
से नीचे आता है. ऐसे कार्यक्रमों का असर उन स्त्रियों पर भी पड़ेगा जो अपनी
पुरातनपंथी खोल से बाहर निकलकर उन्मुक्तता से जीवन का आनंद लेना चाहती हैं.
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अगली सुबह बिलासपुर वापस
निकलना था. अचानक फेसबुक पर चल रहे एक लाइव वीडियो पर नज़र पड़ी, रायपुर के वृन्दावन सभागार में श्री
अशोक बाजपेयी का भाषण चल रहा था. मैंने माधुरीजी से कहा, 'अभी मैं एक कार्यक्रम में जा रहा हूँ, अपन शाम को वापस चलेंगे.'
जब मैं वहां पहुंचा, श्री अशोक बाजपेयी का व्यक्तव्य समाप्त
हो चुका था. समारोह रज़ा फाऊन्डेशन के सौजन्य से स्व.गजानन माधव मुक्तिबोध की जन्म
शताब्दी पर केन्द्रित था. मैंने गौर किया कि प्रथम पंक्ति पर देश के नामचीन
साहित्यकार बैठे हुए है, सर्वश्री विनोद कुमार शुक्ल, नरेश सक्सेना, पुरुषोत्तम अग्रवाल, लीलाधर मंडलोई, विष्णु नगर, ओम निश्छल, प्रभात त्रिपाठी, कुमार प्रशांत आदि.
मुझे गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता पढने के
अवसर मिले हैं लेकिन मुझे उनका लिखा पल्ले नहीं पड़ता. जब अज्ञेय जी ने उन्हें
प्रथम तारसप्तक में सम्मिलित किया है तो निःसंदेह वे उत्कृष्ट कवि होंगे परन्तु
अज्ञेय और मुक्तिबोध की कविताओं को समझने लायक बुद्धि मेरे मष्तिष्क में नहीं है.
ऐसा लगा कि यह अवसर मुझे मुक्तिबोध के लेखन को समझने के लिए उपयुक्त रहेगा. दिन भर
में मैंने दस व्यक्तव्य सुने. नरेश सक्सेना, पुरुषोत्तम अग्रवाल ने सरल भाषा में
मुक्तिबोध को उद्घाटित करने का यत्न किया, शेष ने मुक्तिबोध को और कठिन बना दिया.
इतने सारे साहित्य
मनीषियों को एक मंच पर एक साथ सुनना मेरे लिए सुअवसर जैसा था. धन्यवाद रज़ा फाऊन्डेशन. धन्यवाद रायपुर.
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दिल वाली दिल्ली
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लेखक से साहित्यकार बनने की यात्रा लंबी होती है, कई किताबें छपवानी पड़ती हैं जबकि अंजान साहित्यकार से प्रतिष्ठित साहित्यकार की यात्रा और भी जटिल और समय-विनाशक होती है। मैंने जब लिखना शुरू किया तो सीधे आत्मकथा लिखना शुरू किया, जैसे कोई मेट्रिक पास छात्र थीसिस लिखने बैठ जाए। शुरुआत में ब्लॉग का सहारा लिया, फिर फेसबुक का, उसके बाद पहला खंड 'कहाँ शुरू कहाँ खत्म' पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ। यह पुस्तक फिल्म 'जय संतोषी माता' की तरह अनपेक्षित रूप से हिट हो गयी। उसके बाद आत्मकथा का दूसरा खंड 'पल पल ये पल' और तीसरा खंड 'दुनिया रंग बिरंगी' पुस्तकाकार में आया। कुछ दिनों बाद शब्द चित्रों का एक संग्रह 'याद किया दिल ने', यात्रा संग्रह 'मुसाफिर जाएगा कहाँ' और उपन्यास 'मद्धम मद्धम' आ भी गया। एक गैर-साहित्यकार की छह साल में छह पुस्तकें? कुछ हड़बड़ी सी नहीं लग रही है क्या? निश्चयतः हड़बड़ी तो है।
मेरा
व्यापार और लेखन दोनों साथ-साथ चल रहा है, इसके लिए समय प्रबंधन करना होता है, साहित्यिक कार्यक्रमों में
सम्मिलित होने के लिए समय निकालना पड़ता है। कहावत है, जहां चाह है, वहाँ राह बन जाती है। जितना
मुझे लिखने में मज़ा आता है, उतना ही साहित्य चर्चा और
साहित्यकारों से मिलने में भी आता है इसलिए ऐसे मौकों की तलाश में रहता हूँ। एक
अवसर मेरे शाहजहांपुरी फेसबुक मित्र कवि अरविंद पथिक ने दिया। उनकी खबर आई, वे दिल्ली के गांधी शांति
प्रतिष्ठान दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में मेरे लेखन को सम्मान देना चाहते
हैं। दिसंबर माह की कड़कड़ाती ठंड में मैं दिल्ली पहुँच गया।
दिल्ली
पहुँचने की खबर 'फेसबुक' से मैंने दी तो मेरे एक
मित्र ने मुझसे अपने घर में रुकने का आग्रह किया। मैंने हाँ कर दिया। जब 'गूगल' की मदद ली तो समझ आया कि
मित्र के घर से आयोजन स्थल बहुत दूरी पर है, आने-जाने में बहुत समय
लगेगा तो मैंने उनसे माफी मांगी और 'ओयो' के माध्यम से एक होटल बुक
किया,
'बाबा
रेसिडेंसी', पहाड़ गंज, दिल्ली। 'ओयो' को मैंने अग्रिम 1004/- भुगतान कर दिया।
ठंड के दिन थे, सुबह मैं होटल पहुंचा।
सफदरजंग स्टेशन से होटल तक का रास्ता शीतलहर से सामना करते हुए कटा, सांस में सांस आयी लेकिन
होटल से जब मैंने रूम के लिए कहा तो उन्होने कहा, "आपका कोई रूम बुक नहीं
है।"
"ये देखिए, मैंने आपके होटल में बुकिंग की है, पूरा एडवांस भी दिया है।" मैंने उन्हें
कागज दिखाया।
"आपने पेमेंट 'ओयो' को दिया है, वो ही आपके होटल का इंतज़ाम करेगा।"
"क्या 'ओयो' से आपका संबंध नहीं है?''
"था, एक महीने से टूट गया।"
"फिर मैं क्या करूँ?"
"उसी से पूछिए।"
"मेरे पास उनका फोन नंबर नहीं
है, आप बताइये, मैं उनसे बात करता हूँ।"
"हमारे पास उसका फोन नंबर
नहीं है।''
"अरे, एक महीने पहले तक आपका 'ओयो' से संबंध था, अब उनका नंबर नहीं है आपके पास?''
"नहीं है।" काउंटर
बैठे व्यक्ति ने बदतमीजी के साथ कहा और मुंह घुमाकर अपने काम में लग गया।
मैं अपने गोलबाज़ारी रंग में उतरने के लिए मजबूर हो गया था।
इसके पहले कि मैं होटल वाले को छठी का दूध याद दिलाता, काउंटर के पास बैठे एक
नवयुवक ने मुझे अपने पास बुलाकर बैठाया और कहा, "मेरे पास 'ओयो' का नंबर है, मैं देता हूँ।''
मैंने 'ओयो' को फोन लगाया और वहाँ का हालचाल
बताया तो अधिकारी ने होटल मैनेजर से बात करवाने के लिए कहा। उन दोनों के बीच
वार्तालाप हुआ तब मेरे समझ में आया कि 'ओयो' ने पिछले एक माह का भाड़ा
अपने पास दबा रखा है इसलिए होटल वाला 'ओयो' के 'प्रीपेड' ग्राहक को स्वीकार नहीं कर
रहा है।
उनकी बहस के बाद फोन मेरे पास वापस आया तब 'ओयो' के अधिकारी ने मुझसे कहा, "सर, हम आपको पैसे वापस कर रहे
हैं, आप आसपास कोई और होटल खोज
लें।''
मेरा मन बहुत खिन्न था, बहुत ठंड लग रही थी लेकिन
मैं राज़ी हो गया। मैं सोच रहा था कि 'OYO' जैसा प्रतिष्ठान जो देश भर
के यात्रियों से "तुरंत भुगतान" पर छूट के ऑफर पर यदि लोगों से इस तरह
पैसा इकट्ठा करके होटलों को भुगतान नहीं करता और इसके भरोसे यात्रा पर निकले
यात्री को एडवांस पेमेंट के बाद भी कष्ट मिलता है तो किस पर भरोसा किया जाए ?
खैर, मैंने अपना सामान उठाया और
जाते-जाते पूछा,
"यदि
मैं आपको सीधे भुगतान करूंगा तो मुझे आप कमरा देंगे?"
"हाँ, एक हज़ार रुपया लगेगा।" मैनेजर ने कहा।
"इसमें सुबह का नास्ता
शामिल है?"
"नहीं, उसका अलग लगेगा।"
"पर 'ओयो' ने नास्ता शामिल बताया
था।"
"आप ओयो से बात करिए। अभी
कमरा चाहिए तो सिर्फ कमरे का एक हज़ार लगेगा।" मैनेजर ने मुझे धमकाया।
उसके धमकाने से मैं धमक गया और चुपचाप एक
हज़ार दिए और लिफ्ट के अंदर घुस गया। लिफ्ट में बेयरा से मैंने पूछा, "दिल्ली वाले क्या इतने बेशऊर होते हैं?"
"यहाँ का हाल मत पूछिए सर, सब ऐसे ही हैं।" बेयरा ने मुझसे धीरे से
कहा। "आप क्या लेंगे? चाय या काफी?"
प्राप्त ज्ञान : किसी को भी एडवांस में ऑनलाइन भुगतान न
किया जाए, भले ही बाद में अधिक पैसे
लगें।
* *
* * *
दिल्ली
में पढ़ने वाले एक युवा को बिलासपुर के इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश मिला। युवक का
नाम राजेश, मेरी पत्नी माधुरी जी की बड़ी
बहन विद्या जी का बड़ा बेटा। पढ़ाई पूरी करके वह वापस दिल्ली चला गया। वहाँ बच्चों
की ट्यूशन की। फोटोकापी की कंपनी मोदी जेरोक्स में सर्विस मैकेनिक का काम किया
क्योंकि उन दिनों इंजीनियरों को उनकी योग्यता के मुताबिक काम नहीं मिलता था इसलिए
घर में बेकार बैठने से 'कुछ' करना बेहतर था। राजेश ने
सुबह से लेकर रात तक रोज पचास-साठ किलोमीटर की दौड़-भाग की, बेकारी से बेगारी भली।
इंजीनियरिंग की डिग्री ली लेकिन मैकेनिक का काम किया। कितने युवा हैं हमारे आसपास
जो डिग्री लेकर अपनी योग्यता के प्रतिकूल काम कर रहे हैं, कुछ बेरोजगार घूम रहे हैं
क्योंकि वे 'किसी भी' काम को काम नहीं समझते बल्कि
अपने अनुकूल काम की तलाश में घर बैठे रहते हैं और परिवार से नज़रें छुपाते हैं, परिवार पर बोझ बन जाते हैं।
राजेश को इल्म था कि वह अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ा है, पिता टेली-कम्यूनिकेशन से
रिटायर होने वाले हैं, दो बहनों का ब्याह करना है
इसलिए इंजीनियरिंग की डिग्री फाइल में रखने से काम नहीं चलेगा, काम करना होगा, चाहे जो मिले।
कहते
हैं, सब दिन एक समान नहीं होते।
राजेश किसी बेहतर नौकरी की कोशिश में लगा रहा। संयोग से दिल्ली के इन्दिरा गांधी
हवाई अड्डे में नौकरी मिल गयी लेकिन इंजीनियर के पद पर नहीं, कुछ और काम मिला। राजेश का
मधुर स्वभाव और परिश्रम
रंग
लाया और उसे विभागीय इंटेलिजेंस अधिकारी जैसा महत्वपूर्ण पद मिल गया। अब वह
पूरे भारत की हवाईअड्डों में जांच अधिकारी की हैसियत से कर्तव्य निर्वहन करने लगा।
उसके बाद उसे प्रतिनियुक्ति पर 'दिल्ली मेट्रो' में जगह मिल गयी। फोटोकापी मशीन सुधारने वाला
मैकेनिक राजेश अग्रवाल दिल्ली मेट्रो का संयुक्त महा-प्रबन्धक (इंजीनियरिंग और
मेंटीनेंस) है।
कनाटप्लेस
स्थित दिल्ली मेट्रो का मुख्यालय दर्शनीय है, अत्यंत आकर्षक और सुविधासम्पन्न। राजेश ने
बताया,
"मौसा
जी, हमारे यहाँ जो भी सामान
मंगाया जाता है, वह 'द बेस्ट' मंगवाया जाता है ताकि बाद में रखरखाव
की परेशानी न हो। जैसे, फर्नीचर 'गोदरेज' का ही आएगा क्योंकि उसकी 'क्वालिटी अश्योर्ड' है। मेट्रो में सामान की खरीदी में कोई
समझौता नहीं होता, यह यहाँ का 'कल्चर' है.'
"श्रीधरन जी अब यहाँ आते हैं?" मैंने पूछा।
"कभी-कभी आते हैं। वे जब कभी
यहां आते हैं, उनका प्रवचन होता है।"
"प्रवचन?"
"जी हां, यदि वे एक घंटे बोलेंगे तो
पचपन मिनट श्रीमदभगवद्गीता पर बोलेंगे और पांच मिनट मेट्रो पर। वे हमें गीता के
माध्यम से प्रबंधन सिखाते हैं।" राजेश ने बताया। छोटी सी मुलाक़ात के बाद
मुख्यालय से निकलने के पहले मैंने स्वागत-कक्ष में स्थापित मेट्रो की अनुकृति के
सामने खड़े होकर अपनी तस्वीर खिंचवाई।
कनाटप्लेस
से मैं सफदरजंग एन्क्लेव की और जा रहा था, वहां मेरी फेसबुक मित्र पुष्पा गुप्ता ने मुझे
भोजन हेतु निमंत्रित किया था। कनाटप्लेस से सफदरजंग एन्क्लेव का रास्ता लगभग आधे
घंटे का था, मैं कल रात के सम्मान समारोह की
यादों में डूब गया।
पं.
रामप्रसाद बिस्मिल सम्मान समारोह दिल्ली की गाँधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजित किया गया था. पूरा
भवन गाँधी जी की स्मृतियों से आच्छादित था. उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं के
छायाचित्र करीने से लगे हुए थे. सभाभवन में उनकी आदमकद छबियाँ स्थापित थी. आयोजक
अरविन्द पथिक ने साहित्यकारों के सम्मान समारोह के साथ कवि गोष्ठी भी आयोजित की थी.
अन्य कवियों के अलावा अरविन्द पथिक ने भी अपनी
ओजपूर्ण कविताएं सुनाई. गांधी शांति प्रतिष्ठान के गांधीमय माहौल में एक वीररस कवि
ने अपनी कविता में महात्मा गाँधी पर पुनः गोलियां बरसाई, उपस्थित कुछ श्रोताओं ने तालियां भी बजाई. मुझे
समझ में आया कि गाँधी अभी भी जीवित है. उससे घृणा
करने वाले आज भी उस पर गोलियाँ बरसा रहे हैं, लोग हत्या पर हर्षध्वनि कर रहे हैं लेकिन गाँधी है कि मरता ही
नहीं ! गाँधी की अंतिम यात्रा में
उभरा नारा 'महात्मा गाँधी अमर रहे' आज भी अपना असर बनाए हुए है।
उस
शाम दिल्ली में बहुत ठण्डक थी। हमारे बिलासपुर में ठण्ड होती नहीं, प्रचण्ड गर्मी होती है इसलिए
हम लोग
गर्म
सह लेते हैं लेकिन ठण्डक नहीं सुहाती। अरविन्द पथिक
जी ने मेरी प्रथम कृति 'कहाँ शुरू कहाँ खत्म' के प्रकाशन में बहुत सहयोग
किया था इसलिए उनका आग्रह मेरे लिए आदेश जैसा था, लेखन को सम्मान मिलना था इस वजह से दिल्ली की
ठण्ड में घुस गया मैं अन्यथा कदापि न जाता। मुझसे मिलने के लिए दिल्ली के मैत्रेयी
कॉलेज में हिंदी की व्याख्याता पुष्पा गुप्ता अपने पतिदेव और बेटी के संग सभागार में डेढ़ घंटे
से प्रतीक्षा कर रही थी। मेरे मित्र नवीन कुमार पांडेय और अस्थाना बीस किलोमीटर दूर से
आकर बाट जोह रहे थे। संबलपुर से
प्रशिक्षण लेने दिल्ली आए आदित्य और व्यंग्यकार/ आलोचक रमेश तिवारी से भी आत्मीय भेंट और चर्चा हुई। इनसे मिलकर ऐसा लगा
जैसे इनको ठण्ड नहीं लगती, तब तो इतनी दूर से मिलने चले
आए। रात को विदा होते समय पुष्पा जी ने अगले दिन को भोजन का निमंत्रण दिया और कहा, "कल आपको घर में एक और
उपन्यास का 'प्लॉट' दूंगी।" दृष्टिहीन को
क्या चाहिए, दृष्टि। मैंने हाँ कर दी।
इस
समय मैं राजेश की कार में पुष्पा जी के घर की ओर बढ़ रहा हूँ। सड़कों में अधिक
व्यस्तता नहीं है, थोड़ी देर में उनके घर के
सामने था, वे द्वार पर खड़ी मेरी
प्रतीक्षा कर रही थी। मध्यमवर्गीय परिवारों जैसा फ्लेट, मध्यम आकार का ड्राइंगरूम और
पारिवारिक चर्चाओं का लम्बा दौर।
रिश्तों
की बात चल पड़ी। भाई-बहन के रिश्ते की। पुष्पा जी ने मुझसे पूछा, "आप भाई-बहन का झगड़ा होता है
क्या?"
"बचपन में होता था लेकिन अब
नहीं होता।"मैंने उत्तर दिया।
''बचपन में सब लड़ते हैं लेकिन
गृहस्थी बस जाने के बाद जो झगड़ा यहाँ होता है, उसे सुनकर आप दंग रह जाएंगे।"
"किस बात का झगड़ा?"
"जायदाद का।"
"भाई-बहन के बीच?"
"जी। इधर मां-बाप के प्राण
निकले, उधर भाई बहन का रिश्ता
बिगड़ा।"
"भाई-बहन का रिश्ता कैसे बिगड़
जाएगा?"
"चिता की आग ठंडी नहीं होती
और लड़की जायदाद की चर्चा छेड़ कर यह कहते हुए अपनी ससुराल चली जाती है, 'शांति पाठ के समय आऊंगी, तब तक आपस में तय कर लो, मेरा हिस्सा अलग कर देना।'
"दुःख के समय कोई ऐसी बात
करता है?"
"काहे का दुःख? हो गया रोना-धोना। अब
महाभारत शुरू।"
"मान लो, माता-पिता की देखरेख भाई ने
की, इलाज़ में खर्च किया, वह बंटवारे के हिसाब में आता
होगा?"
"इन बातों का बहनों से कोई लेना-देना नहीं, उन्हें जायदाद में बराबर का हिस्सा चाहिए। 'मां-बाप की सेवा करना पुत्र
का कर्तव्य है, हमारा नहीं', लड़कियां कहती हैं।"
"ऐसा क्यों हो गया?"
"भाई साहब, ये दिल्ली है। यहाँ
प्रापर्टी की कीमतें बहुत बढ़ गयी हैं और भावनाओं का मूल्य बहुत कम हो गया
है।" पुष्पा जी ने बताया।
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ये लखनऊ की सरजमीं
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लखनऊ का नाम सुनते ही दिमाग में
उस तहज़ीब की याद
आती है, 'पहले
आप, पहले
आप'. फिर
फिल्म 'चौदहवीं
का चाँद'
(1960) केे उस गीत की याद आती है जिसे शकील
बदायूँनी ने लिखा था :
"ये लखनऊ की सरजमीं.
ये
रंग रूप का चमन, ये
हुस्न और इश्क का वतन
यही
तो वो मुकाम है,
जहाँ
अवध की शाम है
जवां
जवां हसीं हसीं,
ये
लखनऊ की सरजमीं.
शवाब-शेर
का ये घर, ये अह्ल-ए-इल्म
का नगर
है
मंज़िलों की गोद में, यहाँ हर एक रहगुजर
ये
शहर ला-लदार
है, यहाँ दिलों में प्यार है
जिधर
नज़र उठाइए, बहार
ही बहार है
कली
कली है नाज़नीं,
ये
लखनऊ की सरजमीं.
यहाँ
की सब रवायतें,
अदब
की शाहकार हैं
अमीर
अह्ल-ए-दिल
यहाँ, गरीब जां निसार है
हर
एक शाख पर यहाँ,
हैं
बुलबुलों के चहचहे
गली-गली
में ज़िन्दगी, कदम-कदम
पे कहकहे
हर
एक नज़ारा दिलनशीं, ये लखनऊ की सरजमीं.
यहाँ
के दोस्त बावफ़ा,
मोहब्बतों
के आशना
किसी
के हो गए अगर,
रहे
उसी के उम्र भर
निभाई
अपनी आन भी, बधाई
दिल की शान भी
हैं
ऐसे मेहरबान भी,
कहो
तो दे दें जान भी
जो
दोस्ती का हो यकीं, ये लखनऊ की सरजमीं."
इस
बार जब लखनऊ जाने का सबब बना तो मेरी पत्नी माधुरी जी भी साथ हो ली. वहां
जाने के पीछे कारण यह बना कि मेरे कथा संग्रह 'याद
किया दिल ने'
को
प्रोफ़ेसर महेंद्र प्रताप स्मृति पुरस्कार सम्मान समारोह-2019 में पुरस्कृत किया जाना था.
साहित्य
सृजन की कोई भी विधा हो, पढ़ी जानी चाहिए या सुनी जानी चाहिए या देखी जानी
चाहिए और सम्प्रेषित होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त जब रचना चर्चित और पुरस्कृत होती
है तब
सर्जक को संतोष मिलता है. चर्चित होना सबके भाग्य में नहीं होता, कृति
की गुणवत्ता
और जन-स्वीकार्यता
जरूरी है, वहीँ पर
पुरस्कृत होने के लिए 'कुछ' प्रयास जरूरी होते हैं. जैसे, पुरस्कृत होने की इच्छा, जान-पहचान-पहुँच-सिफारिश
और कृति की मार्केटिंग।
ईमानदारी की बात यह है कि मेरी इच्छा पुरस्कृत होने की थी लेकिन अन्य
जुगाड़ नहीं थे इसलिए कभी कल्पना न थी कि
मेरी किसी कृति को कभी पुरस्कार मिलेगा। कुछ ऐसा लिखा भी नहीं था जो पुरस्कृत होने
योग्य हो
लेकिन जब खबर आयी तो मन मुदित हो गया और मैं अपने सूटकेस में नीले रंग का सूट
रखकर लखनऊ पहुँच गया.
प्राचीन
काल में लखनऊ कोसल राज्य के अंतर्गत था जो राजा रामचंद्र की विरासत थी जिसे
उन्होंने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को हस्तांतरित की थी. उस
समय इसे लक्ष्मणावती
या लक्ष्मणपुर के नाम से जाना जाता था. एक
जानकारी के अनुसार लखनऊ का नाम 'लखन
किला' के
कारीगर लखन अहीर के नाम पर प्रचलित हो गया. ऐतिहासिक
तथ्यों के अनुसार लखनऊ की स्थापना नवाब आसफुद्दौला ने 1775
ईस्वी
में की थी. अवध
के शासकों ने इसे अपनी राजधानी बनाया और लखनऊ को समृद्ध किया। बाद में यहां के अय्याश और कमजोर नवाबों से बिना युद्ध
किए अंग्रेजों ने सन 1850 में ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।
अवध के अंतिम नवाब वाज़िद अली शाह थे जिन्होंने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार की.
लखनऊ
के आम पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं, खास तौर से मलीहाबादी दसेहरी आम की
सुगंध और मिठास सबका मन मोह लेती है. सरकारी
आंकड़ों के अनुसार, ये
आम 6253 हेक्टेयर
में उगाए जाते हैं और इनका औसत उत्पादन 95658 टन प्रति वर्ष होता है. गर्मी
के दिनों में खरबूज की पैदावार भी भरपूर होती है. गन्ना
का उत्पादन क्षेत्र होने कारण आसपास अनेक शक्कर मिल स्थापित हैं. इसी
तरह लखनऊ में
कपड़े पर चिकन
का काम लाजवाब होता है. यह
यहाँ का घरेलू
उद्योग है जो चौक क्षेत्र में घर-घर
में चल रहा है. चिकन की कलाकारी से सुसज्जित परिधान
यहां की वह विशेषता है जो अन्यत्र दुर्लभ है.
हम
जब कहीं जाते हैं तो पुरानी सूचनाओं का एक काल्पनिक चित्र
हमारे साथ जाता है, लखनऊ के इतिहास का
भी असर हमारे साथ गया लेकिन अब वह लखनऊ न रहा. भारत
के किसी अन्य महानगर की तरह फैलता-पसरता महानगर। चौड़ी सड़कों पर धमाचौकड़ी करती कारें, कारों
में बैठे हृदयहीन रोबो(ट), हवा
से बातें करती बाइक, बेतरह धुआं छोड़ती डीजल-चलित-ऑटो
और आपस में अपरिचित मनुष्यों की भीड़. अब
वह लखनऊ कहाँ, जहाँ
का अदब-तहजीब
कभी मशहूर था ! देश भर के लोग यहाँ से वहां
विस्थापित होते हैं, फिर
वहीँ बस जाते हैं और ऐसा घालमेल हो जाता है कि उस शहर की मौलिक पहचान कहीं खो सी
जाती है. शायर
कैफ़ी आज़मी ने लिखा था :
'अजाब में बहते थे आंसू, यहाँ
लहू तो नहीं
ये
कोई और जगह होगी, लखनऊ तो नहीं।'
20 जनवरी की सुबह जब हम दोनों लखनऊ के रेलवे स्टेशन में अपना
सामान लेकर उतरे तो लखनऊ से मेरे फेसबुक मित्र सुधीर पांडेय हमारे लिए गुलाबों से
सजा गुलदस्ता लेकर खड़े थे. उनसे
पहली मुलाक़ात थी लेकिन ऐसा लगा जैसे पुरानी जान-पहचान
हो. उन्होंने हमारे सब सामानों को अपने कब्जे में
ले लिया और बाहर चल पड़े. उनकी कार में बैठकर हम गंतव्य की
और रवाना हो गए. मैंने
कहा, ",सुधीर
जी, कहीं
चाय पिला दीजिए,
बहुत
ठण्ड लग रही है."
"वहीँ ले जा रहा हूँ आपको।"
सुधीर जी ने कहा.
"और क्या हाल है?"
"सर, सब ठीक है. बीस
दिन पहले घर में गुड़िया आयी है."
"बधाई हो. मां-बेटी
कैसी हैं?"
"बेटी स्वस्थ है लेकिन मां परेशान है."
"क्यों? क्या हुआ?"
"डाक्टर की लापरवाही का शिकार हो गयी. जांच
में सब कुछ
सामान्य था, जब
प्रसव का समय आया तो डाक्टर ने कहा कि नार्मल डिलवरी में बच्चे को खतरा है, सर्जरी
करनी होगी। मुझसे बोली, 'जल्दी बताओ, क्या करना है?' मैं
क्या बोलता? मैंने
कहा, 'जो
उचित समझिए करिए।"
"जो हुआ, अच्छा हुआ. सर्जरी
में मां को प्रसव पीड़ा नहीं सहनी पड़ती।"
"वही तो दुःख है सर, दो घंटे तक दर्द सहा दिया, उसके
बाद सर्जरी की."
"कोई बात नहीं, अब तो सब ठीक है?"
"नहीं, टांके पक गए हैं, ड्रेसिंग और
दवा चल रही है."
सुधीर जी के चेहरे पर परेशानी
के भाव उभर गये. मैंने
कहा, "ठीक
हो जाएगा, पिता
बनने का आनंद लो।" उनका
चेहरा खिल उठा. इतने में कार रुकी और हम लखनऊ के
लाल बाग़ में 'शर्मा
जी की चाय' के
सामने खड़े थे.
उस
समय दिन का दस बजा था. सड़क
में रविवार होने
के कारण चहल-पहल
कम थी लेकिन लेकिन शर्मा जी की चाय दूकान में ग्राहकों का रेला लगा हुआ था. हमारे
लिए सबसे पहले
गरम समोसे और बटरपाव आया और उसके बाद कुल्हड़ में चाय.
मैंने
अपने जीवन का बड़ा हिस्सा एक हलवाई के रूप में गुजारा है इसलिए ऐसी किसी दूकान को 'देखने
और समझने' का
मेरा तरीका कुछ खास है जो सामान्य व्यक्ति को समझ में नहीं आएगा। समोसा कैसा सेंका
गया है? आलू
का मसाला कैसा है? समोसा का वजन कितना है? बटरपाव
का स्वाद कैसा है? चाय कैसी है? दूकान कैसी
है? दुकानदार
कैसा है? स्टाफ
कैसा है? सर्विस
कैसी है? ग्राहक
कितने हैं? कितना
कच्चा माल खपत होता होगा? कितनी बिक्री होती होगी? ये
सारे सवाल मेरे दिमाग में उठते रहे और मैं वहां खड़े-खड़े
कचौड़ी के आकार के गोल-गोल समोसे खा रहा था. मैं यह भी भूल गया कि मेरे मुंह में एक भी दांत
नहीं है क्योंकि समोसे इतने खस्ता और स्वादिष्ट थे कि मुंह में गए और घुल गए. और
चाय? हाय, कभी लखनऊ जाओ
तो बड़ा इमाम बाड़ा और शर्मा जी की चाय दूकान में जरूर जाना, दोनों
लाजवाब हैं।
लखनऊ
में इलाहाबाद बैंक के स्टाफ कालेज में प्रोफ़ेसर महेंद्र प्रताप स्मृति पुरस्कार
सम्मान समारोह का आयोजन होना था. शाम
को यथासमय आयोजन आरम्भ हुआ. सभाभवन में साहित्यकारों
और साहित्यप्रेमियों की उपस्थिति में सम्मान हुआ, पुरस्कार
मिला। सबसे मेल-मुलाकात
हुई, मन प्रसन्न हो गया. अगले
दिन मध्यान्ह १२ बजे मेरे मित्र श्री बल्देव त्रिपाठी हमें लखनऊ दिखाने के लिए आ
गये और हम सब निकल पड़े.
कार
दौड़ पड़ी, हमें
लखनऊ कहीं नहीं दिखा। लगा, आधुनिकता ने लखनऊ को लील लिया। जब हम रेजीडेंसी
पहुंचे तो लखनऊ दिखने लगा. कार
पार्क करने की जगह नहीं मिली तो हम आगे बढ़ गये और बड़ा इमामबाड़ा पहुँच गये. यहाँ
आसपास कई इमामबाड़े हैं लेकिन दो सबसे अधिक प्रसिद्ध है, बड़ा
और छोटा इमामबाड़ा। हम लोग एक विशालकाय इमारत के सामने खड़े थे जिसे लखनऊ रियासत में
पड़े अकाल
के दौरान रियाया
को राहत देने के लिए नवाब आसफउद्दौला ने इसे बनवाया
जिसे बड़ा इमामबाड़ा कहा
जाता है. यह सन १७८४ में इसका निर्माण पूरा
हुआ. ईरानी
निर्माण शैली की यह विशाल
गुंबदनुमा इमारत देखने और महसूस करने लायक है. इसे
मरहूम हुसैन अली की शहादत की याद में बनाया गया है. इमारत
की छत तक जाने के लिए ८४ सीढ़ियां हैं जो ऐसे रास्ते से जाती हैं जो किसी अन्जान
व्यक्ति को भ्रम में डाल दें
ताकि आवांछित व्यक्ति इसमें भटक जाए और बाहर न निकल सके. इसीलिए
इसे भूलभुलैया कहा जाता है. इस इमारत की कल्पना और कारीगरी कमाल की है. ऐसे
झरोखे बनाए गये हैं जहाँ वे मुख्य द्वारों से प्रविष्ट होने वाले हर व्यक्ति पर
नज़र रखी जा सकती है जबकि झरोखे
में बैठे व्यक्ति को वह नहीं देख सकता। ऊपर जाने के तंग रास्तों में ऐसी व्यवस्था
की गयी है ताकि हवा और दिन का प्रकाश आता रहे. दीवारों
को इस तकनीक से बनाया गया है
ताकि यदि कोई फुसफुसाकर भी बात करे तो दूर तक भी वह आवाज साफ़ सुनाई पड़ती है. छत
पर खड़े होकर लखनऊ का नज़ारा बेहद खूबसूरत लगता है. इस
इमारत के बगल में चार मंजिला गहरी बावड़ी है जो उस युग के भवन-निर्माण-योजनाकारों
की दूरदृष्टि और सूझबूझ का नायाब नमूना है. आप
कभी लखनऊ जाएं तो इन्हें अवश्य देखिए, शानदार
हैं ये. हाँ, सीढ़ियों में चढ़ने-उतरने
की परेशानी है लेकिन माधुरी जी, जो
घुटनों के दर्द से परेशान चल रही हैं, भयभीत
थी लेकिन लगभग दो सौ सीढ़ियों का चढ़ना-उतरना
सहजता से कर लिया। उनका अनुमान था
कि उस समय इमाम
हुसैन साहब उनकी मदद कर रहे थे.
दोपहर
को चार बज गए थे, भूख लगने लगी. बल्देव
जी ने बताया कि लखनऊ के हजरतगंज में
बाजपेयी की पूरी-सब्जी
बहुत लोकप्रिय है, लोग
लाइन लगाकर खरीदते हैं तो हम लोग भी वहां पहुंचे और लाइन में लग गए. अधिक
लिखना उचित न होगा, कभी
लखनऊ जाएं तो उस दूकान की पूरी-सब्जी
भूलकर भी न
खाएं। बगल में बाजपेयी की चाय दूकान भी है जहाँ मैं अपने मुंह की जलन
शांत करने के लिए गया, वहां काउण्टर में बालूशाही दिखी। बालूशाही
शानदार थी और चाय स्वादिष्ट, कभी लखनऊ जाएं तो उस दूकान की बालूशाही अवश्य
खाएं और चाय भी सुड़क-सुड़क
कर पियें।
कुछ
दूर पर 'शुक्ला
चाट हाउस' दिखा।
पेट भरा हुआ था,
चाट
खाने की कतई गुंजाइश न थी लेकिन माधुरी जी से न रहा गया. वे बोली, "चलो, खाकर देखते हैं." एक
पत्ता टिक्की मंगवाई गयी. मैं उनको टिक्की खाता चुपचाप
देख रहा था. उन्होंने
एक चम्मच टिक्की मेरी और बढ़ाते हुए कहा,
"थोड़ा सा खाकर देखो, अच्छा है."
अब बुढ़ापे में पत्नी प्यार से कुछ अनुरोध करे
तो मानना पड़ता है, मैंने
खाया। जो खाया उसका स्वाद अत्यंत रुचिकर था, मैंने
एक पत्ता टिक्की और मंगवाया और उसे चाट-चाट कर
खाया, तब
समझ में आया कि इसे 'चाट' क्यों कहते हैं. मेरा
अनुभव है कि पत्नी
का कहना मानने वाले पति सदैव फायदे में रहते हैं, ध्यान रहे. कभी
लखनऊ जाएं तो उस दूकान की टिक्की अवश्य
खाएं, आप
मुझे भी याद करेंगे।
आम
तौर पर जिन साहित्यकारों से मैं मिला हूँ, वे सभी मुझे सीधे-सज्जन-शिष्ट
लगे लेकिन मेरी किसी 'अति
सीधे-सज्जन-शिष्ट' व्यक्ति से मुलाकात हुई है तो वे हैं लखनऊ के
श्री बल्देव त्रिपाठी। अधिकांश लेखक आत्ममुग्ध, प्रशंसा
प्रिय और अहंकारी
हैं, उनमें
मैं भी हूँ, वहीँ
पर बल्देव त्रिपाठी हम सबसे अलग हैं. भगवान
श्री कृष्ण को
ऐसे ही लोग पसंद हैं.
श्रीमद्भगवदगीता
में लिखा है,
"अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च, निर्ममो
निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी।"
अर्थात जो मनुष्य किसी से द्वेष नहीं करता है, सभी प्राणियों के प्रति मित्रभाव रखता है, सभी
जीवों के लिए दयाभाव
रखने वाला है,
ममता
से मुक्त, मिथ्या
अहंकार से मुक्त, दुःख और सुख में समभाव रखता
है और सभी के अपराधों को क्षमा करने वाला है (वह
भक्त मुझे प्रिय है).
अपनी
सुदीर्घ शासकीय सेवा पूर्ण करने के बाद बल्देव त्रिपाठी ने अपने अनुभवों को कहानी
और उपन्यास का स्वरुप दिया। उनका कहानी संग्रह 'पियरका फुलवा' आंचलिक
कथाओं का संग्रह है जिस पर मेरे मित्र रणविजय राव (दिल्ली) लिखते
हैं, 'त्रिपाठी जी
एक रचनाकार के तौर पर समाज को आइना दिखाने और इस क्रम में एक से बढ़ कर एक अनछुए
रोचक हिस्सों को उजागर किया है. इन
कहानियों में आपको गाँव की सोंधी मिटटी की खुशबू, भूगोल, संस्कृति
और समाज की व्यापक झलक मिलेगी।'
वहीँ
पर उनके उपन्यास 'अर्थागमन' और 'विक्रय मूल्य' भारत
की सामाजिक व्यवस्था तथा शासकीय कार्य प्रणाली में व्याप्त विसंगतियों का लेख-जोखा
हैं. बल्देव जी का आकलन है कि हमारे आस-पास
की हर छोटी घटना एक कहानी का स्वरुप ग्रहण कर सकती है. हम
आप इन्हीं कहानियों के बीच में रहते हैं.
बल्देव
त्रिपाठी से मेरी पहली मुलाक़ात बिलासपुर में हुई, जब वे श्री
प्रेम जनमेजय द्वारा आयोजित 'व्यंग्य यात्रा' के कार्यक्रम
में सम्मिलित होने के लिए यहाँ आए थे. बिलासपुर
की जान पहचान लखनऊ में उस
समय आत्मीयता
में बदल गयी जब सम्मान समारोह में पूरे समय उपस्थित रहे और अगले दिन हमें लखनऊ
घुमाने का प्रस्ताव किया। अगले दिन वे शाम तक हमें लखनऊ शहर को दिखाते और समझाते
रहे और अंत में हमें मित्र श्री महेश द्विवेदी के घर छोड़ने के बाद जब हमसे दोनों
हाथ जोड़कर विदा ली, तब तक मैं उनका आशिक हो चला था. दोस्त
हो तो बल्देव त्रिपाठी जैसा।
महेश
द्विवेदी जी से मेरी मुलाक़ात इजिप्त की यात्रा के समय हुई थी. स्वभाव
से चुप्पे हैं इसलिए चुप-चुप ही रहते थे इसलिए उस दौरान
बातें नहीं हुई लेकिन इजिप्त से भारत लौटते समय जब कुवैत के हवाई
अड्डे में हम लोग अगली यात्रा के लिए विमान की प्रतीक्षा में पांच घंटे बैठने के
लिए मज़बूर हो गए तब उनसे बहुत सी बातें हुई और जान-पहचान
हो गयी.
महेश
द्विवेदी उत्तरप्रदेश में पुलिस के सर्वोच्च पद पुलिस महानिदेशक के निर्वहन के पश्चात रिटायर हुए, अब
अपने घर के ऊपर एक कमरे में अपनी पत्नी नीरजा जी के
सहयोग से बच्चों का स्कूल 'ज्ञान प्रसार संस्थान' चला
रहे हैं जिसमें उनकी कालोनी के आसपास के लगभग 100 गरीब बच्चे
पढ़ने आते हैं,
वह
भी निःशुल्क। महेश द्विवेदी और उनकी पत्नी नीरजा के अतिरिक्त विद्या सिंह, आरती
कपूर, सीमा
बाजपेयी तथा सपना कपूर भी बच्चों को शिक्षादान का अनुकरणीय कार्य स्वेच्छा से कर
रहे हैं.
महेश
द्विवेदी की पुस्तक 'Interesting exposures of administration' बहुचर्चित
है और वे अपने अनुभव के आधार पर रहस्योद्घाटन करते हैं कि शासन द्वारा बिठाई गई जांचों में जितनी बड़ी जांच, जैसे ज्युडीशियल इंक्वायरी या कमीशन ऑफ इंक्वायरी, उतना अधिक अपराधियों के बचने का चांस होता है. महेश द्विवेदी गद्य और पद्य, दोनों
विधा में पारंगत हैं और हिंदी व अंग्रेजी लेखन में सामान अधिकार रखते हैं.
हम
उनके बैठक कक्ष में प्रविष्ट हुए, जिसे 'ड्राइंगरूम' नहीं
कहा जा सकता। बड़े से हाल में लकड़ी के पुराने टाइप के सोफे में लगभग दस लोगों के
बैठने का इंतज़ाम, एक तरफ अधलेटी मुद्रा में एक वृद्धा और दो
दरवाजे, एक
बैठक में घुसने का और दूसरा रसोई घर जाने का. इतनी
सादगी कि मैं
उस रहन-सहन
को देखकर विस्मित हो गया. मैं सोचने लगा, "क्या यह घर उस व्यक्ति का है जो उत्तरप्रदेश
जैसे बड़े राज्य में पुलिस का सर्वोच्च अधिकारी रहा है?"
हम
दोनों ने वृद्धा के चरण स्पर्श किए और बैठ गए. हमारे
सामने महेश द्विवेदी और नीरजा जी बैठे। कुशल क्षेम पूछने के
पश्चात मैंने
बात की शुरुआत की, "आप?"
"मैं नीरजा की मां हूँ, सुशीला शर्मा. यहीं नीरजा के
पास रहती हूँ. यही मेरी देखरेख करती है. मुझे जाने नहीं देती, कई बार मुझे यमराज के चंगुल
से छुड़ा कर ले आयी." वृद्धा ने
बताया। महेश और नीरजा उनकी बात सुनकर हौले-हौले मुस्कुरा रहे थे." खनकती सी गंभीर आवाज गूंजी।
"आप अस्सी की लगती हैं?"
"नाइंटी प्लस।"
"आपके बच्चे?"
मैंने पूछा।
"हैं. एक लड़का आई.ए.एस है, रिटायर हो गया है और एक लड़की सुषमा है, उसके पति भी आई ए एस हैं, वे भी रिटायर हो गए हैं."
"आप उनके पास नहीं रहती?"
"नहीं, मैं यहाँ रहती हूँ, मुझे
यहाँ अच्छा लगता है. वैसे, वे मुझसे मिलने यहाँ आते रहते हैं." नीरजा
की मां ने बताया।
महेश
जी और नीरजा जी के साथ कुछ मिस्र की यादें उभरीं, कुछ
लेखन-पठन
की; कुछ पारिवारिक तो कुछ अंतरंग। दो
घंटे का वह साथ यादगार बन गया। उन्होंने हमें हमारे डेरे तक छोड़ा।
अगले दिन मौसम खराब था, कहीं दूर जाना नहीं हो पाया। नजदीक ही मुंशी
पुलिया का बाजार था, कुछ जरूरी कपड़े खरीदे। लखनऊ प्रवास का समय ख़त्म
हो चला था, शाम
की ट्रेन
बिलासपुर
के लिए वापस हो लिए लेकिन हमारा दिल लखनऊ में छूट गया क्योंकि अभी तक हमने लखनऊ
देखा ही कहाँ था? अगली बार जाऊंगा तो जी
भर कर लखनऊ घूमूंगा, रेसीडेंसी देखूंगा और अपने प्रिय कवि श्री नरेश
सक्सेना से मिलने जाऊंगा और उनसे पूरा दिन बैठ कर बातें करूंगा।
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सद्गुरु से बंगलुरु तक
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मन
माने न
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घर
में रहो तो बाहर जाने का मन होता है और बाहर जाओ तो घर लौटने का मन करता है। ये
हमारा मन है जो कहीं टिकता ही नहीं है। गौर करें तो हम लालची नहीं हैं, हमारा मन लालची है। जो
उपलब्ध है उससे हमारा मन उससे संतुष्ट नहीं रहता, 'कुछ नया, कुछ और' की रट निरंतर गूँजती रहती है।
हम
सबके घर में अत्यंत स्वादिष्ट भोजन बनता है, चाहे लौकी की सब्जी बनी हो, अच्छी लगती है लेकिन कभी-कभी
बाहर किसी होटल में जाकर कुछ 'और' खाने का भी मन करता है।
तो, प्रोग्राम बनाओ, सजो-सँवरो, पर्स चेक करो, वाहन को पोछो और पेट्रोल
भराओ, सड़क में भीड़-भाड़ का सीना
चीरते हुए रेस्तरां पहुँचो। रेस्तरां पहुँचकर 'वेटिंग' में सावधान की मुद्रा में
खड़े रहो, किसी के उठकर जाने के बाद
खाली हुई टेबल से जूठा उठाते और उसे पोछते कर्मचारी पर नज़र रखो, कुर्सियाँ खिसका कर बैठो।
आर्डर
लेने वाले बेयरा को आँखों के माध्यम से ढूंढो, मेनू पर दिमाग खपाओ, रेट देख कर अपने डूबते दिल
को सम्हालो, अपने बजट के अनुसार सामान
मँगवाओ, घरवाली या बच्चे किसी मंहगी
चीज का आर्डर करें तो उन्हें उस सामान के निरर्थक होने का ज्ञान दो, न मानें तो अपनी अपनी थूक
निगल कर मौन धारण करो और आधा गिलास पानी पीकर अपनी दिमागी अशांति को शांत करो।
उसके बाद 'स्टार्टर' समझकर सलाद और पापड़ को चबाते
हुए भोजन की प्रतीक्षा करो, परोसे गए भोजन को मैनर्स के
साथ खाओ ताकि प्लेट से चम्मच टकराने की आवाज़ न हो। भोजन पूरा हो जाने के बाद जब
बेयरा पूछे, 'सर, एनी स्वीट्स ऑर आइसक्रीम?' तो बच्चों की तरफ देखे बिना
साफ मना करते हुए बिल मंगवाओ और धड़कते दिल से उसका इंतज़ार करो, बिल देखकर पेमेंट करो और 'टिप' छोड़ो। उसके बाद मन-ही-मन रोते-बिलखते घर
वापस आओ और अपनी पत्नी से कहो, 'रानी, तुम्हारी लौकी की सब्जी में जो स्वाद है, वो बाहर कहाँ?'
'अब
समझ में आया तुमको?' घरवाली का ताना सुनो।
यही
होता है यात्राओं में। घर से बाहर निकलो तो कागज के नोट और क्रेडिट कार्ड में पंख
उग जाते हैं। न ठीक से खाने को मिलता है, न सोने को। चलते-चलते पैर पत्थर जैसे हो जाते
हैं। इंसान घर लौटते तक कंगाल हो जाता है और कसम खाता है, 'अब कभी, कहीं बाहर नहीं जाऊंगा' लेकिन कुछ समय बाद फिर से
घूमने का वही चिर-परिचित कीड़ा मन में कुलबुलाने लगता है।
मन को
कहीं चैन नहीं लेकिन असली चैन तो अपने घर वापस आकर ही मिलता है।
आम
तौर पर मुझे ट्रेन से यात्रा करना सुखद लगता है लेकिन इस बार हमारी बिटिया संगीता
ने हमें वायुयान से भेजने का निश्चय कर लिया था ताकि आने-जाने के समय की बचत हो
सके। वायुयान में पहले से टिकट बुक करने पर जुर्माना कम लगता है, उसका लाभ भी मिल गया लेकिन
वायुयानी यात्रा में मुझे मज़ा नहीं आता। आपस में कोई संवाद नहीं। सहयात्रियों के
सूजे हुए चेहरे देखकर मुझे कोफ्त होती है। सीट इतनी असुविधाजनक होती है कि मत
पूछिए, राम-राम करते 'डेस्टिनेशन' आता है। वायुयान जब बादलों
को चीर कर ऊपर उठता या नीचे आता है तो कान फड़फड़ाने लगते हैं और माथा भन्ना जाता
है।
चाहे
मुफ्तखोरी हो या कीमत अदा करो, व्योमबालाओं की मोहक मुस्कान की बावजूद
खाद्यसामग्री में कोई स्वाद नहीं होता। इसी दौरे की बात है, बंगलुरु के हवाई अड्डे में
स्थापित लोहे की कुर्सी में बैठकर हम पति-पत्नी पूरी-अचार खा रहे थे तो आते-जाते
यात्री हमें इस तरह घूरकर देख रहे थे जैसे हम लोग देहाती हों। ट्रेन में इस तरह का
वर्ग-विभेद नहीं होता इसलिए भले अधिक समय लगे, ट्रेन की यात्रा मन को भाती है लेकिन इस बार
मैं फंस गया था, मजबूरी थी इसलिए हवा में
उड़ना पड़ा।
मैं
सोचता हूँ, कब वो दिन आएंगे, जब ट्रेन में भी पहले से
आरक्षण करवाने पर छूट मिलेगी! कब वो दिन आएंगे, जब ट्रेन में केवल एक श्रेणी होगी, जैसा मेट्रो में है! एसी वन
और एसी टू में मिलने वाले यात्री भी कम नकचढ़े नहीं होते, ये भी न बात करते, न मुसकुराते, न टिफिन शेयर करते, बस बुद्ध की प्रतिमा बने
पूरा दिन काट देते हैं। जब से मोबाइल और लेपटाप आ गया है, रेल में सफर करना और अधिक 'बोरिंग' हो गया है लेकिन अभी भी
वायुयानी यात्रा से बेहतर है क्योंकि कई बार हमें हमारे जैसे पुरातनपंथी भी मिल जाते
हैं तो रास्ता मज़े में कट जाता है। जिसको जो कहना है, कहता रहे, भाई अपन को ऐसी गंभीरता रास
नहीं आती।
ये
रहा कोयंबत्तुर का ईशा आश्रम :
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देश-विदेश
से दर्शनार्थी यहाँ आते हैं, ध्यानलिंग, भैरवी देवी व आदियोगी के दर्शन करने, मैं आता हूँ अपने पुत्र
कुंतल, अब स्वामी ऋजुडा, से मिलने जो विगत सोलह
वर्षों से सद्गुरु जग्गी वासुदेव के शिष्यत्व में आश्रम की विभिन्न गतिविधियों में
संलग्न हैं। त्रिची एन॰आई.टी॰ से इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इलेक्ट्रिकल्स विषय में
इंजीनियर बनने के बाद उन्होंने अपने शेष जीवन को इस आश्रम से सम्बद्ध कर लिया।
इस
आश्रम में पहली बार मैं 2003
में
आया था, आश्रम देखने गया था, कुछ समझ नहीं आया। वो दुनिया
हमारी दुनिया से अलग है। काम, व्यस्तता और समस्याएँ जैसी हमारी दुनिया में
हैं, वैसी उस दुनिया में भी है
लेकिन फर्क है। फर्क यह है कि हम अपने जीवन के बाहरी आयाम को विकसित करने के यत्न
करते हैं जबकि वे जीवन के आंतरिक आयाम को छूने का प्रयास करते हैं। हमें उनकी बात
समझ नहीं आती क्योंकि वहाँ की गतिविधियों में प्रविष्ट हुए बिना हम उन्हें नहीं
समझ सकते, वे हमें पागल से लगते हैं
लेकिन वे हमारी दुनिया से होकर गए हैं इसलिए वे दोनों दुनिया को भलीभाँति
जानते-समझते हैं। हम 'स्व' को बढ़ाने में लगे हैं, वे 'स्व' को मिटाने में लगे हैं।
चूंकि हम बचपन से अभ्यस्त हैं इसलिए अहंकार के बिना जीना हमारे लिए बहुत कठिन है, वे अहंकार दूर करने की कठिनता
को सरल बनाने में लगे हैं, अपने लिए और दूसरों के लिए
भी। हम काम के बदले आराम की खोज में रहते हैं लेकिन उनके जीवन में आराम शब्द है ही
नहीं, वे निरंतर काम करते हैं, स्व को छोड़कर सर्वजनहिताय।
सद्गुरु
जग्गी वासुदेव से मैं उस समय से नाराज़ चल रहा हूँ, जब से हमारा बेटा कुंतल उनके आश्रम से सम्बद्ध
हो गया, आज भी मैं उनसे रुष्ट हूँ।
आश्चर्य होगा आपको कि मैं कुंतल से नाराज नहीं हूँ क्योंकि हर मनुष्य को अपने जीवन
की राह चुनने की स्वतन्त्रता है, उसे भी थी। देर-सबेर सही, हमने भी उनके निर्णय पर अपनी
मुहर लगा दी और अपने मन को समझा-बुझा कर उनके निर्णय को अपने अनुकूल कर लिया लेकिन
आध्यात्म की राह अपना कर कुंतल अपने अपनों से दूर हो गया। यह ऐसी पीड़ा है जिसे हम
निरंतर
सह
रहे हैं, संभवतः कुंतल हमारी पीड़ा को
समझते होंगे। यह सही है कि उनकी नज़दीकी असंख्य लोगों से हो गयी लेकिन हमसे उनकी एक
दृश्य दूरी बन गयी। हम भी उन असंख्य लोगों की भीड़ में से एक हैं जिनसे आज उनकी
नज़दीकी है। आध्यात्म के मार्ग में पारिवारिक मोह-माया बाधा है, यह हमें मालूम है, लेकिन आध्यात्म हमारे
पारिवारिक तानेबाने के मार्ग में क्यों बाधा बन गया, यह अफसोस हर समय मेरे मन में बना रहता है। इसका
दोष मैं सद्गुरु जग्गी वासुदेव पर मढ़ता हूँ क्योंकि उनके चुम्बकीय आकर्षण के सामने
हमारा दुनियावी आकर्षण कमजोर पड़ गया। जो जादुई संसार हमने कुंतल के जीवन के इक्कीस
वर्षों में रचा, वह सहसा धाराशायी हो गया और
हम गुजरते कारवां को देखते रह गए !
सद्गुरु
से इतनी नाराजगी के बावजूद मैं जब भी उनके करीब जाता हूँ, उन्हें देखता हूँ तो मेरी
आंखो से आँसू बहने लगते हैं। उनके मुखमंडल पर आच्छादित करुणा के समक्ष मैं पिघल
जाता हूँ और सोचता हूँ कि कुंतल का निर्णय हमें अप्रिय भले लगा हो लेकिन अब लगता है
कि कुंतल ने हमसे दूर होने का जो साहसी निर्णय लिया, वह एकदम सही था।
मैं
आश्रम इसलिए जाता हूँ ताकि इन बूढ़ी आंखो से अपने पुत्र को जी भर कर देख सकूँ, उसकी मीठी आवाज़ को अपने
कानों से सुन सकूँ और यह सुनिश्चित कर सकूँ कि वह आश्रम का कार्य ठीक से कर रहा है
या नहीं?
आश्रम
में समय के साथ बहुत से परिवर्तन हुए। शुरुआत में ध्यानलिंग मंदिर था, स्पंद सभागृह था, ट्रेंगुलर ब्लाक था, उसके बाद चंद्रकुंड, सूर्यकुंड, भैरवी मंदिर, सभागृह और आदियोगी की
स्थापना हुई। जब मैंने वहाँ जाना शुरू किया तब वहाँ अंग्रेजी और तमिल भाषा का
बोलबाला था, भूले-भटके कोई हिन्दी बोलने
वाला मिलता था। आश्रम के सभी कार्यक्रम अंग्रेजी और तमिल में होते थे। इस बार वहाँ
का मौसम बदला हुआ था, हिन्दी भाषियों की उपस्थिति
गैर-हिंदीभाषियों से अधिक नज़र आई। सद्गुरु के चाहने वालों की संख्या में भी इजाफ़ा
दिखा।
मुझे
याद आता है सन जुलाई 2007
में
आयोजित 6 दिवसीय 'होलनेस' कार्यक्रम में मैं भी
प्रतिभागी था। पूरा कार्यक्रम अंग्रेजी में था, कुछ समझ में आये, कुछ न आये। चौथे दिन की बात है, सद्गुरु के प्रवचन के पश्चात
प्रश्न आमंत्रित किए गये। मैंने कहा, 'सद्गुरु, इस सभागार में ऐसे बहुत से लोग हैं जो अंग्रेजी
नहीं समझ पाते कितना अच्छा हो कि हिन्दी भाषा में इसका संक्षिप्त अनुवाद प्रस्तुत
किया जाए?'
'कार्यक्रम
के बारे में शुरू में ही लिखित बता दिया गया था कि यह अंग्रेजी में है, अब हम क्या कर सकते हैं? मुझे अंग्रेजी आती है, तमिल, कन्नड़, तेलुगू और मलयालम भी आती है, लेकिन हिन्दी नहीं आती। आप
समझ सकें तो तमिल, कन्नड़, तेलुगू और मलयालम में बोल
सकता हूँ, समझ आएगा आपको ?' सद्गुरु ने कहा।
मैं
चुप रहा गया। मैं मन में सोच रहा था कि जब संस्कृत भाषा में सद्गुरु पारंगत हैं तो
हिन्दी बोलने-समझने में क्या दिक्कत है? दक्षिण भारतीयों को हिन्दी भाषा अपनाने से इतनी
हिचक क्यों है? लेकिन उनसे बहस करने की
स्थिति में मैं नहीं था इसलिए चुप रहा।
इस
वार्तालाप के बाद जब भोजन कक्ष में हम सब पहुंचे तो ऐसा संयोग हुआ कि मैं जहां
बैठा, उसके ठीक बगल में सद्गुरु भी
आकर विराजमान हो गये। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा, उनसे इतनी नजदीकी मेरी लिए सौभाग्य की बात थी।
मैं सकुचाया लेकिन मुदित सा बैठा था। कुछ देर में भोजन परोसा गया। मंत्रपाठ हुआ और
भोजन आरंभ करने के पूर्व सद्गुरु ने मुझसे अंग्रेजी में पूछा, 'भोजन भी हिन्दी भाषा में
करेंगे क्या?'
कुछ
क्षणों के लिए मैं अवाक् रहा गया, सोचा, इस प्रश्न का क्या जवाब दूँ लेकिन मैं फिर
मुस्कुराकर चुप रह गया क्योंकि जब बारह सौ लोगों की सभा में एक प्रश्नकर्ता को
उन्होंने दूर से चेहरा देखकर पहचान लिया और प्रश्नकर्ता से ही ऐसा प्रश्न कर दिया, इसका मतलब यह है कि मेरे
प्रश्न ने बंजर जमीन में उर्वरा बीज बिखेर दिए हैं, एक समय आएगा जब इस आश्रम में हिन्दी भाषा का
प्रवेश होगा, हिन्दी पल्लवित पुष्पित
होगी।
अधिक
समय नहीं लगा, चार-पाँच साल बाद उन्हें
हिन्दी भाषा का महत्व समझ आया. महाशिवरात्रि के वृहद 'लाइव' कार्यक्रम का अनुवाद होने
लगा, सद्गुरु की अंग्रेजी
पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित होने लगे, मासिक पत्रिका 'ईशा लहर' प्रकाशित होने लगी, सद्गुरु के वीडियो हिन्दी
भाषा में 'डब' होने लगे और आश्रम में
हिंदीभाषियों की हिन्दी सुनाई पड़ने लगी। अब तो सद्गुरु हिन्दी में गाना भी गाने
लगे, 'शिव कैलासों के वासी, धवली धारों के राजा, शंकर संकट हरना।'
मैसूर
की पहचान मैसूरपाक :
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बचपन
से मिठाई बेचने का काम किया है इस कारण मैसूरपाक और उसके मधुर स्वाद को खूब
पहचानता हूँ। मिठाइयों में दो ऐसी हैं जिनको बनाने में कारीगर को बहुत मेहनत लगती
है, सोनपपड़ी और मैसूरपाक। इन्हें
बनाने में बहुत पसीना बहता है, वही टपका हुआ पसीना सोनपपड़ी और मैसूरपाक का स्वाद है।
सोनपपड़ी की लोकप्रियता सम्पूर्ण भारत, यहाँ तक कि विदेशों में भी है लेकिन मैसूरपाक
अब भी दक्षिण भारत में अपने पैर जमाए हुए है, उत्तर भारत में इसे चाहने वाले कम हो गए हैं।
मैं
आपको यह बताना चाहता हूँ कि जब भी मैं मैसूरपाक खाता था, मुझे मैसूर शहर देखने की
इच्छा होती थी लेकिन मैसूर क्या, कर्नाटक में कहीं भी जाने का कभी सुअवसर न बना।
इस बार माधुरी जी ने कहा, 'मुझे आश्रम के बाद मैसूर
जाना है, वहां चामुंडी पर्वत पर उस
स्थान के दर्शन करना है, जहां सद्गुरु जग्गी वासुदेव
को को दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ था।' लिहाज़ा, कोयंबत्तुर से मैसूर जाने की योजना बन गयी।
वहाँ से कुर्ग और कुर्ग से बंगलुरु जाने का भी मन बन गया।
रेल
से मैसूर के लिए कोई सीधी ट्रेन नहीं है इसलिए हमारे पास दो विकल्प थे, पहला, हम रेलपथ से कोयम्बत्तूर से बंगलुरु जाएँ और बंगलुरु से
सड़क मार्ग से मैसूर, कुल ग्यारह घंटे की यात्रा, या, कोयम्बत्तूर से सड़क मार्ग से
सीधे मैसूर, सात घंटे की यात्रा। मैंने
ग्यारह घंटे की यात्रा का चयन किया, यह सोचकर कि हमारे घुटनों को आराम बस में नहीं, ट्रेन में मिलेगा, पैर पसार कर सोते हुए आराम
से बंगलुरु तक जाएंगे।
जब भी
हम कोयम्बत्तूर से वापस लौटते हैं तो रेल्वेस्टेशन से लगभग 200 मीटर की दूरी पर एक रेस्तरां
है RHR,
वहां
अवश्य जाते हैं। अत्यंत स्वादिष्ट दक्षिण भारतीय व्यंजन खाने का मन हो तो यहाँ
अवश्य जाइए, पेट भी भर जाएगा और आत्मा
प्रसन्न हो जाएगी।
सुबह
नौ बजे हमारी ट्रेन कोयम्बत्तूर
से रवाना हुई, सवा नौ बजे माधुरी जी ने तीन
तकिया लगाई, दो कम्बल ओढ़े और आराम से पसर
कर सो गयी। मैं सिने-अभिनेता
चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा 'मेरा जीवन' पढ़ने में मशगूल हो गया। इन्हीं चार्ली चैप्लिन
ने कहा था, 'मैं बरसात में भीगते हुए
रोता हूँ ताकि कोई मेरे आंसू न
देख ले।'
दोपहर
को 4 बजे के आसपास हम बंगलुरु के
रेल्वे स्टेशन के बाहर खड़े थे जहां हमारे लिए एक टैक्सी लेकर महेश खड़े थे। यह
टैक्सी चार दिन और तीन रात का साथ देने के लिए मेरे कानपुरिया फेसबुक मित्र श्री
आशीष शुक्ल ने 'बुक' कराई थी। आशीष शुक्ल का
कानपुर में टैक्सी का कारोबार है इसलिए हमें उनके माध्यम से बंगलुरु में टैक्सी की
सुविधा किफ़ायती दर पर हासिल हो गयी। फेसबुक बड़े काम का माध्यम है बशर्ते आप इसके
व्यापक प्रभाव को समझें।
कार
आरामदेह थी और हमारा वाहनचालक महेश कम बात करनेवाला और 'यस सर' बजाने वाला इंसान साबित हुआ।
शाम ढलने लगी, अंधेरा घिरने लगा लेकिन
मैसूर दूर था। माधुरी जी की बेचैनी बढ़ने लगी। वे पीछे की सीट पर विराजमान थी।
उन्होने ड्राइवर से पूछा, 'महेश, मैसूर कितनी देर में आएगा?'
'एक
घंटा और लगेगा मेम।' उसने बताया।
'रात
हो जाएगी तो कुछ नहीं देख पाएंगे। होटल जाएंगे और सो जाएंगे। क्या हम सोने के लिए
मैसूर आए हैं?' उन्होंने पूछा, किससे पूछा, मैं नहीं समझ पाया। मैंने
अनसुना कर दिया।
'सुबह
तुम बोलोगे, चलो जल्दी, कुर्ग निकलना है तो यहाँ
क्यों आए?' अब मैं समझ गया कि प्रश्न
मुझसे किया गया था।
'शाही
महल की रोशनी की सजावट तो रात को होती है, पहले उसे देखेंगे, उसके बाद होटल जाएंगे।' मैंने समझाया। मेरी समझाइश
तुरंत भसक गयी, जैसे ही ड्राइवर ने बताया कि
रोशनी केवल शनिवार और रविवार को होती है, बाकी दिनों में नहीं होती। उस दिन मंगलवार था।
मेरे ऊपर संकट के बादल मंडराने लगे। वे भड़की, 'तुम्हारा सब काम ऐसा ही रहता है। कोयंबत्तुर से
मैसूर के लिए बस में आते तो कब का यहाँ पहुँच जाते लेकिन तुमने ट्रेन पकड़ी, अब टैक्सी से मैसूर जा रहे
हैं। पूरा दिन बर्बाद हो गया। यहाँ आए हो तो मंगलवार को, जब 'लाइटिंग' नहीं होती। तुम कोई काम
अच्छे से सोच-समझकर क्यों नहीं करते?'
'मुझे
क्या पता कि मंगल को 'लाइटिंग' नहीं होगी?' मैंने कहा।
'दिन
भर हाथ में मोबाइल पकड़े रहते हो, पहले से पता नहीं करना था?'
'ध्यान
नहीं रहा।' अब मैं बचाव की मुद्रा में आ
गया। बात आगे न बढ़े इसलिए मैंने ड्राइवर से कहा, 'महेश, पहले राजमहल चलो, देखते हैं वहाँ, होटल बाद में जाएंगे।'
'यस
सर।' महेश ने कहा।
'यस
सर।' पीछे से नाराजगी का स्वर
पुनरुच्चारित हुआ। हम अब हम सब चुप हो गए। मैसूर शहर आ गया। हम महल की ओर बढ़ चले।
महल रोशनी से नहा रहा था क्योंकि उस रात मैसूर के महाराजा का जन्मोत्सव मनाया जा
रहा था और महल में बने खुले 'सेट' पर एक 'कंसर्ट' चल रहा था और पूरे परिसर में
पाश्चात्य संगीत की मधुर स्वरलहरी गुंजायमान थी। हम मंत्रमुग्ध होकर राजमहल को
निहार रहे थे।
मिर्जा रोड पर स्थित इस महल में मैसूर राज्य के महाराज वुडेयार रहते थे। सन 1912
में उनका काष्ठ निर्मित महल दुर्घटनावश जल गया था, तब ब्रिटिश आर्किटैक्ट हेनरी इर्विन के बनाए
नक्शे के आधार पर वर्तमान महल तैयार किया था। कल्याण-मंडप की कांच से सज्जित छत, दीवारों पर लगी आकर्षक
तस्वीरें और स्वर्णजटित सिंहासन यहाँ की विशेषता है। बहुमूल्य रत्नों से सुसज्जित
इस सिंहासन को दशहरा उत्सव के समय आमजनता देख
सकती है। जब हम गए, हमें अंदर प्रवेश नहीं मिला इसलिए हम वहाँ की बाहरी विद्युत छटा देखकर अपने
पूर्वनियोजित होटल 'विला पार्क' में आ गए।
होटल
बढ़िया था लेकिन कमरे में लगे टीवी में कार्यक्रम नहीं आ रहा था. माधुरी जी ने कहा, 'रिसेप्शन में खबर करो.'
मैंने
रिसेप्शन से बात की. दस-पंद्रह मिनट लगे, टीवी चालू हो गया। माधुरी
जी ने कहा, 'टीवी बंद कर दो, मुझे नींद आ रही है।'
'जब टीवी नहीं देखना था तो चालू क्यों करवायी?' मैंने पूछा।
'हम देखें या न देखें, टीवी सही होना चाहिए।' उन्होंने उत्तर दिया। चूंकि मैं भी होटल
चलाता हूँ इसलिए मैंने ग्राहक के मनोविज्ञान की यह बात अपने दिमाग में अंकित कर
ली।
सुबह
नाश्ता करने के लिए हम लोग होटल के नीचे स्थित रेस्तरां में पहुंचे। पूरा रेस्तरां
जैसे खेल का छोटा सा खूबसूरत मैदान हो। दीवारों पर विभिन्न खेलों और उन खेलों के
विश्वप्रसिद्ध खिलाड़ियों के फोटोग्राफ करीने से सजे हुए था। छोटे से हाल में
गोल-पोस्ट की 'नेट' दोनों तरफ लगी हुई थी।
खाने की टेबल में काँच के नीचे अंतर्राष्ट्रीय खेलों के महत्वपूर्ण क्षणों के
दर्शनीय फोटो लगे हुए थे। मैं आज तक देश-विदेश के अनेक स्थानों पर जा चुका हूँ
लेकिन किसी व्यापारी के दिल में खेलों के प्रति ऐसा अनुराग कहीं नहीं देखा। नाश्ता
भी शानदार और रेस्तरां भी शानदार, मैसूर का 'विला पार्क', वाह।
हमें
चामुंडा पर्वत में जाना था, जहां चामुण्डेश्वरी देवी के
मंदिर व नंदी की प्रतिमा के दर्शन करने थे। पहाड़ी जाने के रास्ते में यातायात
पुलिस का अमला खड़ा था जिसने हमें वही पर रोक दिया और निर्देश दिया कि सड़क की बायीं
ओर मुड़कर आगे जाना है जहां एक मैदान में कार पार्किंग बनाई गयी है। कार पार्किंग
में खड़ा करके सार्वजनिक परिवहन की बस में बैठकर जाना है। वह गुरुवार था, चामुण्डेश्वरी देवी के दर्शन
का विशेष पर्व। हजारों दर्शनार्थी वहाँ उमड़े हुए थे और पंक्तिबद्ध होकर कर्णाटक
राज्य परिवहन की बस में बैठने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे। एक के बाद एक बस आ रही
थी, लोग उसमें बैठ रहे थे, जितनी सीट उतने यात्री, एक भी 'एक्सट्रा सीट' नहीं और कोई किराया भी नहीं, निःशुल्क।
चामुंडेश्वरी राजराजेश्वरी त्रिपुरसुंदरी का ही एक रूप है। चामुंडेश्वरी नाम के पीछे एक कथा प्रचलित है जो ‘दुर्गा सप्तशती’ में उनके नाम की उत्पत्ति-कथा
वर्णित है। आदि काल में धरती पर दो दैत्य शुम्भ और निशुम्भ का राज था। उन्होंने धरती व स्वर्ग पर बहुत अत्याचार मचाया। अत्याचार से दुखी होकर देवताओं व मनुष्यों ने हिमालय में जाकर देवी की आराधना की लेकिन
स्तुति में किसी भी देवी का नाम नहीं लिया। उन्हीं दिनों शंकर जी और देवी पार्वती वहां
मानसरोवर में स्नान करने आये। उन्होंने पूछा ‘आप लोग किसकी आराधना कर रहे हो ?’
देवता
मौन रहे लेकिन लेकिन माँ भगवती ने देवी पार्वती जी के शरीर में से प्रगट होकर पार्वती से
कहा, ‘देवी यह लोग मेरी ही स्तुति कर रहे है। मैं आत्मशक्ति स्वरूप
परमात्मा हूँ जो सबकी आत्मा में हूं।‘ पार्वती के शरीर से प्रगट होने के कारण माँ दुर्गा का एक नाम ‘कोशिकी’ भी पड़ गया।
कोशिकी
को शुम्भ और निशुम्भ के दूतों ने देख लिया और दैत्य शुम्भ और निशुम्भ से कहा, ‘महाराज, आपके पास अमूल्य रत्नों का भंडार है, इन्द्र का ऐरावत हाथी भी आपके पास है। आपके पास
ऐसी दिव्य और आकर्षक नारी भी होनी चाहिए जो तीनों लोकों में सबसे सुन्दर हो, ऐसी नारी कोशिकी है।‘
इसे सुन कर शुम्भ और निशुम्भ ने अपना एक दूत देवी
कोशिकी के पास भेजा और उस दूत से कहा, ‘तुम उस सुन्दरी से जाकर
कहना कि शुम्भ और निशुम्भ तीनो लोकों के राजा है और वें तुम्हें अपनी रानी बनाना चाहते हैं।‘
दूत
माता कोशिकी के पास गया और दैत्यों का उन्हें अनुरोध सुनाया। माता कोशिकी ने कहा, ‘मैं मानती हूं कि शुम्भ और निशुम्भ दोनों ही महान है, बलशाली हैं किन्तु मैं एक प्रण ले चुकी हूं कि जो मुझे युद्ध में
हरा देगा, मैं उसी से विवाह करूंगी।'
माता
के प्रण के विषय में दूत ने शुम्भ और निशुम्भ
को बताया तो वे कोशिकी के वचन सुन कर
क्रोधित हो गये और कहा, ‘उस नारी का यह दूस्साहस कि वह हमें युद्ध के लिए ललकारे?‘ उन्होंने चण्ड और मुण्ड
नामक दो असुरों को भेजा और कहा, ‘जाओ, उसके केश पकड़कर हमारे
पास ले आओ।‘
चण्ड
और मुण्ड देवी कोशिकी के पास गये और उसे अपने साथ चलने के लिए कहा। देवी के मना
करने पर उन्होंने देवी पर प्रहार किया तब देवी कौशिकी ने अपने आज्ञाचक्र भृकुटि से ‘काली’ का रूप धारण कर लिया और दोनों असुरों का संहार कर दिया। उन दोनों असुरों चण्ड और मुण्ड को मारने
के कारण माता कोशिकी का नाम ‘चामुण्डा’ पड गया।
आध्यात्म
में ‘चण्ड’ प्रवृत्ति और ‘मुण्ड’ निवृत्ति का नाम है और माँ प्रवृत्ति और निवृत्ति, दोनों से मुक्ति दिलाती
है। चामुंडी देवी का प्रार्थना मंत्र है, ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं
चामुण्डायै विच्चै।'
मंदिर
में जनसमूह उमड़ा हुआ था, दर्शन करने के लिए देर तक खड़ा
रहना हम दोनों के लिए संभव न था इसलिए बाहर से माँ चामुंडेश्वरी को प्रणाम करके
वहाँ तैनात पुलिसकर्मी से मैंने उसी पहाड़ी पर स्थित नंदी की प्रतिमा तक जाने का
साधन पूछा। उन्होंने बताया कि वहाँ जाने का मार्ग शुक्रवार को बंद रहता है, चाहें तो 300 सीढ़ियाँ नीचे उतरकर जा सकते
थे लेकिन हमारी उतना उतरने-चढ़ने की हमारी हिम्मत न थी इसलिए निराश होकर शहर वापस आ
गए और अपनी टैक्सी में बैठकर कुर्ग की यात्रा के लिए चल पड़े।
मैसूर
से कुर्ग की राह पर सुप्रसिद्ध 'बृंदावन गार्डन' मिल गया, हमारी कार उस ओर मुड़ गयी। प्रवेशद्वार के पहले
खाने-पीने का फुटकर सामान बिक रहा था। माधुरी जी ने अपनी पसंद का सामान खरीदा, मैंने कटहल के पके हुए बीज
खरीदे जिसे देखकर मैं ललचा गया था। बड़े शौक से उसे खाया, मीठा लगा लेकिन वाह दांतों
से चबने वाली चीज थी, मैं बिना दाँत वाला इंसान, थक गया उसे अपने मसूढ़ों से
चबाते-चबाते, उसे साबुत ही निगल लिया और
बचे हुए फल को माधुरी जी को देकर उससे मुक्ति पाया। मैं अक्सर अपनी उम्र और
उम्र-जनित कमजोरियों को भूल जाता हूँ और ऐसे दुस्साहस कर बैठता हूँ जो मुझे कष्ट
देते हैं और शर्मिंदा भी कर देते हैं। इसी हवाई यात्रा की बात है, हवाई जहाज में व्योमबाला हर
यात्री का मुस्कुरा कर स्वागत कर रही थी, मुझे भी देखकर मुस्कुराई, मैंने भी उसे 'फ्लाइंग स्माइल' दी, उसी मैं वहीं ठिठक कर खड़ा हो
गया और उसकी ओर देखकर मैंने एक स्वाभाविक मुस्कान फेकी, उसके उत्तर में अब 'प्रोफेशनल स्माइल' नहीं थी, स्वाभाविक मुस्कान थी। उसकी
दोनों मुस्कानों में बड़ा फर्क था। अपनी सीट पर बैठते-बैठते मेरे मन में चल रहा था, 'बुढ़ऊ, अपनी उम्र का ख्याल किया करो
तनिक....' लेकिन मैं क्या करूँ? मैं अक्सर अपनी उम्र भूल
जाता हूँ।
हम
बृंदावन गार्डन के प्रवेश द्वार से प्रविष्ट हुए, भीतर विशालकाय परिसर दिखा। 60 एकड़ में फैले इस बाग का
निर्माण सन 1927
से
आरंभ हुआ और 1932
में
पूर्ण हुआ। यह बाग मैसूर के तत्कालीन दीवान मिर्ज़ा इस्माइल के सपनों का मूर्त
स्वरूप था। कावेरी नदी पर निर्मित कृष्णराजसागर बांध की दीवार के बाजू में स्थित
यह बाग अपनी भव्यता के लिए पूरे देश में मशहूर है।
हम
लोग भरी दोपहर में वहाँ पहुंचे इसलिए फव्वारों की विद्युत्छटा नहीं देख पाए, सैलानियों की भीड़ न देख सके।
कुछ प्रेमी जोड़े इधर-उधर भटक रहे थे और हमारे आसपास होने के कारण असुविधा महसूस कर
रहे थे। कोई भी बाग हो, उसमें फूल होते हैं, वहाँ केनी के मुश्किल से
तीस-चालीस पौधों में फूल खिले हुए थे, आश्चर्य, शेष बाग-क्षेत्र में एक भी पौधा न दिखा, फूल कहाँ से दिखते?
हम तो
उस बृंदावन गार्डन को देखने गए थे जिसकी छटा हमने फिल्म 'झनक झनक पायल बाजे' के गीत 'नैन सो नैन नाहीं मिलाओ....' में गोपीकृष्ण और संध्या को
मनोहारी नृत्य करते देखा था; फिल्म 'घराना' में राजेन्द्रकुमार और आशा पारेख के बीच प्रणय
निवेदन में गाया रोमांटिक गीत देखा था, 'हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं...', लेकिन वहाँ सन्नाटा था, वीरानी थी, न संध्या दिखी, न आशा पारेख। मुझे लगता है
कि मैंने गलत समय चुना, शाम को जाना था वहाँ। वैसे, साथी मेरा रोमांटिक था, संध्या और आशा पारेख जैसा, लेकिन शायद रोमांस की वह
उम्र न रही। विवाहित जोड़ों को चाहिए कि वे समय रहते अपनी हसरतें पूरी कर लें
अन्यथा उम्र के आखिरी पड़ाव में मेरे जैसा अफसोस भुगतेंगे।
झिरझिर
बरसा पानी
आगे
का रास्ता और मौसम साफ़सुथरा था लेकिन कुर्ग क्षेत्र में प्रवेश करते ही बादल दिखने
लगे और बरसने भी लगे। एक स्थान पर हमारी कार मुख्य सड़क से बायीं ओर मुड़ी और पाँच
मिनट के अंदर हम स्वर्णमंदिर के समक्ष थे। उत्तर भारत में स्वर्णमंदिर पंजाब के
अमृतसर में है, दक्षिण भारत में स्वर्णमंदिर
कर्णाटक के नाम्ड्रोलिंग में है। यहाँ महात्मा बुद्ध की स्वर्णमंडित प्रतिमा है।
यह एक मोनेस्ट्री है जहां लगभग पाँच हजार लामा आराधना करते हैं, शिक्षा ग्रहण करते हैं।
महात्मा बुद्ध की विशालकाय सुनहरी प्रतिमा को देखकर मुझे थाइलैन्ड, श्रीलंका और भूटान में
स्थापित मूर्तियों का स्मरण हो आया।
नाम्ड्रोलिंग
से कुछ दूर आगे बढ़े और आ गया कुर्ग का मदिकेरी शहर। वहाँ से 5 किलोमीटर दूर 'ब्रुक स्टोन विला' में हमने अपने लिए कमरा
आरक्षित करवाया था। 'मेक माई ट्रिप' ने बताया था कि हाई-वे से
दाहिने मुड़कर 500
मीटर
आगे जाना होगा , वहाँ पर यह रिसोर्ट मिलेगा
लेकिन हमारी कार ऐसे दुर्गम रास्ते पर घुसी जहां हम बढ़ते गए लेकिन वह रिसोर्ट आने
का नाम न ले। पक्की सड़क नहीं, बेतरतीब रास्ता, ऊबड़-खाबड़, घना जंगल, लगातार बारिश, गहराता अंधेरा, माधुरी जी भड़क गयी, 'कहाँ है होटल?'
'आता
होगा।' मैंने शांति से उत्तर दिया
लेकिन अंदर ही अंदर मैं भी घबरा रहा था।
'कब
आएगा?'
'आता
होगा।'
'आता
होगा, आता होगा। तुमको शहर में कोई
होटल नहीं मिला जो इस बियाबान में ले आए?'
'मैंने
सोचा कि होटल में तो हमेशा रुकते हैं, इस बार रिसोर्ट में रुक कर देखा जाए।'
'ऐसा
कैसा रिसोर्ट है कि वहाँ पहुंचे बिना जी घबरा रहा है?' माधुरी जी आवाज में चिंता
घुली हुई थी। मैं भी चिंतित हो रहा था। आठ फुट चौड़ा पगडंडी जैसा फिसलन भरा रास्ता, जोरदार बारिश। अचानक सकरा सा
नाला आया जिस पर पेड़ की एक डगाल गिरी पड़ी थी। ड्राइवर ने गाड़ी रोकी। माधुरी ने कहा, 'वापस चलो यहाँ से।'
'कार 'बेक' नहीं हो सकती मैडम, रास्ता संकरा है, आगे जाकर देखता हूँ, शायद कोई चौड़ी जगह मिले।' ड्राइवर ने कहा।'
'पर
नाला कैसे पार करोगे?' मैंने पूछा। उसने मुझे कोई
जवाब नहीं दिया और चतुराई के साथ कार को नाले के उस पार निकाल दिया। हम सांस थामे
और आगे बढ़ चले क्योंकि पीछे लौटने का कोई उपाय न था, रिसोर्ट का कोई अता-पता न था, हम 'गूगल-रोड-फ़ाइंडर' के सहारे अंधेरे में किसी
उजाले को टटोल रहे थे। अचानक रोशनी दिखी। बायीं ढलान में उतरने पर एक बंगला दिखा, अंग्रेजों के जमाने का बनाया
हुआ, वही था, 'ब्रुक स्टोन विला'।
'हे
भगवान, ये कैसा होटल है?' माधुरी जी के बोल सुनाई पड़े।
'मैं यहाँ नहीं रुकूँगी, जाओ, बुकिंग कैंसिल कर दो।'
मैं
भी विस्मित था। घने जंगल के अंदर एक बंगले को आवासीय रूप दे दिया गया था। चारों तरफ सन्नाटा। मुझे शरलॉक होम्स
की जासूसी कहानियों के दृश्य याद आने लगे। ऐसा महसूस हुआ कि अगर यहाँ रुके, अचानक हमारी तबीयत खराब हो
गयी तो तुरंत इलाज़ का कोई साधन नहीं, यहाँ कोई हमें काटकर फेंक दे तो हमारी लाश का
पता भी नहीं चलेगा। फिर भी मैं सधे कदमों से भीतर गया, रिसेप्शन सूना था, मैंने हिन्दी में आवाज़ लगायी, 'कोई है?'
एक
सुशोभित युवक आया, उसने मुझे अदब से अभिवादन
किया और कहा, 'यस सर।'
'हमने
आपके यहाँ एक रूम बुक कराया था।' मैंने कहा।
'आपका
नाम?'
'द्वारिका
प्रसाद अग्रवाल।'
'यस सर, आइए, आपको आपका रूम दिखा देता
हूँ।'
'ओके, लेकिन हम हम बुकिंग कैंसिल
करना चाहते हैं।'
'क्यों
सर?'
'यह
शहर से बहुत दूर है, मेरी पत्नी हार्ट-पेशेंट है, अगर कोई इमर्जेंसी आ गयी तो
कैसा करेंगे?'
'यस
सर।'
'क्या
करें? तुम बताओ।'
'कोई
बात नहीं, मैं बुकिंग कैंसिल कर देता
हूँ। बेहतर है कि आप शहर के किसी होटल में रुक जाएँ।' रिसेप्स्निस्ट ने संजीदगी से
कहा और मुझे 'विश' किया। बंगले के बाहर तेज
बारिश हो रही थी, मैं भीगते हुए कार में घुसा
और मैंने अपने ड्राइवर से कहा, 'जल्दी वापस चलो, यहाँ से।'
उस
जंगली रास्ते से होते हुए जब हमारी कार 'हाई-वे' पर आयी तो हमारी जान में जान आयी।
बरसते
पानी में होटल तलाशना कठिन काम है। जैसे-तैसे एक कामचलाऊ होटल में डेरा डाल दिया
और रात्रिभोजन के लिए निकल पड़े। किसी ने बताया कि चौक पर एक अच्छा रेस्तरां है, 'उडिपी गार्डन', वहाँ पहुँच गये। साफ़सुथरा और
सुरुचिपूर्ण लगा। भोजन स्वादिष्ट। एक साठ वर्षीय महिला घूम-घूमकर ट्राली में जूठे
बर्तन उठा रही थी। अगली सुबह जब हम वहीं नाश्ता करने गए, वह हमें फिर दिखाई पड़ी, बड़े मनोयोग से बर्तन उठा रही
थी। मैंने उससे जिज्ञाशावश प्रश्न किया, 'कल रात को तुम घर कब गयी?'
'ग्यारह
बज गया था।' उसने मुझे झिझकते हुए बताया।
'सुबह
कब आई?'
'सात
बजे।'
'रात
को घर नहीं जाती?'
'गयी
थी, सुबह जल्दी आना पड़ता है।'
'इस
उम्र में इतना काम कर रही हो?'
'काम न
करूँ तो काम कैसे चलेगा?'
'क्या
बात है?'
'दो
साल पहले मेरे शौहर को लकवा लग गया, वह घर में पड़ा रहता है। मैं कमाती हूँ तब घर
चलता है।'
'तुम्हारे
बच्चे नहीं हैं क्या?'
'बच्चे
हैं, एक लड़का है, शादी के बाद अलग घर में रहता
है। एक लड़की है, उसकी शादी कर दी।'
'लड़का
मदद करता है?'
'करता
तो मैं यहाँ दिन-रात खटती?'
'फिर?'
'लड़की
मदद करती है लेकिन मुझे उससे लेने में खराब लगता है। जब तक मैं काम कर पा रही हूँ, तब तक करूंगी, बाद में जैसा होगा, वैसा होगा।' उसने बताया। मैंने पूछा, 'तुम्हारी फोटो खींच लूँ?
उसके
दुखी चेहरे में हल्की सी मुस्कान आ गयी, मुझे उसकी सांकेतिक अनुमति मिल गयी, मैंने मोबाइल कैमरे से उसकी
तस्वीर खींच ली।
कुर्ग
जिले के मदिकेरी शहर से 48 किलोमीटर दूर स्थित दर्शनीय
स्थल ताल कावेरी के लिए हम निकल पड़े। ज्ञात हुआ कि वह कावेरी नदी का उद्गम स्थल
है। कुर्ग में बारिश के मौसम में बिना रुके मेह बरसते हैं, सांस भी नहीं लेते। मदिकेरी
से ताल कावेरी के रास्ते में दोनों तरफ हरियाली का कब्जा था। उस हरियाली के बीच
बड़े पत्तों का घूँघट ओढ़े 'काफी' के पौधे लहलहा रहे थे।
यद्यपि रास्ते भर पानी धीमा बरस रहा था लेकिन ताल कावेरी में हमारा स्वागत सनसनाती
हुई ठंडी हवा और घनघोर वर्षा ने किया। समुद्र तल से 1276 की ऊंचाई पर स्थित इस पहाड़ी
पर निर्मित मंदिर में शिव और गणेश की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। मंदिर के मध्य में
छोटा सा ताल है। चारो तरफ घना कोहरा छाया हुआ था, मंदिर के परकोटे के बाहर कुछ भी नहीं दिख रहा
था। कहा जाता है कि कावेरी का उद्गम बरसात के दिनों में दिखता है लेकिन कुछ दिखाई
पड़े तो कुछ दिखे। पानी की बौछार के साथ हवा इतनी तेज थी कि छाता उड़ाने-उड़ने को
उद्यत हो रहा था, हम कमर तक भीग गए थे। मंदिर
परिसर से बाहर आते तक मनोभाव रोमांटिक हो चले थे लेकिन हम दोनों के छाते अलग-अलग
थे इसलिए वहाँ केवल बरसाती गाना ही गया जा सकता था, मैं गुनगुनाया, 'कितना हंसीं है मौसम, कितना हंसीं सफर है, साथी है खूबसूरत ये मौसम को
भी खबर है....', भीगते-भागते हम कार में घुस
गए और वहाँ से रवाना हो गए अब्बे जलप्रपात को देखने के लिए।
कुछ
देर में हमारी कार रुकी, महेश ने बताया, 'जिधर लोग जा रहें हैं, उसी तरफ आप भी चल जाइए, थोड़ा नीचे उतरना पड़ेगा तब
आपको जलप्रपात दिखेगा।'
हमने
रास्ता पकड़ा और चौड़ी सीढ़ियों से उतरने लगे। सीढ़ियों के दोनों तरफ काफी के बागान थे, बागान में बड़े-बड़े वृक्षों
में कालीमिर्च की लताएँ लिपटी हुई थी। लगभग सौ-सवा सौ सीढ़ियाँ उतरने के बाद
वातावरण में पानी गिरने की आवाज सुनाई पड़ी। उसके बाद हमारे सामने था, विशाल जल राशि का ऊपर से
नीचे आता प्रपात जिसे देखकर और जिसकी आवाज़ सुनकर मन प्रसन्न हो गया। जलप्रपात के
हरहराते स्वर में उन हजारों चिड़ियों की चहचाहट भी उसी तरह शामिल थी जिस तरह राग
मेघ-मल्हार की संगत में मृदंग का स्वर की थाप गुंजायमान हो। आश्चर्य यह है कि
आसमान में एक भी चिड़िया उड़ती हुई दिखाई न दी लेकिन वे आसपास के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों
पर छुपी हुई अनवरत गायन कर रही थी। कुछ मनोरम दृश्य को देर तक मंत्रमुग्ध होकर
देखने के बाद हम वापस लौट पड़े क्योंकि बारिश अनवरत जारी थी और अब हमें ऊपर चढ़ना
था। पानी और तेज हो गया। किसी तरह हम लोग कार तक पहुंचे, कार में बैठे और मैंने
ड्राइवर को डांटा, 'तुमने यह तो बताया कि
जलप्रपात देखने के लिए नीचे उतरना पड़ेगा लेकिन यह नहीं बताया कि वापस आने के लिए
इतना चढ़ना पड़ेगा?'
ड्राइवर
मेरी डांट सुनकर मुस्कुराने लगा और चुपचाप कार स्टार्ट कर दी और अपने होटल की तरफ
चल पड़ा।
शाम
होने के पहले हम मदिकेरी वापस आ गए. चौबीस घंटे हो गये थे हमें वहां पहुंचे लेकिन
बारिश थमने का नाम न ले रही थी. बाजार खुले थे लेकिन ग्राहक नज़र नहीं आ रहे थे. एक
जगह पर फल बिकते दिखे, वहां रूककर आम खरीदा और थोड़ा
आगे बढ़कर एक दूकान से मलाबारी बड़ा लिया जो गरम था और स्वादिष्ट भी. कुछ घंटों के
विश्राम के पश्चात् हम लोग रात्रि भोज के लिए निकले. भोजन के बाद शयन. हमारा कुर्ग
का प्रवास संपन्न हो चुका था, अगली सुबह नौ बजे हम बंगलुरु के लिए रवाना हो
गए.
शाम
होते होते हम बंगलुरु पहुँच गये। बंगलुरु देखने का पहला अवसर था। खूब बड़ा
शहर है। आधुनिकता से परिपूर्ण शहर में वैभव की चमक और बाज़ार की दमक देखने लायक है।
अब कोई भी महानगर हो, एक जैसा दिखता है। वही
बहुमंजिला इमारतें, वही बड़ी-बड़ी चमचमाती दूकानें, वही टाई-शर्ट-पैंट पहने युवा, वही अत्याधुनिक वेषभूषा में
सजी-संवरी युवतियाँ। हरेक कार भागती हुई सी, मोटर-साइकिल सड़क को चीरती हुई सी। घड़ी की
सुइयों में फंसी ज़िंदगियों की भाग-दौड़ जैसी मुंबई में, वैसी कोलकाता में, वैसी दिल्ली में और वैसी ही
बंगलुरु में।
शहर के
मध्य में स्थित होटल एम्पायर में रुके थे हम लोग, जहां पर बंगलुरु का वैभव बिखरा हुआ था। आसपास
क्लब थे, स्पा थे, खानेपीने के शानदार इंतजामात
थे सब तरफ। चमचमाती कारें आ रही थी, सजावटें उतर रही थीं कारों से। मैं अनाड़ी सा
खड़ा उनको टुकुर-टुकुर देख रहा था। थोड़ी देर में लगने लगा, 'क्या मैं इन्हें देखकर
सम्मोहित हो रहा हूँ? क्या मैं इनकी तरह इस
दुनियाँ में प्रविष्ट होना चाहता हूँ?' मैंने खुद से पूछा तो जवाब मिला, 'नहीं, मैं तो केवल दर्शक बनकर उनकी
खुशियों को देख रहा हूँ। किसी की खुशियों को अपनी खुशियों से जोड़ने की खुशी कुछ
कमतर नहीं होती है न,'
कुछ
देर में मेरे फेसबुक मित्र राहुल दुबे मुझसे मिलने आ गए। राहुल बंगलुरु में
साफ्टवेयर इंजीनियर हैं। बहुत देर तक लेखन पर हम दोनों के बीच चर्चा होती रही।
उनके जाने के बाद भूख लगी तो हम होटल के बाहर निकले, नान-वेज का साम्राज्य था वहाँ। एक आटो पकड़कर
कुछ दूर गए जहां पर डोसा बनता दिखाई पड़ा, वही खाकर पेट भर लिया। रात बीती। सुबह हुई।
नाश्ता कमरे में आया। नाश्ते के बाद कुछ खरीददारी के लिए निकल पड़े। मन-बेमन से कुछ
ख़रीदारी हुई, वापसी का समय हो रहा था
इसलिए होटल से सामान उठाया और हवाई-अड्डे की ओर निकल चले और रायपुर की वापसी
यात्रा के लिए वायुयान में बैठ गए। इस प्रकार सद्गुरु से बंगलुरु तक की यात्रा सम्पन्न हो
गयी।
* * * * * * * *
जीरो कोविड में गाडरवारा
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भारत देश के मध्य में है मध्यप्रदेश, मध्यप्रदेश के मध्य में है गाडरवारा, गाडरवारा के मध्य में है
मेरे साढू राजेंद्र खजांची का घर. मेरी पत्नी की बड़ी बहन माया जी का विवाह उनके
साथ १६ जनवरी १९७१ को हुआ था, मेरा
विवाह लगभग साढ़े चार साल बाद माया जी की छोटी बहन माधुरी जी के साथ हुआ इस प्रकार
मैं उनका साढू बना.
विवाह की रजत जयंती तो आम बात है लेकिन स्वर्ण जयंती मनाने वाले जोड़े
कम ही होते हैं और हीरक जयंती मनाने वाले तो शायद ही होते होंगे. तो, अपने माता-पिता के विवाह की
स्वर्ण जयंती मनाने का संकल्प उनके बेटे रीतेश और बहू रंजीता ने किया और सारी
रिश्तेदारी में अपने मोबाईल से चढ़ाई कर दे. 'चढ़ाई' शब्द का
उपयोग इसलिए किया कि सच में, सबसे इस
कार्यक्रम में शामिल होने का इतना आग्रह किया गया कि किसी को बुचकने की गुन्जाइश
नहीं बची थी. हम लोग भी उनके आग्रह के शिकार बने, तुरंत रेल-रिजर्वेशन भी करवा लिया लेकिन मेरा जी
धुक-धुक कर रहा था क्योंकि मेरे मन में कोविड का भय कायम था, श्री अमिताभ बच्चन कई बार
फोन पर रोज डराते थे, खासतौर
से बुजुर्गों को. १५ जनवरी २०२१ को हम दोनों को दुर्ग-भोपाल स्पेशल ट्रेन से रात
को नौ बजे रवाना होना था और उस दिन सुबह से ही मेरा मन हो रहा था कि वहां जाने का
रिजर्वेशन केंसिल करवा लिया जाए,
कहीं हम उस आयोजन के चक्कर में कोविड के चक्कर में न फंस जाएं. मैंने
माधुरी जी को प्यार से समझाने की कोशिश की लेकिन वे तो अपनी अटैची तैयार कर चुकी
थी और गाडरवारा जाने के लिए एकदम उद्यत थी क्योंकि वहां उनकी मुलाकात अन्य सभी
बहनों से होने वाली थी, एक साल
से उनसे मिलने के लिए वे बेचैन थी, इस मरी बीमारी ने उन्हें रोक रखा था. मेरे समझाने पर वे भड़की और बोली, 'हम तो वहां जाएंगे, भले ही मर जाएं, ऐसा डर-डर के जीने से अच्छा
है कि मर जाएं.'
'जब मरने
का डर नहीं है तो कोविड से क्या डरना, चलो चलते हैं.' मैंने भी
उत्साहित होकर उनकी हाँ में हाँ मिला दी और मैं उनके साथ ट्रेन में सवार हो गया.
अगली सुबह हम लोग गाडरवारा के स्टेशन पर उतरे. वहां की ठण्ड ने हमारा
स्वागत किया. होटल से घर पहुंचे,
दिन भर पूजन-हवन तथा नास्ता-भोजन का दौर चला. शाम को पांच बजे किसी
मंदिर में चलने की हड़बड़ी मची, हम लोग
वहां पहुंचे. श्रीकृष्ण जी का छोटा सा मंदिर था जिसमें अति-सांवले कृष्ण की मूर्ति
विराजमान थी. ठीक सवा पांच बजे मंदिर का रंगीन परदा एक तरफ खिसका, सबने श्रीकृष्ण के दर्शन
किए और आरती आरम्भ हुई. पंडित विट्ठलदास भट्ट ने राग पूरवी में सुर साधा और बीस
मिनट तक आरती का सस्वर पाठ करते रहे. इस पाठ में उनकी संगत में हार्मोनियम और तबला
नहीं थे, नेपथ्य
से तानपूरा की संगत का स्वर और पंडित जी की दोनों हाथों में ४ इंच वृत्त का बड़ा सा
मंजीरा था जिसका बजना भजन को और अधिक मधुर बना रहा था. उस भजन में ब्रज की संध्या
का विवरण था जिसमें गोपियाँ श्री कृष्ण की आतुरता से प्रतीक्षा कर रही हैं और उनकी
प्रतीक्षा की घड़ी इतनी लम्बी हो रही है कि उन्हें असहनीय होते जा रही है. तब ही
श्रीकृष्ण उपस्थित हो जाते हैं और गोपियों के मुख पर प्रसन्नता का भाव उभर जाता
है.
यह कार्यक्रम विशेष रूप से दंपत्ति की स्वर्णजयंती के अवसर पर 'मनोरथी' के रूप में आयोजित किया गया
था. अद्भुत आयोजन था, बहुत मन
भाया. फिर रात्रिकालीन उत्सव आरम्भ हुआ जिसमें स्टेज पर प्रयागराज से आये उद्घोषक
राहुल ने अपनी मनमोहक शैली में विभिन्न कार्यक्रमों का प्रस्तुतीकरण किया. चार
घंटों तक बिना मास्क पहने लोग कार्यक्रम का आनंद लेते रहे, जैसे करोना को एकदम भुला
दिया गया हो.
ऐसा देखा गया है कि आम तौर पर बस्तियां वहां बसती हैं जहाँ नदियाँ
होती हैं. गाडरवारा भी शक्कर नदी के पास बसा हुआ है. नदी का नाम शक्कर क्यों पड़ा? कहते हैं कि शक्कर नदी का
प्राचीन नाम सुअर नदी था. पुराने समय में मालवाहक साधन खच्चर, घोड़े और गधे होते
थे. हुआ यूँ, कि एक मारवाड़ी व्यापारी जिसका नाम लल्ला मारमोर था, बरसात के दिनों
में अनेक खच्चरों पर सामन लादे सुअर नाडी पार कर रहा था. अचानक नदी का जल स्तर
बढ़ने लगा. नौकरों ने मालिक को आवाज़ दी कि खच्चरों पर लदी शक्कर की बोरियां बाढ़ के
पानी से गीली हो गयी हैं लिहाजा उनका वजन बढ़ गया है और खच्चर तैरने में असमर्थ हो
गए हैं तब व्यापारी ने आदेश दिया कि सारी शक्कर नदी में बहा दो लेकिन जानवारों की
जान बचा ली जाए. तब से सुअर नदी का नाम शक्कर नदी पड़ गया. यहाँ
गन्ने की उपज बहुत अधिक मात्रा में होती है, संभवतः उसकी मिठास से नदी के नाम का भी कोई सम्बन्ध हो. शक्कर के
साथ-साथ यहाँ पर गुड़ का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है. यहाँ से विशेष गुणवत्ता
वाला गुड़ विदेशों में भी निर्यात किया जाता है, ऐसे गुड़ की चार भेलियाँ हमें भी हमारे भतीजे रितेश ने भेंट की.
सुबह रंगीन थी, न अधिक
ठण्ड और न ही गर्मी. गरम-गरम नास्ते के बाद हम लोग इनोवा में सवार होकर निकल पड़े
नर्मदा जी के लिए. यहाँ से लगभग १८ किलोमीटर दूर ग्राम भटेरा और हीरापुर के बीच
नर्मदा नदी बहती है. नदी के जिस किनारे पर हम पहुंचे उसे ककड़ा घाट कहते हैं. नदी
की रेत भुरभुरी थी, एकदम
सफ़ेद रेत. छोटी-छोटी झोपड़ियाँ बनी हुई थी जिनमें नारियल, अगरबत्ती और प्रसाद बिक रहा
था. झोपड़ी के पीछे कुछ बकरियां मिमिया रही थी, कुछ बच्चे खेल रहे थे. कुछ साधुओं के वेश में भिक्षार्थी डेरा जमाए
हुए थे. नदी में कम लोग ही थे,
अधिकतर बच्चे थे जो उछलते-कूदते नहा रहे थे, कुछ वरिष्ठ नर्मदा स्नान के
पश्चात् देव पूजन में व्यस्त थे. एक युवा स्वयं नहाने के बाद अपनी मोटरसायकल को
नहला रहा था. नदी में पानी था लेकिन सीमित मात्रा में. उस बहते जल को देखकर मुझे
फिल्म 'बैजू
बावरा' के उस
दृश्य की याद आ रही थी जिसमें 'तू गंगा
की मौज मैं जमना की धारा' गीत का
फिल्मांकन किया गया था. माया जी ने भी वहां पूजन किया. वापस लौटते समय
भिक्षार्थियों ने आवाज़ दी, 'नर्मदे
हर....नर्मदे हर', मैंने
सुनकर भी अनसुना करने जैसा अभिनय किया, उसके बाद हम लोग वहां से वापस गाडरवारा आ गए.
गाडरवारा के शम्भूरत्न दुबे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपने गाँव का
नाम देश के पटल पर अंकित किया था. शम्भुरत्न दुबे ने मिनर्वा मूवीटोन द्वारा
निर्मित सोहराब मोदी की रंगीन फिल्म 'झाँसी की रानी' (१९५३) की
कहानी और संवाद लिखे थे. दूसरे व्यक्ति थे (आचार्य) रजनीश और तीसरे व्यक्ति हैं
अभिनेता आशुतोष राणा. मैंने सुना था कि आचार्य रजनीश का बचपन अपने नाना-नानी के घर
गाडरवारा में बीता था इसलिए उत्सुकता थी कि उनके अतीत के बारे में कुछ जानकारी
एकत्रित करूँ. वहां संयोग से 'ओशो' (अब आचार्य रजनीश का प्रचलित
नाम) के अति-प्रेमी स्वामी अनुराग धर्मा मिल गए, उन्होंने मुझे रजनीश के अतीत से जोड़ने में बहुत
मदद की.
रजनीश का जन्म गाडरवारा से ६६ किलोमीटर दूर कुचवाड़ा में हुआ था.
बाल्यकाल से वे अपने ननिहाल आ गए और उनकी प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा गाडरवारा
में हुई थी. सबसे पहले हम उस प्राथमिक शाला को देखने गए जहाँ रजनीश की प्रारंभिक
शिक्षा संपन्न हुई, शासकीय
गंज प्राथमिक शाला. अब तो फ़ैल गया है यह स्कूल लेकिन तब केवल दो कमरों का था, एक में कक्षा लगती थी और
दूसरे में कार्यालय था. कक्षा के बाहर बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था, 'ओशो कक्ष'. कक्षा में विद्यार्थी पढ़
रहे थे, शिक्षक
जी ने हमें देखा तो पढ़ाई रोक कर बड़े आदर के साथ कक्षा के भीतर ले गए. पुराने
सिनेमा हाल की बालकनी की तरह सीढ़ियों पर रखी पुराने ज़माने की पुरानी सीटिंग बेंच
रखी हुई थी, इनमें
स्याही भरने के लिए कोने में छेद बने हुए थे. ब्लेक बोर्ड के ऊपर ओशो का चित्र लगा
हुआ था. सबसे ख़ुशी बात यह थी कि शिक्षक से लेकर हरेक विद्यार्थी की चप्पलें कक्षा
के बाहर रखी हुई थी, ओशो के
प्रति सम्मान व्यक्त करने का यह अत्यंत सम्मानजनक उपक्रम लगा.
वहां से हम लोग निकले और बीच बाज़ार में स्थित आदर्श उच्चतर माध्यमिक
शाला में पहुंचे जहाँ रजनीश की हाई स्कूलिंग हुई थी. वीरान सा पड़ा, टूटी-फूटी अवस्था में उस
शाला प्रांगण को देखकर किसी भी सरकारी स्कूल का दृश्य सामने आ खड़ा हुआ. जिस कमरे
में वे पढ़ते थे, वह आज भी
यथास्थिति में है. छत के ऊपर बिछे हुए बेतरतीब खप्पर, सालों से खड़ी बेरौनक
दीवारें और पत्थर के फर्श. यहाँ रजनीश के पढ़ने का कोई संकेत नहीं मिला जैसा कि
प्राथमिक शाला में मिला था. उदासी लेकर हम लोग अब उस स्थान की बढ़े जहाँ रजनीश को
सम्बोधि प्राप्त हुई थी, 'ओशो लीला
आश्रम'.
बेहद सकरी गलियों से होते हुए हम लोग शक्कर नदी के किनारे पहुंचे, जहाँ एक खंडहरनुमा बड़ा
द्वार दिखाई पड़ा जिसमें ऊपर लिखा हुआ था, 'ओशो लीला आश्रम'.
भीतर घुसते साथ एक बहुत बड़ा और विस्तृत फैला हुआ बरगद का वृक्ष दिखा
जो बहुत पुराना लगा, शायद सौ
साल से अधिक का रहा होगा. उसके आगे हल्की सी चढ़ाई के बाद बायीं और कार्यालय और
दायीं और एक मंदिर जैसा निर्माण था जिसमें ओशो चित्र स्थापित किया गया था. वहां पर
उपस्थित एक स्वामी ने बताया कि यही वह स्थान है जहाँ रजनीश को सम्बोधि प्राप्त हुई
थी. मंदिर के पीछे शक्कर नदी का जल इठलाता हुआ बह रहा था. किनारे रेत पर किसी
पुराने मंदिर के पथरीले अवशेष पड़े हुए थे. बताया गया कि यहाँ शिव मंदिर था जो किसी
समय नदी की बाढ़ में बह गया था,
अब उसकी निशानियाँ भर शेष हैं. आश्रम के पिछवाड़े में एक सुसज्जित
कमरा है जहाँ प्रतिदिन ध्यान का कार्यक्रम होते हैं. न जाने उस वीराने में कौन आता
होगा ध्यान करने?
गाडरवारा में कोई न कोई बात तो है, जो इस नगर को विशिष्टता प्रदान करती है. अपने
प्रतिदिन के प्राणायाम में मैंने इस स्थान की शक्ति और ऊर्जा को अनुभूत किया.
संभवतः ओशो की साधना का प्रभाव यहाँ अभी भी सुरक्षित है क्योंकि ओशो जैसे विद्वान
अपना शरीर छोड़ देते हैं लेकिन उनकी आत्मिक ऊर्जा सर्वत्र व्याप्त रहती है.
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मंडला में मन डोला
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हिन्दू
मान्यता के अनुसार चार युगों में एक त्रेता युग है। यह मानवकाल का द्वितीय युग था
जिसमें भगवान विष्णु के पांचवें, छठवें और सातवें अवतार क्रमशः
वामन, परशुराम और राम के रूप
में प्रगट हुए। त्रेता युग 12,96,000 वर्ष का
था। इसी युग में महर्षि बाल्मीकि ने अपनी अंतर्दृष्टि से राम जन्म से लेकर रावण वध
तक की घटनाओं को घटने के पूर्व ही देख लिया था और रामायण महाकाव्य की रचना की।
बाल्मीकि के पिता का नाम वरुण और माँ का नाम चार्ष्णी था। वे अपने माता-पिता की
दसवीं संतान थे। महर्षि बाल्मीकि राम के समकालीन थे।
रामकथा
के अनुसार जब लोकनिन्दा के डर से राम ने अपनी गर्भवती पत्नी सीता को त्याग दिया तो
लक्ष्मण उन्हें तमसा नदी के किनारे छोड़ आए। जब यह सूचना वाल्मीकि तक पहुंची तो वे
स्वयं नदी के तट पर पहुंचे। दुख से विकल सीता को देखकर उनका पितृत्व जागा और
उन्होंने वात्सल्य से सीता के सिर पर हाथ फेर कर आश्वासन दिया कि वह पुत्रीवत्
उनके आश्रम में रहे। सीता उनके साथ आश्रम पहुंची और वहाँ रहने लगी। समय आने पर
सीता ने राम के दो पु़त्रों लव और कुश को जन्म दिया। इन्हें वाल्मीकि ने शिक्षा
प्रदान की और उन्हें न केवल शस्त्र और शास्त्र विद्याओं में निपुण बनाया बल्कि
राम-रावण युद्ध और बाद में सीता के साथ अयोध्या वापसी, सीता के
वनवास और उनके जन्म तक पूरी रामायण कंठस्थ करा दी। इतना ही नहीं, उन्होंने सीता के
आश्रम आगमन के बाद रामायण को और आगे लिखना शुरू कर दिया जिसे उत्तरकाण्ड नाम दिया।
भारतवर्ष का प्रत्येक हिन्दू रामायण को प्रमाणिक और सत्य पर
आधारित कथा और उसके नायक राम को पूजनीय श्रद्धा से मानता है, अपने ह्रदय-मंदिर में संजो कर
रखता है। गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थ रामचरितमानस ने बाल्मीकि रामायण को जन-मन
में इस तरलता से प्रविष्ट किया कि वह भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय और विश्वसनीय
ग्रन्थ बन गया। इस अद्भुत रामकथा को प्रमाणिक सिद्ध करने के प्रतीक पूरे देश में
बिखरे हुए हैं, यहाँ तक कि श्री लंका में भी। ये प्रतीक सामान्यतया मंदिरों
के रूप में हैं और सबके अपने-अपने मज़बूत तर्क हैं जो धार्मिक आस्था के समक्ष
नतमस्तक हैं।
ग्रन्थों
में उल्लेखित संदर्भ बताते हैं कि महर्षि बाल्मीकि का आश्रम गंगा नदी के निकट बहने
वाली तमसा नदी के किनारे था लेकिन मंडला में यह जानकारी मिली कि महर्षि
बाल्मीकि का आश्रम मंडला से 20 किलोमीटर
दूर मटियारी और सुरपन नदी के संगम पर स्थित सीतारपटन में था। यह स्थान प्रसिद्ध
अभयारण्य कान्हा से 5 किलोमीटर दक्षिण में है। सीतारपटन
से 7 किलोमीटर दक्षिण में स्थित
मधुपुरी में राम के अश्वमेध यज्ञ के अश्व को लव और कुश ने बांध लिया था जहां उनका
और राम की सेना के साथ भीषण युद्ध हुआ था।
हर शहर का इतिहास होता है लेकिन यदि किसी
स्थान का इतिहास त्रेता युग से ज्ञात हो तो अचंभा होता है। जहाँ ऐतिहासिक प्रमाण
नहीं होते,
वहां
किवदंतियां अपने पग स्थापित कर लेती हैं, जैसी कि मुझे मंडला में सुनने को मिली।
मंडला
मध्य प्रदेश में सतपुड़ा पहाड़ियों में स्थित एक जिला है। यहाँ की लगभग 60% आबादी
गोंड जनजाति की है। यह शहर नर्मदा नदी से तीन ओर से घिरा हुआ है। नर्मदा की सहायक
बंजार नदी की घाटी में जिले का सबसे अधिक उपजाऊ भाग पड़ता है, जिसे 'हवेली' कहा जाता
है। हवेली के दक्षिण में बंजार की घाटी जंगलों से आच्छादित है। इन जंगलों में साल, बाँस, टीक और
हरड़ के वृक्ष पाये जाते हैं। नदियों के आसपास धान, गेहूँ और
तिलहन की उपज होती है। यहाँ के निवासी पशुपालन, लाख के
उत्पादन, पान उगाने, चटाई और
रस्सियों का निर्माण करने में प्रवीण हैं। यहाँ पर मैगनीज और धातु की अनेक समृद्ध
खदानें हैं।
रानी
दुर्गावती की वीरता के किस्से कौन नहीं जानता? मुगल
बादशाह अकबर की 32,000 सैनिकों की सुसज्जित सेना
से भिड़ने वाली रानी दुर्गावती ने सिर्फ 500 सैनिकों
के बल पर युद्ध किया और तीर-कमान के भीषण आक्रमण से युद्ध का पहला दिन जीता था। यह
बात 24 जून 1564 की है।
उसके बाद आसफ खाँ के नेतृत्व में जब तोपखाना युद्धक्षेत्र में आ पहुंचा तब तोप के
आक्रमण से रानी दुर्गावती की सेना छिन्न-भिन्न
हो गई। रानी दुर्गावती आँख में एक
तीर लग गया और दूसरा कनपटी में, फिर भी रक्त बहता रहा और वह
युद्ध करती रही। रानी दुर्गावती की सेना
अंततः तीसरे दिन हार गई और रानी दुर्गावती ने मुग़लों
के हाथ जाने से स्वयं को बचाने के लिए अपने
सीने में कटार घोंपकर आत्मबलिदान कर दिया।
'काली को रूप बनाये के, दुर्गा
झपटत जाय
रकत लोहू के नदिया हो, तुरते
दइस है बहाय
जीत के डंका बजाय के, माता मन
मुसकाय
अड़े रहो सब मग में हो, या सबै
ला सिखाय।
नाम आसफ दुश्मन के, गईस
धरी-धरी हार
सजधज के आवै तिसरइया, फौजी धरे
हथियार
ताक निशाना महारानी के हो, नहीं कोई
उपचार
जखमी चोट लगी तन मां, बहे रकतन
के धार।
जो फिरंगी माया मां, मोरे
नहिं आवै आँच
नारी के तन आय बचाहू, ये हबै
मोला साँच
क़हत-क़हत माता गिरगै, पावै गति
निर्वान
अमरित चोला ला करके, हो
परलौके सिधार।'
राजा संग्रामसाहि के राज्य
गढ़ामंडला में 52 गढ़ थे। उनका साम्राज्य
भोपाल से सम्बलपुर और उत्तर पन्ना से चांदा तक फैला हुआ था। मंडला से 20 किलोमीटर
दूर रामनगर में गढ़ा मंडला की राजधानी थी। संग्रामसाहि राजाओं की वंशावली में 48वे राजा
थे। उनके बाद दलपतसाहि गढ़ामंडला के राजा बने जिनका विवाह सन 1540 में कलिंजर
के राजा कीरतसिंह की पुत्री दुर्गावती से हुआ। विवाह के सात वर्ष बाद सन 1547 में जब दलपतसाहि
की मृत्यु हुई तब उनका एक मात्र पुत्र वीरनारायन केवल तीन वर्ष का था। बालक
वीरनारायन के राज्याभिषेक के बाद शासन व्यवस्था का कार्य उसकी माँ दुर्गावती ने
संभाला। दुर्गावती अत्यंत सुंदर और राजकाज में दक्ष थी। उसने 16 वर्षों
के कार्यकाल में अपने राज्य में सिंचाई और जलसंरक्षण के लिए व्यापक पैमाने पर
कार्य किए इसलिए वह बहुत लोकप्रिय थी।
मंडला की
धरती आज भी रानी दुर्गावती के शौर्य और शासन प्रबंधन के गीत गाती है। जनश्रुति है
कि नर्रई नाले के आसपास रात्रि के अंधकार में नगाड़ों की आवाज़, हाथियों
की चिंघाड़ और घोड़ों की टाप अब भी साफ-साफ सुनाई पड़ती है। वहाँ युद्ध में शहीद हुए
वीरों की माताओं, पत्नियों और बच्चों का रुदन
भी सुनाई पड़ता है। शौर्य की प्रतीक रानी दुर्गावती की यशोगाथा आज भी वहाँ के
लोकगीतों के रूप में गुंजायमान हैं।
'चलो चली गढ़ा मां, मितवा
करबो तन निसार
माता दुर्गा रन चंडी के, लेवी चरन
पखार
हाथ ज़ोर बिनती करें, जय जय
होवे तुम्हार
अमर रहे माता प्रिथिवी में, जस रहे
रे तुम्हार।'
मंडला की
सबसे बड़ी खूबसूरती नर्मदा नदी है जिसे वहाँ के निवासी 'नर्बदा
मैया' कहकर सम्मान से पुकारते
हैं। लंबा-चौड़ा पाट, चांदी की तरह चमचमाती
जलधारा और मदमस्त पवन की तरह बहती नर्मदा नदी सहज ही मन मोह लेती है। पर्यावरण
प्रेमी अमृतलाल वेगड़ अपने यात्रा वृतांत "सौन्दर्य की नदी नर्मदा" में
लिखते हैं, 'नर्मदा सौन्दर्य की नदी है.
यह वनों, पहाड़ों और घाटियों में से
बहती है. यह चलती है इतराती, बलखाती, वन-प्रांतरों
में लुकती-छिपती, चट्टानों को तरासती, डग-डग पर
सौन्दर्य की सृष्टि करती, पग-पग पर सुषमा बिखेरती है!
नर्मदा पहाड़ी नदी है पर आरम्भ वह मैदान से करती है. अमरकंटक
का पहाड़ वह आधे दिन में उतर जाती है, फिर शुरू
होता है प्रायः पचहत्तर किलोमीटर लंबा डिंडौरी तक का मैदान. नर्मदा को मानो पहाड़ों
से कोई सरोकार ही न हो. यह तो किसी शैतान बालक का थोड़ी देर के लिए किसी मेहमान
के आगे भोला-भाला बन कर बैठने जैसा
है. डिंडौरी से पहाड़ों की
भूलभुलैयाँ शुरू होती है. अनेक छोटे-बड़े पहाड़ गति-अवरोधक बन कर नर्मदा को कभी दाएं
तो कभी बाएं मुड़ने को मजबूर करते हैं.
इसीलिए डिंडौरी और मंडला के बीच जितने घुमाव-फिराव हैं, उतने
शूलपाण की झाड़ी को छोड़कर और कहीं नहीं. डिंडौरी से मंडला तक का मार्ग अत्यंत
दुर्गम है तो अत्यंत सुन्दर भी है. नर्मदा का यहाँ मानो बालकाण्ड पूरा होता है और
सुन्दर काण्ड शुरू होता है.'
इस
यात्रा में घर से निकलने के पहले पिछली बार का नर्मदा स्नान याद आया जब मैं घाट पर
फैली काई पर फिसल कर बाल-बाल बचा था इसलिए मन ही मन अपना कान पकड़कर संकल्प लिया था
कि इस बार नर्मदा के जल में प्रवेश नहीं करूंगा। मेरे संकल्प की मजबूती कायम रही, मैं
नर्मदा में नहीं उतरा लेकिन मंडला से कुछ दूरी पर गरम पानी का एक कुंड बना हुआ है
जहां मैं सुबह-सुबह अपने संबंधी-समूह के साथ पहुँच गया। डरते-डरते मैं लोहे से बनी
सीढ़ियों से उतर कर कुंड के पानी में घुस गया।
आपने रेखा-विनोद मेहरा-अशोक कुमार अभिनीत फिल्म देखी है,'खूबसूरत'। उसमें
रेखा हर खुशी के मौके को कहती है, 'निर्मल
आनंद।' वही आनंद मुझे उस कुंड में
डूबकर मिला। पानी का तापमान शरीर के
तापमान के ठीक बराबर। ऐसा लग रहा था कि उसी कुंड
में डूबा रहूँ, बाहर न निकलूँ। सच में, निर्मल
आनंद।
बचपन से
हलवाई के धंधे से जुड़ा हुआ रहा हूँ इसलिए मुझे मिठाई की दुकानें बेहद आकर्षित करती
हैं. मैं जहाँ भी जाता हूँ, इन दुकानों के काउन्टर पर
रखी मिठाइयों को गौर से देखता हूँ, भले ही
कुछ खाऊँ या खरीदूं न. इतने सालों से जुड़े होने के कारण मिठाई की गुणवत्ता के बारे
में इतना अनुभवी हो गया हूँ कि केवल मिठाई को देखकर उसके स्वाद व अच्छी या अच्छी न
होने के बारे में अनुमान लगा लेता हूँ. कभी-कभी कोई अच्छी मिठाई दिख जाती है तो
उसे चख लेता हूँ और फिर पैक करवाकर अपने घर ले जाता हूँ ताकि परिवार के साथ
मिल-बैठकर खाया जा सके.
मंडला में मेरी सबसे बड़ी बहन कस्तूरी दीदी की नातिन रेणु का
विवाह राकेश अग्रवाल के साथ हुआ है जो मधुरम स्वीट्स के मालिक हैं. मैं उनके घर 'कर्टसी
विजिट' में गया था. नाश्ते के
पश्चात् उन्होंने मुझसे अपनी दुकान चलने का आग्रह किया. मैं राजी हो गया. अपनी कार
में बिठाकर वे मुझे शहर से बाहर स्थित अपने कारखाने में ले गये जहाँ उनकी दुकान के
लिए मीठा व नमकीन तैयार होता है. मैंने उस कारखाने को देखा तो मैं विस्मित रह गया.
एक अच्छी-खासी फैक्ट्री का दृश्य था वहां. मीठा बनाने के अनेक कारखाने मैंने देखे
हैं, सभी जगह ऐसी भट्टियां देखी
जहाँ लकड़ी, कोयला या गैस की आग से
सामान तैयार किया जाता है, परन्तु यहाँ मैंने देखा कि
एक बड़ा बायलर लगा हुआ है जिसमें से प्रसारित वाष्प को पाइप से भट्टियों तक भेजा जा
रहा था जिससे सामान तैयार हो रहा था, अर्थात
आग का कोई काम नहीं! एक बड़ा वाटर प्योरीफायर लगा हुआ था जिससे निकला शुद्ध पानी
मिलाकर मीठा या नमकीन तैयार किया जाता है. एक कमरा कच्चे माल से भरा हुआ था, एक कमरा तैयार
माल रखा हुआ था, एक कमरे में कारीगर बैठकर
हाथों में दस्ताने पहने लड्डू बाँध रहे थे, कुछ
कारीगर मिठाई की कटिंग कर रहे थे तो कुछ सजावट. एक कमरे में नमकीन की विभिन्न
किस्में तैयार रखी हुई थी जिसमें कुछ कामगार नमकीन तौल कर पोलीथिन में पैक कर रहे
थे. इतना व्यवस्थित और साफ़-सुथरा कारखाना मैंने इसके पहले कहीं नहीं देखा था.
वहां से निकल कर हम मधुरम स्वीट्स की दुकान में पहुंचे.
दूकान क्या थी, एक सुसज्जित शोरूम था
जिसमें मिठाइयों की विभिन्न किस्में कांच से निर्मित आधुनिकतम शोकेस में रखी हुई
थी, पीछे आलमारी में नमकीन के
पैकेट सजे हुए थे और काउंटर के सामने बेकरी के अनेक आइटम व्यवस्थित ढंग से रखे थे.
मैंने पूछा, 'बेकरी भी खुद बनाते हो?'
'जी, ऊपर की
मंजिल में इसका कारखाना है.' राकेश ने बताया और मुझे
दिखाने ले गया.
नीचे उतर कर राकेश और उसके पिताजी ने बहुत आग्रह करके कुछ
मिठाइयाँ मुझे चखाई. मैं पुराना हलवाई हूँ, मैं सच
कह रहा हूँ, बेहद स्वादिष्ट थी. इस बीच
उन्होंने स्टाफ को कुछ इशारा किया, तीन
बड़े-बड़े बैग में मीठा, नमकीन और बेकरी मुझे घर ले
जाने के लिए दी. मैंने भुगतान करना चाहा तो राकेश बोला, 'नाना जी, आपके
बच्चे की तरफ से यह छोटी सी भेंट है, इसे
स्वीकार करिए, प्लीज.'
मंडला जैसी छोटी सी बस्ती की इस दुकान में दिवाली के समय
ग्राहकों की भीड़ सँभालने के लिए ट्रैफिक पुलिस की मदद लेनी पड़ती है. यह आश्चर्य की
बात है लेकिन है सोलह आने सच्ची.
मंडला के
प्रवास में मैंने जो देखा, उससे मन प्रसन्न हो गया
बल्कि यह कहूं कि मेरा मन डोल गया तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी.
= = = = = = = = =
हमेशा हनीमून : नैनीताल
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'हमेशा हनीमून' (Honeymoons are forever) उत्सव नहीं है, एक सोच है। साथ रहने का सुख, बतियाने का सुख, एक-दूसरे का हाथ थाम कर
गुदगुदी महसूस करने का सुख और 'हमारा साथ बना हुआ है' की तसल्ली का सुख। लहर में कांपती नाव में कदम
रखती पत्नी को हाथ से सहारा देकर बुलाने के उपक्रम में कहीं दूर एक मधुर स्वर
कानों में गूँजता सा है, 'कहाँ ले चले हो, बता दो मुसाफिर, सितारों के आगे, ये कैसा जहां है...'
हनीमून
की बात इसलिए निकली, कि ट्रेन में मिली एक
नवयुवती ने हमसे पूछा, 'आप लोग नैनीताल क्यों जा रहे
हैं, घूमने?'
'घूमने
नहीं, हनीमून मनाने।' मैंने उत्तर दिया। उसके
चेहरे पर विस्मय मिश्रित मुस्कान फैल गयी, आँखें तनिक बड़ी हो गयी, गाल और कान गुलाबी हो गए।
फिर उसने मेरे पके बालों पर नज़र डाली, उसके बाद माधुरी जी के काले बालों पर नजर
घुमायी, ऐसा लगा जैसे उसके मन में
कोई सवाल आया लेकिन उसकी ज़ुबान नहीं खुली, वह चुप रह गयी और मुस्कुराते हुए ट्रेन के बाहर
देखने लगी। हम दोनों ने भी एक-दूसरे को देखा और उस लड़की की तरफ देखने लगे। जब
माहौल सहज हो गया तो मैंने बालिका को समझाया, 'जब हमारी शादी हुई थी, तब हनीमून का रिवाज नहीं था, पाबंदी थी इसलिए जो सुख घर
में मिलना था, मिला। अब हमें कोई
रोकने-टोकने वाला नहीं है तो हम जवानी की हसरत पूरी कर रहे हैं। उम्र हमारे आड़े
नहीं आती क्योंकि हमारी चाहत अभी भी कायम है, वही पुरानी।'
उस
लड़की के चेहरे पर अब भी मुस्कान थी लेकिन अब उस मुस्कुराहट में अदब भी शामिल था।
काठगोदाम
रेल्वे-स्टेशन मैंने पहली बार देखा। उत्तराखंड में इसके आगे रेल की पटरियाँ नहीं
हैं, यह उत्तर-पूर्व रेल्वे का
अंतिम स्टेशन है। इंजिन और उससे लगे डिब्बे यहाँ आकर विश्राम करते हैं कुछ समय बाद
और यहाँ से सवारी लेकर वापस चले जाते हैं। काठगोदाम गौला नदी के तीर में बसा हुआ
है। अंग्रेजों के शासन काल में हल्द्वानी स्टेशन से काठगोदाम तक रेल-पांत बिछाई गयी
ताकि नदी में बहकर आई लकड़ी को रेलमार्ग द्वारा देश के अन्य हिस्सों में भेजा जा
सके। लकड़ी का संग्रह काठगोदाम में किया जाता था, संभवतः इसीलिए इस जगह का यह नाम इसकी उपयोगिता
के अर्थ में जन-प्रचलित हो गया। इसके अलावा गौला नदी की रेत में चूने के पत्थर का
हल्का सा मिश्रण है जो भवन निर्माण को अतिरिक्त मजबूती प्रदान करता है इसलिए यहाँ
की रेत महंगी है और आसपास के बड़े शहरों में इसकी बड़ी मांग है।
हम
सुबह चार बजे काठगोदाम पहुँच गये। यहाँ से हमें 21 किलोमीटर दूर भीमताल तक जाना था, जहां के एक होटल में हमारी
बुकिंग थी। होटल में 'घुसने' का समय दोपहर 12 बजे था इसलिए हमने काठगोदाम
रेल्वे-स्टेशन के रिटायरिंग रूम में ही अपना डेरा जमा लिया। साफ-सुथरी व्यवस्था
देखकर मन प्रसन्न हो गया। पाँच घंटे में नहाना-धोना-पसरना सब हो गया। 10 बजे एक टैक्सी की और कुमायूं
की सुरम्य वादियों में हम प्रविष्ट हो गए। घाटियों का चक्कर लगाते हुए हम भीमताल
पहुँच गये। होटल में सामान रखकर हम उसी टैक्सी में बैठकर वहाँ के सात ताल देखने
निकल पड़े।
तालाब
बहुत देखे हैं, लेकिन सुना था "तालों
में ताल, भोपाल ताल, बाकी सब तलैया' लेकिन इधर आए, यहाँ के ताल देखे तो समझ आया
कि भोपाल के मुक़ाबले और भी कई बड़े-बड़े ताल हैं। यहाँ कुल सात ताल हैं, आसपास। सबकी छटा सुरम्य। हरे
भरे वृक्षों से लदे पहाड़ और उन पहाड़ों की मुट्ठी में कैद चमचमाते पानी से लबालब
ताल। ताल क्या, उन्हें झील कहिए।
सैलानियों
की रंग-बिरंगी भीड़, भीड़ में नव-विवाहित मदमस्त
जोड़े, मध्य-विवाहितों के साथ उनके
उछल-कूद करते बच्चे और दीर्घ-विवाहितों के साथ उनकी सूनी-सूनी थकी नज़रें।
वहाँ
के सात ताल में नौकायन के लिए टिकट ली। टिकट लेकर अंदर गए तो प्राण-रक्षक-वस्त्र
मिले जिसे पहनकर हम निर्धारित नाव में चढ़ गए। नाव में बैठते ही नाविक ने पूछा, "कितना घुमाऊँ? छोटा या लंबा?"
"छोटा
या लंबा? क्या मतलब ?'
"आपने
जो टिकट ली है, वह छोटा चक्कर है। 200 रुपये और देंगे तो मैं आपको
लम्बा चक्कर घुमाकर लाऊँगा।"
"हमको
छोटा ही घुमा दो भैया।" माधुरी जी बोली।
"टिकट
का पूरा पैसा तो ठेकेदार को चला जाएगा, मुझे कुछ नहीं मिलेगा। लंबा चक्कर लगाएंगे तो
मुझे भी कुछ मिल जाएगा।"
"हमें
लंबा चक्कर नहीं लगाना।''
"आप
घूमने आए हैं, मेरा भी ख्याल करना चाहिए
आपको।"
"जितने
की टिकट है, उतना घुमा दो जी।"
"उतना
तो घुमाऊंगा ही लेकिन बड़ा चक्कर लगवा लेते तो मेरा भी कल्याण हो जाता।" वह
लगातार हमारे पीछे लगा रहा, हम उसे लगातार मना करते रहे।
उसके निरंतर व्यवधान के कारण हमारा आनंद भंग हो रहा था। उसके ऊपर चिढ़ छूट रही थी
लेकिन वह चुप नहीं हो रहा था। मैंने पूछा, "क्या नाम है तुम्हारा?"
"सुजीत।"
''तुम्हारी
शादी हो गयी?"
"अभी नहीं।"
"क्यों
नहीं किया?"
"जिससे
करना था, उसकी कहीं और हो गयी।"
"क्यों?"
"मैं
कमाता नहीं था इसलिए नहीं किया। उससे मैं खुद बोला कि तू शादी कर ले इसलिए उसने
दूसरे से कर लिया।"
"वह
तेरे से प्यार करती थी?"
"हाँ।"
"तू
उससे प्यार करता था?"
"हाँ।"
"चुम्मी-उम्मी
लिया उसकी?"
"नहीं।"
उसने सिर हिलाकर मना किया।
"कैसा
बाँगड़ू है रे तू?"
"वो
लड़की एक शादी में मिली थी। वहीं पर हम दोनों की जान-पहचान हुई थी, बस....।"
"कब की
बात है?"
"चार
साल हो गया।"
"पुरानी
बात हो गयी। अब तो कमाने लगा है तू, अब शादी करेगा?"
"हाँ, एक लड़की नज़र में है, उससे करूंगा।"
"क्या
नाम है उसका?"
"खुशबू।"
उसने मुसकुराते हुए बताया। इतने में हमारा 'छोटा चक्कर' पूरा हो गया। यद्यपि हमने 'लंबा चक्कर' नहीं लगाया फिर भी वह खुश
था। हम दोनों को उसने सहारा देकर प्यार से नाव से उतारा और वापस चला गया।
भीमताल
एक त्रिभुजाकार झील है, जिसकी लंबाई 1674 मीटर, चौड़ाई 447 मीटर और गहराई 15 से लेकर 20 मीटर तक है। वहाँ भी नौकायन
का इंतजाम है। एक एक्वेरियम भी है, बीच तालाब में। नौकायन करने का मन नहीं था
लेकिन एक्वेरियम पहुँचने के लिए नाव करना जरूरी हो गया। साठ-साठ रुपए की दो टिकट
ली, नाव में बैठने का जुर्माना
भरा और चल पड़े। तीन मिनट में एक्वेरियम पहुँच गए। ऐसी दुर्दशा थी वहाँ की, कि देखी न गयी। सरकारी काम
में लापरवाही और अक्षमता का उससे अधिक खराब प्रदर्शन हमने कहीं नहीं देखा। वह
दुखदायक प्रवास याद रखने लायक नहीं है लेकिन उसकी चर्चा यहाँ इसलिए की ताकि आप कभी
वहाँ जाएँ तो आपका पैसा व समय बचा लें।
और भी
ताल हैं वहाँ, नल-दमयंती ताल, नकुचिया ताल, हिडिंबा पर्वत आदि। सभी की
प्राकृतिक छटा मनमोहक है। सभी जगह तैरती नाव हैं, गरम-गरम भोजन है, ललचाता हुआ नास्ता है, खुशबू बिखेरता भुट्टा है।
मस्ती में झूमते नव-विवाहित, दौड़भाग करते बच्चों को संभालते हुए दंपत्ति और
उनके आसपास से गुजरती हुई ठंडी मदमाती हवा।
उत्तराखंड
में देवदार, चीड़, बांज (ओक) बांस और बुरांस के
वृक्ष बड़ी संख्या में आज भी हैं पर सबके अलग-अलग क्षेत्र हैं। बांस के वृक्ष सब
जगह हैं लेकिन देवदार, चीड़ और बुरांस के वृक्ष
अपनी-अपनी पसंदीदा जगह पर पनपते हैं। देवदार अत्यंत उपयोगी और कीमती वृक्ष है, जबकि चीड़ का महत्व उससे कम
है। कहते हैं कि देवदार और चीड़ की आपस में नहीं बनती, जहाँ चीड़ की बहुतायत है वहाँ
देवदार कम है और जहां देवदार की बहुतायत है, वहाँ चीड़ कम होता है। इन सीधे तन कर खड़े हुए
वृक्षों को देखने का सुख कुछ ऐसा है जो अन्यत्र दुर्लभ है। हर समय आंधियों का
मुक़ाबला करते ये वृक्ष हमें जैसे संदेश देते हैं कि कैसे विषम परिस्थितियों का
सामना करते हुए भी अपने स्वाभिमान की रक्षा की जाती है? कैसे अपनी अकड़ बनाकर रखी
जाती है? कैसे सीना तान कर अपने
सम्मान की रक्षा की जा सकती है?
इन
वृक्षों के बीच कहीं-कहीं बुरांस (Rhododendron) के घने-छायादार पेड़ भी हैं
जो वहाँ की आबादी के लिए बहु-उपयोगी हैं। खास तौर से इसके फूल बेहद आकर्षक हैं जो
मार्च और अप्रैल में जमकर फूलते हैं। बुरांश हिमालयी क्षेत्रों में 1500 से 3600 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाने
वाला सदाबहार वृक्ष है। गर्मियों के दिनों में खिलने वाले बुरांस के सूर्ख फूलों
से यहाँ के पहाड़ भर जाते हैं। यह उत्तराखंड राज्य का 'राज्य पुष्प' है जबकि नेपाल में यह 'राष्ट्रीय पुष्प' है। इसके फूलों से बना शर्बत
अत्यंत स्वादिष्ट होता है और हृदय-रोगियों के लिए लाभकारी माना जाता है। बुरांस के
फूलों की चटनी भी बनती है। सड़क के किनारे एक ग्रामीण ने दूकान सजाकर रखी थी, हमने वहाँ कार रोकी, सेब खरीदे और बुरांस का
बोतल-बंद शर्बत भी।
प्रकृति
की छटा किसी निर्जन प्रदेश में जैसी दिखाई पड़ती है, भीड़-भाड़ में नहीं। अब तक मैं जहां गया, इसी भीड़ के बीच घुस कर
प्रकृति के सौन्दर्य को निहारने का निष्फल प्रयास किया। मुझे याद आता है गोवा, वहाँ का केलेंगुट-सी-बीच, जहां मैं सन 1973 में गया था। विशाल समुद्र का
विस्तृत तट था। यहाँ से वहाँ तक सुनहली रेत का विस्तार। उस मनोरम जगह पर खड़ा होकर
मैं जो देख पा रहा था, वह दृश्य आज भी भुलाता नहीं
है। दाएँ से बाएँ, ऊपर से नीचे, हर कोण पर प्रकृति मुस्कुरा
रही थी। समुद्र ठहाके मार रहा था और किनारे की विस्तीर्ण रेत पर अपनी जल-राशि
बिखेर रहा था। सब तरफ समुद्र की लहराती ध्वनि और वापस जाती लहरों की मधुर सरसराहट, इसके अलावा और कोई ध्वनि
नहीं। मुझे लगा, यहीं रह जाऊं। उस समय मैं
अकेला था, मेरा कोई साथी नहीं था। सन 2015 में अपने जीवनसाथी के साथ
फिर गया। हम लोग वहाँ किराये की स्कूटर में घूम रहे थे। बीच आने के पहले मैंने
माधुरी जी को बताया,
"अब हम
ऐसी जगह में जा रहे हैं जिसकी खूबसूरती मेरे मन में पिछले आधे शतक से छायी हुई
है।"
वहाँ
हम पहुंचे, जो दिखा, वह ऐसा था कि मैं हतप्रभ रह
गया। समुद्र था, रेत भी थी लेकिन 'केलेंगुट-सी-बीच' गायब था। पूरी रेत पर
मीनाबाजार लगा हुआ था जहां सौन्दर्य प्रसाधन सजे हुए थे, स्थानीय कलाकृतियाँ बिक रही
थी और खाने-पीने के स्टाल। सब तरफ शोर मचाते दूकानदार और खरीददार थे। उन दूकानों
से बच कर पगडंडियों से होते हुए जब हम समुद्र के पास पहुंचे तो समुद्र शिथिल सा
आगे-पीछे हो रहा था, किनारे की बची-खुची रेत
झिझकती सी पसरी हुई थी। मैं उस दृश्य को अत्यंत निराश भाव से देख रहा था, तब ही मेरी पत्नी ने मुझे
ऐसे देखा जैसे वह मुझसे पूछ रही हो, "यही है वह जगह जिसकी
खूबसूरती तुम्हारे मन में पिछले आधे शतक से छायी हुई है?"
पर्यटन
स्थलों के व्यापारीकरण और वहाँ बढ़ती भीड़ ने सब जगह ऐसी बदसूरती फैला दी है कि अब
प्राकृतिक सौन्दर्य कहीं नहीं बचा, केवल प्रसिद्धि बच गयी है जिसे देखने के लिए
लोग उमड़ पड़ते हैं। नैनीताल में भी हमने वैसा ही महसूस किया, जैसा हमें गोवा के हालिया
दौरे में महसूस हुआ था। सैलानियों को देखकर ऐसा लगता था जैसे वे घर से 'मार्केटिंग' करने के लिए निकले हैं या
फिर खाने-पीने; प्रकृति का सौन्दर्य देखने
तो कतई नहीं।
प्रकृति
का सौन्दर्य तो इस धरा पर बिखरा हुआ है, देखने के लिए दृष्टि चाहिए, समझने के लिए सोच और महसूस
करने के लिए दिल। छुट्टी मनाने और होटल में आरामदायक समय बिताने वाले सैलानी इन
खूबसूरत जगहों को केवल छू कर चले जाते है, शायद ही उसे महसूस कर पाते हों। इन जगहों पर
घूमने का मतलब है वह जगह, जहां टैक्सी वाला ले जाए। वह
वहीं ले जाता है जहाँ वह सबको ले जाता है। ये वह जगह होती हैं जो 'बाजार' के कब्जे में हैं। जहां जाओ, लगता है कि हम पर्यटन स्थल
नहीं, बाजार देख रहे हैं, बाजार खरीद रहे हैं और बाजार
में लुट रहे हैं।
हमें
एक टैक्सी वाला अचानक काठगोदाम के रेलवे-स्टेशन में टकराया जो काठगोदाम वापस छोड़ने
तक हमारे साथ रहा। आदमी भला था। वहाँ का रहने वाला था इसलिए वहाँ के रीति-रिवाज व
इतिहास का जानकार था। उसके कारण हमें गाइड की कमी महसूस नहीं हुई। गाड़ी उसकी खुद
की नहीं थी, ठेके पर चलाता था। समय का
पाबंद था और बात-व्यवहार में बहुत अच्छा। रास्ते में माधुरी जी ने उसकी तारीफ की
तो उसने कहा,
"मैडम, हमारी टैक्सी में हर बार कोई
नया 'ग्रुप' आ कर बैठता है। बहुत जल्दी
समझ में आ जाता है कि 'सवारी' कैसी है? हम सवारी को देखकर बात और
काम करते हैं। कई बार ऐसे विचित्र और 'सिर-चाट' लोग मिल जाते हैं कि दिन काटना मुश्किल हो जाता
है। ऐसे लोगों को 'ड्रायवर' भी पसंद नहीं आता, वे चार दिन रुकेंगे तो उनके
चार ड्रायवर बदल जाएंगे।"
"फिर?" माधुरी जी ने पूछा।
"फिर
क्या मैडम? धंधा है हमारा। सब सहना पड़ता
है।
"ज्यादा
परेशानी कब होती है?"
"जब 'उल्टी करने वाली' सवारी बैठ जाती है।"
''उससे
क्या फर्क पड़ता है? थोड़ा रुक गए, फिर आगे बढ़ गए।"
"कई
बार 'डेस्टिनेशन' में पहुँचने में दोगुना समय
लग जाता है और यदि किसी ने गाड़ी के अंदर ही उल्टी कर दी तो समझिए चौतरफा मुसीबत आ
गयी।"
"फिर
कैसा करते हो?''
"धोते
हैं, साफ करते हैं, सवारी तो कार से उतर जाती है
और मटक कर आगे बढ़ जाती है।"
"तुम
अपनी गाड़ी में 'एवोमिन' रखा करो और शुरू में ही सबको
खिला दिया करो, सस्ती दवा है।" मैंने
सुझाव दिया।
"जी, अब ऐसा करूंगा, आपका 'आइडिया' अच्छा है। एक घटना याद आई, बताऊँ आपको?"
''हाँ, बताओ।"
"एक
फैमिली के लिए टैक्सी बुक हुई, उनका मुक्तेश्वर का 'ट्रिप' था। काठगोदाम से मुक्तेश्वर
ले जाना था जो
लगभग 70 किलोमीटर का लंबा पहाड़ी
रास्ता है। उसमें एक मैडम थी जिसको हर दस मिनट में उल्टी हो रही थी। मुक्तेश्वर तक
पहुँचने में वे हलकान हो गयी, मैं त्रस्त हो गया। मुक्तेश्वर घूमने के बाद
लौटते समय मैंने
मैडम
को अपने बगल वाली सीट पर बैठाया और उन्हें एक लकड़ी की टहनी देते हुए कहा कि रास्ते
भर इसे कसकर पकड़े रहिएगा।"
"फिर
क्या हुआ?"
"वो उस
टहनी को कसकर पकड़ी रही और हम काठगोदाम वापस पहुँच गए।"
"रास्ते
में उनको उल्टी हुई?"
"एक भी
बार नहीं हुई। वो मैडम बहुत खुश हो गयी और मुझसे पूछी कि वो कौन सी लकड़ी है? तो मैंने कुछ नहीं बताया
उनको।"
"कौन
सी लकड़ी थी?"
माधुरी
जी ने पूछा।
"उनको
सड़क के किनारे पड़ी हुई एक लकड़ी थमा दिया था।" टैक्सी ड्रायवर ने हँसते हुए
बताया।
अगला
दिन नैनीताल देखने के लिए तय था। हमारी टैक्सी भीमताल से चली, राह सुहानी थी। फिल्म 'मधुमती' का गाना याद आ रहा था, "सुहाना सफर और ये मौसम हसीं, हमें डर है हम खो न जाएँ
कहीं...", मेरा मन हो रहा था कि ज़ोर से
आवाज लगाऊँ, 'हो हो हो SSSS....' लेकिन इस डर से नहीं लगाया
कि 'कोई' वैजयंतीमाला मेरी आवाज सुन
कर अगर वहाँ आ गयी तो मेरी वाली वैजयंतीमाला गुस्सा जाएगी।
एक
मोड़ पर हमारी कार रुकी। हम सब उतरे। हमारे ड्रायवर-कम-गाइड ने बताया, "यह वह जगह है जहां सभी किस्म
के वृक्ष हैं।'' उसने सभी वृक्षों के पास ले
जाकर हमारा उनसे परिचय कराया, उनकी विशेषताओं के बारे में बताया।
लंबे
सफर के बाद हम नैनीताल पहुँच गये, वही नैनीताल जिसे देखने की हसरत मुझे बचपन से
थी। सबसे पहले हम वहाँ 'हिमालयन बॉटनिकल गार्डन' देखने गये। जैसे ही वहाँ
घुसे, हल्की सी बारिश शुरू गयी, बादल आसमान से उतरकर हमारे
इर्द-गिर्द मंडराने लगे। मौसम में ठंडक घुल गयी और मादकता भी। झिरझिराते पानी में
हम नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे उन फूलों की बहार देखते रहे जो न केवल खूबसूरत थे
वरन औषधीय गुणों से परिपूर्ण थे। ऐसा
खूबसूरत नज़ारा था जो आँखों में समेटे न समटे। अद्भुत और अवर्णनीय।
हिमालय वानस्पतिक उद्यान सन 2005 में
विकसित किया गया। यह शानदार बाग अपनी प्राकृतिक सुंदरता के संदर्भ में उत्कृष्ट
है। यहाँ कुछ ऐसे पौधे भी हैं, जो मूल हिमालय क्षेत्र की
दुर्लभ प्रजाति के हैं। यह आर्किड, फर्न, कैक्टस
के पौधे के अतिरिक्त अनेक किस्म के पेड़ और पक्षियों के साथ-साथ जलीय जीव का समृद्ध
संग्रहालय है। यहाँ एक तितली पार्क भी है जो सैलानियों को आकर्षित करता है। इस बाग
को आपने घूम लिया, समझ लीजिए, आपने
निहायत खूबसूरत देख ली।
एक छोटा सा बच्चा अपने माता-पिता से दस क़दम आगे चल रहा था
तितली पार्क में। मैंने उसे अपनी गोद में उठाने का इशारा किया। वह मेरी ओर
सहमी-सहमी देख कर बोला, "मम्मी।"
"मम्मी आ रही है।"
मैंने उससे कहा।
कुछ क्षणों में वह मेरी गोद में था। उसने मेरे दोनों गाल
छुए और ठहाका मार हंसने के बाद प्यार से बोला, "दादा
दादा।"
वह मेरी गोद में खेलता रहा। प्लास्टिक सर्जरी के कारण मेरा
एक गाल जरा बढ़ा हुआ है, वह उसे छूकर आनंदित होता
रहा। तीन मिनट में उसने मुझे कोई तीस बार 'दादा
दादा' कहा होगा।
इतनी देर में विदा का समय आ गया। उसकी माँ ने उसे अपनी गोद
में बुलाया, वह चला गया और मेरी ओर
उंगली दिखाकर बोला, "मम्मी.... दादा
दादा...." फिर मेरी ओर देख कर मुस्कुराते हुए बोला,"टाटा टाटा।"
उसे छोड़कर मैं आगे बढ़ा। वह अपनी मम्मी की गोद में मचल मचल
कर रो रहा था, "दादा, दादा।"
बाग में विचरते समय बारिश होती रही, हम दोनों
भीगते रहे, भीगने से बचते भी रहे। उस
शानदार दृश्य को महसूस करने के बाद हम पहाड़ी के नीचे पहुंचे जहां वह झील थी जिसे
नैनीताल कहते हैं। ताल के एक ओर बसाहट है जिसे 'माल' कहते हैं, दूसरी ओर
नैना देवी का मंदिर है और ताल का शेष भाग पहाड़ियों से घिरा हुआ है। शहरी बसाहट हो
गयी है इस वजह से इस ताल में वह आभा नहीं है जो भीमताल के तालों की है। नौकायन
जारी है, नवकुबेरों के 'हेवी-वेट' परिवार
जल-यात्रा कर रहे हैं। तालाब के बाहर 'फोटो-सेशन' चल रहे
हैं, युवा बालाएँ अनेक प्रकार के
मुंह बनाकर 'सेल्फी' ले रही
हैं , बच्चे इधर से उधर दौड़ रहे
हैं, हम उन्हें देख रहे थे।
नजदीक
ही मंदिर में हमने शीश नवाए, प्रसाद चढ़ाया और माल घूमने निकल पड़े।
वहाँ के
माल में दूकानें सजी हुई हैं, दूकानों में भीड़ है लेकिन सबसे ज्यादा 'एम्बेसी' में है जिसे मेरे मित्र श्री
विक्रम स्याल संचालित करते हैं। लगभग सौ ग्राहकों के एकसाथ बैठने लायक उस
रेस्टोरेन्ट में एक भी सीट खाली नहीं थी। मैंने काउंटर में बैठे व्यक्ति से पूछा, "मिस्टर विक्रम स्याल कहाँ
हैं?"
"यहीं
कहीं ग्राहकों के बीच होंगे।" उसने बताया।
मैंने
इधर-उधर नज़र घुमाई तो वे बेयरों के साथ काम में लगे हुए थे, हर टेबल के पास जाकर
ग्राहकों से पूछताछ कर रहे थे। हम दोनों एक किनारे खड़े होकर चुपचाप उनकी व्यस्तता
देख रहे थे। कुछ देर में वे खुद एक टेबल पर पहुंचे और ग्राहक के खाने का 'आर्डर' लेने लगे। 'लंच' का समय था, हर काम पूरी गति से चल रहा
था। अचानक विक्रम ने मुझे देखा और हमारी ओर लपके, "अरे, द्वारिका भाई, आप ? कब आए? कब से खड़े हैं यहाँ? भाभी जी प्रणाम।"
विक्रम ने खुशी से झूमते हुए कहा।
हम
दोनों गर्मजोशी से गले मिले। मैंने कहा, "एक बार और।" दोबारा गले
मिले। मैंने कहा,
"एक
बार और।" हम तिबारा गले मिले। विक्रम ने पूछा, "मैं समझा नहीं, यह गले मिलना तीन बार क्यों?"
मैंने
बताया,
"पहली
बार तुम मेरे गले मिले, दूसरी बार तुम अपने अभिन्न
मित्र नन्दन चतुर्वेदी के लिए मिले और तीसरी बार वाला बिलासपुर के तुम्हारे सभी
मित्रों के लिए।"
"वाह, मज़ा आ गया। आज बिलासपुर याद
आ गया, वहाँ बिताया शानदार समय याद
आ गया।'' विक्रम ने कहा।
शाम
हो गयी, अंधकार घिरने लगा, हम अपने होटल में वापस आ
गये। हम दसेरी आम खाकर सो गये। सुबह जल्दी उठे ताकि योगाभ्यास और प्राणायाम यथासमय
सम्पन्न हो सके। माधुरी जी खिन्न थी क्योंकि पिछली दो रात से वे ठीक से सो नहीं पा
रही थी। उनकी परेशानी का कारण मैं नहीं था वरन होटल के रूम में पलंग पर बिछा वह
गद्दा थ जो बहुत मोटा और गुलगुला था, तकिया का भी वही हाल था।
मैंने
देखा है, उम्र बढ़ने के साथ
खाने-पीने-सोने के मापदंड बदल जाते हैं। जैसा हम घर में रहते हैं, उसमें यदि कोई बदलाव होता है
तो असुविधा महसूस होने लगती है। सवाल यह है कि घर से बाहर निकलने के बाद अपना घर
कहाँ मिलेगा? जो और जैसा मिलता है, खाओ-पियो-सोओ। अड़चन तो सबको
होती होगी लेकिन घुमक्कड़ लोग इन छोटी-मोटी असुविधाओं पर ध्यान नहीं देते, जो और जैसा मिलता है, काम चलाते हैं। इन यात्राओं
में मेरा यह भी अनुभव रहा है कि भोजन हमारे मन का मिले, न मिले, सुबह का नास्ता सभी जगह बहुत
अच्छा मिलता है इसलिए हमने तय किया कि सुबह खींच कर खा लिया जाए ताकि दोपहर को भूख
न लगे और रात को फल का 'डिनर' कर लो। अपना पैसा बचता है और
स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। हर रात को आठ बजे कमरे में 'डायनिंग' से फोन आता था, "सर, डिनर में क्या लेंगे?"
मैं
कहता था,
"कुछ
नहीं।" तो उधर से फोन पर उदासी वाली सांस की ध्वनि सुनाई पड़ती थी।
उस
दोपहर को विक्रम स्याल ने भोजन के लिए पूछा था तो मैंने कहा, ''सुबह 'हेवी ब्रेकफ़स्ट' ले लिया था, भोजन का मन नहीं है।"
तो उसने एक खट्टा-मीठा पेय मंगवाया हमारे लिए। यदि विक्रम ने भोजन के लिए एक बार
और आग्रह किया होता तो कर लेते लेकिन 'अधिक आग्रह' हुआ नहीं, इस कारण हम 'एम्बेसी' का स्वाद चखने से चूक गए अन्यथा आपको वहाँ के
भोजन का स्वाद भी बताते। फिलहाल, आप जब नैनीताल जाएँ तो 'एम्बेसी' में ज़रूर जाएँ क्योंकि वहाँ 'वेज' और 'नान-वेज' दोनों किस्म का खाना अच्छा 'दिख' रहा था और वहाँ का मालिक तो
बहुत ही अच्छा है।
तीसरा
दिन मुक्तेश्वर जाने के लिए नियत था। लंबा सफर था। सब तरफ खूबसूरती बिखरी पड़ी थी।
मुक्तेश्वर पहुँचने पर एक गाइड मिला जो हमें पहाड़ी के ऊपर निर्मित मंदिर तक ले
जाने के लिए खड़ा था। मुक्तेश्वर
पहाड़ की ऊँची चोटी पर है जहां 400 मीटर की
पहाड़ी पगडंडी से होकर जाना होता है। हांफते-थके-मांदे हम ऊपर चढ़ गये। मंदिर के
ठीक पहले पत्थर के एक टीले पर निर्मला जी की चाय की दूकान सजी हुई थी। उसने पूछा, "चाय
पियेंगे सर?"
"जरूर पीता लेकिन नीचे नीबू-सोडा पीकर आ रहा
हूँ। मुझे मालूम होता कि ऊपर चाय मिलेगी तो फिर चाय ही पीता।" मैंने उत्तर
दिया।
"कोई बात
नहीं सर।"
"वाह, तुम इतनी
ऊंचाई पर दूकानदारी करती हो? कहाँ रहती हो?"
"नीचे गांव
में।" उसने खुश होकर बताया।
सामने
कुर्सियों पर एक खूबसूरत जोड़ा मैगी खा रहा था। मैंने उनकी ओर मुस्कान फेंकी। जवाब
में मुस्कान का जोड़ा आया। मैंने पूछा, "कहाँ से आए हो?"
"दिल्ली
से।"
"नयी-नयी शादी
हुई है?"
"अभी शादी नहीं
हुई है।" झिझकते हुए उत्तर आया। "हम लोग मंगेतर हैं।"
"फिर तो मजे
हैं तुम दोनों के।" मैंने कहा।
दोनों जोर से
हंसे। मेरे मन में आया कि आगे कुछ और पूछूं लेकिन मैं उनका भी फोटो खींच कर आगे
बढ़ गया।
मैं सोच रहा
था कि हमारे देखते ही देखते जमाना कितना आगे बढ़ गया! मेरी शादी हुई थी तो विवाह
के पूरे चार दिन बाद 'उनका' मुखड़ा देखने को मिला था। इन दोनों को देखो, अभी शादी नहीं हुई है और हनीमून मना रहे हैं
! आजकल का माहौल देखकर कई बार मुझे लगता है कि मैं गलत समय इस दुनिया में आ गया, अब आते तो इस
दौर में मज़े ही मज़े हैं। Feeling jealous...(जलकुकड़ाई)॰
शिखर पर देवता
ग्वाली देव विराजमान हैं। दर्शनार्थी कतारबद्ध होकर दर्शन कर रहे हैं, बीच-बीच में
कुछ परिवार पूजन के लिए बैठ जाते हैं तो दर्शन अवरुद्ध हो जाता है। कुछ देर में
पुनः आरंभ हो जाता है। मंदिर की बनावट प्राचीन है इसलिए झुक कर और सामने देखकर चल
रहा हूँ ताकि सिर न टकराए। पूरे मंदिर में सब तरफ पीतल के घंटे और घंटियाँ लटकी
हुई हैं। ये घंटियाँ मनौती करने की प्रतीक हैं। हर श्रद्धालु आते-जाते घंट-ध्वनि
विस्तारण कर रहा है। घंटी की ध्वनि जो मंदिर की पवित्रता और आस्था का संकेत है, असहनीय हो रही
है। पुजारी सस्वर पूजन-पाठ कर रहे हैं, उच्चारण शुद्ध और मधुर है। हम भी पंक्तिबद्ध
थे, हमें भी देव-दर्शन का सुअवसर मिला। मंदिर की सीढ़ियों से उतरते समय एक तरफ
हरियाली थी, हम रुक कर उसे गौर से देखने लगे। सीढ़ी पर बैठी भिखारिन ने बताया, "ये 'बिच्छू बूटी' का पौधा है, इसकी सब्जी बनती
है।"
लौटते समय
टैक्सी में हमने अपने ड्रायवर से पूछा, "बिच्छू बूटी' का पौधा बहुत काँटेदार दिख रहा है, कोई बता रहा
था कि इसकी सब्जी बनती है?"
वह हँसने लगा
और उसने बताया, ''बिच्छू बूटी की महिमा अपरंपार है। यह कुमायूं के लोगों के लिए वरदान है
क्योंकि इसमें औषधीय गुण हैं। इसका अनेक रोगों को ठीक करने में उपयोग होता है।
मेरे दादा जी इसके बारे में बहुत सी बातें बताते थे लेकिन मैं भूल गया हूँ।"
"क्या इसकी
सब्जी बनती है?" माधुरी जी ने पूछा।
"जी मैडम, यह काँटेदार
पौधा है, इसे हाथ से छू नहीं सकते इसलिए इसकी पट्टियाँ चिमटी से पकड़कर तोड़ी जाती हैं।
सबसे पहले इसकी पत्तियों को पानी में बहुत देर तक उबाला जाता है ताकि इसके कांटे
खत्म हो जाएँ। उबालने के बाद इसका पानी निचोड़ लेते हैं, उसके बाद जैसी
दूसरी सब्जियाँ बनती हैं, उसी ढंग से पकाकर इसे तैयार करते हैं। जब आप खाएँगे तब इसका स्वाद
जानेंगे।"
"तो खिलाओ
हमें।"
''इस बार तो
मुश्किल है लेकिन फिर कभी इधर आइएगा तो आपको अपने घर ले चलूँगा।''
"इस बार क्या
समस्या है?"
''बीवी मेरी, मुझसे नाराज
चल रही है।"
"क्या हो गया?"
"घर की बात
क्या बताऊँ आपको? चलिए, एक दूसरी बात बताता हूँ।"
"क्या?"
"मैं जब छोटा
था, जब उधम मचाता था तो मेरे पिताजी बिच्छू बूटी को मेरे शरीर में 'टच' कर देते थे।
इतनी खुजली होती थी कि दिनभर बदन खुजलाता रहता था। बिच्छू बूटी के डर से मेरी बदमाशियां कम हो
गयी।'' पुरानी बात याद करके वह हँसने लगा। हमने भी उसका साथ दिया।
उस मंदिर में
प्रवेश के पूर्व मैं कर रहा था कि हमारे आराध्य योगी शिव का मंदिर होगा क्योंकि
मुक्तेश्वर तो वही हैं लेकिन वहाँ ग्वालीदेव की प्रतिमा स्थापित थी। रोचक बात
यह है कि मंदिर का नाम ग्वालीदेव मंदिर न होकर मुक्तेश्वर मंदिर है।
कई वर्षों पूर्व पंडित मुक्तेश्वर जी ने उस मंदिर की स्थापना की थी इसलिए वह मंदिर
और सम्पूर्ण क्षेत्र उनके नाम से प्रसिद्ध हुआ।
जैसा कि सभी
हिन्दू मंदिरों में एक अलिखित नियम है कि मंदिर में प्रवेश के पूर्व जूते-चप्पल
बाहर उतारने होते है और पैर धोकर देवदर्शन के लिए जाते हैं, मैंने यहाँ भी
उस नियम का पालन किया। ऐसी जगहों पर मेरी चप्पलें गुम हो चुकी हैं इसलिए अब मैं
अपनी चप्पल की जोड़ी तोड़ कर अलग-अलग जगह पर रख देता हूँ। इसके फलस्वरूप चप्पल की
जोड़ी न बन पाने के कारण चोरी बंद हो गयी। आप भी इस उपाय को अपनाकर अपनी पादुकाओं
की सुरक्षा निश्चित कर सकते हैं।
इसे पढ़ कर आप
सोच रहे होंगे कि यात्रा विवरण में चप्पल का ज़िक्र क्यों आ गया? आप ठीक सोच
रहे हैं। हुआ यह कि हम मंदिर परिसर में नंगे पैर अंदर गए और दर्शन करके बाहर आ गए।
मुझे चप्पल मिल गयी, उसे पहन लिया और हम वहाँ से टैक्सी में बैठकर निकल पड़े लेकिन कुछ दूर पर मुझे
ऐसा लगा जैसे मेरे बाएँ पैर के तलवे और चप्पल के बीच कुछ चिपचिपा सा रहा है। कार
में बैठे-बैठे मैंने चप्पल उतारकर श्वान-विधि से अपने तलवे को कार्पेट पर खूब रगड़ा
लेकिन चिपचिपाहट खत्म नहीं हुई। शाम को जब होटल लौटा, बाथरूम में
जाकर पैरों को मनोयोग से धोया लेकिन बात नहीं बनी। रात को उसी तरह सोता रहा। अगली
सुबह हमें वापसी यात्रा करनी थी, नहाते समय अपने तलवे में साबुन लगाया, खूब रगड़ा-धोया
पर उसने मेरा साथ न छोड़ा। दरअसल, वह चुइंग-गम थी जिसे किसी बच्चे ने मंदिर
परिसर में थूक दिया था और वह मुझसे मजबूती के साथ लिपट गयी थी।
चुइंग-गम का
ज्ञान सबसे पहले न्यूयार्क के व्यवसायी थामस एडम्स को सन1869 में हुआ। वह
रबर का विकल्प तलाश रहा था। उसने सापोडिला-चीकू का गोंद अपने मुंह में रखा, उसे इसका
स्वाद अच्छा लगा। सन 1871 में थामस एडम्स ने इसे पेटेण्ट करा लिया और इस
प्राडक्ट का नाम 'एडम्स न्यूयार्क गम' रखा।
चुइंग-गम मुंह
के स्लाइवा को तेजी से बनाता है। शुगर के लो
होने या बिल्कुल न होने की हालत में यह एसिड की तीब्रता को कम करता है, मुंह की
दुर्गंध को दूर करता है और सिगरेट छुड़ाने में भी यह मददगार होता है।
इसे खाने से
कुछ नुकसान भी हैं। चुइंग-गम खाने से माइग्रेन की बीमारी भी हो सकती है और यह
कैंसर का भी कारक है। यह पेट में जाकर बड़ी मुश्किल से पचता है।
सामान्य भोजन कुछ घण्टों में पच जाता है जबकि इसे पचने में दो से तीन दिन तक का
समय लग सकता है अतः इसे निगलने से बचना चाहिए। यदि बालों में चिपक जाए तो बड़ी मुश्किल से निकलता
है। चुइंग-गम खाकर उसके अवशेष को इधर-उधर थूकना पक्षियों
के लिए प्राणघातक है क्योंकि यदि कोई चिड़िया इसे खा ले तो उसके दोनों जबड़े आपस में
चिपक जाते हैं, इस कारण वह चिड़िया खाना नहीं खा पाती और भूख के मारे तड़प तड़प कर मर जाती है।
किसी अबोध
बालक का उगला हुआ चुइंग-गम मेरे तलवों में चिपक गया
था, जिसे निकालने में मुझे वही कष्ट हुआ जो किसी सांसद या विधायक के पाँच साल के
लिए चुन लिए जाने के बाद उसे उसके कार्यकाल में हटाने की कोशिश में होता है।
'पैर में कुछ
चिपका हुआ है' का एहसास लिए मैं माधुरी जी के साथ भीमताल से काठगोदाम के लिए वापस लौट पड़ा।
पिछली रात भर घनघोर बारिश हुई थी, सुबह थम गयी थी लेकिन रास्ते में बादल फिर
बरस पड़े। कोहरा भी छा गया। सभी गाडियाँ 'हेडलाइट' जलाकर चल रही थी ताकि कोई दुर्घटना न हो।
कहीं-कहीं पहाड़ टूटे थे रात को लेकिन हमारे निकलते तक मलवा हटाया जा चुका था, एक-दो जगह काम
जारी था। काठगोदाम के कुछ पहले मुझे पुराने बहुमंजली फ्लेट दिखे, वीरान पड़े थे, उनका पलस्तर
उखड़ रहा था, घास उग रही थी और दीवारों पर काई जम रही थी। मैंने टैक्सी रुकवाई और उनके
फोटोग्राफ लिए। उन्हें देखकर मैं सोच रहा था कि इन सैकड़ों मकानों में कोई नहीं
रहता, ऐसा क्यों है? ड्रायवर ने बताया, ''अंकल, यहाँ एच॰एम॰टी॰ का कारख़ाना था, जो बंद हो गया, उसके कर्मचारी यहाँ रहते थे।''
वहाँ कोई नहीं
नहीं था जो मुझे बता सके कि उन खंडहरों की क्या कहानी है? उदास भाव से
मैं काठगोदाम स्टेशन पहुँच गया और विश्रामालय में डेरा जमा लिया क्योंकि ट्रेन
निकलने में तीन घंटे की देर थी। मेरे फेसबुक मित्र दिनेश पांडे, जो नजदीक ही
हल्द्वानी में रहते हैं, वे हमसे मिलने स्टेशन आ पहुंचे। उनसे कुमायूं के इतिहास और संस्कृति पर लंबी
बात हुई और एच॰एम॰टी॰ के कारखाने के दुर्दशा पर भी।
आज इस बात पर
कौन विश्वास करेगा कि लगभग पचास वर्ष पूर्व एच॰एम॰टी॰ की घड़ियाँ पहनना सौभाग्य की बात थी
और उनको हासिल करने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते थे। एच॰एम॰टी॰
घड़ियों की खूबसूरती और समय की सटीकता की ख्याति पूरे भारत में फैली हुई थी। हर
चौबीस घंटे के बाद चाभी भरकर चलने वाली एच॰एम॰टी॰ की 'रिस्ट-वाच' आभिजात्य वर्ग की पहली पसंद थी। एच॰एम॰टी॰ एक
अर्ध-सरकारी उपक्रम था जो स्वतंत्र भारत के लाभदायक सार्वजनिक उद्योगों में से एक
था। मेरे मित्र दिनेश पांडे इसी उपक्रम में कार्यरत थे, वे उन दिनों
की याद में खो गए और दुखी होकर आज की दुखद स्थिति के बारे में बताने लगे।
कुमायूं में
हल्द्वानी के आस-पास का इलाका कभी एकदम वीरान था। वहाँ कोई नहीं रहता था यद्यपि
अंग्रेजों ने वहाँ बसाहट की कोशिश की थी लेकिन जमीनी स्तर पर मानवीय सुविधाओं के न
होने के कारण वहाँ कोई न टिक सका। भारत के विभाजन के बाद जो लोग पाकिस्तान छोड़ कर
भारत आए उन्हें देश के विभिन्न हिस्सों में बसाया गया जिन्हें 'कैम्प' कहा जाता था।
उनमें से एक हल्द्वानी भी था। पाकिस्तान के समृद्ध हिन्दू परिवार विभाजन की विभीषिका
से त्रस्त होकर अपनी जान बचाकर इन कैम्पों में प्रवासी के रूप में अपना नया किन्तु
अभावग्रस्त जीवन शुरू किया। जो जगह रहने लायक नहीं थी, अनेक तकलीफ़ों
के बावजूद भी वे वहाँ रहे और अपने परिश्रम से उस जगह को गुलजार कर दिया।
जब स्वतंत्र
भारत ने अपनी विकास यात्रा शुरू की तो उसकी आहट इस क्षेत्र में भी पहुंची, सड़कें बनी और
यह इलाका पर्यटन स्थल के रूप में लोकप्रिय होता गया। तात्कालीन मुख्यमंत्री
नारायण दत्त तिवारी (1984-85) ने इस क्षेत्र के विकास के लिए जो कार्य किये, उसे स्थानीय
निवासी आज भी याद करते हैं। उन्हीं की पहल पर HMT घड़ी बनाने का एक बड़ा प्रकल्प कुमायूं क्षेत्र
को मिला। यह कारख़ाना सन 1985 में रानीबाग में स्थापित किया गया जो इस क्षेत्र के विकास, रोजगार और
व्यापार के लिए वरदान सिद्ध हुआ।
जापान की 'सिटीजन वाच
कंपनी' के सहयोग से बनी HMT की घड़ियाँ एक जमाने में भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय थी, लाइन लगाकर
बिकती थी। इसके लिए मिनिस्टर और सांसद की सिफ़ारिश भी लगवाई जाती थी। HMT ने रिस्ट-वाच
के कई माडल बाजार में उतारे जिनमें 'जनता' को सबसे अधिक प्यार मिला, उसके बाद 'पायलट', 'झलक', 'सोना', 'ब्रेली' के माडल भी
खूब चले। देखते ही देखते HMT ने सोलह माडल निकाले जिसमें 'फ्लोरल', 'सोलर', 'टावर' और 'इन्टरनेशनल' घड़ियाँ भी थी।
जब घड़ी के
बाजार में विदेशी कंपनियों को प्रवेश की अनुमति मिली तो उनके सामने HMT के उत्पाद
अपनी मांग बनाए रखने में असफल हो गए। लगातार हो रहे घाटे के कारण भारत सरकार ने सन
2014 में HMT के सभी
प्रकल्पों को क्रमबद्ध तरीके से बंद करने का निर्णय लिया, जिनमें
काठगोदाम के समीप स्थित रानीबाग का प्रकल्प भी है। यह प्रकल्प भी अघोषित रूप से बंद है।
अधिकारियों और कर्मचारियों को स्वैच्छिक अवकाश लेकर काम छोड़ने के लिए विवश कर दिया
गया। जो युवा थे, वे स्वैच्छिक अवकाश लेकर अन्य नौकरियों में चले
गए या व्यापार करने लगे। जो वरिष्ठ थे, वे बेचारे कहाँ जाते? उनको कौन काम
देता? आज भी अपने रिहायशी मकानों में रहते हैं, चार-छह महीने में कभी तनख्वाह आ जाती है तो
मुस्कुराने लगते हैं अन्यथा इकट्ठा होकर 'ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद' के नारे लगाते
हैं।
इन फ्लेट्स के
अतिरिक्त कई बड़े बंगले भी हैं जो अधिकारियों के निवास हेतु बनाए गए थे। प्लांट के
शेड हैं, केंटीन है, गेरेज हैं, अस्पताल है और आफिस केम्पस है, सब वीरानी झेल रहे हैं। वहाँ की हालत
को देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। इस बात का दुख है कि ये खाली क्यों हुए और खाली हुए
तो अब तक खाली क्यों हैं? अगर घड़ियाँ बनना बंद हो गयी या प्रकल्प बंद करने का निर्णय सरकार ने ले लिया
है तो इन फ्लेट्स और बंगलों को सरकार कम कीमत में नागरिकों को बेच क्यों नहीं देती? खड़े-खड़े ये
बर्बाद हो रहे हैं, जैसे जैसे समय बीतता जाएगा, इनका अधिक अवमूल्यन हो जाएगा। इन्हें बेचकर
सरकार अपने घाटे को कम कर सकती है और इनके हस्तांतरण से अनेक परिवारों को उनकी
अपनी छत मिल जाएगी।
श्री दिनेश
पांडे ने मुझे नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक "पंडितों का
पंडित" भेंट की जो कुमाऊं के महान खोजी और ज्ञानी स्व. चैनसिंह रावत की जीवन
गाथा है जिसके लेखक हैं, शेखर पाठक। हम लोग अब वापसी यात्रा के लिए शताब्दी
एक्सप्रेस से निकल चुके हैं। माधुरी जी पुस्तक पढ़ रही हैं और बता रही हैं, "पुस्तक जोरदार
और शानदार है।"
हमारा यह
हनीमून भी पुस्तक की तरह जोरदार और शानदार रहा, हाँ, लौटते समय HMT के इतिहास की
मधुर यादें जहां सुख दे गयी और वहाँ उसका वर्तमान दुख दे गया। क्या अच्छा हो कि
अगली बार हम उधर से गुजरें तो वहाँ की बालकनी के बाहर हमें रंग-बिरंगे कपड़े सूखते
हुए दिखाई पड़ें।
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