सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

म्हारो प्यारो राजस्थान

 ञ से खूब सारी बातें करने का सुख मिला.

वहां से निवृत्त होकर हम तीनों सफारी के लिए निकले. वहां पहुंचकर एक जिप्सी मिली, उसमे बैठकर रेगिस्तान के छोटे से स्वरूप में प्रवेश कर गए. रेशम जैसी बारीक रेत का स्पर्श बेहद सुहावना लगा. सूर्यास्त होने वाला था, पहाड़ियों के पीछे से झांकती सूर्य की किरणें मन मोह रही थी. ऊंचे-नीचे रास्ते से होते हुए हम लोग एक काटेज में पहुंचे जहाँ हमारे लिए चाय आई. कुछ देर में एक सजा-धजा ऊंट सामने आकर खड़ा हो गया. अब उस पर सवार होकर घूमने जाना था. माधुरी जी ने उस पर पैर फैला कर चढ़ने का प्रयास किया, असफल रही. उनके बाद मैंने प्रयास किया, बन गया और थोड़ी दूर तक जाकर लौट आए.

इस प्रकार रंग-रंगीले राजस्थान के एक छोटे से हिस्से का दौरा संपन्न हुआ. इस 'देस' का आतिथ्य सत्कार, खान-पान और मेहमान की आवभगत करने की कला बाकी देश को भी सीखना चाहिए. शेष बचे राजस्थान को देखने के लिए फिर आएंगे, अवश्य आएंगे.

==========


   






 




 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जब तब अब जबलपुर

तब जब अब जबलपुर ============== ( १)           अपनी ससुराल होने के कारण मुझे शहर जबलपुर अत्यंत प्रिय है क्योंकि वहाँ दामाद होने के कारण मेरे मान-सम्मान की स्थायी व्यवस्था बनी हुई है यद्यपि सास-श्वसुर अब न रहे लेकिन तीन में से दो भाई , मदन जी और कैलाश जी , मुझे अभी भी अपना जीजा मानते हुए अपने माता-पिता की कोमल भावनाओं का प्रसन्नतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं। मैं पहली बार जबलपुर विवाह में बाराती बन कर दस वर्ष की उम्र (सन 1957) में गया था। मोहल्ला हनुमानताल , सेठ गोविंद दास की ' बखरी ' के कुछ आगे , जैन मंदिर के पास , सेठ परसराम अग्रवाल के घर , जहां से उनकी भतीजी मंदो का ब्याह मेरे बड़े भाई रूपनारायण जी के साथ हुआ था। उन्हीं दिनों सेठ गोविंद दास की ' बखरी ' के बाजू में स्थित एक घर में एक वर्ष की एक नहीं सी लड़की जिसका नाम माधुरी था , वह घुटनों के बल पूरे घर में घूमती और खड़े होने का अभ्यास करती हुई बार-बार गिर जाती थी। इसी घर में 8 मई 1975 में मैं दूल्हा बनकर आया था तब माधुरी 19 वर्ष की हो चुकी थी , वे मेरी अर्धांगिनी बनी।      ...

ये लखनऊ की सरजमीं

लखनऊ का नाम सुनते ही दिमाग में उस तहज़ीब की याद आती है, 'पहले आप, पहले आप'. फिर फिल्म 'चौदहवीं का चाँद' (1960) केे उस गीत की याद आती है जिसे शकील बदायूँनी ने लिखा था : "ये लखनऊ की सरजमीं. ये रंग रूप का चमन, ये हुस्न और इश्क का वतन यही तो वो मुकाम है, जहाँ अवध की शाम है जवां जवां हसीं हसीं, ये लखनऊ की सरजमीं. शवाब-शेर का ये घर, ये अह्ल-ए-इल्म का नगर है मंज़िलों की गोद में, यहाँ हर एक रहगुजर ये शहर ला-लदार है, यहाँ दिलों में प्यार है जिधर नज़र उठाइए, बहार ही बहार है कली कली है नाज़नीं, ये लखनऊ की सरजमीं. यहाँ की सब रवायतें, अदब की शाहकार हैं अमीर अह्ल-ए-दिल यहाँ, गरीब जां निसार है हर एक शाख पर यहाँ, हैं बुलबुलों के चहचहे गली-गली में ज़िन्दगी, कदम-कदम पे कहकहे हर एक नज़ारा दिलनशीं, ये लखनऊ की सरजमीं. यहाँ के दोस्त बावफ़ा, मोहब्बतों के आशना किसी के हो गए अगर, रहे उसी के उम्र भर निभाई अपनी आन भी, बढ़ाई दिल की शान भी हैं ऐसे मेहरबान भी, कहो तो दे दें जान भी जो दोस्ती का हो यकीं, ये लखनऊ की सरजमीं." इस बार जब लखनऊ जाने का सबब बना तो मेरी पत्नी माध...

रंगीला राजस्थान

राजस्थान अंग्रेजों के ज़माने में राजपूताना कहलाता था क्योंकि इस क्षेत्र में अजमेर-मेरवाड़ा और भरतपुर को छोड़कर अन्य भूभाग पर राजपूतों की रियासतें थी. बारहवीं सदी के पूर्व यहाँ गुर्जरों का राज्य था इसलिए इस क्षेत्र को गुर्जरत्रा कहा जाता था. अजमेर-मेरवाड़ा अंग्रेजों के अधीन था जबकि भरतपुर में जाटों के. कुल मिलाकर छोटी-बड़ी 21 रियासतें थी जिन्हें स्वाधीन भारत में शामिल करना बेहद कठिन था क्योंकि अधिकतर राजा एकीकरण के पक्ष में नहीं थे, कुछ खुद-मुख्त्यारी चाहते थे तो कुछ पाकिस्तान में विलय चाहते थे. स्वाधीन भारत के तात्कालीन गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वी. के. मेनन ने इस असंभव को संभव कर दिखाया और उसकी परिणिति बनी, भारतवर्ष का नूतन राज्य, राजस्थान, जो 30 मार्च 1949 को संवैधानिक रूप से गठित हुआ. राजस्थान की आकृति पतंगाकार है. इसके उत्तर में पाकिस्तान , पंजाब और हरियाणा , दक्षिण में मध्यप्रदेश और गुजरात , पूर्व में उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश एवं पश्चिम में पाकिस्तान हैं. सिरोही से अलवर जाती हुई अरावली-पर्वत-श्रृंखला राज्य  को दो भागों में विभाजित करती है.  राजस्थान का...